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आवाजों के पीछे पीछे

आवाजों के पीछे पीछे

गीताश्री

उसे पहली बार लगा कि जिस आवाज को वह सालों से सुनता चला आ रहा है, उसे पहली बार पहचान रहा है। या पहचानने की कोशिश कर रहा है। इस आवाज के साथ उसे जीते हुए पांच साल हो गए। आज क्यो लग रहा है कि यह आवाज नई है पर कहीं और भी सुनी सुनी सी लगती है या किसी और से मिलती जुलती सी है..किससे, किससे...पलंग पर पड़ा पड़ा देर तक इसी उधेड़बुन में लगा रहा।

वह इस आवाज का पीछा करना चाहता है। आवाज उसके लिए आज एक दिगंबर परिकल्पना बन गई थी। अंधेरे में जैसे सूई की आवाज का पीछा करना चाहता है..टटोलते हुए। किसी रहस्यमय तहखाने की रौशनी और उससे झरती हुई आवाज है यह या उसके रोम रोम में दौड़ती हुई असंख्य ध्वनियों का समूह है...यूं ही नहीं मन विचलित है। किसी आवाज का पीछा करना आसान काम नहीं। आवाज का पीछा करने के लिए खुद आवाज होना जरुरी है...वह खुद को आवाज में बदलने की कोशिश इन दिनों खूब हो रही है...पर बाकी आवाजें...और वो एक आवाज...जो जानी पहचानी सी लगती है..उस आवाज के छिलके उतारना चाहता है वह.उसकी परतो में छिपे सच को करीब से देखने का अभिलाषी या किसी तिलिस्म को भेदने का सुख..।

निशा बीच बीच में उससे कभी चाय पानी को पूछ जाती। उसे घरेलू काम और भी थे, जिन्हें जल्दी निपटा कर बच्चे को लेकर पार्क घुमाने जाना था। बिल्डर फ्लैट के बंद घरो में जीते हुए किसी को ठीक से न हवा नसीब होती है न धूप। हर काम के लिए नीचे भागना पड़ता है। कितनी बार निशा कह चुकी है कि थोड़ा बड़ा और खुला घर ले लेते हैं। सुनील लाल कभी तैयार नहीं होते।

अरे यार..कहां से पैसे लाऊं..अभी इसी घर का लोन नहीं चुका पाया हूं। पहले एक घर का कर्ज तो उतरे फिर सोचेंगे बड़े का। जो है उसी में रहना जीना सीखो निशा..ज्यादा ख्वाहिशें इनसान को कहीं का नहीं छोड़तीं।

निशा उसका भाषण सुन लेती और मुंह बिंचकाती हुई किचन में चली जाती जहां ढेरो काम उसके इंतजार में पड़े रहते। कामवाली तो सुबह शाम आती और झाड़ू पोंछा करके निकल जाती। किचन तो सारा निशा के जिम्मे। पति का नाश्ता, टिफिन और फिर बच्चे की पूरी तिमारदारी। कितनी बार सास को बोला कि गांव से एक छोटा रामू टाइप टहलुआ लड़का या लड़की ही भेज दे, टहल कर देगा, बच्चा ही पकड़ लेगा, थोड़ा तो आराम होगा। उनका एक ही रटा रटाया जवाब होता...”कहां से भेज दें ? ईहां त घोर अकाल पड़ा है आदमी जन का। खेत में काम करने के लिए मजूर मिलना मुस्किल है। हालत बदल गई है, मजूर का लड़का लड़की सब स्कूल जाने लगा है। लड़की सब को साइकिल दे दिया है सरकार ने। एको नौकर नहीं मिल रहा है खटने के लिए। का करें..देखिएगा...अबकि ललन सरकार का बेड़ा गर्क पक्का होने वाला है।“

वह देर तक ललन सरकार की नीतियो को गाली देतीं जिसकी वजह से गांव में बाल मजदूर मिलने मुश्किल हो गए थे। इधर सुनील भी कहते, “छोटू को नौकर बिल्कुल मत रखना भाई, हमें जेल नहीं जाना। गांव से मंगवाने की जरुरत नहीं है। किसी तरह यहां की कामवालियों से काम चलाओ।“

