वह रात किधर निकल गई Geeta Shri द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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वह रात किधर निकल गई

वह रात किधर निकल गई

गीताश्री

वह रात नसीबोवाली नहीं थी.

देर रात फोन पर झगड़ने के बाद बिंदू किसी काम के लायक नहीं बची थी।

आयशा और वैभव दोनों दूर से सब देख समझ रहे थे, खामोशी से। आयशा ने कई बार कूल..रहने का इशारा आंखों आंखो में किया और वैभव..वह अपने में डूबा आईपैड पर गेम खेलता रहा। सबकुछ तो था उस एक कमरे में। सिर्फ वह नहीं था जिसे वह हर रात बुलाती थी अपने पास। जिसकी जरुरत थी इस घर परिवार को। उसे और उसके बच्चे सबको. उसकी देह के सारे चिराग अब बुझने लगे थे। सारे मौसम लापता हो रहे थे। एक पत्ता चुनती कि कोई डाली भरभरा कर टूट जाती। बारिश को मुठ्ठी में कसती कि हवाएं उसमें सूराख करके निकल जातीं। सबकुछ तो था उस ग्राउंड फ्लोर के छोटे से मकान में जो धरती के ऊपर ऐसे धरा हुआ दिखता था जैसे मेरे अरमानो पर कोई घड़ा। वह नहीं समझता या समझता है..पता नहीं। वह बच्चो को यहां पढाए और वह खुद पैसे कमाने की मशीन में बदल जाए...यह तो तय नहीं था जिंदगी। फोन रखते हुए होठ अपने आप बुदबुदाते रहे। हर रात जैसे ज्वर चढ आता है। दो बच्चों को संभालना कोई खेल नहीं। वह भूल बैठी है खुद को...

“ज्यादा दिन बाहर रहे तो तुम्हें भी...”

बुदबुदाते हुए उसने आंखें मूंद ली. कोई परिचित गंध फिर आज की रात घेर रही है उसे। स्थायी ज्वर उतर आएगा देह में। दिन भर दूर रहने वाला ताप रात को ही घेरता है..जाने क्यों...। किंग साइज पलंग पर लदे तीनों मान कर सोते हैं कोई चौथा मिसिंग है यहां। वह दूर दूर तक हाथ फैला कर साटन के चादर को हथेलियों से सहलाती और नींद कब पसर जाती...पता नहीं चलता।

आधी रात को कोई गाड़ी की कर्कश आवाज ने नींद से जगा दिया। वैसे भी बच्चो के साथ रहते हुए नींद को कच्ची रखऩी चाहिए. उनकी जरुरतो के हिसाब से उनकी नींद टूटती और जुड़ती।

नींद टूटी पर आंख खोलने का मन नहीं हुआ। ऐसा लगा कि किसी की तेज सांसो की आवाज आ रही है। सहसा चैतन्य हुई।

आय़शा हमेशा कहती रहती है..

”मम्मा..कोई भूत रहता है घर में...घूमता है...हां..मम्मा...मुझे छूता भी है..आप हंसो मत...”

“हारर फिल्में कम देखा कर बच्चे...भूतहा सीरियल देख देख कर तेरा ये हाल...”

“सारे रिमोट छिपा दूंगी...फिल्में देखना बंद...”

बस ये बातें थीं, रिमोट कहां छिपाती...जिंदगी का रिमोट बस अपने हाथ रखना जरुरी था। अभी तक तो मेरे हाथो में थी। वो न किसी के हाथ लग जाए। यही कोशिश रहती। जिंदगी के रिमोट के सारे बटन वही दबा सकती थी, पर मनचाहे चैनल अभी भी उससे दूर थे। वे फ्री टू एयर नहीं थे। कुछ का सिगनल वीक था तो कुछ का प्रसारण धुंधला...जिसमें जिंदगी की तस्वीरें साफ साफ नहीं उभरती थीं। साफ साफ के लिए उनकी मोटी कीमत चुकानी पड़ेगी। चुका ही तो रही हूं। घर है, पर खाली। जिस वक्त साथी की सबसे ज्यादा जरुरत, वो साथ नहीं। मानो ठीक तीखी धूप के समय कोई छाता चुरा ले या भूख के समय निवाला नीचे गिर जाए।

