Tumhari Adhuri kahani books and stories free download online pdf in Hindi

तुम्हारी अधूरी कहानी

तुम्हारी अधूरी कहानी

बिटवीन द लाइन्स

गीताश्री

तुम जब जब दिखती हो, कोई कहानी झांक जाती है। तुम बार बार यूं न दिखा करो। गर कलम चल गई तो ये न कहना कि जीने में इतना दर्द भी होता है। तुम दिखती हो, मैं तुम्हारी त्वचा पर बनी रेखाओं की इबारत पढने लगती हूं। तुम मुस्कुराती हुई कुछ अनकहा रखना चाहती हो, मैं वहां से उड़ती तितलियों को जाल में फांस लाती हूं। तुम्हारी आंखों में टिमटिमाते हैं असंख्य जुगनू..मेरी हथेलियां गीली होने लगती है। तुम आरपार दिखना चाहती हो, मैं परदे लेकर तुम्हारा पीछा करती हूं. तुम कौन हो जो मेरी चेतना में फड़फड़ाती हो अक्सर...

मैं तुम्हें लिखना चाहती हूं।

दृश्य-1.

तुम बार बार सामने आने से बचती क्यों नहीं...तुममें बचने की कोई कोशिश दिखाई नहीं देती। जब भी मैं जंतर-मंतर जाती हूं, तुम नारों के बीच में चीखती हुई दिखती जाती हो। तुम्हारी कसी हुई मुट्ठियां हवा में लहराती हुई दूर से डराती हैं मुझे। तुम्हारी फैली हुईं काजल आंखें बार बार मुझे खींचती हैं तुम्हारी ओऱ। मुझे कोवलम तट पर फैली हुई गीली काली-सुनहरी रेत की याद आ जाती है जिसमें सुनहरी रेत कभी कभी झांक जाती है। मैं हर बार समेट लाती हूं काली सुनहरी रेत। सोचती हूं एक दिन निचोड़ कर तुम्हारे सारे आंसू निकाल लूंगी। कभी नहीं कर पाती ऐसा. रेत झर झर कर छितरा जाती है। तुम फिर फिर मिलती हो इंडिया गेट के पास, अंधेरे में कैंडिल मार्च में शामिल। किसके दुख में विलाप करने आती हो। हत्यारो के विरुद्ध तुम अंधेरे को रोशन करती हो या मृतात्माओं का आवाहन या अपने पुरखो को बुलाती हो या सारी रोशनी अपने भीतर भर कर अंधेरों से लड़ने चल देती हो। सबसे ज्यादा जली हुई मोमबत्तियां तुम्हारे हाथों में ही क्यों होती हैं। काली पोशाक में तुम अंधेरे का हिस्सा बनने आती हो या अंधेरे के खिलाफ अंधेरा बन कर उसे डराने आती हो। तुम उदास शाम में ऐसे घुलमिल जाती हो कि जैसे हवा में कोई डियोडेरेंड की खुशबू। मैं उस खुशबू को समेट लेना चाहती हूं। ताकि भीड़ में भी तुम्हें खोज सकूं।

तुम्हारे होने से उस शाम को जैसे अर्थ मिलता है। कैसे इतना सामंजस्य बिठा लेती जैसे तुममें और उदास सांझ में कोई तांत्रिक समझौता हो। तुम्हें याद हो न हो, दामिनी के लिए जिस तरह मोमबत्ती लेकर हर शाम तुम जंतर मंतर पर डट जाया करती थी, मैं अपलक तुम्हे देखती रह जाती थी। कई बार सोचती कि तुम्हारा चेहरा ज्यादा दमक रहा है या मोमबत्ती की लौ। दामिनी दमक रह घन माहि की कौंध आती रही देर तक। असंख्य चेहरे से वहां। हर रोज चेहरे बदल रहे थे। नए आ रहे थे, पुराने और पुराने होते जा रहे थे। तुम समय से परे होती जा रही थी। चेहरे की शिकन में किस्सों के सोते फूटते दिखे। मैं तुम्हारा पीछा करना चाहती थी। तुम्हारे पीछे पीछे आना चाहती थी। मैं भीड़ में चुपचाप तुम्हारे पीछे आकर खड़ी होना चाह रही थी कि किसी ने मुझे जोर से धक्का दे दिया। तुम फिर छूट गई मुझसे। मुझे लगा, मेरे हाथ से दर्द का प्याला छीन गया। अपनी हथेलियों को मसोसती हुई मैं मोमबत्ती जलाने लगी।

