उर्फ देवीजी
गीताश्री
सिकुड़ी चमड़ी वाली लंबी-चौड़ी हथेली एक छोटे से गोल मुंह पर है। थोड़ी गंध से भरी महकती। फिर दूध-सी सफेद आंखों की आकर्षक पुतलियों की मासूमियत में थोड़ा डर भी मिल गया। पीछे देखा तो सारे बच्चे जा चुके हैं और लाली अकेली पड़ गई है। वह रोना चाह रही है। उसके चेहरे के ïïठीक सामने एक काली-कलूटी, डरावनी शक्ल है। आठ साल की लाली पहली बार ‘पगली’ को इतने करीब से देख रही है। पगली सलाखों के पीछे है। खिïडक़ी के रॉड के पीछे से पगली मुस्कुरा रही है। आठ साल की लाली ऐसी मुस्कुराहट पहली बार देख रही है। उसकी छोटी हथेलियों में पसीने की बाढ़ आ चुकी है। पगली उसे घूर रही थी। उसने गर्दन टेढ़ी की। बच्चे को दुलारने के अंदाज में अपनी शक्ल को उचकाया। आंखों में आंखें डालकर बोली- ‘‘चांदी की कठौती, चांदी का सिक्का...।
दोनों हाथ खिडक़ी के पीछे था और वह गर्दन हिला-हिलाकर लाली को पुचकार रही हैं। उसने पीछे गर्दन घुमाकर देखा, कोई नहीं था। सारे बच्चे शायद जा चुके थे। लेकिन उसे अब डर नहीं लग रहा था। थोड़ी देर पहले जब अपने दोस्तों के साथ ताली बजा-बजाकर वह पागल-पागल चिल्ला रही थी तब उसे इतना अंदाजा नहीं था कि वह अकेली होगी तब उसे इतनी बड़ी ताली सुननी पडग़ी। अचानक देवीजी का चेहरा सख्त हो जाता है- ‘भाग जो दादा अईथुन*’
’बाप रे दादाजी’ सोचकर ही कांप गई नन्हीं लाली।
वह पलटकर भागती है। भागती है...भागती है...भागती है...
‘लाली...लाली...होश में आओ...व्हाट आर यू डूइंग?’ गहरी नींद से लाल हुई आंखें पुतलियों के बाहर झांकना भी नहीं चाह रही थी। उसके सामने उसका पार्टनर हर्ष था। धुंधला चेहरा अब साफ-साफ दिखायी दे रहा था। पसीने से तरबतर लाली के कंधे पर हर्ष ने प्यार से हाथ रखा, ‘तुम्हे क्या हो गया है, क्या सोचती रहती हो तुम? तुम जानती हो, रात को इस तरह सपने में भागना, हाथ-पैर चलाना...यू नो दिस इज क्रेजी विहेवियर...बताओ मुझे, क्या परेशानी है?’
जीरो वाट की बल्व की रोशनी में अपने पार्टनर का अपनापन उसे साफ दिख रहा था। वह खामोश थी और हर्ष की आंखों में कुछ टटोल रही थी।
हर्ष ने पलंग के सिरहाने की घड़ी उठाकर देखा, रात के तीन बज रहे थे। लाली अब भी खामोश थी। हर्ष ने गर्दन झटककर कहा-‘मुझे सुबह ऑफिस जल्दी जाना है। अब तुम भी सो जाओ और मुझे भी सोने दो।’ एक लंबी जम्हाई लेकर सो गया हर्ष।
कुछ देर एकटक हर्ष को देखती रही लाली। लाली जगी हुई थी, लेकिन फिर उसी नींद में वह समा जाना चाहती थी, जहां वह आठ साल की लाली थी। एक गांव की मिट्टïी लगी गुडिय़ा। आज गांव की बहुत याद आ रही है उसे। उसकी मिट्टïी झाड़ दो तो अभाव में चमकने वाली खुशियों जैसी थी। उसकी जिंदगी की उजली यादों में शामिल हो चुकी वह पगली दादी आज भी उसे लाली के साथ याद आती है। उसकी छोटी-छोटी हथेलियों की तालियां और बच्चों का सामूहिक जुनून उसको पगली देखने के लिए आमंत्रित करता था।
आज सुबह का फोन कॉल उसे पूरी तरह से लाली बना चुका था। आठ साल की लाली पूरी तरह अपनी गांव में चली गई थी। गांव की यात्रा फोन कॉल से शुरु होती है।
‘हां, हेलो, क्या हुआ मां?’