घने अंधेरे में बिजली सी कामनाएं चिंहुकती हैं कभी कभी। इन बिजलियों को अपने भीतर उतारने का वक्त और गोद में फूलो के खिलने के वक्त यूं टकरा जाता है उस कदर. दोनों में सामंजस्य बिठाने में किसी एक का कबाड़ा तय है. वह फूलो के साथ छोड़ दी गई थी। सब कुछ बहुत जल्दी जल्दी हुआ. केशव को बच्चे जल्दी चाहिए थे. कई बार लगा कि वह मेरे उद्दाम आवेग से परेशान तो नहीं था कि उसे थामने या कम करने के लिए इधर उलझाना चाहता हो या खुद से ध्यान हटाने के लिए मुझे बच्चो में उलझाना चाहता हो. कोई तो बात रही होगी कि जल्दी जल्दी के शोर में मेरी चाहतें धरी रह गईं. मैं केशव के साथ पहले जी भर के जी लेना चाहती थी. इधर उधर, जहां तहां...घूम घूम कर, सारे अरमान पूरा कर लेना चाहती थी. केशव ने जैसे परिवार की प्लानिंग कर रखी थी. इतने साल में शादी, फिर दो बच्चे, फिर खूब पैसा...उसके अभाव की पोटली उसके मन पर इस तरह हावी थी कि उसे सिर्फ वैभव दिखता था। सुविधाएं और सुविधाएं...एक घर..अनेक घर..सपनों की लड़ियां बनाता हुआ, एक दिन बाहर जाने की घोषणा कर गया.

“क्या हम साथ नहीं जा सकते ?”

“नहीं बिंदू, वहां फैमिली वीजा की समस्या है. फैमिली साथ नहीं रख सकते...कौन फैमिली से दूर रहना चाहता है, बताओ,,,मेरी भी मजबूरी समझो यार...बस कुछ साल की बात..फिर यहां लौट आऊंगा..तब तक तुम हो न यहां संभालने के लिए..”

“हां..मैं हूं..सब संभाल लूंगी...पर मुझे कौन...? “

बोलना चाहती थी, बोल नहीं पाई थी...दर्द की चिलक उठी कहीं भीतर तक उतर गई.

उसने शो केस की तरफ देखा. कई मूर्तियां शीशे के अंदर यथावत रखी थीं। मूर्तियां कलेक्ट करने का केशव को बहुत शौक है. एक और बना गया. उसे लगा, शीशे के अंदर, एक मूर्ति और झिलमिला रही है..धूसर रंगो वाली..प्राणविहीन..वायुविहीन..

मूर्ति निकलेगी शीशे के बाहर, सामाजिकता निभाने..

“अरे..मिसेज बंसल, आप अकेली आई हैं...पति अब तक बाहर ही हैं...”

“हाय..सारी जवानी इंतजार करते बीतेगी क्या..?”

“चलो यार, हम कहीं पार्टी करते हैं..नो हसबैंड्स...उनके बिना भी तो हम मस्ती से जी सकते हैं..नहीं..?”

“किटी क्यों नहीं ज्वाइन कर लेती..मन ही तो लगाना है..पैसे तो खूब आ ही रहे हैं..ऐश कर यार..क्या मुंह लटकाए बैठी रहती है..?”

“ये भी कोई जीवन है क्या..? वो वहां ठाठ कर रहा होगा..परदेस है भई..हम यहां ..”

मिसेज गोयल बात बात पर आंखं मार कर ठहाके लगाती हैं।

मिसेज सिंह थोड़ी सेंसेटिव दिखती हैं, कायदे की बात करती हैं.

“तुम यार...बहुत मिस करती हो अपने हसबैंड को...है न..पर सच कहूं...कुछ दिन बाद तुम्हे अकेले ही मजा आने लगेगा..आदत जो पड़ जाएगी..फिर उनकी दखलअंदाजी सह नहीं पाओगी...फिर एक दिन टोकाटोकी भी खराब लगेगी..और अंत में उपस्थिति भी..”

वह रुकी.

आंखों में वीरानी सी दिखी. मानो कहीं दूर देख रही हों...वहां कुछ दिख रहा हो..जिसे पढने की कोशिश कर रही हों..

“वैसे सच कहूं..लौंग डिस्टेंस रिलेशनशीप ज्यादा अच्छी होती है...सारे पहरे खतम...”

मिसेज सिंह अब बुझ सी गईं थीं.

इस मूर्ति को ये सब बातें बेकार लग रही हैं..वह हिलना चाह रही है..कुछ प्रतिवाद करना चाहती है..अभी वह अभी इतना डूबी नहीं कि उबरने की चाहत हो...इतना बंधन नहीं कि मुक्ति का भाव पनपे..वह तो

अभी छक कर जी भी नहीं पाई थी कि छूट गई, भीड़ में, दो नादान बच्चो के साथ. वह दो नहीं, तीन बच्चे हैं..