तुम हर शाम दिखती रही पर हर बार मेरी पहुंच से दूर रही। एक दिन मैंने तुम्हारे साथ किसी आदमी को देखा। मैं चिंहुक पड़ी। तुम उसके साथ थी। थोड़ी सशंकित-सी। मैं दूर से देख रही थी। तुम उसके साथ कार में बैठ कर निकल रही थी। मुझे लगा, तुम तक पहुंचने की एक कड़ी मिल गई मुझे। अगली शाम फिर मैं वहां मौजूद थी और मेरी आंखें तुम्हें ढूंढ रही थीं। तुम तो नहीं दिखीं उस शाम, पर वह आदमी मिल गया। मैंने उसे धर दबोचा।

“कल आप रात को एक लेडी को लिफ्ट दिया था, वो कौन थी...? बता सकते हैं, इफ यू डोंट माइंड”

“कल रात..?”.वह चौंका। जैसे कोई अनहोनी बात पूछ ली हो।

“कल आपकी गाड़ी से ही तो गई थी एक लेडी इन ब्लैक...”

“ओह...ओ..एक मोहतरमा थीं, नाम तो ठीक से याद नहीं, मैंने पूछना जरुरी नहीं समझा..उन्होंने कुछ बताया तो था...पर ध्यान नहीं मुझे..क्यों आप क्यों पूछताछ कर रही हैं, कोई मामला है क्या...?”

“नहीं, ऐसी कोई बात नहीं..मैं एक स्टोरी कर रही हूं, मुझे उनका कमेंटस लेना है..वे बहुत बढचढ कर हिस्सा ले रही हैं न, सोचा बात कर लूं...”

“नाम तो जी ठीक से याद नहीं, पर वे आज आएंगी, ऐसा कह रही थीं, मैंने उन्हें हौजकाजी के चौराहे पर छोड़ा था। वहां उतर कर आगे किसी गली में चली गईं...अजीब सी लगी मुझे...सारे रास्ते चुप थीं..सोच में डूबी हुई..मैं तो चेहरा भी भूल गया उनका..”

मुझे उस आदमी की आवाज किसी गहरे कूंए से आती-सी लगी। मन हुआ, उसके मुंह में ढक्कन लगा दूं। अजीब है न। जिसके पीछे पीछे मैं भाग रही हूं, वह इसे इतनी आसानी से मिली और इस मूर्ख को कुछ याद नहीं। चले आते हैं क्रांति करने। इनसान को न पहचानते हैं न मानते हैं। कहीं झूठ तो नहीं बोल रहा यह आदमी...मेरे दिमाग में संशय के बादल घिरने लगे। आज इस आदमी पर नजर रखूंगी।

भीड़ के बीचोबीच मोमबत्तियां जलाई जा रही थीं। जो भी आता, दो मोमबत्ती वहां जला जाता। मैं वहीं खड़ी थी पास में। आज पकड़ से बाहर नहीं जा पाती।

ठंड के कारण वहां कुछ लोगों ने अलाव जला रखा था। काफी लोग उसे घेर कर खड़े थे। आग की तलब भी अजीब शय है। ठंड की आग के सब तलबगार होते हैं। जैसे ही जलती है, सब घेर कर खड़े हो जाते हैं, अपने हिस्से की गरमाई समेटने के लिए। यहां वैसा ही नजारा था। किसी के चेहरे पर घोर आहलाद था तो किसी का चेहरा गरमाई के नूर से चमक रहा था। कोई हथेलियां मल मल कर आग को घिसने की कोशिश में था तो कोई हाथ सेंक सेंक कर बदन में छुआ रहा था। मैंने खोजी और प्रतीक्षारत निगाहें वहां से हटाईं। ठंड बढ़ती जा रही थी और मेरी रगों में उत्सुकता का सैलाव उमड़ रहा था। पुलिस ने बैरिकेंटिग कर रखी थी। हर कोई उसी तरफ से भीड़ में घुसने चला आ रहा था। निगाहें जैसे उधर ही फिक्स हो गईं।

दृश्य-2

“”मैडम, जाइए इधर से””

