मुख़बिर - 14 राज बोहरे द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मुख़बिर - 14

मुख़बिर

राजनारायण बोहरे

(14)

लट्ठ

रामकरन बोला-

मै एक सहकारी बैंक में चपरासी हूं, कहने को जाति का बानिया हॅू लेकिन मेरे पास न तो पूंजी है, न मेरे बाप-दादो ने कभी व्यापार किया सो मैं बंज-व्यापार की कोई बात नहीं जानता, बस नौकरी कर सकता हूं। आप लोग षायद जानते होंगे कि सहकारी बैक का कामकाज प्राइवेट संस्थाओं की तरह चलता है, न कोई टाइम टेबिल न कोई कायदा-कानून । वहां अध्यक्ष सबका मालिक है । वही सबका माई बाप है और वही बैंक का सबसे बड़ा अफसर । वो जो कह दे वही कायदा, वही नियम । वो पुरानी कहावत है न -राजा बोले सो कानून ! हमारे यहां यह बात अध्यक्ष के लिए बोली जाती है । सो हर आदमी अध्यक्ष की सेवा करने में ही अपना धर्म समझता है ।

मै पिछले पांच साल से नौकरी कर रहा हूं और अब भी टैम्पररी नौकरी है मेरी । गांव का रहने वाला और गांव वीरपुरा की बैक षाखा में ही तबादला करा लिया है मैंने, इसलिए नये अध्यक्ष को मै षकल सूरत से ही नही पहचानता.....और बेटीचा, े कहां तक इन सबकी सूरतें याद करो, हर दो साल में सरकार अध्यक्ष बदलती रहती है कि जा बेटा अब तू खा-कमा ले । सहकारी बैंकों में न कभी चुनाव होते न वे चुने जाते, सो हम लोग ध्यान ही नहीं रख पाते कि अब को अध्यक्ष बन गया !

अभी पिछले साल की बात है.........मै अपनी ससुराल गया था । मेरे ससुर अपने गांव के सरपंच है, लेकिन चपरासी हो या कलेक्टर, दमाद तो दमाद होता है । मैं पहंुचा तो मेरी खूब आवभगत हुई । एक दिन को गया था, सलहजों ने दो दिन के लिए रोक लिया........अच्छा होता कि मै पहले ही दिन लौट आता । हुआ ये कि अगले दिन जीप लेकर गांव में एक नेताजी पधारे और सरपंच होने के नाते सीधे मेरे ससुर के पास हाजिर हुए । मैने देखा कि या तो वे नेताजी नये थे सो षहर के बड़े नेताओं की तरह भकभकाते खद्दर के कपड़े नहीं पहनते थे या फिर वे साफ देहाती आदमी थे, सो उनका रहन-सहन बिलकुल सीधा-सादा था-मोटे कपड़ा की घुटन्ना धोती और वैसा ही कुरता ।

अपनी पंचायत में मेरे ससुर का अच्छा परपराटा था, सो जो भी आता उन्हे जरूर पूछता । उन नेताजी ने तो ससुर साहब के पांव छुए । उसी वक्त ससुर साहब ने उन नेताजी को मेरा परिचय दिया-’’ जि हमाये दमाद है वीरपुरा वाले ।‘‘

दमाद सुना तो नेताजी बैठते बैठते रूक गये और जब तक मै कुछ समझता, उनने लपककर मेरे भी पैर छू लिये । मै षर्मिन्दा सा खड़ा रह गया था, क्योंकि मेरे मन में हमेषा खुद के छोटा होने का भाव बना रहता था-पता नहीं नेताजी कौन है ! बिना जाने-पहचाने मेरे पांव छू लिए इनने ।

मेरे संकोच को भांपते हुए ससुर साहब बोले-‘‘ इनते पांव छुआ के तुम काहेे सकुच गये लला ! जि तो हमाये छोटे भैया जैसे है !‘‘

आज सोचता कि काष मैं उस वक्त उनका परिचय पूछ लेता ! लेकिन मेरा संकोच मुझे ले डूबा ।