अंधेरे में सांसो की आवाज तेज हुई। उठने का आलस और हल्की सी सिहरन हुई। बच्चें ही होंगे, बड़े से पलंग पर दूसरे छोर पर वैभव और मेरे साथ, बीच में आयशा। कुछ दिन पहले ही मैने यह व्यवस्था बनाई कि हम सब साथ सोएंगे। एक ही कमरे में, एक ही पलंग पर। ये व्यवस्था बहुत जरुरी थी।

पिछले दिनों जो कुछ घटा, उसकी तकलीफें भूली नहीं। कैसे भूलती। एक मां तो कभी नहीं भूल सकती। वैभव को देर रात तक ड्राइंग रुम से स्टडी करना चाहता था। थोड़ी देर टीवी देखता फिर वहीं सोफे पर पसर जाता। मै और आयशा कमरे में सो जाते। उसने सोचा बच्चा बड़ा हो रहा है, उसे अकेले पढने लिखने की आदत डालनी चाहिए। उसे उसकी मर्जी के अनुसार छोड़ देती थी। वह भी कुछ देर वहां लैपटाप लेकर सोफे पर धंस कर फेसबुक पर लगी रहती। या देर रात व्हाटसअप पर दोस्तो से बतियाती या चुटकुले शेयर करती। किसी तरह समय काटना लक्ष्य था. ऐसा लगता था पृथ्वी पर उसके लिए सारे काम खत्म हो गए हैं और निरुद्देश्य समय को नष्ट कर रही है या समय मुझे। इतना जरुर होता कि वह उस नष्ट करने या होने की प्रक्रिया में मुस्कुराती जरुर थी। वह मेरे मुस्कुराने का भी वक्त था। भीतर में उदासी की तहे काई की तरह जमीं थीं। उनकी परतें उघड़ती जाती..और सुबह होते ही फिर से चढने लगती। दोनों बच्चे स्कूल चले जाते और वह...महाशून्य से भरी हुई स्त्री में बदल कर उनके आने तक ढनढनाती रहती।

मां फोन करके कहती-“तू बहुत बड़ा काम कर रही है। तपस्या है, बच्चे पालना और उन्हें अगोर कर शहर में अकेले रहना। वो भी तो वहां तपस्या ही कर रहा होगा ना। सहयोग कर बेटा..बस कुछ साल की ही तो बात है। पैसे आसानी से नहीं आते...।“

केशव की मां कहती हैं-

“तुम ही लोगो की वजह से अकेला वह कमाने परदेस गया है न। क्या जरुरत थी वहां जाने की। तुम लोगो को मौज से रखने के लिए गया है। मौज तो तुम ही लोग करोगी ना...उसके पैसे से हमें कौन सा सुख मिलेगा..।“

व्यंग्य के इतने तीर एक साथ कलेजा बींध कर पार हो जाते। चुपचाप सुनती और देर तक कभी खुद को तो कभी घर को देखती और उनमें मौज के निशान खोजती।

जरुरत भर का सामान, दो कमरो का घर और सुबह से शाम तक वाली एक ट्रेंड मेड...बच्चो की पढाई अच्छे स्कूल में जरुर हो रही थी। महंगे अपार्टमेंट में रह रहे हैं, यह चाहत उसकी नही केशव की थी कि बच्चों को ऐसी सोसाइटी में रखें जहां हाईफाई लोग रहते हों, जहां जिम, क्लब और स्वीमिंग पुल हो। मुहल्लाछाप संस्कृति से उसे चिढ थी। इसमें उसकी पसंद कहीं शामिल नहीं। न उससे पूछा न उसने कभी व्यक्त किया। इन सबकी कीमत हम दोनों अपने अपने ढंग से चुका रहे हैं।

अब भी याद है, रोज नेट पर बैठ कर विदेशो में जाब सर्च करने की उसकी लत पड़ चुकी थी। बिंदू रोज टोकती- “क्यों बाहर जाने को मरे जा रहे हो. हम रह लेंगे, जैसे तैसे. मेरी कोई बड़ी ख्वाहिश नहीं है। हम कमसेकम साथ तो हैं न. क्या जरुरी है परिवार से, देश से दूर रहने की. अगर विदेश में नौकरी की इतनी ही ख्वाहिश है तो सब साथ चलें तो ठीक। ये क्या बात हुई कि तुम अकेले जाओ और मैं यहां दो बड़े हो रहे बच्चो के साथ अकेले..कैसे होगा मुझसे..फिर से सोचो इस पर..”

सब सुनता केशव और हंस कर टाल जाता या अनसुना कर देता। कैसे बताए मां जी को कि उनका बेटा मेरे सपनो को पूरा करने नहीं, अपनी लाइफ स्टाइल को हाईफाई करने के चक्कर में पड़ गया है। ये सच है कि पैसे आ रहे हैं...बैंक बैलेंस अच्छा हो रहा है और मन का बैलेंस...धीरे धीरे खाली..सब कुछ हाथ से निकल रहा है। हर रविवार बच्चे चीखते हैं- “हमें आप कहीं घूमाने नहीं ले जाती हैं..सबके मम्मी पापा उन्हें संडे को घूमाने ले जाते हैं, बाहर डिनर कराते हैं..आप तो हमें छुट्टियों में भी कहीं नहीं ले जाती हो...हम बोर हो रहे हैं मम्मा..”

