Bhagwan ki Bhool - 5 books and stories free download online pdf in Hindi

भगवान की भूल - 5

भगवान की भूल

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग-5

चित्रा आंटी की ऑयल पेंटिंग अभी इतनी बनी ही नहीं है कि मुझे कोई पहचान सके। मिनिषा वाली मांग लूंगी। फाड़ दूंगी उसे। लेकिन अगले दिन मेरा निर्णय धरा का धरा रह गया। अगले दिन मां-बेटी ने मुझे समझा-बुझाकर फिर स्टूल के सहारे नग्न खड़ा कर दिया। और मैंने भी यह तय कर लिया कि यह काम पूरा करूंगी। चाहे जितना बड़ा पहाड़ टूट पड़े।

मिनिषा ने उस दिन दूसरे एंगिल से मेरा दूसरा स्केच बनाना शुरू कर दिया था। जिस दिन ऑयल पेंटिंग पूरी हुई उस दिन उसे देखकर मैं चित्रा आंटी की ऑर्ट के लिए यह कहे बिना न रह सकी कि ‘रियली आंटी आप ग्रेटेस्ट ऑर्टटिस्ट हैं।‘ उनका हाथ चूम लिया था मैंने। मगर मेरी सारी उम्मीदों, सपनों पर अगले कुछ ही महीनों में पानी फिर गया। नेट पर पेंटिंग्स डाली गर्इं। एक एग्जीबीशन में भी गर्इं। लेकिन छुट-पुट सराहना के सिवा कुछ न मिला। संतोष करने भर को एक पेंटिंग बिकी। यानी न नाम न दाम। फिर आंटी ने मेरी न्यूड पेंटिंग की पूरी एक सीरीज बनाने को बोला जिसे मैंने मना कर दिया। और सीखना भी बंद कर दिया।

घर पर ही जो प्रैक्टिस हो पाती वह करती। इस बीच मां-पापा मेरी शादी को लेकर परेशान हो उठे। मेरे जैसा कोई बौना ढूढ़ने लगे। मैं यह जानकर सोच कर ही परेशान हो उठी कि क्या फायदा ऐसी शादी का? लोगों के बीच जोकर, हंसी का पात्र बनने का, बौनों की एक और पीढ़ी पैदा करने का। मैं जब-जब अपनी शादी के लिए मना करती मां-पापा दोनों नाराज हो जाते। जैसे-जैसे वक्त बीतता गया वैसे-वैसे दोनों की चिंताएं बढ़ती गर्इं। पापा की शराब भी बढ़ती जा रही थी। और साथ ही सेहत भी बिगड़ती जा रही थी। और घर की कलह भी।

इस बीच मैं अपनी योजनानुसार अपने पैरों पर खड़े होने की पुरजोर कोशिश करती रही। मन में यह भी था कि जिस दिन नौकरी मिल जाएगी। मां-बाप से साफ कह दूंगी कि शादी करनी ही नहीं। इस बीच मैं जहां जाती और जब लौटती घर तो कई तरह के ताने अपमान जनक बातें, लोगों की हंसी-ठिठोली लेकर लौटती। दुख तब और होता जब यह सब करने वाली महिलाएं, लड़कियां ही ज़्यादा होतीं। मैं अपने कपड़ों को लेकर हमेशा तकलीफ में रहती। नाप का कुछ मिलता नहीं। बुटीक ढूढ़ती कि महिलाएं ही मिलें। मगर वहां भी उन महिलाओं की दबी हंसी मुझसे छिपी न रहती। क्रोध से भर उठती। मन करता सबकी टांगें काट-काट कर अपने से छोटा कर दूं। सब को महा बौना-बौनी बना दूं। मगर घर आते-आते मन रो पड़ता। मां-बाप परेशान न हों इसलिए अकेले ही रो लेती, आंसू बहा लेती।