दिल्ली है, कोई मजाक है क्या। यहां कामवालियों के इतने नखरे..बाप रे बाप..दिन भर के लिए कोई रहने को तैयार नहीं। छम्मक छल्लो बनी हुईं सुबह सुबह ही आती हैं और फाटफट काम निपटा कर ये जा वो जा। शाम को फिर आती हैं तो रंगत और बदली हुई। इतनी सजधज तो निशा भी नहीं करती। मुन्नी आती है, रोज, जैसे चुन्नी की जगह खुशियों ओढ़ रखी हो। कभी उसे तनाव में नहीं देखा। कई बार पति से पिट कर आई है, झगड़ कर आई है लेकिन यहां आते ही सब भूल कर मस्ती में काम करती है। बड़बड़ करती हुई सारी बातें बता भी जाती है। भड़ांस निकाल कर वह तो चली जाती है, निशा उसके अवसाद में डूब जाती है..आह...कैसी जिंदगी हैं इन बेचारियों की..खुशी भी अपार और दुख भी अथाह। पूरे दिन रहने को फिर भी ये लोग तैयार नहीं होती। अपने छोटे छोटे बच्चो को यूं ही गली में, घर में खेलने के लिए छोड़ कर बेफिक्र। निशा को चिंता होती कि हाय रे, कैसे छोड़ आती है। वह तो अपने बच्चे को अकेली बेडरुम तक में नहीं छोड़ पाती। तभी तो कोई टहलुआ चाहिए जो कुछ देर बच्चा संभाले तो वह बाथरुम तक जा सके। अभी तो ताक में रहती है कि बच्चा सोए तो वह चैन से अपने काम निपटा सके। निशा की अपनी तकलीफें हैं और सुनील की अपनी। शाम को दफ्तर से छूटता है तो उसे कुछ नहीं, बस टीवी और बीवी चाहिए। न बाजार जाने का मन न कोई घरेलू काम से मतलब। सबकुछ रेडीमेड चाहिए, बीवी के मूड की तरह। पति के अनजाने में किए जा रहे इस असहयोग को निशा समझती है पर चुप रहती है। चुप रहना कई मुसीबतो को टालता है, यह ज्ञान उसे अपने घर में ही मिल गया था। शायद उसके डीएनए में थी वो चुप्पी, जो घर में शांति कायम रखने में सक्षम थी। निशा उतना ही बोलती है, उतना ही फरमाती है जिससे होने वाले वबाल को वह संभाल सकती है।

निशा अभी भी सुनील को आवाजें लगाती पूरे घर में घूम रही है। ऐजी..सुनते हैं...ये करना है..वो करना है...कुछ देर बाद सुनील को सब सुनाई देना बंद हो जाता है। बोलती रहो...पर आज।

आज तो वह भाव नहीं आ रहा है। वह चाहता है कि निशा बोलती रहे...देर तक...वह उस आवाज को पकड़ना चाहता है..पीछा करना चाहता है..कहीं और भी सुनी है ये आवाज...कहां...पर कहां...शायद फोन पर..नहीं..ये आवाज उस फोन पर नहीं हो सकती..

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कुछ ही दिन पहले की बात है। दप्तर से बाहर निकला। पार्किंग में गाड़ियों की भीड़ में अपनी गाड़ी ढूंढता हुआ सुनील जब अपनी गाड़ी तक पहुंचा तो हैरान रह गया। कतार में लगी गाड़ियों के विंड स्क्रिन पर खाकी पैकेट सा कुछ खुंसा हुआ था। दूर से गाड़ियों में वे सारे खाकी पैकेट दिख रहे थे। पार्किंग वाला छोकरा नजर नहीं आ रहा था। चाबियों के गुच्छे समेत गायब था। लौटने वाले लोगो ने उसे ढूंढना शुरु कर दिया था। किसी की नजर उस तरह से उस पैकेट पर पड़ी नहीं थी, जैसी सुनील की पड़ी। रोज गाड़ियों के शीशे में पंपलेट अटके रहते हैं। खाकी लिफाफा देख कर सुनील चौंका। खींच कर पैकेट को निकाला। सरकारी लिफाफे की तरह पैक था, मोटा था। पता नहीं अंदर क्या रखा हो...सोचते हुए सुनील थोड़ा अचकचाया। एक क्षण को धक्का लगा कि कहीं अवैध पार्किंग की वजह से सारी गाड़ियों को नोटिस तो नहीं मिल गई। स्थानीय प्रशासन ने चालान काट कर रख दिया हो। लिफाफ मुहरबंद था। लेकिन चलान इतना मोटा नहीं हो सकता। कोई नोटिस...क्या है..? सुनील ने दूर तक गाड़ियों पर निगाह दौड़ाई. खाकी लिफाफे चमक रहे थे। सुनील हैरान हुआ। एक साथ सबको नोटिस वो भी इतने अजीब तरीके से। पार्किंग वाला छोकरा मिले तो पूंछूं कि किसने रखा, क्यों रखा और रखने क्यों दिया...इतना सोचते सोचते सुनील उबाल खाने लगा। किसी अनजाने अंदेशे से उसकी धड़कन तेज हुई।