वैभव बोलता-

“मम्मा..आपकी तो किटी पार्टी हो जाती है....हमें तो आप कहीं जाने नहीं देती..मैं अपने दोस्तो के साथ माल में घूमने जाना चाहता हूं...आप नहीं रोंकेंगी..”

“मैं भी साथ चलूंगी भाई...”

“तू...हरगिज नहीं..शक्ल देखी है अपनी..तू हम लडको के साथ जाकर क्या करेगी...ओनली व्बायज..गर्ल्स नौट अलाउड...”

“बड़ा आया शाहरुख खान..अपनी देखी है, हमें भी नहीं जाना..जा...सारे इडियट हैं तेरे दोस्त..स्कूल में गर्ल्स के पीछे भागते रहते हैं...मैं सब देखती रहती हूं...छी..”

“मम्मा..कितनी बार मैंने कहां, हम दोनों को अलग अलग स्कूल में डालो..ये मुझे तंग करती है..दोस्तो के बीच में घुस आती है...”

बात करते करते दोनों एक दूसरे को मारने मरने पर उतारु हो रहे थे..जैसे अभी नोच डालेंगे एक दूसरे को..दोनों पलंग पर पड़े रिमोट को उठा कर एक दूसरे पर फेंकने को तैयार दिखते हैं।

बीचबचाव न करें तो घर युध्द के मैदान में तब्दील हो जाए। केशव ये नजारा कहां देख पाए तुम...ये देखो..इनका बचपन..साल में एक बार, एक महीने..क्या होता है उस दौरान। तुम्हे फुरसत कहां , पूरा खानदान उठा कर दिल्ली चला आता है मिलने...फिर तुम्हें जाना होता है, कभी दीदी के यहां तो कभी फुआ के यहां तो कभी कहीं तो कभी कहीं..अनगिन काम. साल भर की प्रतीक्षा को मैं टुकड़ो में बंटते देखती हूं...

“सोचती हूं कि तुम कहोगे शुक्रिया बिंदू, तुम मेरे दोनों बच्चो को अकेले पाल रही हो...मैं वक्त नहीं दे पा रही हूं..जल्दी लौटूंगा...मैं विभोर हो जाऊंगी...और लिपट कर तुमसे कहूंगी कि अरे नहीं...ये मेरे भी तो बच्चे हैं...तुम अपना खयाल रखो...बस. हो सके तो लौट आओ..पर तुम्हारा चेहरा हर समय सिक्के की तरह चमकता रहता है, अपनी ही आभा में।

क्या केशव वहां अकेले बहुत खुश है...या कोई और वजह ?

“बेटा, जरुर आपके पापा ने वहां कोई गर्ल फ्रेंड खोज ली है..तभी उन्हें यहां लौटने का मन नहीं करता..”

“मम्मी...एक बात सीरियसली बोलूं...आप गुस्सा तो नहीं करोगे ना...?”

आईपैड पर कुकिंग गेम्स खेलते खेलते आयशा ने उसे चकित कर दिया.

“आप भी कोई अच्छा सा ब्वायफ्रेंड क्यों नहीं बना लेती अपने लिए..”

“व्हाट...??”

“आयशा..., आर यू मैड .? .यही सब सीखती रहती है टीवी सीरियल देख देख के ? ”

“ कूल मौम, आप गुस्सा मत होओ न...सच्ची कह रही हूं..अच्छा सा बनाना..क्यूट सा...हमें भी पसंद करे..हम मस्ती करेंगे साथ साथ..आपको भी मन लग जाएगा..नहीं...एम आई राइट मौम...?”

आयशा भी बड़ी हो गई है.. बिंदू ने उसे गौर से देखा...देह भरा रही है. बस तीन साल और..फिर उसके भीतर से संपूर्ण लड़की फूटेगी. क्या वह नोटिस करती है, मां रुपी स्त्री की सफरिंग को...। बेटा भी सोचता होगा क्या कभी, उसकी जवान मां को साथी की चाहत हो रही है...?

बिंदू कभी उन्हें पता नहीं लगने देती कि उसके मन पर क्या बीत रही है...कभी कभी जब दोनों बहुत तंग करते तो वह झिड़कते हुए कुछ उल्टा बोल जाती..लगता सब छोड़ कर कहीं दूर..भाग जाए..जहां कोई शोर न हो..जहां आंखें आधी मूंदी हों, हवाएं उसके संकेत पर बहे..पक्षी उससे पंख उधार मांगे..धूप की हथेलियां इतनी नरम हो कि देर तक गालो पर धरी रहें..कहां जाए..किस छोर पर..

