मेकिंग आफ बबीता सोलंकी Geeta Shri द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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मेकिंग आफ बबीता सोलंकी

मेकिंग आफ बबीता सोलंकी

गीताश्री

1

“अरे..सब एक साथ उठ कर चल दिए। मैं अकेला रहूंगा अभी से...कोई एक तो रुको, मेरा जाम खत्म हो जाए, फिर चले जाना। ये रिवाज नहीं महफिल का...”

बूढीं आखों में मिन्नतें चमकीं। आवाज लरज रही थी। जैसे सांझ लिपटी आवाज हो, लड़खड़ाती हुई, रात की तरफ बढती हुई.

हथेलियां कंपकंपाती हुई उनकी तरफ बढीं। किसी ने नहीं थामा उन्हें। किसी की बस छूट रही थी. किसी को लिफ्ट मिल रही थी और किसी को अपने घर की जल्दी थी। उस शाम सिर्फ चार लोग थे, चाचा जी समेत। ज्यादा रात नहीं हुई थी, फिर भी सबको जल्दी थी। एक घंटे की मुलाकात में जिन्हें जो हासिल करना था, कर लिया था। उसके बाद शायद चाचा जी यूजलेस फेलौ में बदल गए थे। मैडम बबीता ने कुछ किताबे रख दी थीं और कुछ नोटस उठा लिया था। उन्हें कल अपने छात्रों को पढाना था। चाचा जी का घिसा हुआ नोटस जमाने से इसी तरह जनहित में लगा हुआ था। कभी छात्र-छात्राएं ले जाया करते थे। पिछले कुछ सालो में मैडम बबीता की दिलचस्पी इधर जगी और वे नोटस अचानक एक्सक्लूसिव हो गए और बाकियों के लिए दुर्लभ। बाहरी तत्वो द्वारा चर्चा से बेखबर, बेपरवाह मैडम और चाचा जी खुशी नोटस और किताबे शेयर करने लगे। यूनिवर्सिटी में डिपार्टमेंट की दीवारों पर क्या कविताएं लिखी जा रही हैं, दोनों की शान में क्या कशीदे पढे जा रहे हैं..चाचा को पता नहीं। मैडम सब देखती और मुंह टेढा कर इगनोर कर देती...”हुंह...हाथी चले बाजार, कुत्ता भूंके हजार...”

कुछ मैडम-प्रेमी दीवारों पर लकड़ी-कोयला से, पेंसिल से अपनी आहें उकेर रहे थे। ऊपर लिखा होता...” के प्रत्याशी को वोट दें...” उसके नीचे कोई दिलजला लिख जाता..

“बबीता के दिल में रामज्ञा बाबू, चोरी चोरी चुपके चुपके..., चढी जवानी बुढ्ढे नूं, ऐ भोला, तू लोला, “तेरे ऊपर बबीता का दिल डोला, ऐ बबी”...”कहू कहू मन केहन करइय...”

कुछ पढ कर बबीता को हंसी आती, कुछ पढ कर वह क्रिएटिव राइटिंग को सराहती और गर्दन झटक कर डिपार्टमेंट की सीढियां खट खट चढ जातीं।

अभी सलोगन बहुत अश्लील हुए नहीं थे, जैसे वह पार्किंग में कारो के शीशे पर जमी धूल पर ऊंगलियों से लिखी देखती या आते जाते सीढियों के किसी कोने में यौनांगो के बारे में पढती। फालतू की बातों में वक्त नहीं गंवाना है। उसका फोकस स्पष्ट है। “दूर दृष्टि, पक्का इरादा ” लेकर वह चाचा जी की दहलीज पर एक दिन पाई गई थीं। और चाचा जी उन्हें देखते ही पहली ही बार में हाइवे पर भागती ट्रक के स्लोगन गाने लगे थे...”भोले शंकर, भूल न जाना, गाड़ी छोड़ कर दूर न जाना....।“

2

मैडम बबीता कौन हैं, कहां से आई हैं, किसी को नहीं पता। शायद चाचा जान जानते हों।

उनकी आंखें हजार वाट के बल्ब की तरह तब तब जल उठती जब जब उनसे बबीता का को कोई नाम लेता या वे खुद लेते। उनके पास कई प्रोजेक्ट थे। विश्वविधालय के भी और उसके बाहर के भी। छोटे से शहर के सबसे सम्मानित अतिथि थे, मंच पर अकेले विराजते थे या कभी कभी कोई और साथ देने बैठता था। चाचा के ज्ञान से आतंकित लोग जल्दी उनके वक्तव्य के बाद या पहले बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे। इसीलिए धीरे धीरे शहर ने एक ही अतिथि को मंच पर स्थापित करके खुद को धन्य मान लिया था। जिसकी किताब रीलीज होती, वह भी सामने श्रोताओ की कतार में बैठता और चाचा जान आशीर्वचन देते या उस किताब के बहाने भारतेंदुकाल से शुरु होते तो सभा भौंचक्की हो जाती। कुछ समया काटू लोग ऊब कर खिसक लेते और कुछ जो सचमुच कुछ सुनना सीखना चाहते थे, वे रुक कर मुंह बाए उन्हें सुनते रहते। सभा के अंत तक चाचा का डंका बजता रहता।

क्या साहब...क्या बोला आपने...कितनी नई बातें बताईं..वाह...लोग हथेलियां घुमा घुमा कर उन्हें शाबासी देते और चाचा जान मुस्कुरा कर मन ही मन सोचते कि मूर्ख...ये सब तुमने कोर्स में पढा होगा। पर स्मृति की स्लेट से ज्ञान मिटते देर कहां लगती है। ज्ञान को संभालना सबके बस का नही। यह निंरतर अभ्यास की चीज है महोदय...।