पुलिस वाले धक्का दे रहे थे, पर जैसे कोई सुन ही नहीं रहा था, हर कोई आन्दोलन की बारिश में भीगा था. ये एक ऐसा आन्दोलन था जिसमें सबका दर्द साझा था. पर तुम्हारा दर्द? तुम्हारा दर्द क्या था? मैं चाहती थी तुम्हें पढ़ना! और तुम थीं कि गायब ही हो जाती थी, ये तो कोई भली बात नहीं थी न! तुम क्यों नहीं आ रही थी मेरे सामने, जो भीड़ थी सामने वह एकदम उत्साही भीड़ थी। उस भीड़ में कोई नेता और जनता का भेद नहीं था, कोई हिन्दू नहीं, कोई मुसलमान नहीं, बस था तो केवल आँखों में उस दर्द को समेटे, उस दर्द को जीते लोग। सुबह शाम को उस दर्द में डुबोए लोग। क्या तुममें भी कोई दर्द छिपा है? मैं जानना चाहती हूँ, मेरी कलम जैसे केवल तुम्हारे लिए ही बेचैन हो रही है, पर तुम कहाँ हो? बैरिकेटिंग की तरफ बढ़ती भीड़ एकदम से उग्र हो चली थी, इधर संसद में बहस चल रही थी, तो उधर क़ानून में बदलाव का मांग करती भीड़ एकदम से उग्र हो चली. पुलिस की तरफ से इतनी ठण्ड में पानी की बौछार आन्दोलन कारियों पर पड़ने लगी, पर न! उस हाड़ जला देने वाली ठण्ड में भी तुम्हें मैंने भीगते हुए देख लिया था. तुम्हारी आँखों का गीलापन भी उस पानी में भीग रहा था तो जैसे बच भी रहा था,मैं उस गीलेपन को पढ़ पा रही थी, पर वह गीलापन क्या था? वह मैं कैसे जानूँ! मैं तो भीगने की कल्पना से ही डर गयी. तभी लोग तितर बितर होने लगे, तुम्हारी पनीली आँखें मुझे बुला रही थी, तुमने जो एक तिलिस्म बनाया था, मैं उसमें फंसने जा रही थी और तुम्हारे लिए वाकई पागल हो रही थी.

“”मैडम, आप भी”?”

“”मैं भैया!””

अपने पास आए पुलिस के सिपाही से मैं सकपकाई!

“”हाँ..”” बैरिकेटर लगाते हुए वह बोला “आप इधर से हट जाइए”

“”पर भैया मैं कहाँ जाऊँ ? इवेंट कवर कर रही हूँ””

“”उधर उन लोगों के बीच जाकर स्टोरी कभर करिए न! आपको बढ़िया लगेगा, अरे मैडम, गहरे पानी उतरिएगा तभी न मोती मिलेगा! जाइए, अपना स्टोरी कभर करिए””

तभी उधर भीड़ में मुझे तुम दिखीं, जैसे अर्जुन के लिए मछली की आँख पर निशाना साधना था, वैसे ही मुझे केवल तुम ही दिखती थीं, एक बिजली सी कौंधती हुई, कहीं न कहीं से आती हुई, मुझे फिर दिखने लगी थी, तुम पानी की बौछार से भीगकर टुकड़े होती धूप से खुद को सुखाते हुए। इतने एनजीओ इस आन्दोलन का हिस्सा थे, कि लग रहा था कई एनजीओ केवल इसी आन्दोलन में ही खड़े हो गए हों. सरकार का विरोध करते, स्त्री अधिकारों और समानता का राग गाते एनजीओ, एक तरफ किसी “मुठभेड़” के कार्यकर्ता, तो एक तरफ किसी “ पुकार“ के कार्यकर्ता, एक तरफ जींस जैकेट में अपनी ढपली को राग देते हुए कोई कार्यकर्ता, दूसरी तरफ वायलिन बजाकर श्रद्धांजलि देते हुए। ये कैसा अद्भुत-सा दृश्य था, ये मेरे लिए ही नहीं पूरे देश के लिए अनूठा था। हर चैनल पर इसका सीधा प्रसारण आ रहा था पर मैंने देखा था जैसे ही कोई सोशल एक्टिविस्ट का नाम लेता, तुम्हारी आँखों की पुतलियों में एक दर्द की हरी रेखा खींच जाती! ये क्या था ? तुम आखिर क्या थी? और कौन थी? तुम्हारी आँखों का वह हरापन और ठंडापन बहुत कुछ कहता था, तुम खोई हुई शकुन्तला-सी लगती थी, जैसे वह दुष्यंत को खोजते हुए आ गयी थी और फिर खुद का परिचय अनजान आँखों के सामने दे रही थी, वैसे ही तुम थी, तुम कई अनजान आँखों के सामने जैसे अपना परिचय देना चाह रही थी, पर चुप हो रही थी, तुम्हारी उस रहस्यमय चुप्पी में क्या था? नेता और एनजीओ के नाम से तुम्हें कांपते हुए मैंने देखा था। ऐसा क्या था? तुम उस ठण्ड में केवल तभी सिरहती थी जब कोई नेता या एनजीओ का नाम आता था, नहीं तो तुम चुपचाप से उस सफर का हिस्सा रहती थी. मैं जानती हूँ, कि तुम अपना दर्द जीने आती थी, वह दर्द जो तुम्हारे चेहरे से दिखता था, आज तुम किसी से बात कर रही हो, ओह, मैं भी आ रही हूँ, रुकना, मेरी चिरपरिचित दोस्त! तुम बातें कर रही थी, पर ऐसे कि किसी को सुनाई न दे। तुम्हारे साथ जो लड़की थी, उसे मैंने कई बार देखा था. सांवले रंग की वह साधारण लड़की, साधारण कतई नहीं थी, वह केवल देखने में ही साधारण थी, ऐसा उसे देखकर लग रहा था। तुम्हारी बेचैनी को वह खुद में समेट रही थी और अपनी शांति तुम्हें दे रही थी।