केशव हमेशा झिड़कता-

“यार, तुम हमेशा रोमांटिसिज्म में जीती हो. कई बार तुम्हारे सपनों और आकांक्षाओं से डर जाता हूं। शायद मैं कभी उन्हें पूरा न कर पाऊं. हमारी इच्छाएं मैच नहीं करतीं। मैं बहुत फांके पाता हूं विचारो में. मैं भरे पूरे परिवार का सुखी जीवन का सपना देखता हूं बस...तुम्हारे रोमांटिसिज्म में मैं खुद को मिसफिट पाता हूं...”

क्या चाहती थी वह ? उसके भीतर से अजस्त्र धारा सी फूटती रहती है..उसे उकसाती है। वह इतनी जल्दी मातृत्व के लिए तैयार नहीं थी शायद...उसे कुछ छोटे छोटे सपने पूरे करने थे...तुम्हे हर चीज की जल्दी थी..पर मुझे..? शायद..केशव के साथ, लंबी यात्रा का स्वप्न, संगीत की शिक्षा पूरी करना, अपने खयालों में खुद को किसी क्लब में अक्सर गाते हुए पाती..। सब ठप्प. सपनो का ठप्प होना तुम क्या जानो केशव..तुम्हें क्या बताऊं ? मैं, आयशा और वैभव साथ साथ ही बड़े हो रहे हैं...

मुझसे ये दो बड़े हो रहे बच्चे संभलते नहीं। कई बार सबको छोड़ कर दूर भाग जाने का मन करता है...फिर एक पुकार रोक लेती है..वो इन्हीं बच्चो की होती है..जानती हूं..तुम भी नहीं हो, इन्हें मेरी जरुरत है. जरुरत तो तुम्हारी भी है पर तुम तो ऐन वक्त पर नदारद हो। ये दिन, ये सपने दुबारा नहीं लौटंगे केशव..

फिर तुम झुंझला कर कहते हो-

“तुम्हारे सपनो के लिए भी पैसा कमाना जरुरी है। तुम संगीत क्लासेज अटैंड करो..खाली वक्त का फायदा उठाओ..मैं लौट आया तो कहां तुम्हें इतना खाली छोड़ पाऊंगा...”

कहते कहते शरारती बच्चे की तरह आंख मार देते।

बिंदू की घुटन थोड़ी कम हो जाती। आत्मा में रुई के फाहे उड़ने लगते. आह निकल जाती...

....

सांसो की आवाज थोड़ी और तेज हुई। अब उठऩा ही पड़ेगा। हम तीनो ही तो हैं इस कमरे में। बहुत हल्की हल्की आ रही है। उस रात अचानक बिंदू उठी, ये देखना चाहती थी कि वैभव सोया या अभी तक पढाई कर रहा है। लगभग आधी रात थी। लाइट जल रही थी इसलिए शंका हुई। इस रात के बारे में सोच कर सिहर जाती है। दुबारा कोई भी मां वो सीन नहीं देखना चाहेगी। सोफा पर लैपटाप औन था और वैभव औंधे पड़ा हुआ हिल रहा था।

“वैभव...” .वह चीखी.

उसकी देह स्थिर हो गई..लैपटाप पर कोई फिल्म चल रही थी, हल्की सिसकारियां उससे निकल रही थीं...बिंदू ने देखा और खुद को किसी वहशी में बदलते हुए पाया। उसकी आंखों के आगे अंधेरा छा गया था। वह चीख रही थी। वैभव सोफे से नीचे गिरा पड़ा था और वह उसे पीट रही थी।

“निकल जा मेरे घर से..तेरे जैसा बच्चा नहीं चाहिए...पता नहीं और क्या..क्या...” लैपटाप लुढक गया था..उसके सामने 13 वर्षीय बेटा नहीं, अपराधी पड़ा था। वह रोता गिड़गिड़ाता रहा..वह पागल बन गई थी।

“मेरा बच्चा..कैसे कर सकता है ऐसा..यकीन ही नहीं हो रहा था..लगा जैसे कोई दुस्वप्न देख लिया हो मैंने और नाहक अपने बेटे को पीट रही हूं...वह रोता हुआ मुझसे लिपटना चाह रहा था और मुझे उससे घिन आ रही थी। मुझे अपने आप से भी घिन आ रही थी...”

उसे नहीं पता वह उस रात कितनी मौत मरी..नीम अंधेरे में दरवाजा खोल कर उस बच्चे को बाहर करके दरवाजा बंद कर लिया।

वह रोता चीखता रहा...”मम्मी माफ कर दो...दरवाजा खोलो...अब नहीं करुंगा ऐसा..आय एम सौरी मम्मा..मौम..प्लीज...पापा से बात करवा दो...प्लीज...”

कमरे से आंखें मलती हुई आयशा दहशत में आकर उससे चिपट गई। बिंदू ने रोते रोते रियाद फोन मिला दिया। चाहे जो समय हो, उन्हें उठाना तो पड़ेगा। अपनी मनोदशा का बखान करना मुश्किल काम है। बस किसी तरह फोन पर टूटे शब्दों में केशव को बता दिया। आयशा अब रोने लगी थी।

“मम्मा भइया को बाहर से बुलाओ...मैं दरवाजा खोल दूंगी..आप उसे अंदर लाओ…” वह बिलख रही थी- “प्लीज मम्मा..”