मां-पापा की हताशा-निराशा देखकर मैं और टूटती। पापा तोे एकदम बदल गए। पहले जहां मुझे एक सेकेंड भी अकेले बाहर नहीं छोड़ना चाहते थे। वही अब घंटों देर हो जाने के बाद भी कुछ न कहते। फिर वह दौर भी शुरू हुआ जब मां-पापा दोनों ही ज़्यादा बीमार रहने लगे। पहले पापा को मां साथ लेकर जाती थीं हॉस्पिटल। लेकिन उनकी भी तबियत ज़्यादा खराब रहने लगी तो डिंपू को ड्राइवर रख लिया गया। फिर देखते-देखते ही वह ड्राइवर से घर का सहयोगी भी बन गया।

जल्दी ही पापा इतने गंभीर हो गए कि चलना-फिरना भी मुश्किल हो गया।

डिंपू ही उन्हें लेकर जाता। अंततः डॉक्टरों ने एक दिन यह कह दिया कि पापा अब कुछ ही दिनों के मेहमान हैं। लीवर पूरी तरह डैमेज हो चुका है। पापा उस दिन अपनी निश्चित मौत करीब देख कर रो पड़े थे। उन्होंने तमाम बातों के साथ-साथ मां से यह बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा था कि ‘देखो मेरे बाद जब तुम्हें नौकरी मिल जाए तो तुम ऑफ़िस में मेरी इज़्जत बनाए रखना। किसी साले से बात नहीं करना। सब साले बस औरत को नोचने में लगे रहते हैं। जो सबसे ज़्यादा हितैषी बनने लगे समझ लेना वह तुम्हारे शरीर को भोगने के लिए पगलाया है।’

मां ने जब कहा कि ‘क्यों ऐसा कुभाख रहे हैं। अरे पचास की हो रही हूं, इस उमर में कोई क्यों मेरे पीछे पडे़गा।’ तब पापा की बात सुनकर मैं सहम गई कि ‘तुम नहीं जानती, साले उम्र नहीं देखते उनको केवल औरत का बदन दिखता है, साले औरत को माल कहते हैं। बोलते हैं जब तक हर तरह के माल का टेस्ट न करो तब तक मजा नहीं आता।’ पापा इसके बाद बमुश्किल डेढ़ माह ही जिंदा रहे। लेकिन इस डेढ़ माह में भी वह उठना-बैठना मुश्किल होने के बावजूद अपने भरसक ऑफ़िस के एक-एक आदमी की करतूत बता-बता कर कहते ‘इस हरामी से दूर रहना।’

कई औरतों की हरकतें बताते हुए कहते कि ‘उनसे भी दूर रहना। साली कई मर्दों को फांसे रहती हैं। बाकी औरतों को भी फंसाती हैं, जिससे उन पर कोई उंगली न उठाए।’ फिर वह दिन भी आया जब उन्होंने यह भी कह दिया कि उन्हें मुखाग्नि भी मां ही देंगी। इसके अड़तालीस घंटे बाद ही चल बसे। मैंने डिंपू की मदद से आरंभ से लेकर श्मशान तक की तैयारी की। दो-तीन पड़ोसियों ने भी मदद की। मां की बदहवाशी ऐसी थी, बार-बार इतना बेहोश हो रही थीं कि कुछ कर ही नहीं सकती थीं। पापा की इच्छा के चलते उन्हें श्मशान ले गए और मां ने उनकी अंतिम इच्छा पूरी की। हालांकि तब भी पूरी तरह होश में न थीं।

