मुख़बिर - 17 राज बोहरे द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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मुख़बिर - 17

मुख़बिर

राजनारायण बोहरे

(17)

हिकमत

कृपाराम ने इस तरह किस्सा शुरू किया मानो वह किसी और की कहानी सुना रहा हो....

कृपाराम एक सीधासादा और मेहनती चरवाहा था । बचपन से ही तेज अक्कल वाला था, लेकिन गांव में स्कूल न था सो बचपन में पढ़-लिख न सका । पिता ने जैसे-तैसे करके बचपन में ही विवाह कर दिया था और घर में दो बच्चा खेल रहे थे तब कृपाराम के।

अपने पिता गंगा घोसी के साथ कृपाराम दिन भर अपने ढोर-बखेरू चराता रहता । शाम को कारसदेव के चबूतरे पर ढांक बजाता, ग्वालों के देवता कारसदेव की प्रशंसा में उनके प्रिय स्तुतिगीत गोटें गाता। उस समय कृपाराम की उमर थी चालीस साल, उससे छोटे तीन भाई थे- श्यामबाबू, अजयराम और कालीचरण । तीनों तीस साल से ऊपर के हो चुके थे । न ब्याह हुआ था, न सगाई । दिन भर गांव में मटरगश्ती करते घूमते तो गांव के तमाम बुजुर्गो की नजर में खटकते ।

वे रोज नई हरकत कर डालते ।...... कभी किसी की खड़ी फसल में अपनी भैंसे चराने छोड़ देते तो कभी....... दूसरे के खेत को जा रहा नहर का पानी अपने खेत तरफ मोड़ लेते । वे कभी....... किसी सरकारी अहलकार पर बिना बात हाथ उठा देते तो कभी....... किसी पड़ौसी का मुर्गा चुराकर खा जाते । लड़कियों को छेड़ने और अकेली-दुकेली काम करती औरतों से चिपटने के तो कई किस्से कर डाले थे उनने ।

रोज कहीं न कहीं अरे-टण्टे कर आते, और शाम को गंगा घोसी के पास कहलान आ जाती । घोसियों में एक कहावत बहुत प्रचलित है- खुंश की मुंश दोहनिया पे दे मारी । उनके घर रोज यही होता, बच्चों के ब्याह न होने से समाज से खफा होकर बैठे गंगा घोसी न उमर देखते न शरीर, रोज ही डंडा उठाते और अपने जवान बेटों की पिटाई पर पिल बैठते।

बेटों के मन में धीरे-धीरे अपने बाप के खिलाफ गुस्सा जमने लगा, लेकिन बदन से हट्टे-कट्टे अपने बड़े भाई कृपाराम से वे तीनों डरते थे, सो बाप के खिलाफ एक शब्द भी न बोल पाते थे, चुपचाप मार सहते रहते थे।

बाप ओैर मताई रोज अपने निठल्ले बेटों को गरियाते कि कैसे बेशर्म हैं अपने बाप की कमाई खाते-खाते गर्रा रहे हैं, खुद कुछ नहीं करते ।

लेकिन गांव में काम ही कहां धरा था ! होने को शहर में काम की कमी न थी लेकिन शहर जायें तो किसके दम पर ? फिर ऐसे अरजेंटा लड़कों को किस भरोसे गंगा घोसी गांव से बाहर भेजते !

सरपंची का चुनाव आया ।

हर बार की तरह हिकमतसिंह चुनाव मैदान में था ।

हिकमतसिंह के खिलाफ गांव का कौन आदमी खड़ा हो सकता था भला ! लेकिन एकाएक गांव में हौर मच गया.......कि बीस साल से निर्विरोध सरपंच बनते आ रहे हिकमतसिंह के खिलाफ गांव के ही संुदर ठेकेदार ने इस साल के सरपंची चुनाव में परचा भर दिया है..........कि गंगा घोसी के तीनों छोटे लड़के इन दिनों उसके बॉडीगार्ड बनके उसके साथ भाग-दौड़ कर रहे है........कि शहर से पचास गुंण्डे भी साथ ले कर आया है सुंदर ठेकेदार ..........कि हर बार की तरह एक तरफा वोटिंग नहीं हो पायेगी इस बार............ कि अब हिकमतसिंह के दिन लद गये .......किइस बार हिकमत की हिकमत नही ंचलपाऐगी... और भी बहुत कुछ ऐसी ही बातें, जिनसे गांव में आग सुलग सकती थी ।