उसने हौले से लिफाफा फाड़ा। फाड़ने का अंदाज खोलने से जुदा होता है। लिफाफे के एक कोने को पकड़ा और दूसरे कोने तक चीर दिया। अंदर मुड़े तुड़े मोटे कागज पड़े थे। ऊंगलियों से खींचते हुए चिकने कागजो का अहसास हुआ। कई थे। उसने सबको खोला। कुछ ब्लैक एंड व्हाइट पंपलेट थे, उसके अंदर रंगीन कार्डस...और सब पर हिंदी में इबारते लिखी थीं..वह पढने की कोशिश करने लगा लेकिन आंखें फोटो पर चिपक जातीं। रंगीन कार्ड पर छपे फोटो देखकर यकायक वह घबराया। चाहा जल्दी से गाड़ी में बैठूं और उत्कंठा शांत करुं...सारे पेपर अपनी जेब में ठूंस ही रहा था कि..

“आया सर, मैं आया...ये लीजिए चाबी...बोलता हुआ छोकरा बहुत पास आ खड़ा हुआ था। वह मुस्कुरा रहा था। क्या हुआ सर..नाराज है..देर हो गई..क्या करे सर ? आज चारो तरफ से लोग आवाज लगा रहे हैं...ई लिफाफा बंटा है न सो सब परेसान हैं..क्या है सर..? हमको भी दिखाइए..”

सुनील को लगा वह इतना भोला नहीं जितना बन रहा है। बिना इसके मिली भगत के उसकी पार्किंग की गाड़ियों में कागज रख जाए और उसे कुछ पता ही न हो। सुनील बिना किसी बहस में पड़े वहां से जल्दी भाग जाना चाहता है। उससे चाबी झटकी और शरीर को कार में धुसेड़ दिया। छोकरे की मुस्कान थम नहीं रही थी। सुनील की ओर देखता हुआ वह दूसरी तरफ भागा।

डैश बोर्ड पर वे कागज रखे नहीं जा सकते थे। बगल वाली सीट पर रखूं तो रेड लाइट पर लोगो की नजरे पड़ सकती हैं। क्या करे..छुपाना भी बहुत मुश्किल..दिखाना भी बहुत मुश्किल...कुछ इसी अंदाज में उसने तय किया कि सहीं सुनसान में गाड़ी रोक कर वह पूरा पढेगा और फिर घर जाएगा। इतना तो समझ गया था कि इन कागजो को अपने घर नहीं ले जा सकता। यह भी समझ गया कि इन कागजो को उसे जायदाद के कागजो की तरह संभाल कर रखना होगा या रास्ते में पड़ने वाले नहर के हवाले करना होगा। जिस सुनसान जगह पर उसने गाड़ी रोकी, उधर से जल्दी कोई आता जाता नहीं। ड्राइविंग सीट को पीछे किया...और कागजो का पठन-पाठन शुरु। ज्यों ज्यों पढता जाता, उसका ब्लड प्रेशर बढता जाता..सबकुछ विस्तार से लिखा था और संबंधित तस्वीरे भी उस पर लगी थीं। मन में अंधड़...क्या ये सारी जानकारियां उसके काम की हैं। क्या वह इन जानकारिय़ों या फोन न. का कभी इस्तेमाल कर पाएगा। क्या कभी वह इन लोगों से मिल पाएगा..क्या उसे ऐसा करना चाहिए...नहीं नहीं...शांत जिंदगी में कोई भूचाल नहीं चाहिए। किसी को पता चला तो सारी इज्जत मिट्टी में। जिस वर्ग से आता है वहां इस तरह का विलास बिल्कुल स्वीकार्य नहीं है। न परिवार में न अपनी आत्मा में। परिवार को तो धोखा दे सकता है पर अपनी आत्मा...जो हर बात पर जिरह करती रहती है। बाहर के शोर से नहीं वह अपने भीतर की चीख पुकार से सहमता है अक्सर।

उसने सारे कागज समेटे और शीशा खोल कर फेंकना चाहा। ठिठक गया। एक गाड़ी और उधर से गुजरी थी, कुछ दूर जाकर वह गाड़ी रुकी, उसके डैश बोर्ड पर खुलेआम वे कागज फड़फड़ा रहे थे। ड्राइविंग सीट पर बैठा बंदा मुस्कुरा रहा था। सुनील हड़बड़ा गया। उसने सारे कागजो, रंगीन कार्डस को संभाला और सीट के नीचे खोंस दिया। अब इस पर कल विचार करेंगे। गाड़ी की स्पीड बढा दी ताकि सामने वाली गाड़ी से ओझल हो जाए। पर आज एक्सीलेटर में जोर नहीं था, कोई प्लान, कोई सोच गति को नियंत्रित कर रही थी। घर अचानक उसे दूर लगने लगा। सारी आवाजें गायब थीं और कुछ नई आवाजो ने उनकी जगह ले ली थी। उसे नई आवाजो के पीछे पीछे जाना था।

