भगवान की भूल - 8 Pradeep Shrivastava द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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भगवान की भूल - 8

भगवान की भूल

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग-8

एक बार फिर भाद्रपद महीना पितृपक्ष ले कर आ गया। माता-पिता को श्राद्ध देने पिंडदान देने का वक्त। मैं हर साल यह सब पहली बार की तरह करती आ रही थी। हर बार वही रस्म निभाती थी। लेकिन मैं यह सब रस्म समझ कर नहीं, इस यकीन के साथ करती थी कि भगवान की भूल को इस पृथ्वी पर लाने वाले मेरे पूज्य माता-पिता को यह सब मिलता होगा। वह ऊपर से देख रहे होंगे कि उनकी तनु किसी की मोहताज नहीं है।

बौनी है, मगर उसके इरादे और काम बहुत ऊंचे हैं। और ऊंचे होते जाएंगे। वह किसी के बताए रास्ते पर नहीं अपने बनाए रास्ते पर ही चल रही है, चलती रहेगी। भले ही पौराणिक आख्यान श्राद्ध के लिए पुत्र का होना अनिवार्य मानते हों लेकिन यह जरूरी तो नहीं। आखिर पुत्री भी तो उसी मां-बाप की संतान है। अगर पुत्र के लिए पितृ ऋण, देव ऋण, ऋषि ऋण हैं तो यह पुत्री के लिए क्यों नहीं हो सकते। मां-बाप उसे भी तो जन्म देते हैं। वह भी तो माता-पिता की संतान है। वह भी तो इसी ब्रह्मांड में है। उसी ब्रह्मांड रचयिता की व्यवस्था का हिस्सा है जिसमें पुत्र है। और यह पौराणिक धर्म ग्रन्थ भी तो मां-बाप की पूजा को सबसे बड़ी पूजा मानते हैं। यह सबसे बड़ी पूजा पुत्री क्यों नहीं कर सकती।

मैं यह पूजा करके अपने मां-बाप के ऋण से उऋण होने का अधिकार ठीक वैसे ही रखती हूं जैसे पुत्र रखते हैं। इसलिए मैं किसी सूरत में यह करती रहूंगी। मेरे काम को हर साल पास-पड़ोस के लोग आश्चर्य से देखते थे। मैं मां-बाप के इस कष्ट का भी निवारण पूरी तरह करूंगी कि उनके पुत्र नहीं हैं। कौन उन्हें पिंडदान करेगा। कौन ‘गया’ जाएगा। पहला काम पिंडदान तो मैं करती आ रही अब ‘गया’ जाऊंगी इस बार। वहीं अपने मां-बाप का पिंड दान करूंगी ‘गया’ कर के आऊंगी। कहते हैं कि लड़कियां नहीं जातीं मगर मैं जाऊंगी। वहां पंडे-पुरोहितों ने अड़चन पैदा की तो खुद ही सब कुछ कर के आऊंगी। किताबें ला लाकर रट डालूंगी। वहां पिंड दान करने की सारी विधि जानकर और सारा सामान लेकर जाऊंगी।

बहुत सी जानकारी करने जानने-समझने के बाद जब मैंने यह बात ननकई से शेयर की जिन्हें अब मैं मौसी कहती थी तो उनका मुंह आश्चर्य से कुछ देर खुला रहा फिर बोलीं ‘अरे! लड़की जात इतनी दूर कैसे जाओगी।’ फिर उन्होंने वहां के पंडों, तमाम तरह की दुश्वारियों के वृतांत ऐसे बताया मानों सब उनका आंखों देखा हो। इस पर मैंने उन्हें समझाया देखो मौसी यूं तो कहीं भी पितृपक्ष में श्राद्ध करा जा सकता है। पौराणिक आख्यान इसकी महत्ता के वर्णन से भरे पड़े हैं।