शहर के एकमात्र विद्वान मन ही मन उपस्थित मूर्खो पर हंसते हुए विदा लेते। पर अब वक्त बदल गया था। मंच पर दो कुर्सियां लगने लगीं थीं। पहली बार तो स्थायी श्रोता हैरान हुए। आयोजको को भी समझने स्वीकारने में वक्त लगा। मैडम बबीता बगल में विराजमान होतीं गईं और धीरे धीरे शहर में स्थापित होती गईं। वे भाषण देने लगी थीं पर आधा लिखित होता और आधा मौखिक। कुछ कोटस, कुछ शेर, कविता की पंक्तियां लिखित होती..शायद कुछ प्वाइंटस भी लिखित होते होंगे। वे धारा प्रवाह बोलते बोलते चोर नजर से डैश पर रखे पेपर देखना नहीं भूलतीं। वाणी में ओज था। आंखों पर चश्मा चढ चुका था। प्रिंट वाली सूती साड़ी में वे भव्य लगतीं थीं। जब वे मंच से बोल रही होती तो श्रोताओं के अलग अलग रियक्शन देखे गए। महिलाएं मोहित होती कि कोई उनकी बिरादरी की है जो मर्दो के बीच में विद्वता की बातें कर रही है। लड़के नई स्त्री की बौध्दिक छवि निहारते, अधेड़ लोग उनकी संगति के बारे में सोचते और चाचा....

उनकी आंखों में असंख्य भगजोगनी भुक भुकाने लगती। तृप्ति का आहलाद, चिर तृप्ति...भाव ऐसे कि सबको कह रहे हों...”देखो...देखो...लक्ष्मीपुर वालो...मजाक है कोई..हमारी प्रोडक्ट देखो..किस तरह ढाल रहा हूं, देखो..सब पर भारी पड़ेगी, देखना।“

आयोजक खुश होते कि उनकी तारीफ में अब कशीदे पढने वालो में इजाफा हो रहा है। दो चार सभा सेमिनारो के बाद मंच पर कुछ कुर्सियां और जुड़ने लगीं। आयोजक तर्क देते कि बबीता मैडम इतने अच्छे सवाल उठाती हैं कि उन पर स्वस्थ और सार्थक बहस जरुरी है। स्त्रीवादी नजरिए के साथ कुछ पुरुषवादी दृष्टि भी सामने आए तो स्वस्थ बहस की परंपरा का विकास होता है। चाचा जान को यह तर्क भाने लगा था, वे बबीता के प्रभामंडल को बढता हुआ देखकर खुश थे। आखिर बबीता शहर में नई संस्कृति को जन्म दे रही थीं। बहस की परंपरा शुरु हुई और अब तो आए दिन किसी जयंती पर, किसी की शताब्दी पर तो किसी राजनीतिक-सांस्कृतिक मुद्दो पर सेमिनार शुरु हुए जिसमें श्रोता भी भागीदारी करते, सवाल जवाब का सिलसिला चलने लगा था और मंच से चाचा जान वहां होकर भी धीरे धीरे अनुपस्थित होने लगे थे। यूं कहे ओझल होने लगे थे। शहर में अचानक वक्ताओ की बाढ आ गई थी। प्रकाशक कुछ ज्यादा व्यस्त हो गए थे। जो कल तक चाचा जान के पीछे पड़े रहते थे कि अपनी कोई किताब दे दीजिए, अपने भाषण ही दे दीजिए, हम आपका डिक्टेशन ले लेंगे...। उनका सुर बदल गया था। वे मैडम बबीता की तरफ मुड़ गए थे। सारे याचक उधर चले गए..वहां तक जाने का रास्ता भी खुद चाचाजान ने ही बनाया था। पूरी पक्की सड़क बना दी थी उन्होंने जिस पर चल कर सारे आयोजक-प्रकाशक आसानी से वहां तक पहुंच रहे थे। मैडम परेशान हाल कि इतनी किताबें कहां से लिखें...स्थानीय अखबारो में कुछ समीक्षाएं छपी थीं, उनसे किताब कहां बनती हैं। कालेज डेज की कविताएं 40 साल की उम्र में बचकानी लगेगी। सारा भार, सारी चिंता अब चाचजान के माथे।

वे मेकिंग आफ बबीता सोलंकी में लग गए थे।

3.

शाम की महफिल चाचाजान का फेवरेट शगल था। कहते हैं, जबसे चाची जी का निधन हुआ,

वे रिटायर हुए, दोनों काम लगभग आसपास ही हुए। चाचाजान ने कभी घर में अकेली शाम नहीं बिताई।

उनका घर शोधार्थियों से भरा रहता। वे घर की तरह चाचाजान के घर को, किचन को, नोटस को, राशन पानी को इस्तेमाल करते। कोई कुछ दे जाता, कोई कुछ पका जाता। हमेशा भीड़ में घिरे रहने वाले चाचा जान को अकेले रहने की कल्पना कंपकंपा देती। उनके इस अकेलेपन को बांटने के लिए मुझे शहर में पढने भेजा गया ताकि मैं चाचाजान के साथ रह सकूं। इसके पीछे मां बाबूजी की कितनी सदिच्छा थी, नहीं मालूम। पर जब मैंने मां बाबूजी को मैडम बबीता के बारे में बताना चाहा तो बाबूजी ने सुनने से ही इनकार कर दिया। उनका चेहरा देखकर लगा कि जैसे ये कोई बड़ी बात नहीं, “बड़े बड़े देशो में छोटी छोटी बातें होती रहती हैं...” टाइप प्रतिक्रिया देख कर मैं चुप लगा गया। मां मुझे एकांत में ले गईं।