“”ये लोग फिर आ गए?”” तुमने पूछा था।

“’हाँ, तुम मगर शांत रहना, अपने चेहरे से कुछ पता मत लगने देना ”’

“”पर मैं कैसे शांत रहूँ ? ये लोग यहाँ पर क्या रूप दिखाते हैं, जैसे लड़कियों को न्याय दिलाएंगे और रात में, छि!””

तुमने थूक दिया, जैसे सारी कड़वाहट निकाल दी हो! ये कड़वाहट किसके लिए थी? ये कड़वाहट और दर्द तुम्हें किसने दिया था, मेरा मन हुआ मैं पूछूं! पर मैं चुप रही, मैं तुम्हारे पास और सट कर खड़ी हो गयी जिससे उस दर्द का कारण जान सकूं. पर न जाने तुम फिर चुप हो गयी।

“’मुझे न्याय मिलेगा क्या” ?’ एकदम से तुम फिर बोली।

““हाँ क्यों नहीं?”” उसने तुम्हें आश्वासन दिया।

“”तुम जानती हो न कि मेरी लड़ाई किससे है?””

“”हाँ, तभी कहती हूँ, मजबूती से डटी रहो”।”

“”तुम्हें पता वो कल फिर से टीवी पर इस आन्दोलन में दामिनी को न्याय दिलाने की बात कर रहा था, और ........”” उसकी बात जैसे होंठों में ही दब गयी।

“”चुप हो जाओ, हम लड़ रहे हैं न, और चुपचाप लड़ रहे हैं।””

“”पर, जो मैं रोज़ मरती हूँ, उसका क्या करूँ?””

“”डियर, कुछ ही दिनों की तो बात है।””

“”तुम्हें पता है न, इस आन्दोलन का पहला दिन, जब हम लोग एकजुट होकर आए थे। मैं कितनी खुश थी, कि मैं एक लड़की को न्याय दिलाने के लिए हिस्सा बन रही हूँ, पर मुझे क्या पता था कि दो दिन बाद ही मैं भी इसी दर्द को अपने अन्दर झेलूंगी ।””

“ओह, ये बात है, मेरे अन्दर कुछ टूटा! तुम्हारी रत्नागिरि के तटों जैसी शान्ति के पीछे ये कारण है? तुम्हारी आँखों के आँसू मैं निचोड़ना चाह रही थी, पर उन आंसुओं को केवल छूने भर की जरूरत है, वे तो भरभरा कर वैसे ही गिर पड़ेंगे। ओह, मैं अपना स्टौल लेकर खड़ी हो गयी, काश तुम अपना जी खोलो, कि वह कौन था, क्या वह इसी भीड़ में से कोई था? क्या वह कोई और था?

“”पुलिस वालों ने भी तो हमें लौटा दिया था, न, उसका नाम सुनकर।””

“”हाँ””

“”अगर आप न होती तो उस दिन मेरा क्या होता?””