‘बेटा... देवीजी नहीं रहीं।’ मां की आवाज हल्की-सी कंपकंपा रही थी।
रिसीवर कांपा। धम्म से कुर्सी पर बैठ गई थी लाली। अक्सर सपने में देवीजी आती थीं और लाल-लाल आंखों से घूरती थी। जैसे कुछ कहना चाहती हों...पर दिशा सुन नहीं पाती थी। उनकी तालियों की आवाज सपनों का अनिवार्य संगीत बन गया था। ‘देवीजी’ -जो अभी-अभी दिशा के सपने में तशरीफ लाईं थी। वह छोटे-से गांव अंगारपुर से लाली के साथ चली थीं और महानगर की दिशा के साथ उसकी उजली यादों में रहती थीं। आज वो दुनिया में नहीं रही, लेकिन उजली यादों में उनका चमकता काला-कलूटा चेहरा और भी गाढ़ा हो गया।
अभी लाली सोई नहीं थी, वह गहरे जागरण में थी। जागती आंखों से उजली यादों में घुस चुकी थी। वह आज महसूस कर रही थी कि उसके पास मगन होने के लिए अंदर एक शानदार दुनिया है। उस दुनिया से बाहर का रास्ता सीधे उसके गांव की कच्ची सडक़ों तक जाता है।
भूमिहारों के वर्चस्व वाला गांव अंगारपुर, जिला वैशाली, बिहार। गांव के आखिरी हिस्से में चौर नदी बहती थी जो कई गांव होते हुए कोसी में जाकर समा जाती थी। ये नदी बरसात के दिनों में कोसी के साथ मिल कर इन गांवों में तबाही भी मचा देती थी। सूखे मौसम में अंगारपुर की कच्ची सडक़ों पर मुखिया जी की जीप जब धूल उड़ाती चलती तो गांव की छोटी जाति के लोग सडक़ छोडक़र नीचे उतर जाते थे। गांव में उनका रोब था और पगली दादी उनकी पहली पत्नी थी। दादाजी का रौब पूरे जिला-जबर में था। खेत में जन-मजदूर के साथ भी उनका सख्त व्यवहार था।
पूरे रोबीले, दबंग, ऊंचा,भरा-पूरा कद। घनी मूंछे। चुन्नटदार धोती..कलफदार कुत्र्ता। पांवों में नागरा जिस पर बीच में गोल चमकीला सिक्का जैसे कुछ जड़ा हुआ। मुखिया जी गांव के मालिक थे। उनका कहा गांव के लिए हुक्म था। देवता का हुक्म। उनके हुक्म की उदूली की ताब किसी में नहीं थी। गांव का तालाब उनका था। तालाब का पानी उनका था। तालाब की सारी मछलियां भी उनकी थीं। वे जब चाहते तालाब में जाल डालकर मछलियां उलीच देते थे। गांव वालों को जब तब दावत भी देते थे। बड़े और शहरी लोगों का अक्सर आना-जाना लगा रहता इसलिए दावतें होती रहतीं। गांव के कुछ खास लोग भी बुलाए जाते जो भोज खाकर खुद को धन्य मानते।
दादाजी ने जब मखिया का चुनाव लड़ा तो चुनाव की धूम देखते बनती थी। खूब बकरे कटे। कनस्तर में भर भर कर शराब आई। मुखिया जी अगड़े थे उनके सामने खड़ा उम्मीदवार पिछड़ा। अगड़ों की इज्जत का सवाल था। हार गए तो क्या रह जाएगी इज्जत..सो थैलियां खोल दी गईं...चांदी के सिक्के फिर खनके।
***
एक बार दादा जी के बारे में अपनी मां से पूछा था लाली ने। मां ने कहा था- ‘तनिका गरम दिमाग के हथिन।’ लाली ने पगली दादी के बारे में पूछा था। मां का चेहरा थोड़ा सख्त हो गया था- ‘फिर गई थी न पुरानी घरारी। इ लडक़ी बात न बुझतौ। जो इहा से, खेल उहां जाके।’
लाली ने फिर नहीं पूछा। वैसे भी अब वह पुरानी घरारी की ऊंची सलाखों में पगली दादी को देखने या ताली बजाने नहीं जाती थी। वह मिलने जाती थी किसी अनजान प्यार से। कुछ समझना चाह रही थी जिसे समझने लायक वह अभी हुई नहीं थी।