“बेटा, तू अपने चाचा जी का खयाल ठीक से नहीं रख पाता है न। तू तो पढाई किया कर। अच्छा है न, कोई तो है जो उनका अकेलापन बांट रही है। हम लोग निश्चिंत तो हैं। नहीं तो उनकी हारी-बीमारी में मुझे ही भाग कर जाना पड़ता या अन्नू बुआ को जाना पड़ता। वे भी बूढी हो गई हैं। तू भी कल कहीं निकल जाएगा...फिर...सोचा है, क्या होगा चाचा जी का...?”

अपने जेठ के प्रति इतनी सहानूभूति देख कर मैं दंग रह गया। टिपिकल गंवई मां की ये उदारता थी या मजबूरी, या कोई चालाकी, उस वक्त समझ नहीं पाया। मां इतनी उदार तो कभी नहीं थीं। गांव से एक सामान शहर भेजना हो तो कायं किच किच करने लगतीं। जब से मैं वहां रहने लगा तब से उनकी उदार छवि सबको हैरान कर रही थी। चाचा जान कभी लौट कर गांव नहीं आएं। उन्हें पता नहीं कि उनके हिस्से की खेत कहां है और उनके हिस्से की गाछी में कितने पेड़ है। पेड़ हैं भी तो उन पर आम या लीची फरते भी हैं या नहीं। मां ने कभी चाहा भी नहीं कि चाचा जान कभी किसी छुट्टी में गांव की तरफ तशरीफ लाएं। वे और बाबूजी खुश थे कि रामाज्ञा शहर में ही जमा रहे और गांव संभालने के लिए वे तो कुरबानी दे ही रहे हैं। चाचा जान जैसे सभा सेमिनारो, अपनी किताबों, अपने छात्रो और अब मैडम बबीता...। उनकी व्यस्तता के लिए इतना कुछ काफी था। एक अध्येता को, स्कालर को और क्या चाहिए। चाहत का आखिरी सामान भी अपने आप उनकी झोली में आ गिरा था। इस बात पर शहर गांव कहीं कोई हंगामा नहीं। मौन स्वीकृति सबने दे दी थी। वैसे चाचा जान को किसी की चिंता कब थी। वे इतने मगन थे कि उन्हें ये भी परवाह नहीं रही कि उनका सगा भतीजा घर में रहते हुए सब कुछ देख समझ रहा है। चचा जान तो जैसे नए नए से दिखने लगे थे। उलझे बिखरे बाल कब संवरने लगे, पता ही नही चला। कुर्ते का रंग कब चटकीला हुआ, सोफे कब आरामदेह हो गए, घर के खाने का स्वाद कब और अच्छा हुआ, किसी को पता नहीं चला। सारे बदलाव होते रहे जिसे मेरे सिवा कोई नोटिस न कर सका। मैडम बबीता से मेरा सामना कम ही होता। मैं ज्यादातर बाहर ही रहता था। संयोग की बात थी, कभी घर पर उनसे टकरा जाऊं। वे इतने स्नेह से मिलती कि मेरे मुंह से कई बार चाची जी निकलते निकलते रह गया। खुद को निंयंत्रित रखना सबसे मुश्किल काम है। मेरा दोस्त राहुल तो कई बार मुझे चिढाता भी थी...ये देख तेरी चाची जा रही है...मैं झेंप जाता। स्त्री पुरुष की दोस्ती हमेशा किसी अवैध रिश्ते में क्यों बदल दी जाती है, ये सवाल मन में घुमड़ता। जितना सोचता, उलझता जाता। कभी कभी गौर से बबीता मैडम को देखने की कोशिश करता कि वे आखिर क्या सोच कर हमारे घर में इस कदर घुसी चली आ रही हैं। पूछ न सका। डर लगता कि कहीं चाचा जी बुरा मान गए तो घर निकाला भी मिल सकता है। अभी एक आश्रय तो मिला है। अपनी पढाई पूरी करके निकल जाऊंगा। सारी चीजें पीछे छूट जाएंगी सिवाए इस अबूझ रिश्ते के। मुझे कई बार लगा कि वे मुझसे कुछ बात करना चाहती हैं, कुछ पूछना चाहती हैं, कुछ कहना चाहती हैं या कोई काम बताना चाहती है..। मैं मौका ही नहीं देता। उन्हें घर में देख कर चुपचाप खिसक लेता। शाम को नियमित रुप से बबीता आतीं और देर तक दोनों खुश खुश दिखाई देते। किताबें, नोटस, पत्रिकाएं...आदान प्रदान। कई बार वे नोटस लेतीं दिखीं र्थी और चाचा जान डिक्टेट करते दिखे। ये सब मेरे रडार से बाहर की बात थी, सो कभी ठिठक कर सोच नहीं सका कि दोनों की संगति की असली वजह क्या हो सकती है। जमाने भर की बदनामी भी दोनों को पल भर के लिए नहीं डिगा पा रही थी। इनकी दुनिया निर्बाध गति से चल रही थी। शोधार्थियो के आने का वक्त बदल गया था और वे अब फोन करके आते थे। चाचा का बीस साल पुराना सेवक छुट्टन ज्यादा रिलैक्स दिखता था, मानो किसी बड़ी जिम्मेदारी से कुछ पल के लिए फुरसत पाई हो। वह एक साथ दो लोगों का सेवक होने को तैयार दिखता था। बबीता घर पर होती तो उन्हीं का हुकुम मानता और उन्हीं की सुनता। छुट्टन को ज्यादा आवाजे वहीं लगातीं। चाचा की पुकार को अक्सर अनसुना कर देने वाला छुट्टन बबीता मैडम की पुकार पर दौड़ता चला आता। उस घर की खामोशी, तन्हाई और उदासियां जैसे कुछ पल के लिए उस वक्त दूर जा बैठती थीं। किचन में रेडियो बजाते बजाते खाना पकाने वाला छुट्टन