“”ओह, छोड़ो भी, ये तुम्हारे न्याय की लड़ाई है! देख वो यहीं आ रहा है, और उसका गुट भी””

“”अरे आप भी हैं, और वकील साहिबा, कैसा चल रहा है! सुना है आज भी आप पुलिस स्टेशन गयी थी, अब छोड़िये न! रात गयी बात गयी! आप भी, क्यों अपना और मेरा समय वेस्ट कर रही हैं! ये जो हज़ारों लोग आप देख रही हैं न, ये आपकी बात पर और आपकी क्लाइंट की बात पर भरोसा नहीं करेंगे, और सबूत क्या है आपके पास? क्या मैं बहला फुसला कर ले गया था ? सुनिए, जो हुआ सब में उसकी सहमति थी, आफ्टर आल ये फाइट हम केवल दामिनी के ही नहीं हर उस लड़की के लिए लड़ रहे हैं, जो इस दर्द से होकर गुज़रती है, और आपको लगता है कि मैंने .... छि, अरे जो हुआ हो सकता है नशे में हुआ हो, पर उसकी भी सहमति थी..... आप पूछिए न! खैर, जो आपको करना है कर लीजिए, मैं चलता हूँ”…”

उसकी बातें धीमी थी, पर मेरे कानों में भी पड़ ही गई। उफ, ये! ये क्या था! ये तो आन्दोलन का मुख्य हिस्सा थे, और इन्हीं के नेतृत्व में जैसे ये आन्दोलन हो रहा था, एक प्रतिष्ठित संगठन के सर्वेसर्वा? ये कैसे? उफ, मैं खो रही थी! मैं बेहोश होती जा रही थी, मेरी हथेलियों में जो जुगनू थे, जो मैंने तुम्हारे आँसू पोंछने के लिए रखे थे, वे अपने आप फिसल रहे थे!

“”आपको दुःख हुआ न”?”

वो जैसे मेरी आँखों के सामने आ गयी.

“”अरे, आप.......तुम.......”!! मैं उसे सामने पाकर सकपका गयी. जैसे मेरी चोरी पकड़ी गयी हो

“”मैंने देखा था, आपको अपना पीछा करते हुए।””

“”मैं बस....।””

“”हाँ, आप लोगों को तो केवल खबर चाहिए, मसालेदार, जिससे आपको इंस्टैंट सफलता मिले, आपको हम जैसो के दर्द से क्या मतलब?””

“”नहीं..... ऐसा मत कहिये, मैं उसी दर्द का पीछा करते हुए आई हूँ।””

“”आपने देखा न मेरा दर्द, आपने छिपकर सुन लिया न मेरा दर्द ! प्लीज़ आप बताइए आप क्या कर सकती हैं मेरे लिए ? कुछ नहीं न! क्या आप मेरे साथ हुई घटना को जीरो प्रतिशत भी दिखा सकती हैं? नहीं न! वो जो मर गयी दरिंदगी का शिकार होकर, पर मैं... मैं तो उसे न्याय दिलाने में ही खुद लुट गयी और पुलिस और किसी भी नेता ने मेरी बात न सुनी और मानी। पूरे दो दिन मैं इधर से उधर चक्कर काटती रही, मुझे लगा कि दामिनी को न्याय दिलाने के लिए जो लोग आन्दोलन कर रहे हैं, वे मेरा दर्द समझेंगे, पर देखिये न, उन्होंने मुझे ही वेश्या ठहरा दिया था, मुझे कॉलगर्ल तक कहा गया, क्योंकि मैंने उनके खिलाफ आवाज़ उठाने की बात की, जो दामिनी के लिए आवाज़ उठा रहे हैं। आप मेरा दर्द समझ सकती हैं? और अगर समझ सकती है तो क्या कुछ कर सकती हैं? नहीं न! तो फिर ये न्याय दिलाने, रिपोर्ट लिखने जैसी बात..., रखिये अपने पास”।”