हुआ ये कि जब घर लौट कर अगले दिन मै बैक पहुंचा तो मैने अपने बैंक के सामने एक जीप खड़ी देखी । भीतर जाने पर पता लगा कि बैंक के नये अध्यक्ष निरपतसिंह हमारी षाखा का मुआयना करने आये है, और मैनेजर के कमरे में बैठे हैं ।

सहसा मैनेजर कमरे से बाहर आये और मुझे पानी लेकर भीतर आने को कहा । मैने सहज भाव से पानी के गिलास भरे और टे में रखकर भीतर पहुंचा । परदे को हटा कर मैने कुर्सी पर आसीन व्यक्ति को झुककर नमस्कार किया और जब उनसे नजरें मिली तो मै सन्न रह गया । मुझे काटो तो खून नहीं । वे तो कल वाले नेताजी ही थे । मै काठ की तरह खड़ा रहा, मैनेजर ने टोका तो किसी तरह आगे वढ़ा । नेताजी के सामने पानी का गिलास उठा कर रखा । दुबारा उन्हे देखा तो पाया कि वे इस वक्त मुझे ऐसे घूर रहे है मानो कच्चा ही चबा जायेंगे ।

उनकी नजरों को अनदेखा करते हुए मै बाहर चला आया ।

जो कुछ हुआ था वह न मैनेजर जान सका न कोई दूसरा आदमी-सिर्फ मै जानता था और वे नेताजी, जो अभी महीने भर पहले हमारे अध्यक्ष नियुक्त किये गये थे ।

.......बात को काहे को चबा-चबा के बोलूं, सौ बातों की एक बात ये है कि अध्यक्ष जिस दिन जिला मुकाम पर लौटे, सबसे पहले उनने मेरे तबादले का हुकम निकाल डाला । मैं हैरान और परेषान हो उठा ।

मै दौड़ा-दौड़ा अपने ससुर के पास गया, और जब उनने अपने उस कथित छोटे भाइै निरपतसिंह की करतूत सुनी तो वे आग बबूला हो उठे थे । वे तुरत-फुरत जिला मुकाम पर जा पहुंचे और ज्योंही निरपतसिंह से उनकी भेंट हुई, उनने वे धरउल गालियां निरपतसिंह को सुनाईं कि लोग अवाक खड़े सुनते रहे । पहले तो निरपतसिंह चुप रहा फिर जाने क्या सोच कर उसने भी मेरे ससुर को खूब जवाब दिये । दोनों ने अपने-अपने मन की भड़ास निकाली और सार ये निकला कि मेरा तबादला फिलहाल रूक गया । लेकिन मुझे लगने लगा था कि अब मेरी खैर नही, आयंदा यह आदमी मुझे बात बेबात परेषान करेगा ।

और वही हुआ । पिछले साल एक किसान टेकटर के लिए करजा निकाल कर ले गया था । साल भर मे उसने एक भी किष्त नही पटाई तो जिला मुकाम से हम सबको चिटिठयां लिखी गई । अब आप ही बतायें सब लोग कि करजा देने से चपरासी को क्या मतलब ? लेकिन निरपतसिंह को तो अपने मन में लगी थी सो उसने मेरे नाम भी चिटठी लिखवा दी कि हम सबकी मिली भगत से उस किसान ने बैंक को लाखों की चपत लगा दी है ।

हम सबने कानूनी जवाब दिये लेकिन सुनना किसे था ?

महीना भर के भीतर हम सब मुअत्तल कर दिये गये ।....आज तक हम सब मुअत्तल है । मेरे स्टाफ के दीगर लोग कहते हैं कि यह सब झंझट मेरी वजह से हुआ । मै किसको क्या जवाब दूं !

अभी उस दिन में निरपतसिंह के एक रिष्तेदार के गांव आया था कि वह मेरी सिफारिस करे कि मुझे और बाकी स्टाफ को बहाल कर दिया जाये, और वह तो मिला नहीं, लौटते बखत मैं उस दुर्भाग्यषाली बस में सवार हो गया और मेरी विरादरी बामन-बनिया में से निकली सो कृपाराम के चक्कर में फंस गया । मुझे भारी संकोच लग रहा है कि अगर बागीयों ने लाख-पचास हजार मांगे तो मैं कहां से दूंगा ! ससुर से मांगने की इच्छा नहीं है मेरी, और घर में कुछ है नही । सो एक ही आस हे कि यह डाकू आजकल मास्टर साहब का गुलाम है, उसी का हाथ इसके सिर पर है।मैं अपने ससुर से कहके मास्अर से कहलाउंगा इससे।’