केशव ने धैर्य़ से सब सुना और बस इतना कहके फोन रख दिया-“इटस नेचुरल डार्लिंग। उसको अंदर लाओ..कल सुबह मैं खुद बात करुंगा उससे।

“नेचुरल !! इतनी बड़ी बात..उसके लिए नेचुरल..!! मैंने पहली बार अकल्पनीय दृश्य देखा था। मेरे दिल पर क्या बीत रही है, केशव को न खबर न परवाह। वह इतना कूल कैसे रह सकता है ? ओह..!!

मैं क्यों मरी जा रही हूं..क्यों...दोनों हाथो से अपने गालो पर जोर जोर से थप्पड़ मारने शुरु कर दिए। स्मृतियों की हिलोर उठी..हिम्मत करके मां को बताया, मां ने पापा को..दोनों बात कर रहे हैं..वह बिस्तर पर लेटी सब सुन रही है...”छोड़ो जी, ये सब होता रहता है..जवान लड़का है, नेचुरल है, हर घर में होता है, कौन सी नई बात..इतनी सी बात पर घर से निकाल तो नहीं सकता..अपनी बेटी को ही कंट्रोल कर लो..”

“सही कहते है जी...घोड़ी होती जा रही है, भाईयो की देह पर ही कूंदती फांदती रहती है..दूर रहना चाहिए न..समझाएंगे..जाने दीजिए...बात यही दबा देते हैं...”

और बात दबती गई, भय बढता गया, देह में स्थायी कंपकंपी ने बास कर लिया था। “पीपर के पतवा सरीखे डोले मनवा..” जैसे भाव में खुद को पाती। मां के अलावा सबकी पुकार पर वह चिंहुक उठती थी. हर समय लाल सूर्ख आंखें पीछा करतीं. पढने के लिए कुर्सी पर बैठते डर लगता। उसने महसूस किया है कई बार कि कुर्सी लकड़ी की नही रह जाती, उसके बैठते ही वह देह में बदल जाती है, भारी भरकम देह..कुर्सी के हत्थे उसे भींजने लगते हैं जोर से...वह जकड़ जाती है..उसका दम घुटने लगता है..वह पढाई छोड़ कर दूर भाग जाना चाहती है...पापा जी चिल्ला रहे है..”ये बट नेचुरल है...” मां कह रही हैं..”बात को दबाओ..ये भी कोई बताने की बात होती है..” उसकी रगो में खून दौड़ते फिरते रहने के काबिल नहीं रह गया। असंख्य बर्फीले गोले त्वचा के भीतर से बाहर फूट कर निकलना चाहते हैं...मजबूत खाल उसे फूटने नहीं दे रही..संघर्ष जारी है...

एक और नागदंश। जहरीली नीली रेखाएं...नहीं गांठे गईं कहां थीं कि फिर से वही बात..इटस नेचुरल..

विभा दी की शादी हो रही है...आंगन में मड़वे पर सारे लोग हंसी मजाक में डूबे हैं। देवता घर में आज की रात जीजाजी सोएंगे। भाभियों में बहस चल रही है।

“अरे क्या होगा...विभा जी को ही सुला देते हैं..अब जमाना बदल गया है न..क्या हो जाएगा..”

सहरसा वाली नईकी भाभी का सुझाव था।

“नहीं...ठीक नहीं लगता..रात भर की तो बात है..कल से सोएं जितना सोना है साथ..दिन सोए, रात सोए..सोते रहे..यहां तो रस्म निभाना ही पड़ेगा..जब सब रस्म हुआ तो ये भी सही। बड़ा शौक था न कि गांव में शादी करेंगे, पुराने रीति रिवाज से..शहरी लोगो को बड़ा गांव भाने लगा है न..तो निभाओ..”

पटोरीवाली भाभी ने फैसला सुना दिया था।

“बीवी से रात में मिलने ही नही देंगे..ये है गांव का रिवाज..बूझे का..?”

पट्टीदारी की शेरपुर वाली भाभी ने आंख मारी। रिवाज के अनुसार दूल्हे को अकेले नहीं सोने दिया जाता। सालियां सोतीं हैं. उसके साथ नन्हीं सी एक और लड़की खोज कर लाई गई। थरथर कांपती हुई दोनों लड़कियां मजाक के केंद्र में थीं। उसकी जान सूख रही थी। वह रात बहुत काली होने वाली है..वह सोएगी नहीं सारी रात...चुपचाप लेट गई..नन्हीं सोनिया सो गई। जीजा जी करवटें बदलते रहे...