‘गया’ में श्राद्ध की अहमियत का अंदाजा तुम इसी बात से लगा सकती हो कि यहां पितृपक्ष ही नहीं किसी भी समय श्राद्ध कर सकते हैं। कहते हैं कि भगवान राम ने भी अपने पिता राजा दशरथ का यहां पिंडदान किया था। फिर मैंने उन्हें यह सुना कर चकित कर दिया कि ‘गया सर्वकालेशु पिंडं दधाद्विपक्षणं।’ मगर मौसी तो मौसी, अड़ी रहीं तो मैंने कहा ‘देखो मौसी मैंने अब तक बहुत सी गलतियां की हैं बहुत से पाप किए है, मैं तर्पण करके उनसे मुक्ति पाना चाहती हूं। इसके लिए भी मैंने उन्हें यह श्लोक सुनाया कि ‘एकैकस्य तिलैर्मिश्रांस्त्रींस्त्रीन दद्याज्जलाज्जलीना। यावज्जीवकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति।’ मौसी को इसका अर्थ भी बता दिया कि जो भी अपने पितरों को तिल मिला कर जल की तीन-तीन अंजलियां प्रदान करते हैं उनके जन्म से लेकर तर्पण के दिन तक के पापों का नाश हो जाता है। अतः मौसी मैं यह सब अवश्य करूंगी।

सोचा कि मौसी बहुत परंपरावादी है। वेद-पुराणों की बातों को ब्रह्मवाक्य मानती हैं। उनको अगर इन ग्रंथों की बातें ही बताओ तभी मानेगी। यह सोच मैंने जो कुछ पढा था, सुना था वह मौसी को बताने लगी। कहा ‘देखो मौसी मैं नहीं कहती कि तुम मेरी किसी बात पर यकीन करो लेकिन तुम वेद-पुराणों की बात तो मानोगी।’ इस पर मौसी दोनों हाथ जोड़ती हुई बोलीं ‘अरे! मेरी बिटिया कैसी बात करती हो। भगवान की कहीं बातों पर संदेह करके नरक में जाना है क्या ? अरे! न जाने कौन सा अधर्म-पाप किए थे कि इस जन्म मैं इतना दुख झेल रहे हैं। अब जीवन में कभी चैन की सुख की एक सांस न मिलेगी।’ मैंने कहा ‘ऐसा क्यों कह रही हो मौसी।’ तो मौसी रो पड़ी। आंचल के कोर से आंसू पोंछते हुए बोलीं ‘अरे! बिटिया विधवा को जीवन में आंसू के सिवा कुछ नहीं दिया है प्रभू ने।’

मैं उनका दुख देख कर खुद भी भावुक हो गई। लेकिन जल्दी ही अपने को संभालते हुए कहा ‘मौसी प्रभु ने ऐसा नहीं किया है। बहुत सी परंपराएं और दुख तो हम अनजाने में खुद ही ढोते रहते हैं। किसी वेद-पुराण में नहीं लिखा है कि विधवा जीवन भर आंसू बहाए। यह तो समय-परिस्थितियों के साथ चीजें बदलती रहती हैं और रीति परंपराए बनती बिगड़ती हैं।

अब श्राद्ध को ही ले लो। आज कितने तरह के आडंबर किए जाते हैं। लेकिन जानती हो वेद-पुराणों, पुराने जमाने में ऐसा नहीं था। पुराणों के जमाने में नियम यह था कि उचित समय में शास्त्रों में दिए विधि-विधान के अनुसार इसके लिए जो भी मंत्र हैं उनको बोलते हुए दान दक्षिणा अपनी सामर्थ्य अनुसार दी जाए यही श्राद्ध है। लेकिन आजकल तो देख ही रही हो।