जरूरी थोरी हे कि मास्टर का कहना ये मान जाये! मैं संषय में था।

रामकरण हंसा, ‘ मास्टर चाहे तो एक रात में कृपाराम की लाष डरी दिखाये किसी बीहड़ की झाड़ी फे, अपने चुनाव-फुनाव और ठेकेदारी-वेकेदारी में गांव वारन को डरपावे के काजें पाल रखो है मास्टर ने कृपाराम को ।

अपना किस्सा सुना के रामकरन चुप हुआ तो उसकी आंखों में आंसू छलछला आये थे ।

उसे ढांढस बंधाते हुए मैंने बात बदली-’’ तुम यार, ये सीताकिषोर के दोहे कहां से सीख गये ं‘‘

आंसू पोंछ के वह मुस्कराया-’’ बुरो मति मानियो भईया लोगो, हम अपने गम में कछू ज्यादा ही कमजोर हो गये थे ।‘‘

उस दिन देर तक वह हमे सीताकिषोर के दोहे सुनाता रहा ।

मूछ वाले ठाकुर रामकरन के बाद मूछ वाले लम्बे से ठाकुर से अनुरोध किया गया तो उसने मूंछों पर हाथ फेरते हुए बोलना आरंभ किया-

मैं सिरोमन सिंह तोमर हूं और तंवरघार के लक्षमनसिंह के पुरा के रहने वाले हैं हम । घर में कका-दाऊ के कुल मिला के सौ आदमी हैं हम लोग । घर में अठारह-बीस बंदूकें है, .......और आप सबसे क्या छिपाना, अपने इलाके के बागीयों से हमारे प्रेम सम्बंध हैं, सो हमारे घर के किसी आदमी पर ऐसा संकट कभी नहीं आया । जब से हम लोगों ने होष संभाला है, बड़े-बड़े बागी हुए, लेकिन किसी ने हम पर टेड़ी नजर नहीं डाली । पहली दफा हमारे घर के किसी आदमी की पकड़ हुई है, सो अपने इलाके में हमारी तो नाक ही नीची हो गई होगी ।

...........आप लोगों को सुनाने लायक किस्सा ढूढ़ता हूं तो हमको कित्ती सारी घटनायें याद आरही है, आप लोग ही बताओे कैसा किस्सा सुनना चाहते हो....?.कोई रंग-रंगीली बात सुनाऐं, कोई धरम कथा सुनाऐं ....या कहीं की षिकार की कहानी सुना डालें ! खूब षिकार करे हमने, हर तरह के जानवर मारे हैं, और जे बडडे सांप भी सहज भले में लाठी अकेली से मार डाले हैं ।

लल्लू पंडित बोला- कोई धरम कथा हो जाये दाऊ !

मैं बोला - तुम हर जगह धरम घुसेड़ देते हो, ..........आज तो कछू रंगीली कथा सुना देउ दाऊ ।

सिरोमनसिंह मुस्कराये - तो सुनि लेउ आज धौलपुर वारी को किस्सा !

धौलपुर वारी यानीकि वो लुगाई जो हमारी मामी बनी ओर जिसे हमारे बूढ़े मामा धौलपुर से करवे के लाने खरीद के ले आये थे ।

मामा की उम्रर थी साठ बरस और उन्हे मामी मिली पैंसठ साल की, अब कहा बतायें आप सबको कि पैंसठ की मामी ऐसी सजी-धजी रहतीं कि वे पैंतीस सालसे कम की लगतीं । मामा ने लाड़ में आके उन्हे दो सेर चांदी की आयलें, लच्छे ओर करधनी बनबादी जिसे पहन कर रूनन’झुनन करती मामी पूरे गांव में फिरतीं। चौड़ी पट्टी की मोटी बनारसी साड़ी पहर के वे जब नाक तक पल्लू खींच कर किसी मरद से बात करतीं तो दस बार अपन चुरियां भरे हाथ हिलातीं, जिनके मद भरे संगीत में डूबा आदमी उनके अंधढंके चेहरे को देखने का लालायित हो उठता । नयी ब्याही बहू की तरह पूरे अदब और लिहाज से रहतीं थी वे ।