उसके दादाजी तीन भाई थे। वह बड़े वाले दादाजी के खानदान से थी। अपने दादाजी एकदम साधारण थे। उनसे लाली न डरती थी न ज्यादा पास भटकती थी। वो अपने भैंस-गाय को शाम में खिलाते थे तो कभी भटकती खेलती हुई पहुंच भी जाती तो उसे प्यार से बुलाते थे-’गे ललिया ऐने आओ‘। वह जाती थी तो उससे कभी 15 का पहाड़ा तो कभी अपनी किताब की कोई कविता सुनाने के लिए कहते थे।
पनदरह के पनदरह, पनदरह दूना तीस, तीयो पैंतालीस, चउके साठ, दम पचहतर, छक्के नब्बे, सत्तो... अठ्ठïो.. ।
लाली ‘हवा हूं हवा मैं बसंती हवा हूं’ सुनाती थी। यह कविता उसे जुबानी याद थी। सुनकर दादाजी कहते थे-‘गेहे रमेशवा के बेटी त पढ़े में बड़ा तेज हई।’ कभी-कभी तो काम भी बता देते। ‘गे बउओ, दादी से आग ले आव घरे से मांग के घूरा (अलाव) सुलगावे के लेल।’ बीच वाले दादाजी से मिलना लाली को अच्छा लगता था। उसने ‘बसंती हवा’ बीच वाले दादाजी को इतनी बार सुनाई थी कि उसका नाम ही बसंती हवा रख दिया था उन्होंने। कभी-कभी लाली के मन में आता कि वह पगली दादी को भी जाकर ‘बसंती हवा’ सुना दे, लेकिन उसने ऐसा कभी किया नहीं। करना भी चाहती तो शायद पगली दादी के ‘चांदी के कठौती, चांदी के सिक्का...गान के सामने फेल हो जाती।’
छोटे दादाजी का रोबीला चेहरा तो ऐसे ही लाली को परेशान करता था। एक बार किसी को डपट दें तो सामने वाले की पतलून गीली। लाली बहुत डरती थी दादाजी से।
**एक बार तो लाली की जान ही निकल गई। सामने थे वह। उनके चेहरे पर मुस्कुराहट थी, लेकिन लाली को बहुत डर लगा।
क्या है तुम्हारे हाथ में?’ कहा तो प्यार से ही था, लेकिन उनका नैसर्गिक रोब उनकी आवाज में नन्हीं लाली ने महसूस किया था। एक बड़ी सी कठोर हथेलियों में कोमल हाथ मिट्टी से भरा हुआ। अब तो दूसरे हाथ की मिट्टी गीली भी हो रही थी। हथेलियों में पसीने की बाढ जो आ गई थी। दादाजी ने हिकारत भरी नजरों से अगल-बगल में सहमें और काले-कलूटे कुछ बड़े पेट वाले बच्चों को घूर रहे थे। तब तक खेत की तरफ से घूमते हुए अपने दादाजी भी आ गए थे। उनको देखकर दादाजी ने कहा- बडक़ा भईया, देखिए अपनी पोती को। ललिया माटी हाथ में ले के सर-सोलकन के बच्चा के साथे खेल रही है। तनका देखिए इ अब बड़ी हो गई। तनको ज्ञान नहीं है इसको।’
‘हो रामअधर, जाय दहू, लइका हई।’
बच्चा है? ‘इस बार आवाज में थोड़ी ज्यादा कडक़ थी-’भईया, आठ साल की है। बेटी जात है। जमाना बदल रहा है, अब बेटी-टाटी भी पढऩे लगी है। पढऩा -लिखना चाहिए। खाली समय में चौका-बरतन करना चाहिए। अरे, पढ़ेगी-लिखेगी तईयो किसी चूल्हे में ही न आंच लगाना पड़ेगा। चलो घर जाओ। हाथ-गोर धोकर दीया-बाती करो और पढऩे बईठो। जाओ इहां से सब लाोग।’
लाली अपने भाई-बहनों के साथ सरसराती वहां से निकली। दबे पांव अपने घर लौटते हुए बच्चे सुन रहे थे छोटे दादाजी का रोब।
रमरतिया कलप रही थी- ‘मालिक उ त भट्ठा में कमाय चल गेलन। अब बच्चा हम कहां रख के आउ’
लाली ने दूर से पलटकर देखा। दादाजी सरसों पीट रही रमरतिया का सोटा छीनकर चार सोटा उस पर धर दिये- ‘हरामजादी मुंह लगाती है मुझसे।’ सामने खड़े घर के नौकर की ओर तमतमाये हुए देखकर कहा- ‘ऐ जाओ ससुरा ललनमा के बोला के लाओ। साला हमारा बिगहा का बिगहा खेत अभी जोताया नहीं। गेहूं बाओं करने के बिना खराब हो रहा है। सारा जन-मजूर को हम शाम-शाम तक काम करवा रहे हैं, इ ससुरा डेढ़ रूपिया जादा के लालच में भट्टा में काम करने जाता है। जाकर बोलो साले को कि मुखिया जी बोला रहे हैं।’