एक गाने पर फिदा जान पड़ता था। मुझे अक्सर झल्लाहट होती। वैसे भी मैं कोने वाले कमरे में खामोशी की चादर तान कर सो जाता था। छुट्टन मियां गाना सुनते थे...”.दो घड़ी वो जो पास आ बैठे..हम जमाने से दूर जा बैठे...”

रेडियो बंद कराने वाले चाचा को अब गाने पसंद आने लगे थे। कभी कभी शाम को उन्हें कहते सुना था...”अरे भई, छुट्टन..जरा 92.7 लगाना। पुराने गाने आ रहे होंगे। बजाया कर शाम को...।“

मुझे लगा कि मरियल छुट्टन, चचा जान के किसी आदेश और दोस्ती बनाने की काबिलियत पर पहली बार इतना रिझा था। उसके भीतर का सन्नाटा भी टूट गया था। जिस गर्माहट से वह मैडम के लिए दरवाजा खोलता था, वैसी मुस्कान तो उसने कभी चाचा जान को नहीं दिया था। मुझे तो बिल्कुल नहीं दिया था। उसकी नजर में मैं धीरे धीरे अनावश्यक वस्तु में बदलता जा रहा था। मेरे प्रति चाचा नहीं, घर की हवा बदल रही थी। चाचा तो वही थे..निस्पृह..धीरोदात्त नायक।

4.

रंगीन रौशनियों से भरी महफिल में शहर के सारे पढेलिखे, धनाढय वर्ग के लोग एकत्र थे। चचाजान वहां स्पेशल इनवाइटी थे। ये बात खुद चचा ने छुट्टन को बताई जिसे मैं सुन रहा था।

“रात का खाना मत बनाना..आज रामआधार बाबू के यहां रस-भोज है...चचा मस्कुराए। छुट्टन के राहत की सांस ली। साथ में हमहूं चले का...?”

“नहीं, तुम का करोगे वहां जाके..बबीता मैडम हैं न, हम उन्हीं के साथ चले जाएंगे...वे हमें वापस घर छोड़ देंगी, लौटते समय कोई न कोई मिल ही जाएगा..क्या दिक्कत..तुम चैन से रहो...गाने वाने सुनो..”

छुट्टन समझ गया कि मालिक को बबीता मैडम के साथ भोज में जाने का मन हैं। नहीं तो अब तक वह साथ जाता था। उनकी प्लेट लगाने से लेकर पैग बनाने तक का काम उसके जिम्मे। साथ में छुट्टन के भी मजे होते। मुंह उधर घुमाया और गला तर कर लिया। रात को लौटते समय मालिक नौकर दोनों खुश, मस्त। चचा की कुल दुनिया यही थी। मैडम के आने के बाद छुट्टन का साथ कहीं पीछे छूट रहा था। वह सिर्फ किचन तक सिमट कर रह गया था। बाजार से जरुरी चीजें भी घर में बबीता मैडम लाने लगी थीं। चाचाजी जी के जरुरत की चीजें होतीं। जो कभी छुट्टन लाता था। लाने में देर करता तो चचा जी की फटकार खाता। अब कहते—“रहने दे रे..मैडम ले आएंगी, वे तो बाजार से ही होकर आती हैं न..लेती आएंगी। तू कहां जाएगा इत्ती धूप में..।“

छुट्टन समझ जाता कि उसकी चिंताएं फिलहाल कम हो रही हैं। वह भी दोपहर में चादर तान कर आराम से सो जाता। शाम को मैडम आएंगी तब देखा जाएगा। और आज शाम तो उसके हाथ से रसभोज भी छुटा जा रहा है। मन ही मन झुंझलाया। पर कर भी क्या सकता था। मन के गुस्से को कई बार भीतर ही गढ्ढा खोद कर गाड़ देना पड़ता है। हमारे मन में ऐसी अनेक क्रबगाहें है, जहां अनगिन गुस्सा, भावनाएं दफ्न हैं।

छुट्टन अब जगते हुए उनकी वापसी का इंतजार करता रहा। रात गहराती जा रही थी। न मैडम के पास गाड़ी थी न चचा जान के पास। मैं भी दोस्तो के घर टिका हुआ था। छुट्टन अकेला चिंतित हो उठा। उसे बार बार मैडम पर गुस्सा आए।

जरुर कहीं ले गई होगी, उसी की वजह से देर हो रही है मालिक को...महिफल में फंस गए होंगे, कहीं अपने घर तो नहीं ले गई, फोन तो कर देते मालिक, उन्हें इतनी भी चिंता नहीं कि छुट्टन जागा होगा, चिंता में होगा...मैडम क्या मिल गईं हैं, दीन दुनिया भी भुलाए बैठे हैं...हद है। अब नहीं सहेंगे...मैडम को साफ बोल देंगे कि वे यहां कम आया करें...या मालिक से भिड़ जाएंगे..जो होगा देखा जाएगा...