और इस अदब-लिहाज का ही कमाल था कि गांव भर की बहू बेटियां दिन भर उन्हे घेरे रहतीं और मामा के मकान से हीही-ठीठी के स्वर गूंजते रहते । नई उमिर की लड़कियों के लगाव का सबसे बड़ा कारण यह था कि उमर में इतनी जेठी होने के बाद भी मामी बहू बेटियों से ऐसे खुल कर बतियातीं जैसे वे उन सबकी जनम जनम की हमउम्र सहेलियां है । अपनी ऐसी सयानी गुइयां पाकर उन सबके मन में सालों से दबी घर-गृहस्थी और देह की तमाम उत्सुकतायें खोलकर सामनेे आने लगीं थीं, जिनके रोचक और मन को सरसा देने वाले जवाब धौलपुर मामी कभी सबके सामने कभी किसी के कान में फुसफुसा कर देती । दिन भर उनके कमरे से ‘हाय दइया ‘ और ‘कर गयी री‘ जैसे रस में डूबे वाक्य बाहर रिसते हुए वातावरण को रस सिक्त बनाते रहते ।

दो महीने बाद की बात है । एक दिन सुबह हुई्र तो सारा गांव स्तब्ध था। गांव से दर्जन भर से ज्यादा नवयुवतियां गायब थी।किसी के घर से बहू नदारद थी तो किसी की सयानी बेटी नही थीं ।

बाद में जब पता लगा कि मामी खुद भी गायब है, तो सबने अंदाज लग लिया था कि मामी अपने साथ धौलपुर की गर्म गोष्त की मण्डी के लाने कच्च माल लेने आई्र थी और एक साथ इतने नग उठा ले गई।

बड़ा हल्ला हुआ लेकिन कुछ न हो पाया, न धोलपुर जाने पर कुछ पता लगा, न पुलिस और सरकार में षिकायत करने से कुछ हुआ । उल्टे हमारे मामा को कई-कई रातें हवालात में बिताना पड़ीं ।

लज्जित ओैर अपमानित से सब लोग सारे काम के लिये मामा को दोश्ी मान कर अपने अपने घर चुप बैठ गये और हमारे मामा से सदा के लिऐ गांव भर ने बैर मान लिया । इस गम मंे मामा इतने टूटे कि दिन भर घर में पड़े रहने लगे और बाद में वे एक दिन एक कुआ में गिर कर आत्महत्या कर बैठे ।

उस दिन से रोज रोज ऐसी ही नई नई कहानियां लोग सुनाते, जिसमें बाकी लोग पूरी रूचि लेते ।

लल्ला पंडित रोज-रोज जाने कहां कहां की ईश्वरावतारों की कथायें सुनाते। बेैंक चपरासी रामकरन अपने क्षेत्र में प्रचलित सीताकिषोर के दोहे और विरहा सुनाता । मैं अपनी पटवारी गिरी के जाने कितने घटे-अनघटे किस्से सुनाता । दोनों ठाकुर आल्हख्ंड सुनाते और छठवां आदमी यानि कि शिवकरण तीर्थयात्रा के अपने संस्मरण सुनाता । सुबह से शाम तक, जैसे-तैसे हमारा समय इन सब बातों में ही कट जाता ।

रामकरण की बात सच सवित हुई एक दिन मास्टर फिर कृपाराम से मिलने आया, मिलने क्या आया, कृपाराम समेत चारों बागियों को संग ले गया। बाद में पता लगा था कि पंचायत के चुनाव में मास्टर का कबेटा हार रहा था सो धमकी दिलाने के वास्ते मास्टर कृपाराम को साथ ले कर गया है।