पापा के जाते ही मां की डायबिटीज, ब्लडप्रेशर ने जो एक बार बढ़ना शुरू किया तो फिर रुकने का नाम ही नहीं लिया। मैं अकेली या ये कहें कि घर में अकेली मात्र तीन साल की बच्ची। मां को चाय-पानी, खाना आदि देना मेरे लिए उतना ही कठिन था जितना तीन चार साल के बच्चे के लिए हो सकता था। किचेन में मेरी ऊपर तक पहुंच नहीं थी तो मैं कुर्सी लगाकर ऊपर प्लेटफॉर्म पर बैठकर ही सब तैयार करती। लेकिन उसे लेकर उतरना मुश्किल था तो एक थोड़े छोटे स्टूल पर चीजें नीचे रखती फिर कुर्सी पर रखती और तब मां तक पहुंचती। यह मेरे लिए बिना सीढ़ी के छत पर चढ़ने-उतरने जैसा था। सो दो दिन बाद ही मैंने गैस चुल्हा और सारा सामान डिंपू की मदद से नीचे जमीन पर रख लिया। बेड सहित और कई स्थानों पर आसानी से पहुंचने के लिए एक फुट और दो फुट ऊंची चौकियां बनवा लीं। यहां तक की बाथरूम के लिए भी।

मैं जितना स्थितियों को संभालने की कोशिश करती मां की तबियत उतनी ही खराब होकर सब पर पानी फेर देती थी। और पापा की जगह मां की नौकरी की बात रोज जहां से शुरू होती वहीं पर खत्म होती। ऑफ़िस के लोगों का आना-जाना बना हुआ था। मैं सब की आंखों में पापा की कही बातों को ही ढूढ़ती और कईयों की आंखों में पापा की बातों को पाती भी। नतीजा यह हुआ कि मैं सिन्हा आंटी, उप्रेती अंकल और ननकई इन सब को छोड़ कर सब से नफरत करने लगी। मां की जर्जर शारीरिक हालत और मानसिक हालत को देखकर ही सिन्हा आंटी ने मां की जगह मुझे नौकरी करने की सलाह दी। अपनी बातों से उन्होंने क्षण भर में ही मुझे कंविंस कर लिया। फिर खुद ही सारी दौड़ धूप कर करके मुझे नौकरी दिला दी और ऑफ़िस में मेरी सुरक्षा घेरा बन गईं। उनके तेज़ तर्रार रुख। शेरनी सी दहाड़ से ऑफ़िस में हर कोई डरता था। हर कोई उनसे कतरा कर चलता था। ननकई भी उनके संरक्षण में थी। वह बेचारी किस्मत की मारी अपने क्लर्क पति की दुर्घटना में मौत के बाद चपरासी की जगह नौकरी करती थी। उप्रेती अंकल और दयाल अंकल भी इन्हीं लोगों की तरह अच्छे इंसान थे। लफंगों को दबाए रहते थे। नौकरी से एक फायदा ज़रूर हुआ कि आर्थिक स्थित जो कमजोर होती जा रही थी वह संभल गई।

ऑफ़िस जाने के साथ-साथ नई समस्याएं भी सामने आती गईं। डिंपू जो अब घर पर ही एक कमरे में रहने लगा था। उस पर मुझे पैसे रुपए सामान को लेकर शक हुआ। तो एक दिन सारा जरूरी सामान एक कमरे में बंद कर ताला लगाकर ऑफ़िस जाना शुरू किया। मां की देख भाल भी होती रहे इसके लिए डिंपू मुझे ऑफ़िस छोड़ कर चला आता था। दिन भर फ़ोन कर-कर के मां का हाल-चाल लेती रहती। मगर मेरी हर कोशिश पर भगवान जैसे पानी फेरने पर लगा हुआ था। सारी दवा-दारू, डॉक्टरों की सारी कोशिश सब बेकार रही। मां की तबियत तेज़ी से गुजरते वक़्त की तरह बिगड़ती रही। फिर एक दिन मां भी पापा की तरह मुझे अकेली छोड़कर चल दीं।’

डिंपू तीन बजे ऑफ़िस आकर बोला था तुरंत चलिए, अम्मा की तबीयत बहुत खराब है। उसके उड़े हुए चेहरे से भी मैं अंदाजा न लगा पाई थी कि मां भी छोड़कर जा चुकी हैं। मैं घर पहुंची तो तीन चार पड़ोसियों को देखकर सकते में आ गई। इतना ही नहीं उप्रेती अंकल, सिन्हा आंटी, ननकई सहित कई और लोग भी मेरे पीछे-पीछे घर आ गए थे। तय था कि डिंपू ने ऑफ़िस वालों को मुझसे छिपा कर बता दिया था। मुझे बुलाने जाने से पहले पास पड़ोसियों को बुला कर छोड़ गया था।