मौसी यह जानकर भी आश्चर्य करोगी कि आज यही समझा जाता है कि पितृपक्ष में ही श्राद्ध किया जाता है लेकिन ऐसा नहीं है। श्राद्ध तीन तरह से तीन अवसरों पर किया जाता है। पहला तो पितृपक्ष में है ही जिसे नित्य श्राद्ध कहते हैं। यह उसी तिथि को करते हैं जिस तिथि को व्यक्ति इस लोक को छोड़ परलोकवासी होता है। इसके अलावा मौसी किसी मनौती के पूरा होने के लिए भी श्राद्ध किया जाता है। इसको काम्य श्राद्ध कहते हैं। यह केवल रोहिणी नक्षत्र में ही किया जाता है। अब तुम्हीं बताओ पहले तुमने कभी सुना था कि मनौती पूरा करने के लिए भी श्राद्ध किया जाता है।

मौसी मेरी इस बात पर आश्चर्य मिश्रित भाव में बोली ‘मैं तो यह पहली बार सुन रही हूं।’ अपनी बात का अनूकुल प्रभाव पड़ते देख मैंने बात आगे बढ़ाते हुए कहा ‘मौसी इतना ही नहीं जब घर में खानदान में कोई शुभ काम होता है या पुत्र का जन्म होता है तो भी श्राद्ध करते हैं। इस तीसरे श्राद्ध को नैमित्तिक श्राद्ध कहते हैं। मगर आजकल इस तरह का श्राद्ध करते पाया है किसी को? असल में मौसी इंसान अपनी सुविधानुसार चीजों को बनाता बिगाड़ता है।’ मेरी बात पूरी होते ही मौसी अपने गांव के पंडित पर नाराजगी जाहिर करती हुई बोलीं ‘लेकिन बिटिया गांव मां पंडित जी ई सब कबहूँ नाहीं बताईंन।’ उनके संशय को और दूर करते हुए मैंने कहा ‘मौसी मैं यही तो बता रही हूं कि सब अपनी सुविधा, अपना फायदा देखते हैं।

श्राद्ध की सबसे बड़ी बात तुम यही समझ लो कि यह केवल तीन पीढ़ियों पिता, बाबा और परबाबा के लिए ही होता है। बाकी हमारे जितने भी पूर्वज उसके पहले के हैं उन सभी का प्रतिनिधित्व हमारे ये तीनों पूर्वज ही करते हैं। इसी कारण इन तीनों को ही पुराणों में बहुत महत्व दिया गया है। पिता को वसु, बाबा को रुद्र और परबाबा को आदित्य कहा गया है। यही तीनों हमारे श्राद्ध को बाकी सभी पितरों तक ले जाते हैं।’ मैं यह सब कहने के साथ सोच रही थी कि मौसी अब तक मेरी बात से सहमत हो गई होगी। लेकिन अगले ही पल उसने एक और यक्ष प्रश्न सामने रखा कि ‘बिटिया तुम कह तो सब ठीक रही हो लेकिन तुम ठहरी कुंवारी कन्या, तुम ‘गया’ करो यह ठीक नहीं लग रहा है। कुंवारी कन्या श्राद्ध करे यह कभी सुनाई नहीं दिया। वह भी ‘गया’ में।’

मैंने मौसी की इस बात से उत्पन्न अपनी खीझ को पहले अंदर जज्ब किया। बल्कि यह भी सोचा कि मौसी को कंविंस करना आसान नहीं है। पढ़ी भले ही कम हों लेकिन कढ़ी बहुत ज़्यादा हैं। मुझे शांत देख कर मौसी तुरंत बोलीं ‘बिटिया गुस्सा हो गई क्या ?’ माहौल गड़बड़ाए न यह सोच कर मैंने फट से कहा ‘मौसी तुम कैसी बात कर रही हो, मैं तुमसे नाराज कैसे हो सकती हूं। मैं तो यह बताने जा रही थी कि श्राद्ध केवल पिता अपने पुत्र के लिए नहीं करता, बड़ा भाई छोटे भाई के लिए नहीं कर सकता और पत्नी यदि निसंतान मरी है तो पति उसके लिए श्राद्ध नहीं कर सकता। लेकिन बाकी सभी कर सकते हैं।