लाली के साथ बच्चे दलान के पीछे से छिपकर ये सब देख रहे थे।
‘अरे चलो, पढऩे का समय हो गया।’
पूरे गांव में सिर्फ छोटे दादाजी के घर में कई लालटेन थी। कभी कभार चोरी से जलने वाली बिजली की चमक भी दिख जाती थी। लाली का छोटका भाई पापा से रोज दो हाथ खाता था। उसे 14 का पहाड़ा पिछले कई दिनों से याद नहीं आ रहा था। लाली भी आज छत पर बोरा बिछाकर पढऩे बैठी थी। छत के कोने पर जाने पर पुरानी घरारी थोड़ा सा दिखाई दे जाती थी। लालटेन की मधम-मधम रोशनी आती देर तक देखती थी लाली। सिंदूर लगाई दादी का काला चेहरा उसकी आंखों में सीधे चुभ सा रहा था। नईकी चाची ने अपने मायके की पुरानी हवेली के भूत के किस्से सुनाए तब से लाली यह भी सोचती थी कि पगली दादी के साथ भी भूत रहते होंगे। उन्हें डराते होंगे। कहीं किसी दिन किसी भूत ने नोच खाया तो। यह सब सोचकर लाली को बहुत डर लगता था।
लाली अपने स्कूल में प्रथम आयी। स्कूल से घर तक के रास्ते के बीच पुरानी घरारी है। आज वह काफी खुश थी। वह सलाखों के पास गई। वहां और भी छोटे-छोटे बच्चे थे। वह पगली दादी को देखकर ताली बजा रहे। लाली धीरे से खिडक़ी के पास जाती है। माथे पर लाल सिंदूर, भावहीन मुखड़ा। आते समय लाली अपने खेत से बड़ी सी मूली उखाड़ लायी थी। उसे चापाकल के पानी में खूब बढिय़ा से धोकर लायी थी वो। उसने देवीजी को खिडक़ी से दिया। देवीजी ने मूली लिया फिर से प्यार भरी हथेली लाली के गोल मुंह पर रख दिया। लाली ने हथेली की काली रेखाओं को देखते हुए अपनी नजरें उपर की और उसके मुंह से अपने-आप ही निकलने लगा- ‘हवा हूं... हवा.. मैं बसंती हवा हूं।’ देवी जी ने खिडक़ी के पीछे हाथ करके ताली बजाई।
आज जब लाली अपने बचपन के बारे में सोचती है तो 70 के दशक का छोटे दादाजी का चेहरे में उसे गांव के आखिरी सामंत का चेहरा नजर आता है। अपने को सबसे बड़ा बनाने के लिए उन्होंने अपना सबसे बड़ा घर बनवाया। उनके घर से गांव शुरू होता था। पहली पत्नी यानी देवीजी काली-कलूटी और बदसूरत होने के कारण उनकी साजिश की शिकार हुई थी। उनकी दूसरी पत्नी बहुत ही खूबसूरत थी। वह दादाजी के साथ रहती थी, दूसरी गांव के कोने वाले बड़े मकान की कैद में। ऊंची दीवारों के बीच खूब शांति से रहने वाली ‘पगली’ को पूरा गांव ‘देवीजी’ कहता था। लाली कभी नहीं समझ पायी कि एक औरत मर्द द्वारा पूरी तरह नकार दिये जाने के बाद भी उसका रौब कैसे ओढ़ लेती है। जिसे ‘पगली’ कहकर बच्चे ताली बजाते हैं उसे पूरा गांव ‘देवीजी’ कहता है। यह बात लाली समझ चुकी है, लेकिन लाली अपनी रोब की तलाश में महानगर में है और ‘पगली दादी’ दादाजी का रोब ओढक़र सलाखों के पीछे। देवी जी का असली नाम शायद ही कोई जानता हो। गांव के एकाध सयानों को याद हो तो याद हो, अन्यथा सबके लिए वह पगली देवीजी थीं।
बच्ची लाली समझती भी तो कैसे, हां लेकिन अपने चेहरे पर ‘पगली की हथेली’ पडऩे के बाद वह लाली के लिए ‘पगली’ से ‘पगली दादी’ हो गई थी।
वह पागल थी फिर भी रोज सिंदूर लगाती थी। अब तो लगातार जाते-जाते लाली को पगली दादी से डर भी नहीं लगता था। वह पगली दादी की खामोशी को दूर से देखती थी। वह पगली दादी को देखकर ताली नहीं बजाती थी, बल्कि पगली दादी की ताली सुनती थी- चांदी की कठौती, चांदी का सिक्का...