उसने मुझे एक अजीब नफरत से देखा और चली गई। मैं एकदम जड़ खड़ी थी, मेरी आंखों में वे नारे गूँज रहे थे जिनमें दामिनी को न्याय दिलाने के लिए पूरे भारत से लोग अपने आप उठ आए थे, कानून में बदलाव की बात हो रही थी, लोग डंडे खा रहे थे, पर हम लोगों के बीच में ही एक दामिनी है, और वह ऐसी दामिनी है जिसका दर्द और न्याय की लड़ाई न केवल लम्बी थी बल्कि कठिन भी थी। उसे लड़ना था एक धोखे से, वह धोखा जो हम अक्सर खाते हैं, न्याय की लड़ाई में अपना सर्वस्व देने की चाह में वाकई सर्वस्व ही दे देते हैं और फिर खड़े हो जाते हैं हाथ झाड़कर! मेरी दामिनी अपने हाथ झाड़कर खड़ी थी और उसकी लड़ाई में उसका साथ देने के लिए कोई नहीं था, कहीं सुना भी है “”समरथ को नहीं दोष गुसाईं”” इसमें तो समरथ तो था ही, पर वह एक कवच के अन्दर था। कवच के अन्दर एक राक्षस था, जो सबके सामने तो देवत्व धारण किए हुए था, और कवच के अन्दर उसमें भी वही पुरुष था जो स्त्रियों को अपना शिकार बनाता था, पर मैं क्या करूँ अब! अब मेरे दिमाग ने चलना शुरू किया, हाँ, कल एक चैनल पर बहस में उसकी साथी को मैंने देखा था, और हाँ, शायद मामला भी यही था।

दामिनी आन्दोलन में एक और दामिनी के नाम से शायद कोई कार्यक्रम था! ये नई दामिनी मुझे कहाँ फंसा कर चली गयी थी, कहाँ तो पहले मैं उसके आंसुओं के लिए अपनी हथेली को तैयार करे बैठी थी, अब जब वह अपने आँसू दे गयी थी तो मैं उन्हें पोटली में रखने के लिए ही मजबूर थी, इस लडकी ने जिसे खुदा माना और उसका ईमान ही बदल गया तो क्या करे वह? और क्या करूँ मैं? मैं कैसे उसके दर्द के पुर्जे बनाकर उड़ा दूँ और चुप हो जाऊँ! पर चुप होना ही इस समय ठीक था, तभी दूसरी तरफ से एक शोर सा आया! विपक्ष ने दामिनी के मामले को जैसे गोद ले लिया था, और क्या सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के ही नेता कितने पानी में थे, मुझे पता था। जो आए थे, उनके किस्से भी मुझे पता थे और मुझे ही क्यों राजनीति में सक्रिय लगभग सभी लोगों को उनके किस्से पता थे। सुना था ये पहले ब्रेनवाश करते थे और फिर लड़की को कब्जाते थे। लड़की को कब्जाने वाली इस अदा पर लोग फिदा थे, और क्या मित्र और शत्रु दल के नेता, इस मामले में उन्हें अपना गुरु मानते थे। पर इस सफाई से ब्रेनवाश करना केवल उन्हीं के बूते की बात थी। उनके सामने आते ही लड़की जैसे खुद को समर्पित करने के लिए बेचैन हो जाती थी और बाद में होश आने के बाद जब उनका शिकार कोई और होती थी, पछताती थी। पर उसके बाद कोई चारा नहीं होता था, नेता जी तो निकल जाते थे, किसी और को चारा खिलाने।

दृश्य-3

मैं इस समय भी हंस पड़ी. नेता जी, नारी की अस्मिता पर लम्बा चौड़ा भाषण दे रहे थे और उस लड़की की मित्र हंस रही थी, हंस तो मैं भी रही थी, नेता जी की बातों पर! हा हा, और नेता जी को किसी भी विचारधारा की लड़की स्वीकार्य थी, स्त्रीदेह के मामले में नेता जी एकदम पाकसाफ थे, भेदभाव से कोसों दूर. लाल सलामी, भगवा सलामी, सभी सलामियाँ उन्हें चलती थी। बस रात में लड़की होनी चाहिए। सलाम का क्या करना है! नेता जी की इस अदा पर सब कुर्बान थे, और सुना है सरकार किसी भी दल की हो, नेता की जी का जलवा खूब होता था। नेता जी भीड़ खींचते थे, और उसने देखा था शाम होते ही नेता जी के घर पर हर दल के नेताओ और हर चैनल के पत्रकारों की महफिलें जमती थीं। एक दो महफिलों में तो मैं भी गयी हूँ, मैं हँस पड़ती हूँ। इधर नेता जी स्त्रियों की अस्मिता पर भाषण दे रहे हैं और उधर उनकी महफिलों में शिरकत करने वाले पत्रकार उनकी फोटो धड़ाधड़ खींच रहे हैं. पर इस बीच कहीं बिजली की तरह दामिनी भी दमक रही है, वह गायब है, यहाँ से पर कुछ पत्रकारों की फुसफुसाहट में वो है. कोई फोटो खींचते हुए उस महानुभाव पर भी सवाल उठा रहा है, जिन्होंने उस दूसरी दामिनी पर कृपा बरसाई थी. एक तरफ कृपा बरसाने वाले सोशल एक्टिविस्ट थे और दूसरी तरफ महफिलों के सरताज नेता जी, और उनके सामने पत्रकार, तो कहीं दूसरी तरफ निस्वार्थ होकर दामिनी के लिए आवाज़ उठाने वाले, एक तरफ दूसरी दामिनी की तरह कुछ हतप्रभ से भी लोग थे, तो एक तरफ मेरे जैसे भी थे।