अपने बौनेपन का सबसे ज़्यादा अहसास मुझे उसी दिन हुआ। मां बेड पर पड़ी हुई थीं, डिंपू उन्हें चादर ओढ़ा कर गया था। मैं ठीक से उन्हें अपनी बांहों में भर कर रो भी न पा रही थी। आश्चर्यजनक रूप से ऑफ़िस और पड़ोसियों से घर भर गया था। सिन्हा आंटी, ननकई, पड़ोसी, उप्रेती अंकल सबने मुझे संभाला। और कहा कि यदि बाहर से किसी को आना है तब तो इंतजार किया जाए नहीं तो आज ही संस्कार कर दिया जाए। मैं किसी को क्या बताती कि दुनिया में दो ही थे अपने और अब दोनों ही छोड़कर चले गए ऊपर। यूं तो दर्जनों का परिवार है लेकिन बिना बात की बात पर ही सारे रिश्ते बरसों बरस पहले, मेरे जन्म से पहले ही खत्म हो गए।

उन रिश्तेदारों में नाना-नानी, बाबा-दादी को छोड़ कर मामा, मौसी, चाचा-चाची, चचेरे, ममेरे भाई-बहन सभी तो हैं मेरे इस दुनिया में, लेकिन न उन सब ने और न ही मैंने किसी को देखा है। तो आखिर किसका इंतजार। पापा ने ऐसा कुछ छोड़ा ही नहीं था जो किसी का इंतजार किया जाता। तो दिल पर पत्थर रख कर लोगों से कह दिया कि संतान, नाते-रिश्तेदार जो कुछ हूं मैं ही हूं और मैं उपस्थित हूं, इसलिए संस्कार आज ही होना है। मैं सारे पड़ोसियों, ऑफ़िस के सारे लोगों और खासतौर से डिंपू की उस दिन के लिए आज भी आभारी हूं। देखते-देखते सारी तैयारियां हो गईं। सबके बीच खुस-फुसाहट मैंने साफ सुनी थी कि अग्नि कौन देगा। मैं स्वयं सारा काम करूंगी यह जान कर कई लोगों के चेहरे पर आश्चर्य भी देखा था।

यही हाल श्मशान पर भी था। जहां पर मेरे साथ डिंपू, पड़ोसी, ऑफ़िस के मिलाकर यही कोई नौ-दस लोग थे। शवदाह के लिए वहां आठ या नौ प्लेटफॉर्म बने थे। वहीं पर मां की चिता तैयार हुई। पूरे रस्मों रिवाज के साथ मां को अंतिम विदाई दी। वापस आ कर देखा तो घर पर सिन्हा आंटी , उनके पति, उप्रेती अंकल के अलावा सभी जा चुके थे। मैं यह सब देख कर संज्ञा शून्य सी, मशीन सी बन गई थी। घर का कोना-कोना मुझे काटने को दौड़ रहा था।

डिंपू बिना कुछ कहे ही काम-धाम में ऐसे लगा हुआ था कि मानो यह उसी का घर हो। कुछ ही देर में पड़ोसी जायसवाल आंटी चाय, पूड़ी-सब्जी आदि लेकर आ गईं। सबने कोशिश की कि मैं कुछ खा लूं लेकिन मेरी हलक से नीचे आधी कप चाय के सिवा कुछ नहीं उतरा। रात दस बजे तक सब समझा-बुझा कर ढांढस बंधाकर कर चले गए। जरूरत पड़ने पर तुरंत फ़ोन करने की बात कहना कोई न भूला। पूरी रात मुझे नींद न आई।

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