रात के 12 बज गए। उनका कहीं पता नहीं। किसे फोन करे छुट्टन। उसने लैंडलाइन से चचा के मोबाइल पर मिलाया। स्वीच आफ। मैडम का नंबर उसने कभी रखा नहीं। उसने मुझे फोन करके मैडम का नंबर मांगा। मेरे पास भी नहीं। उसने चचा जान की डायरियों की भीड़ से छोटी डायरी निकाली। बबीता मैडम का नंबर तलाशना था। उसे गुस्सा आ रहा था कि अगर देर हो रही थी तो घर पर फोन करके बबीता मैडम बता देतीं तो हम चिंतित न होते। आखिर मालिक हमारी जिम्मेवारी हैं। कुछ हो गया तो गांव वाले हमसे पूछेंगे, बबीता मैडम को क्या। वे तो पता नहीं कहां से आईं है, कहां बिला जाएंगी। भोगेंगे तो हमीं ना,...बड़ाबड़ाते हुए उसने डायरी का पहला पन्ना खोला और ऊपर ही पहले पन्ने पर बबीता और उनका मोबाइल नंबर नोटे अक्षरो में लिखा था.

उसने चैन की सांस ली। घंटी बजती रही, एक बार, दो बार...बार बार...फिऱ आउट आफ रिच बताने लगा। छुट्टन का पारा हाई। आज तो गजबे होगा..भगवान करे सब ठीक हो, नहीं तो आज आर पार होगा। ऐसे भी आज खुल कर बात होगी...छुट्टन मन ही मन बहसो में उलझता चला जा रहा था। रेडियो पर उसकी पसंद का गाना भी आज उसका मन नहीं बहला पा रहा था...किशोर दा गा रहे थे..”.मेरे महबूब कयामत होगी...आज रुसवा तेरी गलियों में....मेरी नजरें तो गिला करती हैं...”

उसने झुंझला कर वौल्युम कम कर दिया। यहां जान सूखी जा रही है..क्या महबूब, क्या कयामत...हे भगवान मालिक ठीक हों..मैं इस प्रेतनी से छुटकारा दिलवा कर रहूंगा। कहां से आई है, भगवान जाने, कोई घरवाला है कि नहीं..कैसी औरत है, कोई रोक टोक वाला घर में है कि नहीं...जाने कैसे कैसे लोग होते हैं जो अपनी औरतो को ऐसे खुली छोड़ देते हैं...हम हों तो जान मार दें..

आज छुट्टन बागी हो रहा था। रात का अंधेरा उसके मन में उतरना जारी थी। दरवाजे के पास जमीन पर धम्म से बैठ गया। मालिक को कहां खोजे इत्ती रात को...उसका मन घबराने लगा। झटके से उठा, दरवाजा खोला और बाहर निकल गया।

गहरे अंधेरे में कोई धुंधली आकृति धीरे धीरे पास आ रही थी। कुछ घिसटने जैसा, कुछ घिघियाने जैसी आवाजें। सब पास आती गईं। छुट्टन ने आंख फाड़ फाड़ कर देखा...बबीता मैडम, चचाजान को लगभग अपने कंधे पर लादे घसीटती हुई, लड़खड़ाती हुई घर की तरफ बढी चली आ रही हैं। छुट्टन ने दौड़कर चचा को संभाला और बबीता वहीं जमीन पर धम से बैठ गईं।

“ले जाओ इन्हें...जल्दी...होश में नहीं हैं...सिर धो डालो..”

वे हांफ रही थीं। बोलते हुए लगा दम निकल रहा हो। दुबली काया इतना भार उठाए, कितनी दूर से चली आ रही है।

चचाजान मजे से एक कंधे से छूटकर दूसरे कंधे पर आ लगे थे।

“आप नहीं चलेंगी क्या मैडम...यहां मत बैठिए, अंदर आइए..क्या हुआ मालिक को...आप लोग को कहां देर हुई...चलिए घर चल कर बतियाते हैं...आइए..बहुत रात हो गई है..आप कहां जाएंगी...चलिए..यहीं रहिए..हमारे साथ...आइए...”

बबीता थक कर चूर थी। छुट्टन के इन स्नेहिल शब्दो की उम्मीद शायद उन्हें नहीं थीं। होती भी कैसे...अक्सर उसकी आंखों में अजीब भाव तैरा करते। जिसे वह अनदेखा कर दिया करती थीं। अभी तो मजबूरी थी, इतनी रात को कैसे जाती। किराए का घर का मेन गेट तो कब का बंद हो चुका होगा।

चचाजान को होश में लाने में बबीता और छुट्टन ने काफी जतन किए। छुट्टन तो वहीं बेड के पास ऊंघने लगा। बबीता कुरसी पर बैठी रहीं।

“तुम सो जाओ..मैं देख लूंगी इन्हें...”

“नहीं मैडम...आप मालिक को बचा कर लाई हैं...रस्ते में अकेले कहां गिर पड़ जाते..पतो नहीं चलता..ई त आप हैं कि...इनको कौन पिला दिया इतना...? इत्तना तो नहीं पीते हैं...रामआधार बाबू काहे नहीं कुछ किए..?”