नेता जी के भाषण पर शायद किसी का ध्यान भी नहीं था, केवल दामिनी को न्याय दिलाने की भावनाओं का ज्वार था, उस क़ानून को बनाने का जोर था जिससे लड़कियों पर अत्याचार करते हुए कुछ तो हाथ कांपें।

दूसरी दामिनी वाला प्रश्न भी जैसे मेरी जुबां से निकलते निकलते रह गया। सवाल के साथ ही मुझे उधर का जवाब सुनाई देने लगा....

““नहीं, नहीं, सब साजिश है, आन्दोलन को तोड़ने की साजिश है, देखिये ये जो नेता लोग हैं, वे नहीं चाहते कि ये आन्दोलन सफल हो, सब हमें फेल करने की और तोड़ने की साजिश है, सच है तो वो लड़की सामने आती क्यों नहीं, क्यों छिपी है परदे में” देखिये भैया ये सब साजिश है, सरकार की साजिश है. “

“”पर सर.....””

“”देखिये इतिहास उठाकर देख लीजिए, जब जब सरकार पर हमला हुआ है तब तब आन्दोलन को तोड़ने के लिए कोई न कोई विषकन्या भेजी गयी है.......””

”अरे, आरोप संगीन हैं तो आए न पुलिस, करे न गिरफ्तार, मैं फिर कहता हूँ कि ये साजिश है, बहुत बड़ी साजिश है, ये दामिनी को इन्साफ न दिला पाने की लड़ाई है, और ये इस लड़ाई को मिटा डालने की साजिश है, आपको पता नहीं है कि एक बहुत बड़ा रैकेट काम कर रहा है कि यह आन्दोलन विफल हो और यह कहा जा सके कि यह आन्दोलन कुछ भी नहीं था पर हम तो मरते दम तक कहेंगे- “इन्कलाब जिंदाबाद।””

ओह...कल्पना में ही यथार्थ उदघाटित हो गया। यही सुनना पड़ता अगर मैं सचमुच पूछ लेती। मैं उस दमघोंटू, नकली माहौल से बाहर निकल आई। कहीं दूर भाग जाना चाहती थी।

दृश्य-4

मेरी दामिनी का दर्द उसके चेहरे पर झलक रहा था। उसका दिल अपने शरीर पर हुए अपने धोखे से उभरा भी नहीं था कि सिस्टम के टू फिंगर टेस्ट ने उसे और तोड़ दिया था, इस टेस्ट के बाद वह केवल दुष्कर्म की पुष्टि का सर्टिफिकेट ही हासिल कर सकी थी, पर वह अपने दोषी को सज़ा दिला सके, यह उसके लिए संभव न था. वह तो लाश बनकर ही लहराकर इस आन्दोलन में चल रही थी, रोज़ ही उस आग में जल रही थी, वह अपना दर्द साझा करने के लिए आ रही थी। अब क्या करेगी वह!

तभी फिर से भीड़ का एक रेला आया--

लोग गा रहे थे...

“”मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,

हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए..””