कुंवारी कन्या भी कर सकती है। ‘गया’ भी जा सकती है। केवल दूसरे की जमीन, दूसरे के मकान में श्राद्ध कभी नहीं करना चाहिए। ‘गया’ सार्वजनिक स्थल है। ऐसी हर जगह श्राद्ध किया जा सकता है। यह बात पूरी करते हुए मेरे मन में यह बात भी पलभर को कौंधी कि अब मैं कुंवारी कहां अपना कुंवारापन तो कब का डिंपू को सौंप चुकी हूं।’ मौसी के चेहरे को देखकर मुझे लगा कि वह अभी असमंजस में है तो मैंने वह किताब खोल कर मौसी को उन पन्नों को पढ़ाया जिनमें मातामाह श्राद्ध का विस्तार से वर्णन किया गया था कि पुत्री अपने पिता और नाती अपने नाना का तर्पण कर सकती है।

किताब में लिखा देख कर मौसी का असमंजस काफी हद तक दूर हो गया। लगे हाथ मैंने वह लाइन भी पढ़ दी जिसमें अग्नि पुराण का उल्लेख करते हुए कहा गया था कि ‘गया’ में किसी भी दिन श्राद्ध किया जा सकता है। मौसी अंततः सहमत हो गई कि मैं ‘गया’ जा सकती हूं। इतनी बात कर मैं यह अच्छी तरह समझ गई थी कि मौसी उतनी नासमझ है नहीं जितना मैं उसे समझती हूं। बल्कि सही मायने में उसके सामने नासमझ तो मैं हूं। जो यह आज समझ पा रही हूं।

जबकि यह उसी दिन समझ लेना चाहिए था जिस दिन प्रदर्शनी में मेरा पेंसिल स्केच देखने के दो दिन बाद उसने यह प्रश्न पूछा था कि ‘बिटिया इन लोगों ने तुम्हारा ऐसा फोटू क्यों बनाया ? इनको शर्म नहीं आई तुम्हारी नंगी फोटू बनाते और तुमने मना क्यों नहीं किया ?’ मेरी इस बात पर भी तब उसने बहस की थी कि फोटो में केवल चेहरा मेरा है। बाकी तो उसने ऐसे ही कल्पना से बना दिया है। तब मौसी बड़ा साफ बोली थी कि लेकिन बिटिया दुनिया तो उसे तुम्हारा ही बदन मानेगी न। तुमको मना करना चाहिए।

मौसी की इन बातों से मुझे तभी उसकी समझ का लोहा मान लेना चाहिए था। जितनी तेजी से मेरे मन में यह बातें आईं उतनी तेजी से उन्हें किनारे करते हुए मैंने कहा ‘मौसी एक बढ़िया एस.यू.वी. टाइप टैक्सी किराए पर लेते हैं। तुम भी अपने बच्चों के साथ चलो। लगे हाथ तुम्हारा बेटा अपने पिता का ‘गया’ कर आएगा। ऐसा अवसर बार-बार नहीं आता। डिंपू को भी साथ ले चलेंगे।’

यह सब सुनने के काफी देर बाद आखिर वह तैयार हुई तो पैसे की दिक्कत आन पड़ी। मैंने क्योंकि कि यह तय कर लिया था कि हर हाल में जाऊंगी तो कहा कि पैसा मैं उधार दूंगी। क्योंकि यह तुम्हें अपने पैसों से करना है। इतना ही नहीं तुम सिर्फ़ इतना ही करोगी जितना वहां पंडों वगैरह को देना है। बाकी आना-जाना, खाना-पीना ठहरना यह सब मेरे खर्चे पर। इसके बाद मौसी के पास कोई रास्ता नहीं बचा तो वह तैयार हो गईं।