लाली को इसका मतलब तब समझ में आया जब वह बड़ी हुई । लाली जानती थी कि दादाजी की जब दूसरी शादी हुई थी तो उन्हें दहेज में चांदी की कठौती और चांदी का सिक्का मिला था। बड़े होने पर मां ने बताया था कि जब दादा जी की दूसरी शादी हुई थी तब सारे इलाके में धूम मच गई कि बाबू साहेब को दहेज में चांदी की कठौती में भर भर कर चांदी के सिक्के मिले थे।
‘पगली दादी’ लाली के लिए सिर्फ ‘दादी’ थी जो उसके दादा के लिए एक काली औरत थी। लाली ने दादाजी की ऊंची जाति का रौब देखा। लाली ने देखा कि दादाजी का घर गांव का पहला घर है। लाली दादाजी के रोबीले मूंछों और पगली दादी की मांग का सिंदूर देखकर बड़ी हुई थी और इसीलिए देवी जी के चारों और खड़ी दीवारों के बीच की सिसकियां लाली को रुलाती थी। दादाजी ने अपना रुतबा बनाया। गांव में सबसे आलीशान घर बनाया। गांव के सभी बच्चों को ताली बजाने के लिए एक ‘पगली दादी’ बनाई। सारे बच्चों ने लाली को अजीब नजरों से देखा। उसे मना किया कि पगली तुम्हें मारेगी। फिर भी लाली नहीं मानी। वह रोज शाम को या ऐसे समय में जरूर जाती पगली दादी को सलाखों में देखने जब कोई और नहीं होता। गांव की चहल-पहल, होली-दीवाली, पर्व-त्योहार सबसे अलग पगली दादी की खिड़कियों के भीतर जलता एक दीया और शेष अंधेरे लाली की उजली यादें बनकर उसका पीछा करती रहीं।
आज लाली फिर पगली दादी के सामने थी। सलाखों के पीछे से दोनों काले हाथ उसके गोल-गोल गोरे मुंह को सहला रहे थे। अचानक छोटी हथेली ने देवीजी की बाहों पर पड़े काले-काले डिजाइन को देखा।
वह डिजाइन दादी की बांहों से भी ज्यादा काली।
‘दादी, ये क्या है?’ पूरी मासूमियत, प्यार और अपनापन से लाली ने पूछा।
गर्दन टेढ़ी करके अपनी आंखों की पुतलियों को घुमाया और मुंह बिचका दिया।
‘दादी, ये टैटू है।’ लाली उछली।
‘दादी, आप बाहर क्यों नहीं निकलती। मेरी दादी की तरह गांव में क्यों नहीं घुमती। दादी, आपको सब बच्चे पागल कहकर ताली क्यूं बजाते हैं।’
जल्दी-जल्दी में इतने सवाल पूछने के बाद जवाब के इंतजार में गर्दन झुकाकर लाली ने नजरें देवी जी के चेहरे पर टिका दी। उसकी आंखें सूनी हो गई। उसने दोनों हाथ खिडक़ी के पीछे खींच लिया। वह मुड़ गई और पलटकर कहा- ‘भागो-जाओ, दादा....’।
उसके बाद ठीक-ठीक याद नहीं लाली को कुछ भी। शायद उसे लौटते हुए सिसकियां सुनाई दी थी या कुछ और... ‘या चांदी की कठौती, चांदी का सिक्का’।
देवीजी पूरे गांव में थीं। औरतों की बातों में, बच्चों की तालियों में, अपनी सिसकियों में, दादाजी के रौब में...लेकिन लाली की समझदारी में आने में उन्होंने थोड़ी देर लगा दी। लाली उनसे यदा-कदा मिलती रही। उनकी बदसूरत हथेलियों की महक से वह परेशान नहीं होती थी। लाली अब बड़ी हो चुकी हथेलियों में जब ‘पगली दादी’ की काली झुर्रियां देखती है तो उसे लड़कियों के सर पर रौब के टूटते पहाड़ नजर आते हैं।