हौले से एक बार पुकारा..उनका हाथ उसकी ओर बढा..अंधेरे में दो चमकती हुई आंखें दिखीं..लगा कोई खंजर सीने की तरफ बढा चला आ रहा है..आह..फफोले पहले ही कम न थे..और जहर..कैसे संभाल पाएगी..। हवा में लहराते सांपो को देख रही थी। असंख्य सांप..अपनी बिलो से निकलते हुए..वह भाग रही है...भाग रही है...

“अरे रे...कहां जा रही हैं..रुकिए तो.., बिंदू जी, ओ साली जी..घबरा गईं...मजाक कर रहा था जी..”

अरे क्या हुआ मेहमान जी ? बच्चे को डरा दिया..इतना भी सब्र न हुआ आपसे..

“ये नेचुरल है जी...साली तो वैसे भी आधी घरवाली..ये तो हड़क गईं..अब आप सोओ सोनिया जी के साथ...बीवी तो आज रात मिलने से रही..वो तो घोड़े बेच कर सो रही हैं..वेदी का धुंआ लगता है तो नींद खूब अच्छी आती है..हमको तो छह महीने तक अच्छी नींद आती रही..कमबख्त, कितना गाली सुनते थे सबसे...”

“नेचुरल बात है...हो हो हो हाहा हाहा...”

ठहाके इतने डरावने भी हो सकते हैं...ये तो वह जानती थी या उस अंधेरे में छूट गई सोनिया।

डरावनी स्त्रियों की आवाजो का कोरस दूर तक उसका पीछा कर रहे थे। सांप का खतरा टल चुका था। पर जिस्म पर स्थायी रुप से कुछ नीली रेखाएं जरुर बन गई थीं।

जिस्म पर उगे फफोलो और नीली धारियों ने कभी उसे सहज होने नहीं दिया। वह निर्भय जिंदगी के सपने देखती हुई इस देहरी तक आ पहुंची थी। बेटा के पैदा होने पर जितनी खुशी मिली थी, बेटी के होने पर खुशी के साथ अतिरिक्त चौकन्नापन भी आया।

ये उसके बच्चे हैं, उसकी तरह होंगे, संस्कारी, प्रेममय और निर्भय...इन्हें निर्भय बनाना है। किसी भी हालत का डट कर मुकाबला कर सके। उसकी तरह घुटने न टेक दें। बच्चे सच बोले या झूठ, वह सब पर यकीन कर ले. कभी अपने बच्चो पर अविश्वास नहीं जताएगी। बच्चो के साथ इतनी फ्रेंडली होगी कि वे सब कुछ बता सकें, अपना गुनाह तक भी। मेरे बच्चे कभी गलत रास्ते पर नहीं चलेंगे..हे भगवान...इतनी कृपा करना..वह बच्चो में ही जी रही थी। बच्चो के लिए ही शायद असमय प्रौढ हो रही थी..अपनी कामनाओ को भूल कर..मातृत्व इस समय दुनिया का सबसे अहम मुद्दा था उसके लिए। जैसे दोनों बांहें चांद और सूरज से भरी थीं। क्या किया उसके ही सूरज ने, उसके भरोसे को, उसके मान को ही जला दिया। न कभी सोचा न उम्मीद की थी। सालो बाद वे छायाएं रुप बदल कर उसके पीछे खड़ी हो गईं थी क्या...?

ओह..सूरज..वैभव...!!

वह कराही। आयशा का रोना बढ गया था। गुस्से और क्षोभ से पूरी देह हिल रही थी। सीएफएल की दूधिया लाइट भी देह के पीले पड़ते रंगो को उजला नहीं कर पा रही थी। लुटे हुए जुआरी की तरह, बिंदू ने दांत किटकिटाते हुए दरवाजा खोल दिया। वह सीढियों पर बैठा सुबक रहा था। डर से पूरा चेहरा फक्क पड़ गया था। उसे लगा, और मारेंगी...पर बिंदू ने खुद को संयमित करके उसे अंदर बुला तो लिया पर खुद उससे दूर रही। वह सारी रात जागती रही। आंखें धुंआती रही। दर्द की लकीर रीढ की हड्डियों में नीचे से ऊपर तक दौड़ रही थी।

कई दिनों घर में अबोला सा रहा। वह अनमनी सी सबसे कटी कटी रही। यंत्रवत सारे काम करती और केशव के फोन का इंतजार सा कुछ महसूस होता। वह भी शांत था उधर. उसके मन की हलचल का कुछ अंदाजा नहीं...