और सचमुच संवर्ण पट्टी में आग लग गई थी ।

चुनाव वाले दिन पंचायत के तीन गांव के तीनों मतदान केन्द्रों को सुदरसिंह ने अपने कब्जे में लेकर वोट डालने आये सारे वोटर भगा दिये और अपने पक्ष में वोट डलवाना शुरू किया, तो हिकमतसिंह भला कहां से चुप रहता, उसने कलेक्टर और एसपी को सीधा फोन मिलाया और राजधानी तक के अफसरों को फोन खटखटाना शुरू कर दिया । सांझ होते-होते उस पंचायत का चुनाव रद्द हो गया ।

अगले दिन कलेक्टर और एसपी उस पंचायत के तीनों गांवों में खुद आये । उनके सामने हिकमतसिंह की तरफ से दर्जनों गवाह तैयार थे, उनने भी वही कहा जो हिकमतसिंह कह रहा था । शाम तक वूथ कैप्चर करने वालों के खिलाफ बाकायदा पुलिस रपट दर्ज करा दी गयी ।

फिर क्या था ! हिकमतसिह की बन आई ।

उसने साम-दाम-दण्ड-भेद चारों नीतियों को अपना कर पुलिस के नीचे के अफसर-अहलकारों को हाथ में ले लिया और चुनाव कार्य में दखल देने के मामले को इतना उछाला कि सुंदरसिंह समेत उसके सारे समर्थक सीखचों के अंदर पहुंचा दिये गये । श्यामबाबू, अजयराम और कालीचरण तो गिरफ्तार हुये ही निरपराध कृपाराम भी नहीं छोड़ा गया। हिकमतसिंह के कहने पर पुलिस दरोगा ने उस रात उन चारों को इतना मारा कि तीन-चार दिन बाद जब वे लोग घर लौटे तो उनका अंग-अंग कुचला जा चुका था।

श्यामबाबू के मन में लगी आग मंदी नहीं हो रही थी और उसको बड़ी बैचेनी हो रही थी । वह हिकमतसिंह के खिलाफ सीधा अटैक करना चाहता था ।

उसकी इसी इच्छा ने सारा काम बिगाड़ दिया ।

हुआ ये कि हिकमतसिंह की सबसे छोटी बेटी संतों सावन के महीने में गौने के बाद पहली बार गांव लौटी थी और गांव की दूसरी नयी ब्याही लड़कियों की तरह गहनों-जेवरों और नये कपड़ों में सजी-धजी रूनझुन करती अपनी सखी-सहेलियों से मिलती-भेंट करती फिर रही थी ।

एक सांझ गांव की गली में वह अनायास ही श्यामबाबू के सामने आ गयी तोे उसका माथा ठनक उठा । अठारह-उन्नीस साल की उफनाती उमर, ऊपर से नये ब्याह के कारण बदन में पैदा हुई लुनाई ने संतो की देह को ऐसी उत्तेजक बना दिया था कि देखने वाला अपना नियंत्रण खो बैठे । संतो की कसमसाती देह देख कर श्यामबाबू का भी मन अकुला उठा और धनुष की प्रत्यंचा सा तन गया उसका शरीर विद्रोह के लिये व्याकुल हो उठा ।

वह उस क्षण से ही कुछ कर गुजरने की सोचने लगा ।

अगले दिन उसे मौका मिल गया ।

संतो उस वक्त अपनी एक सहेली के साथ गांव के बाहर मौजूद अपने बगीचे पर जा रही थी कि अमराई में छिपा श्यामबाबू अचानक ही प्रकट हुआ और उसने संतो को अपनी बांहों मेे जकड़ लिया । संतो की सहेली तो सिर पर पैर रखके भाग निकली वहां से । अकेली रह गई संतो यह देख कर अधमरी सी हो गई । फिर भी उसने श्यामबाबू से छूट कर भागने का प्रयास किया । एक बार तो लगा कि वह उससे आजाद हो गई है और वहां से आसानी से भाग लेगी । लेकिन लंब-तड़ंग श्यामबाबू ने फुर्ती दिखा कर संतो की साड़ी का एक कोना अपनी बलशाली मुटठी में जकड़ लिया । भागने का प्रयास करती संतो के बदन से साड़ी खिंचती चली गयी और कुछ देर बाद वह अधनंगी होकर असहाय सी वहां खड़ी रह गयी थी ।