बाद में मैंने हेतम से पूछा था कि वो मास्टर कौनल है तो हेतमसिंह हंसा था फिर बोला था कि ‘ जरूली नाने वाको नाम मास्टरही होय, फिर मास्टर, डाक्टर, नेताजी, मैम्बरसा जैसे कितने ही तो लोग है। जो इन बागियों के माई-बाप हैं, पुलिस इनफारमेषन से लेकर कारतूस सप्लाय तक और आखिरी में समर्पण से लेकर सजा कम कराने तक वे ही तो इनहे बचाते है, और बदले में रूप्या पैसा से लेकर चुनाव में वोटों तक की गडडी इन्ही की बदौलत तो पाते हैं ये नेता जी ।

समय बीतने लगा, हमारा साहस लौटने लगा ।

शायद पंद्रह दिन बीते होंगे, जब कि दुबारा चलने की तैयारी हुयी । उस दिन बड़े भोर हमे तैयार होने का हुकुम हुआ ।

फिर वही जीप थी और वैसे ही जैसे-तैसे ठुंसे हम सब । वही ऊबड़ खाबड़ रास्ता ओर वे ही धचके ।

तीन घंटे का रास्ता किसी तरह पूरा हुआ ।

जीप जहां रूकी वहां दूर दूर तक वही जंगली झाडियां थीं और वे ही मिट्टी के ऊंचे नीचे टीले बिखरे पड़े थे ।

हम लोग जीप में से उतरे और बिना कहे अपने सिर पर पोटलियां लाद लीं । कृपाराम का इशारा पाया तो हम सब एकतरफ को वढ़ लिये ।

पन्द्रह दिन तक उस मकान में ठीक से आराम करने के बाद हम सब पहली बार यहां - वहां से खसखसाती रेतीली जमीन पर पैदल चल रहे थे, तो शुरू शुरू में पांव इस तरह लटपटाये कि ऐसा लगा कि जेैसे हम सब लम्बा चलना भूल गये हों । लेकिन बागियों के किसी भी अंदाज में कोई कमी न थी। वे वैसे ही फुर्ती से चल रहे थे, और उनके हाव-भाव से लग रहा था कि उनकी इच्छा है कि पकड़ के लोग भी तेजी से चलें । लेकिन अन्जान डगर पर हम सब अपहृत धीमे ही चल पा रहे थे ।

वो दिन बड़ी मुश्किल से बीता ।

शाम हुई तो बागियों ने अगरबत्ती जला कर आरती गाई ।

एक पोटली में से खाना निकला । बागियों ने पेट भर के भकोसा और कुछ जूठे टुकड़े बचे सो हमको मिल बांट के खाने को दे दिये ।

मास्टर की कैद में रहने के दौरान हम सबके गाने का अभ्यास अच्छा हो गया था, सो बागियों के मनोरंजन के लिए हम सबने अपनी-अपनी सीखी चीजें सुनाना शुरू किया । कृपाराम किस्सों का शौकीन था । उसने हम सबसे गाना बंद करके कोई किस्सा सुनाने का हुकुम दिया तो सब चुप रह गये ।

सब लोगों ने कृपाराम से आग्रह किया कि आज वह हमे कोई किस्सा सुनावे ।

बड़ी नानुकुर और मान-मनौव्वल के बाद कृपाराम ने सुनाना शरू किया ।

सबसे पहले उसने पूछा - आपबीती सुनाऊं कि पर बीती !

सबने कहा ‘आपबीती ही सुनाओ दाऊ ! ‘

कृपाराम बड़े उम्दा तरीके से किस्सा सुनाता था, उसने बात शुरू की तो हम उसमें ऐसे डूबते चले गये कि सब कुछ नजर के सामने घटता दिखने लगा, न उसकी आवाज सुनाई पड़ रही थी, न उसका चेहरा दिख रहा था, हम सबको तो उसके किस्से के सारे के सारे जीते-जागते पात्र दिखने लगे थे अपनी आंखों के सामने आकर ।

उसके साथ ही हम भूतकाल में जा पहुंचे थे, जहां कि कृपाराम का घर परिवार था और उसकी प्रिय भेढ़-बकरियों का रेवड़ था । गांव था, उसके नाते-रिष्ते दार थे, उससे नफरत करते लोग थे तो उससे प्रेम करने वाले भी थे । इन सबके बीच था कृपाराम-एक किषोर चरवाहा कृपाराम घोसी वल्द गंगारामघोसी !