मैं भी उस आग का अब हिस्सा बन गयी थी, पर मैं दोतरफा जल रही थी। एक तो दामिनी की आग और एक इस दामिनी की आग, किसकी जलन ज्यादा थी, वो जो चली गयी या जो समंदर की गहराई जितना दर्द अपने अन्दर समेट कर, रोज इस दामिनी को न्याय दिलाने के बहाने अपने दर्द को ताजा करने आती है। वो शायद खुद को बहलाती है। अपनी ही त्वचा को रोज छू छूकर देखती है कि कहीं वह खुद ही तो दामिनी नहीं बन गयी? नहीं वह तो जीती जागती है, खुश है । अभी यह बात उसने अपने घरवालों को नहीं बताई है, क्या करे वह? वह रोती तो है, पर खुद में उस आक्रोश को समेट भी लेती है। अरे सुनो, तुम.....!“

दृश्य-5

“कहाँ गयी?””

““क्या हुआ मैडम, किसे खोज रही हैं?” ” किसी ने पूछा

“”वह.. एक लड़की थी मेरे साथ अभी…””

“”अच्छा, वो मैडम जी, वो तो रोज यहां आती हैं, पहले खूब चिल्ला कर नारे लगाती थीं। आज कल शांत-शांत होकर यहीं खड़ी रहकर दूर से देखकर चली जाती हैं, हमसे खूब चाय पीती हैं, आपको पता ऐसे दो तीन आंदोलन साल में हो जाएं तो मैडम सच्ची हमारी दुकान खूब चल जाए।””

चाय वाला चाय देते हुए बोला।

मैं हंसने लगती हूँ, पता नहीं ये हंसी कैसी है, विद्रूप हँसी है, ये विवशता की हँसी है, ये आन्दोलन में बाज़ार खोजने की हँसी है या बाज़ार में आंदोलन को नंगा करने की हँसी है। पर हँसी तो है ही, मैं हँसती जा रही हूँ, चाय वाला समझ नहीं पा रहा है, ठंड है, उसके पास बहुत कस्टमर आ रहे हैं, ऐसा उसका कहना है और वह साल में ऐसे दो तीन आन्दोलन चाहता है. एक तरफ भीड़ का रेला दुष्यंत कुमार की गजल गा रहा है और तुम दामिनी, कहाँ हो ? कैसी हलचल मचाकर चली गयी हो!

तुम ऐसी इबारत हो जिसे मैं जब से देखा था, पढ़ना चाह रही थी और आज चाह रही हूँ कि काश मैंने तुम्हें देखा न होता! काश मैंने तुम्हें तलाशा न होता, इतनी ठंड में भी चाय मेरे गले में जाकर अटक गयी है, मैं उसे पी नहीं पा रही हूँ, जब से मैंने तुम्हारी इबारत को मन में पढने की कोशिश की। धीरे धीरे सूरज के जाने का समय हो चला है, मुझे भी घर जाना है, पर मैं तुम्हें आज छोड़कर नहीं जाना चाहती, मैं चाहती हूँ तुम मेरे साथ चलो, मैं तुम्हें लाड़ करना चाहती हूँ, तुम्हें यह अहसास कराना चाहती हूँ कि दुनिया में हर कोई गलत नहीं होता, पर तुम, भीड़ में फिर खो गयी हो। तुम उसी मंच पर जाकर दुष्यंत की कविता कब गाने लगीं जहाँ से तुम्हें विषकन्या कहा जा रहा था, मुझे पता नहीं चला था। तुम अपनी ज़िंदा लाश में कब आग लगाने लगी, मुझे अहसास भी नहीं हुआ था। इतने हो हल्ले में बहुत कुछ सुनाई नहीं दे रहा था, पर कुछ सुनाई दे रहा था तो तुम्हारा मौन विद्रोह, तुम्हारा उस दर्द को जीना, उस दर्द को बाँटना....

मैं तुमसे मिले बिना नहीं जाना चाहती थी, पर समय की मजबूरी थी, तुम साजिशों को पराजित करने की अपनी फिराक में थी, और मैं? मैं न जाने किस फिराक में थी। अगले दिन तुमसे मिलने की आस नहीं। कल से मुझे किसी और रिपोर्ट पर काम करना है। यहां की डयूटी खत्म। अब पता नहीं तुम कब मिलोगी? मिलोगी भी या नहीं? मेरी आँखों के सामने तुम, तुम्हारी हथेली में टिमटिमाने वाले जुगनू, तुम्हारी आँखों में आने वाले सपने, तुम्हें मिलने वाला न्याय, सब चिंदी चिंदी होकर बिखर रहे हैं...!!

==========

अन्य रसप्रद विकल्प