बिंदू के भीतर कुछ टूट कर बिखरने लगा था। शायद किसी की तलाश, कोई छांव, कोई पेड़ कोई दरख्त, जहां मैं जोर जोर से चिल्ला कर अपना दुख उड़ेल सकूं या सुस्ता सकूं कुछ पल। वैभव सहमा सहमा सा रहता। बहुत शांत हो गया था। वह जी भर कर उसके चेहरे की तरफ देख भी नहीं पाती थी। वितृष्णा की अवस्था शायद इसे ही कहते हैं।

केशव क्यों चुप हो गया ऐसे वक्त में...यह बात कांटे की तरह चुभ रही थी। उस रात के बाद इतना तो हुआ कि तीनों एक साथ एक बेड पर सोने लगे। वैभव को अलग सुलाने का खतरा वह नहीं लेना चाहती थी। बेडरुम में ही एक कोने में उसके पढने की व्यवस्था कर दी। वो जब तक पढता रहता, बिंदू फेसबुक लगी रहती। उसे कनखियों से देखती रहती। आयशा आईपैड पर गेम खेल कर मस्त रहती। वह बड़ी हो रही थी। सब बड़े हो रहे थे...बस बिंदू वहीं थी...और बौनी होती जा रही थी। अपने खयालो में, अपने अरमानो में, अपनी अपेक्षाओ में...अपनी तन्हाई में...इतनी बौनी कि सुरंग की तलाश होने लगी थी कि...

सांस लेने की आवाज सामान्य नहीं थी। सिरहाने से मोबाइल उठा कर इसकी लाइट जलाई। उसकी आंखें फिर फटी की फटी रह गईं। वैभव के एक हाथ आयशा के सीने पर और दूसरा अपने ही भीतर...

आयशा बेखबर सो रही थी। वैभव अधजगा सा...उसे लगा , आयशा के सीने पर सांप ने फन काढ रखा है, वैभव का हाथ तेजी से झटका और वह करवट बदल कर सो गया। दूसरा हाथ अपनी ही देह के नीचे दब गया। वह कुछ बोल नहीं पा रही है...उसे गुस्सा नहीं आ रहा, उसकी आवाज नहीं निकल रही है..जैसे किसी ने मुंह दबा दिया हो..चीख घुट रही है...दोनों हाथो से अपने बाल नोंच रही है...चेहरा तरबतर है...वह बौनी होती जा रही है..एक छोटी छाया दीवारो पर बुदबुदा रही है..

जिंदगी ने उसे कहां लाकर खड़ा कर दिया हे भगवान...वह धुंधली सी तस्वीर गाढी हो रही है अपने रुपाकार में. मंदिर की सीढियो पर सारे बच्चे खेल रहे हैं। चचेरे भाई चुनचुन भइया ने शाम के हल्के अंधेरे में उसे अपने पास बुला रहे हैं। वह दौड़ती हुई उनके पास जा रही है, उनकी गोद में बैठ गई। कुछ चुभ रहा है उसे..चीखती हुई भाग लेती है। पहली बार पांच वर्षीय बिंदू को कुछ समझ में नहीं आया...पर इतना जरुर लगा कि चुनचुन भइया की गोद बैठने लायक नहीं है, उस वक्त वह मां से कुछ बता नहीं सकी..चुनचुन भइया की लाल-लाल आंखें उसे धमकाती सी लगती. जहां तहां उसे दबोच लेते और कहते-आओ नया खेल खेलें.. खेल खिलौने...। उसे नए खेल के नाम से इतना डर लगने लगा कि उसने खेल के नाम पर कहीं जाना ही छोड़ दिया। खेल का मतलब चुनचुन भइया उन्हें समझा रहे थे। समझा नहीं रहे थे, उसके जीवन का सारा रस निचोड़ रहे थे, उसकी सारी सहजता छीन रहे थे। वह सहज नहीं रह पाई और चुनचुन भइया हमेशा के लिए पराये और प्रतिबंधित हो गए उसकी नजर में, उसकी जिंदगी से। वे मरे या जिए, उसे क्या ? मैट्रिक करके जो वापस गए तो कभी न दिखे। बाद में पता चला कि जिप्सियों का एक दल कस्बे में आया था उसके साथ कहीं निकल गए. अब तो कोई खबर ही नहीं..।

स्मृतियो से बाहर आई, वे तो चचेरे भाई थे, पर ये तो अपना है...ये कैसे...?

ये इच्छाएं अपना पराया भी नहीं देखतीं...या गलत सही का बोध इस बच्चे में नहीं डेवलप कर पाया है...क्या है..ये..?

अब स्मृतियां भी गायब हो गई थीं..सामने नन्हीं आयशा और नन्हीं बिंदू का चेहरा गड्डमड्ड हो रहा है। दोनों अधूरे चेहरे, रह रह कर आधे अधूरे पर रौशनी और अंधेरे चमक रहे हैं। हवा का दबाव बढ गया है। फफोले फटना चाहते हैं, मृत नीली धारियां जीवित हो उठी हैं। सामने गहन अंधेरे में लंबी-अन्तहीन सुरंग नजर आ रही है..उसकी काया को उसमें गुम हो जाना है।

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