अब मैंने गाड़ी के लिए चित्रा आंटी से मदद मांगी। अंकल ने अपने प्रभाव से एक बड़ी गाड़ी नाम मात्र के किराए पर दिलवा दी। उनके सहयोग से खर्च आधा से भी ज़्यादा कम हो गया। मेरे इस निर्णय से वह भी आश्चर्य में थीं और उनका भी मन यही था कि न जाऊं। मगर मेरा निर्णय अटल था। मैंने डायरी में एक पूरा प्लान बनाया। ऑफ़िस में जानते हुए भी केवल हफ्ते भर की छुट्टी की अपलीकेशन दी। मौसी से भी यही कराया। मैंने सोचा आगे जैसा होगा फ़ोन पर बता देंगे। सारी तैयारियों के साथ पितृपक्ष के तीसरे ही दिन मौसी के परिवार, डिंपू के साथ ‘गया’ के लिए चल दी। चित्रा आंटी ने बड़ी आरामदायक नई एस.यू.वी. भेजी थी। ड्राइवर भी सीधा लग रहा था। निकलने से पहले मैंने उन्हें गाड़ी भेजने के लिए धन्यवाद दिया।

तब उन्होंने कहा ‘जहां भी रुकना फ़ोन करके बताती रहना। उनके इस व्यवहार से हम सभी बड़ा अच्छा महसूस कर रहे थे। लखनऊ से निकलने के बाद मैं वाराणसी पहुंची और रात सबने वहीं एक होटल में गुजारी। आंटी को जब बताया तो उन्होंने होटल के मैनेजर से अपने पति की बात करा दी। उसके बाद तो उसने हम सब का बहुत बढ़िया आदर-सत्कार किया। और चलते वक्त बिल में दस परसेंट कमी कर दी। बनारस की महिमा पापा से बहुत सुनी थी इसलिए एक दिन वहां रुकी और जितना घूम सकती थी घूमा। तभी यह भी मालूम हुआ कि यहीं वह पिशाच मोचन है जहां त्रिपिंडी श्राद्ध होता है खासतौर से उन लोगों के लिए जिनकी अकाल मृत्यु हुई होती है।

यहीं मैंने पितरों की प्रेत बाधाओं के बारे में जाना। यह भी कि यह प्रेत बाधाएं सात्विक, राजस, तामस तीन प्रकार की होती हैं। बनारस में और रुकने का तो मन था लेकिन मंजिल मेरी ‘गया’ थी तो अगले दिन ‘गया’ पहुंच गए। बनारस तक ठीक-ठाक पहुंची मौसी वहां से ‘गया’ पहुंचने तक रास्ते भर उल्टी करती गईं। ‘गया’ पहुंच कर सबने होटल में रात और अगला पूरा दिन आराम करके रास्ते की थकान उतारी। हालांकि मेरा मन दिन भर आराम करने का नहीं था। इस बीच मेरा ध्यान पैसे पर भी था जो मेरी उम्मीद से कहीं ज़्यादा तेजी से खत्म हो रहे थे। दूसरे दिन मैं ‘गया’ नगरी में अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए होटल से सबको लेकर सुबह ही चल दी। मुझे लग रहा था जैसे मैंने कुछ बहुत बड़ा काम कर लिया है। लेकिन कुछ ही घंटो में यह भाव तब तिरोहित गया जब पवित्र ‘फल्गु’ नदी के तट पर लोगों को असीम श्रद्धा, सादगी के साथ श्राद्ध करते देखा।

मन ठहर सा गया उस नदी के तट पर कि यही तो वह तट है जहां भगवान राम ने भी श्राद्ध किया था। और भगवान विष्णु ने गयासुर राक्षस को मार कर इस धरती को उसके पापों से मुक्ति दिलाई थी। तभी से इसका नाम ‘गया’ पड़ गया। मैं हर बाधा पार कर पहुंच गई ‘गया’ और मुझे वहां के दृश्य एक अलग ही अनुभव दे रहे थे। साथ ही यथार्थ से सही मायने में सामना भी शुरू हो गया। वहां एक के बाद एक दिक्कतें आनी शुरू हुईं। मेरी दिक्कतें हर इंसान से कई गुना ज्यादा थीं। क्योंकि एक तो लड़की, ऊपर से मिस्टेक ऑफ गॉड। मगर मैं अडिग थी।

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