जिस न तो किसी तरह की चिन्ता थी न किसी की परवाह, जिसे अपना ब्याह भी एक कोतूहल और तमाषे सा लगा था ।

फेहरिष्त

हमारे साथ चल रहे पुलिस अफसरों ने अब तक थानों में बैठ कर डण्डा चमकाया था, कभी इलाके में कड़ी मेहनत नहीं की थी, सो इस तरह दर-दर की ठोकरें खाना भला उन्हे कहां से रास आता ! वे प्रायः थके रहते औार बात बेबात दल के किसी भी आदमी पर झुंझला कर बरस पड़ते ।

डस दिन सब लोग थके हुए थे, रघुवंशी का हुकुम हुआ कि आज की रात किसी गांव में नहीं बितायेंगे, हो सकता है कि ये गांव वाले ही डाकुओं को इत्तिला कर देते हों कि आज हमारे गांव में पुलिस दल का पयाम है । सब लोग अचानक मिले इस आदेष से हतप्रभ थे, दिन भर भूखे प्यासे चलते रहने के बाद ऐन उस वक्त दरोगा ने दुकुम ठोका जब कि हरेक के मन में कही घड़ी भर रूक कर ठण्डा पानी पीने की चाह थी ।

लेकिन रघुवंशी को नया सुझाव देने का साहस किस में था ? सब मन मारके आगे वढ़े । अचानक रघुवंषी ने हेतमसिंह दीवान से कहा-हेतम पानी पिलाओ!

हेतम ने बात को उतनी गंभीरता से नहीं लिया, उसने अपने एक सिपाही को हुकुम ठोका- जा रे दबोइया, साहब को पानी ले आ !

रघुवंशी को भला यह कहा से सहन होता ! वह फट पड़ा-सारे, तू बड़ो अफसर बन रहा है, तैंने दूसरे पर हुकम मार दिया ।

मुझे लगा कि तनिक सी बात का बतंगड़ बन रहा है, मैं चेहरे पर अतिषय विनम्रता लाता हुआ आगे वढ़ा-साहब, मैं भरि लाऊं!

रघुवंशी ने आखें तरेरीं- तू काहे बीच में कूदता है रे लाला ?

मै बेषर्म हो कर हंसा- साहब आप लोगिन की सेवा रोजि रोजि थोरी मिलनो है ! कौन दूर जानो है, बस अबहीं सामने वाले कुंआ से भरि के लाया ।

वह चुप रहा । मुझे लगा वह मेरे निवेदन को स्वीकार कर रहा है । मैंने अपने झोला में से डोर-लोटा निकाले और सौ एक गज दूर खड़े पेड़ों के उस झुरमुट की ओर वढ़ गया जहां मुझे कुंआ होने का अनुमान था ।

दस मिनट के भीतर रघुवंशी के सामने मंजे हुए लोटा में ताजा पानी भरके मैंने सामने हाजिर किया ।

पानी पीकर दरोगा नम्र हुआ । मेरे चेहरे पर संतोश झलका ।

पता नहीं किस बात का असर था कि रघुवंशी ने सामने दिख रहे गांव के बाहर खेत के बीचों बीच बनी उस झोंपड़ी की ओर संकेत करके कहा-सिन्हा साहब, आज हम लोग इस झोंपड़ी मे डेरा डालेंगे ।

‘ठीक है सर, जैसा आपका ऑर्डर !‘ सिन्हा पुलिस का एक अनुषासित अधिकारी था ।

झोपड़ी सूनी पड़ी थी, लेकिन उसमें इतनी गुंजायस कहां थी कि पूरा पुलिस दल उसमें समा सकता, सो आस पास की खुली जगह देख कर सब लोग पोजीसन लेकर यहां वहां बैठने लगे ।

झोंपड़ी के भीतर रघुवंशी और सिन्हा के लिए एक तिरपाल विछा दिया गया । वे दोनों अंदर गये और पांव फैला कर बैठ गये । सहसा रघुवंशी ने आवाज दी- सुन रे लाला, इधर आ !