“कोई होश में तो न किसी के लिए कुछ करे...एक एक कर सब चले गए। मुझे भी सबने कहा, निकल जाइए, हम इनको घर भिजवा देंगे...मेरा मन नहीं माना, मैं बैठी रही..कहती रही..पर ये माने तब न. पीते गए पीते गए..अंत में कोई गाड़ी नहीं बची..मुश्किल से एक टैम्पो वाला मिला, यहां से थोड़ी दूर पर उसमें कुछ खराबी आ गई, वहीं उतार दिया। वहां से कैसे लाई, तुम तो देख ही रहे हो...मेरे लिए ये सब नया है छुट्टन..मैं पहली बार किसी रसभोज में गई थी...क्या पता था...”

बबीता की आवाज में कंपन था, विवशता थी और अनजाना भय।

मुझे बहुत व्यंग्यवाण सहने पड़े छुट्टन जी...बहुत बातें सुनने को मिलीं। इतनी बेइज्जती मैंने कभी फील नहीं की थी। लोगो की तीरछी निगाहो ने मेरी देह में असंख्य छेद कर दिया है। मैं इन्हें कैसे छोड़ कर आती...जाया न गया। इन्होंने मेरे लिए इतना किया है...दुख तो इस बात का है कि इन्हें ध्यान नहीं रहा कि मैं साथ में हूं और शहर छोटा है...

वह उड़ेल रही थी दर्दे-जिगर। पहली बार छुट्टन से इतनी बातें। अचानक छुट्टन ने अपने को बेहद महत्वपूर्ण समझा और पहली बार जिन आंखों से उन्हें देखा, वह बबीता के लिए किसी दुआ से कम न थी। दोनों के बीच एक अबोला सा स्नेह-बंध पनप गया था। रेशमी, मुलायम धागो से बना-नए किस्म का रक्षा-सूत्र जैसा।

5.

मैं सबसे बेखबर, लापरवाह अपने दोस्तों के साथ धर्मशाला के लिए निकल गया था। कुछ दिन आराम से घूम कर आना चाहता था। कभी चचाजान को मेरा ध्यान आएगा तो छुट्टन उन्हें बता देगा। वैसे उनको मेरा ध्यान शायद ही आए। पांच दिन की तफरीह के बाद देखते हैं, बबीता मैडम और चचाजान के मसले को। बाबूजी सारी बात सुन कर कह रहे थे कि जल्दी वहां आकर कुछ एक्शन लेंगे। बड़े भैया को अब नियंत्रित करना जरुरी हो गया था। मैं भी शहर भर से तरह तरह की बातें सुन सुन कर आजिज आ चुका था। मेरे दोस्त गजल सुनाते हुए मुस्कुराते...ना उम्र की सीमा हो, ना जन्म को हो बंधन....मेरा खून खौल जाता। चचाजान अगर मेरे पापा होते तो अब तक मैं दो दो हाथ कर चुका होता। पर यहां तो बहुत अंतराल है, हम दोनों के बीच। मैं हमेशा उनसे दूर रहा, गांव में। पहली बार उनके घर में रहने आया। वे कभी गांव आए नहीं। बाबूजी ही एकमात्र लिंक थे, पूरे परिवार से उनको जोड़ने वाले। अब बाबूजी पहली बार सनके थे। कुछ न कुछ होने वाला है। ये बबीता मैडम का तमाशा खत्म होकर रहेगा। बाबूजी कह रहे थे...अब भइया को यहां ले आएंगे, यहां क्या कष्ट है, सारी सुविधा है। उनको लिखना पढना है, यहां कौन डिस्टर्व करेगा, जितना मर्जी हो, लिखें पढे, अब उनको कमा कर क्या करना है। पेंशन काफी है उनके लिए। भइया को अब यहां समाज से जुड़ना चाहिए...शहर आते जाते रहे..पर अब उनका ध्यान हमलोगो को ऱखना चाहिए..है कि नहीं...

मां सिर हिलाती और उस पर मुहर लग जाती। बाबूजी मां से सिर्फ यही तो चाहते थे-सिर हिलाना, यानी सहमति। बाबूजी चचाजी की तरह नहीं हैं कि बबीता मैडम उनसे बहस करती रहें और वे परास्त होकर “वेलडन वेलडन” करते रहें। यहां तो बाबूजी ने जो बोल दिया, वह ब्रम्हा की लकीर। अपने 22 साल के जीवन में मैंने किसी मर्द को किसी स्त्री से इतना सहमत होते नहीं देखा था। प्रेमचंद की कहानी कफन पर चचाजान को लगभग अपनी नई स्थापनाओं से उन्होंने ध्वस्त कर दिया था। मेरे कानों में उस दिन की बहस आ रही थी लगातार...”कफन कहानी में भूख सबसे बड़ी विलेन है। सामंती सत्ता क्रूर तो होती ही है, भूख भी बहुत निर्दयी होती है, उसके पास विवेक नहीं होता, अपना पराया कुछ नहीं..बुधिया के पेट में किसका बच्चा है, ये बहस मर्दवादी है, पुरुष आलोचक इससे आगे कुछ सोच ही नहीं सकते...। ये तो मर्दो की क्रूरता जस्टिफाई करने के लिए खोजा गया तर्क है...”