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उन दिनों छोटे दादा जी की तबियत खराब थी। लाली को मां ने कहा था एक बार आकर मिल जाओ। परिवार के सभी सदस्य एक एक कर गांव आ रहे थे और मिल रहे थे। लाली अकेली ही वहां पहुंची थी। मन में कुछ उथल पुथल सी मची थी। जो ख्याल उसे अब आ रहा है पहले क्यों नहीं आया। वह हैरान थी अपने ऊपर। मां ने ही बताया था कि दादा जी अब पहले की तरह रोबीला नहीं रहे और बिस्तर पर पड़े जिंदगी के बाकी दिन काट रहे हैं। सुन कर पहले बहुत अजीब-सा लगा फिर अचानक उसकी आंखें चमकीं।
लाली आज दादी की मुक्ति चाहती है। वह अपने फैसले की जमीन पर इतनी मजबूती से खड़ी है कि मुद्दत से बंद देवीजी की कोठरी के दरवाजे की कुंडी खोलने के लिए आगे बढ़ते हुए न तो उसके पांव थरथरा रहे हैं और न ही उसके मन में कहीं कोई दुविधा है। वह कोठरी के दरवाजे के पास पहुंचती है, एक सांस में कह डालती है - दादी, बाहर निकलो... आज से तुम आजाद हो... जाओ और खुली हवा में ठाठ से सांस लो...।
लाली अपनी सांसों की बढ़ी रफ्तार के बीच कोठरी की कुंडी खोल देती है। लेकिन दादी मौन है और लाली हैरान है कि अपनी मुक्ति के इस पर्व पर भी दादी के भीतर कोई उमंग या उत्साह क्यों नहीं है? उसके जेहन में तमाम सवाल आंधी की तरह उठते हैं। सोचती है कि क्या दादी अपनी मुक्ति से खुश नहीं हैं? लेकिन फिर खुद ही बुदबुदाती है- नहीं, ऐसा नहीं हो सकता- दादी भला खुश क्यों नहीं होंगी?
लाली दादी से बिना किसी उत्तर की प्रतीक्षा किए हुए तेज कदमों से बाहर लौट आई। पर रातभर वह सो नहीं सकी। देवीजी का चेहरा रातभर उसकी जागती आंखों में तैरता रहा।... सुबह हुई तो दादाजी की हवेली में उसे हर कोई एक-दूसरे से यही पूछता आया कि- ‘आखिर देवीजी की कोठरी की कुंडी रात कैसे खुली रह गई?’ लाली की इस सवाल में कहीं कोई दिलचस्पी नहीं थी, सो वह तेज कदमों से सीधे दादी की कोठरी की ओर लपकी। देखा तो हैरान रह गई। देवीजी खुली कोठरी में भी बंदी हैं। देवीजी आंख बंद किए हुए लेटी हैं- शायद नींद में हो। इसलिए लाली नि:शब्द वापस लौट आई।
लाली धम्म से बिस्तर पर जा गिरी। आखिर दादी ने अपनी मुक्ति स्वीकार क्यों नहीं की? लाली गहरे मानसिक झंझावत के बीच बुदबुदा रही है- ठीक ही तो है, आखिर कोई तब कैसे उड़ेगा जब उसके पंख उडऩा ही भूल गए हों...। तब शायद मुक्ति नहीं पाती बल्कि उसके बाद के जीवन से जुड़ी आशंकाएं कंपकंपा देती हैं... अगर कोई बंधन को ही मुक्ति मान ले तो क्या गलत है? लाली खुद को सिखा रही है- ‘मुक्ति तभी सुहाती है जब तक उसकी कामना शेष रहे अन्यथा तो मुक्ति से भी भय लगता है...।’ फिर अपने से ही सवाल करती है- ‘तो फिर मैंने दादी को आजाद ही क्यों किया था?’ फिर खुद उत्तर देती है- ‘दादी के पांवों में मुक्ति की डगर पर चलने की ताकत बाकी है या नहीं, यह जानने के लिए भी तो कुंडी खोलने के अलावा कोई और रास्ता नहीं था।’
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