मैं भीतर को लपका । रघुवंशी ने अपनी टॉर्च जलाई और अपनी पीठ के बैग में से एक फाइल निकाली ।

फाइल खोल कर टॉर्च की रोषनी में ही उसने कुछ देर कागजों को देखा और फिर मेरे सामने पूरी फाइल बढ़ा दी- ले देख, तू उस दिन कह रहा था कि तुम दोनों के नाम पुलिस की सर्च टीम में कैसे आ गये, इस फाइल में सब लिखा है!

मैने आंखे फैला कर फाइल पढ़ना आरंभ किया ।

फाइल के कवर पर अंकित था-टी निन्यानवे: कृपाराम गिरोह का विवरण

पहले पन्ने पर लगे कागज पर लिखा था-गिरोह का परिचय और पुरस्कार राषि । मैंने पढ़ा - कृपाराम गिरोह मैं सिर्फ चार डाकू हैं जो आपस में सगे भाई है । कृपाराम इस गिरोह का मुखिया है उसके ऊपर जिन्दा या मुर्दा दो लाख रूप्ये का पुरस्कार राज्य सरकार ने घोशित किया है, जबकि इस गिरोह के दूसरे दुर्दान्त डाकू श्यामबाबू के सिर पर भी दो लाख रूप्ये के ईनाम का ऐलान किया गया है । बाकी के दो डाकू अजयराम ओर कालीचरण पर पचास-पचास हजार रूप्ये के ईनाम रखे गये हैं । इस तरह पूरे गिरोह पर पांच लाख रूप्ये के ईनाम के एलान हो चुके है।

दूसरे रघुवंशी पर गिरोह का इतिहास दर्ज था- इस गिरोह के सबसे खतरनाक डाकू श्यामबाबू और उसके भाई अजयराम व कालीचरण का आचरण बचपन से ही खराब रहा है । चोरी-चकारी और उठाईगिरी करना इनकी आदत में रहा है । मौका मिलने पर इनने कुछ बड़ी वारदातें कर डालीं और पुलिस का दबाब पड़ा तो अपने बड़े भाई कृपाराम के साथ बीहड़ में कूद गये और उनने अलग से गिरोह बना कर हत्या, लूटपाट, अपहरण और डाका डालना ही अपना पेषा बना लिया । एक प्रदेष की पुलिस का दबाब बड़ जाने पर ये लोग दूसरे प्रदेष में चले जाते हैं और मौका पाकर वापस लौट आ जाते हैं । पिछले कुछ दिनों से अपहरण करके बिना रिस्क के खूब रूपया बनाना इनकी खास आदत बन चुकी है ।

तीसरे पन्न् पर गिरोह के सदस्यों को पहचानने वालों की सूची दर्ज थी- जिसमें कृपाराम के मां, बाप, बहन, जीजा, मामा-मामी के अलावा उनके गांव के चार मुअज्जिज आदमियों के नाम षामिल थे । मैं चौंका, उस सूची में ग्यारहवां नाम मेरा था और बारहवां लल्ला पंडित का । हमारे नाम के आगे लिखा था-ये दोनों आदमी सरकारी कर्मचारी हैं, इनका अपहरण कृपाराम गिरोह ने साल भर पहले किया था, तथा वह तीन महीने तक इन्हे अपने साथ लिये पूरी चम्बल इलाके मे घूमता रहा इसलिये इन दोनों को कृपाराम गिरोह के हर ठौर-ठिकाने तथा हितू-मुखबिरों की पूरी जानकारी होना चाहिए।

मेरा माथा इनका -तो ये वजह रही हम लोगों के फंस जाने की ।

लेकिन अब क्या हो सकता था ! जो होना था वह हो लिया ।

मैने फाइल दरोगा को वापस कर दी । रघुवंशी मुसकरा रहा था-पढ़ लिया न ! पुलिस के रिकॉर्ड में जरा-जरा सी हंगनी मूतनी बात दर्ज रहती है, तुम बच के कहां जाते, हम लोग सात पाताल से ढूढ़कर तुम्हे ले आते ।

मैं झेंपते हुए उनकी बात का समर्थन कर रहा था ।

दरोगा ने मेरी झेंप तोड़ी- हां अब सुना, कि कृपाराम ने उस दिन अपने बचपन का क्या किस्स बयान किया ।

मैने ठण्डी सांस ली और षुरू हो गया ।

***