उधर से कई देसी विदेसी नाम भी उबलते हुए मुझ तक पहुंचते। सीमोन और सार्त्र की बातें बहुत चाव से वे दोनो करते। उन बातो में खास किस्म की उत्तेजना दिख पड़ती और मैं इन उत्तेजित आवाजो को अनसुना कर प्रतियोगिता दर्पण के सवालो में खो जाता। चचाजान की आवाज बहस के दौरान बहुत आवाज और मोहक लगती थी। बाबूजी से बात करते समय मैंने उनकी मोहकता नोटिस की है। दो भाइयों के बीच गजब की केमिस्ट्री देखी मैंने। वो मेरे और पापा के बीच कभी नहीं रही। लाडला होते हुए भी वे मुझे किसी सीमा पर करीब आने से रोक देते। चचाजान भी वैसे ही निकले। अब तो इतना सबकुछ सोचने का वक्त कहां था मेरे पास। मेरे आसपास अपनी दुनिया विकसित हो रही थी और उसमें नए धड़ और सिर उग रहे थे, अपनी भाषा और अपनी संवेदना के साथ। मैं इसमें खो जाना चाहता था, बस एक बार यहां से निकल जाऊं....फिर तो सब पीछे छूट जाना है। सबको पीछे छोड़ने को मैं जितना बेताब था, बबीता मैडम उतनी ही घर मे घुसी चली आ रही थी। यहां धर्मशाला में दलाईलामा के निवास को खोजते हुए हम मुख्य बाजार से चढाई की तरफ जा रहे थे। चारो तरफ तिब्बती लामा छितराए हुए से, जैसे पहाड़ो में सुदूर रंगीन पतंगे हवा में एक साथ बंधी हुई डोलती नजर आती हैं। हल्की ठंड थी। सबने गरम कपड़े पहन रखे थे। मैं मफलर लाना भूल गया। राजेश ने कहा-यहीं लोकल मार्केट से ले लेते हैं। चढते हुए मेरी नजर एक रेडीमेड गारमेंट की बड़ी सी दूकान पर नजर पड़ी। सबको छोड़ मैं वहां घुस गया। बिलिंग काउंटर पर जो सज्जन जमे बैठे थे, उनके चेहरे पर स्थायी भाव मुस्कान जमी थी। जब भी नजर जाती, वे अनायास मुस्कुराते नजर आते। शायद यह व्यवसायिक मुस्कान होगी, जो हरेक वणिज वर्ग के लोगो के चेहरे पर चस्पां होती होगी। बिल बनावाते समय उन्होंने आखिर पूछ ही लिया-

“आप कहां से आए हैं...?”

“लक्ष्मीपुर से..”

सच ही बता दिया। झूठ बोल कर क्या करना था। बिल चुकाया, झटपट निकलने लगा।

“ क्या....वाह...सच्च में...फिर तो आपको मेरे साथ थोड़ी देर बैठना पड़ेगा...।“

“क्यों भई...कुछ खास..आप मेरी मेहमाननवाजी करेंगे क्या...?”

“क्या पता..हम कर ही दें...आप हमें मौका तो दें..इधर आएं, समय हो तो बैठे..आप कहां ठहरे हैं..कितने दिन हैं...?”

उनके अप्रत्याशित सवालो से मैं अचकचाया। मुस्कान वैसे ही कायम...। सोचा बात कर ही लेता हूं, कोई बात जरुर होगी, तभी पूछ रहा है।

और फिर जो मैं वहां ठिठका, कहीं जा न सका। मुझे क्या पता था कि उस रेडीमेड दूकान के तार मेरे ही घर से जुड़े निकलेंगे। मैं दलाईलामा, धरमशाला, पहाड़ी हवाएं, नदियां, बादल, रंगीन पतंगे...सब भूल गया था। मुझे धीरे धीरे सुनाई देना कम हो रहा था। कानों में पहाड़ी हवाएं घुस गई थीं जिनमें बहुत सी संर्घष कथाएं घुलीमिली थी। जिसे मुझे सुनना था...सुना नहीं सकता था। वे मुस्कुराते हुए, कम पढे लिखे, सामान्य से व्यापारी सज्जन मैडम बबीता के पति थे। उन्होंने अपनी प्रतिभाशाली पत्नी को शहर भेजा था, एडहौक पर काम करने। दो बेटे हैं, जिन्हें होस्टल में रख दिया है। दूकान से अच्छी खासी कमाई हो जाती है। अपनी कमाई से पहले पत्नी को खूब पढाया, और उसकी आकांक्षा को देखते हुए दूर, 1500 किलोमीटर दूर, अनजाने शहर में भेज दिया।

“आप भी उनके साथ क्यों नहीं रहते ?”

“कैसे रह सकता हूं...? मेरी मिसेज तो चाहती हैं कि मैं यहां का सारा बाइंडअप करके शहर उनके साथ रहने लगूं। लेकिन मैं वहां क्या करुंगा..मेरे लिए क्या काम होगा वहां। फिर मैं प्योर हिमाचली आदमी, पहाड़ो पर जीवन काटा। मैदानी इलाके मुझे वैसे भी रास नहीं आते। मैं यहीं ठीक हूं..मिसेज लौटना नहीं चाहतीं, उनकी मर्जी पर छोड़ दिया है। मैंने तो बोल दिया है, जब इच्छा हो आएं, उनका घर है। पर पहले अपना करियर देखे। वे सेटल कर जाएं, बच्चे भी सेटल हो जाएंगे। मेरा क्या है...कपड़े बेचता हूं..बेचता रहूंगा..”