श्यामबाबू के अनियंत्रित हाथ संतो के बदन पर हड़बड़ी से फिसलना आरभ हुये तो घबराई हुयी संतो निढाल हो गई थी ।

उधर श्यामबाबू संतो को निर्वस्त्र करने का प्रयास करते करते खुद ही ढेर हो गया था । बरसों का तरसता बदन आखिर कितना धैर्य रख सकता था ! लेकिन श्यामबाबू को अपनी इस नाकामयाबी का कोई गम न हुआ, वह तो सिर्फ संतो को बदनाम करना चाहता था । इस घटना के बाद उसका उद्देश्य हल होता नजर आ रहा था । वह तुरंत ही वहां से रफूचक्कर हो गया, तो डरी-सहमी संतो ने जैसे-तैसे अपने कपड़े व्यवस्थित किये और वापस चल दी थी ।

घर लौट कर संतो ने अपनी मां को सारा किस्सा सुनाया तो मां ने दांत तले उंगली दबा ली-बाप का बदला बेटी से लेने का यह तरीका अब तक इस गांव में प्रचलित नहीं था, श्यामबाबू ने ये क्या किया !

ठकुराइन ने अपनी बेटी को उसके सुूहाग की सौगंध देकर इस बात के लिए मजबूर किया कि यह बात वह किसी को नहीं बताएगी । संतो सहमत हो गई, लेकिन मां और बेटी दोनों के मन पर बड़ा वजन टंग गया था ।

लेकिन अंततः हिकमतसिंह को जाने कैसे यह बात पता चल ही गयी । घर लौटकर उसने अपनी पत्नी को इतनी बडी अनहोनी छिपा लेने के लिए बुरी तरह डांटा, और एक दो लप्पड़ भी मार दिये ।

आंसू गिराती ठकुराइन ने अपने पति को कुल-खानदान की इज्जत का वास्ता दे कर उससे ष्ष्यामबाबू के खिलाफ कुछ न करने का आग्रह किया । तब हिकमतसिंह चुप रह गया लेकिन झल्लाहट में उसने घड़ांेची में रखे सारे घड़े फोड़ डाले ।

फिर भी ठाकुर का मन ज्यादा दिन धैर्य न रख सका । अंततः हफ्ते भर बाद उसने अपने लठैतों से गंगा घोसी समेत उसके चारों बेटों को अपने घर बंधबा कर मंगा लिया था ।

वो पूरी रात उन पांचों की पिटाई होते बीती । तमाशा देखने के लिए गांव के भगोना पंडित से लेकर तमाम वे लोग मौजूद थे जो हिकमत के कहने पर अपनी धोती की कांच तक खोलने को तैयार रहते थे । संतों के छेड़ने के बाद से उन सबको अपनी बहू बेटी की इज़्ज़त खतरे में नजर आने लगी होगी शायद ।

ठाकुर ने अपने हाथों श्यामबाबू के बदन में कमर के नीचे लोहांगी से ऐसे-ऐसे ठूंसा मारे कि वह जिंदगी भर किसी बहू-बेटी की तरफ आंख उठा कर न देख सके । यही हाल कृपा, अजय और कालीचरण का हुआ।

घर लौटे तो गंगा घोसी के चारों के चारों बेटे नामर्द हो चुके थे । उन चारों का बदन अनगिनत चोटों और फै्रक्चरों से भरा हुआ था । विरादरी वालों के साथ वे थाने में रपट दर्ज़ करने गये तो हिकमतसिंह के जरखरीद गुलाम दरोगा ने उनकी न सुनी और वे निराश होकर घर लौट आये ।

पूरे दस दिन की तीमारदारी के बाद जाकर वे लोग इस लायक हुए कि चल-फिर सकें । वे लोग उसी दिन गांव से भाग निकले । घर में सिर्फ कृपाराम की पत्नी और बूढ़े मां-बाप रह गये ।

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