उनकी आवाज की सांद्रता मुझे छू रही थी। मैं क्या कहूं...इस वक्त मुझे अपनी भूमिका समझ में नहीं आ रही थी। वह एक अजनबी से इतना कैसे खुल सकता है। इतनी बाते कैसे कोई कर सकता है। खासकर पति तो कभी अपनी पत्नियों की बातें आपस में भी शेयर नहीं करते। ये बातें मुझसे क्यों कर रहे हैं। मुझे पता भी नहीं चला कि कब वे सज्जन मुझे साथ लेकर पहाड़ी की चढाई चढते चले गए। मैं उनकी बातों में कम अपने घर की यादो में ज्यादा खो गया था।

“यहां लक्ष्मीपुर के पर्यटक कम ही आते हैं...मैं सबसे पूछता जरुर हूं कि वे कहां से आएं हैं...ताकि मैं कोई सामान मिसेज को भेज सकूं। इस सीजन में पहले आप मिले...सो आपसे इतनी बात कर पाया..”

“आप जानते हैं उन्हें ?”

उनके अप्रत्याशित सवाल से मै चकरा गया। क्या कहूं..हां या ना...झूठ कहूं या सच। सच कहूं तो क्या बताऊं कि कैसे जानता हूं और क्या सोचता हूं उनके बारे में...

पूरे शरीर में झुरझुरी हुई।

मेरी चुप्पी पर उन्होंने सवालिया निगाहो से मुझे देखा। मैं थकने लगा था। वे समझ गए। सड़क के किनारे एक चट्टान पर बैठने का इशारा किया।

“वो नीचे गांव दिख रहा है आपको..?”

नीचे बादलो से ढंके कुछ कच्चे पक्के मकान और सीढियांदार खेत दिखाई दे रहे थे।

यहां से पांच किलोमीटर है, हम पैदल जाते हैं शाम को वहां। जंगल होकर रास्ता है...इसीलिए शाम को दूकान जल्दी बंद कर देता हूं। लेकिन टूरिस्ट सीजन में रात को दूकान में ही रुक जाता हूं।

“आप चलेंगे हमारे गांव...”

“मैं....??”

“अरे मैं कहां इतनी दूर पैदल चल पाऊंगा...सचमुच आप पहाड़ के लोगो का जीवन बहुत कठिन है...रोज इतनी चढाई..?”

“जीवन है तो कठिन...जो मैं जी रहा हूं...परिवार बिखर गया है। मिसेज कहीं, मैं कहीं..बच्चे कहीं..पर संतोष इस बात का है कि मेरी मिसिज बहुत टैलेंटेड है...बता रही थीं कि वे ऐसी किताब पर काम कर रही हैं, जिसके छपते हंगामा हो जाएगा, हो सकता है लोग उन पर केस वेस कर दें...वे डरती नहीं हैं..बड़ी हिम्मती महिला हैं...अपने दम पर यहां तक पहुंची हैं..अभी भी वहां अकेली अपनी जगह बना रही हैं..उनमें शुरु से लगन था, कुछ करने का...मैंने रोका नहीं..मैं कुछ नहीं कर पाया तो उन्हें तो करने दूं..अपने हिस्से का पंख लेकर हम सब पैदा होते हैं..उड़ना चाहिए..नहीं..??”

मैं अब भी स्थगित मूड में था। क्या बोलूं...हैरानी जरुर हुई कि क्या ये इतने नादां हैं कि कुछ समझ नहीं पा रहे। इतने मुग्ध हुए जा रहे हैं अपनी बीवी पर, और बीवी वहां...

मेरे भीतर वितृष्णा सी जगी। मेरे भीतर का कुंवारा मर्द, किसी शादीशुदा मर्द की तरह जाग रहा था। मन हुआ कह दूं कि सब छोड़ छाड़ कर जाओ मियां...बीवी हाथ से निकल रही है। बाद में माथा पिटते रहोगे, चिड़िया दाना चुग कर निकल गई है। चिड़ियां मेरे ही चचाजान के पिंजरे में है...जाओ..या बुला लो..इतनी आजादी, इतना भरोसा...किसलिए..

मुझे उस पर बेहिसाब दया भी आई और गुस्सा भी। ये आदमी किस मुगालते में जी रहा है...मेरी जगह शहर का कोई और बंदा मिल गया होता तो इनको सच्चाई बताता। वहां मैडम बबीता क्या गुल खिला रही हैं...किसी बुढ्ढे को पकड़ रखा है..आपका तो नाम भी नहीं लेतीं..पति किस चिड़िया का नाम है, उस शहर में कोई नहीं जानता..

इससे पहले की मेरे भीतर की कटुता प्रकट होती, मैंने उनकी तरफ देखा और चौंक गया।

मेरे सामने हवा में एक सूखा चेहरा टंगा है। धड़ विहीन चेहरा। उससे गर्वीली रौशनी फूट रही है। वह रौशनी मेरे अंतस में पैठ रही है, मेरे भीतर कुछ भर रहा था। कुछ बाहर आ रहा था। कुछ अंदर जा रहा था। भीतर कुछ खुरचने की आवाज निरंतर आ रही है ठीक वैसे ही जैसे रात के गहन अंधेरे में कोई कीड़ा काठ को खुरचता है और उसकी बाहरी परत उतार देता है। मुझे अचानक लगा कि मैं नंगा हो गया हूं..रौशनियां असंख्य बर्छियों में बदल कर मुझे बाहर भीतर छेद रही थीं।

हवा में टंगे उस चेहरे ने कहा...”चलिए, गेस्ट हाउस चलते हैं, हवा में ठंढक बढ गई है।“

मैं उस धड़विहीन चेहरे से दूर भाग जाना चाहता हूं...।

***