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रंगा बिरंगी..चमकीली लाइटस..शीशे के भीतर से फूटती लाल नीली पीली रौशनी..पतली पट्टियों से लिपटी छायाएं, कभी खंभे से चिपकती, कभी टेबल पर चढ आतीं..तरह तरह की चित्कारे..अलग अलग भाषाओं के बोध से भरी चित्कारें..आह ऊह...छायाएं लंबी, छोटी, पतली.वक्र...अजीब अजीब आकारो में बदलती हुईं। एक छाया धप्प से सुनील की गोद में गिरी और वह चिंहुक कर कुरसी से उठ खड़ा हुआ। नीम अंधेरे में सिर्फ गरम सांसे थीं और छायाओं का स्पर्श। उसे अच्छा भी लग रहा था, पर यह दुनिया उसकी नहीं थी। वह इन छायाओं को अपने से नोंच कर फेंक देना चाहता है। छायाएं उसका पीछा कर रही हैं। कहां भागे..दरवाजे पर कुछ मूच्छड़, मुस्टंडे खड़े हैं, उसे वापस छायाओं के हवाले कर देंगे। पसीने पसीने हो रहा है सुनील..। उसे प्यास लग रही है। चारो तरफ देखता है। एक छाया बड़ा सा जग लिए उसकी तरफ बढ रही है। जग में एक पतली पाइप लगी है, वह उसमें मुंह लगा देता है। छाया मुस्कुराती है और बाकी छायाएं जोर से चीखती है। संगीत शोर में बदल गया है और रंगीन रौशनियां यातना में। मुंह का स्वाद कसैला हो जाता है...पता नहीं क्या है उस जग में। नहीं पीना...हटाओ...गेट लौस्ट...जोर से हाथ झटकता है...

“ऊई मां...ये क्या किया..थप्पड़ मार दिया...नींद उड़ा दी..क्या है जी..सोने भी नहीं देते..क्या देखते रहते है।.कहीं जंग लड़ रहे थे क्या...?”

निशा अपना गाल पकड़े चीख रही थी। घुप्प अंधेरे में निशा ने एक हाथ से मोबाइल उठाया और उसकी टार्च जला दी। सुनील को बदहवास देखकर वह घबरा गई।

गाल से उसका हाथ तुरत हट गया। सुनील उठ कर बैठ गया। उसका माथा उड़ा हुआ था।

‘लाइट जलाओ प्लीज...’ उसकी मिमियाती हुई आवाज निशा को अजीब लगी।

‘क्या हुआ ? जरुर कोई सपना देखा होगा..या किसी से लड़ाई हुई होगी..उसको मार रहे थे और थप्पड़ मेरे गाल पर..वाह..रे सपना...’

निशा के तानोx का सुनील पर कोई असर नहीं...वह अब भी ट्रांस में था। छायाएं अंधेरे कमरे में भरी हुई थीं और उसे उनसे निपटना था। कैसे...ये पता नहीं पर कुछ जल्दी करना ही पड़ेगा।

‘कुछ नहीं...सो जाओ...वो गल्ती से हाथ पड़ गया होगा..सौरी यार..मैं भला सपने में किससे मार पीट करुंगा। तुम भी न..पहले कभी हुआ ऐसा..?’

सुनील ने निशा का गाल सहलाया। निशा ने उसकी हथेलियां थाम लीं।

जोर का था...चलो पहला थप्पड़ नींद में खाकर पता चल गया कि तुम कितनी जोर से पिटाई कर सकते हो। मैं न भिड़ूंगी तुमसे...बाबा...लेकिन अब रात को तुम्हारे हाथ बेड से बांधना पड़ेगा...

“अरे यार...पहली बार हुआ तो तुम इतना इशू बना रही हो...छोड़ो भी..चलो सो जाओ...”

सुनील अपनी आंखों में अंधेरा ही चाहता था। अंधेरे की परियां शायद वहीं डेरा जमाए बैठीं थी।

पर नींद कहां...निशा चोट भूल कर बच्चे की मानिंद सो गई थी। नींद में स्त्रियां बहुत रहस्यमयी लगती हैं। पूरी तर आजाद और स्नेहस्वप्न मग्न। जगे में जिसके पास होती हैं, नींद में उससे दूर। तभी तो सुनील के हाथ को अक्सर नींद में परे ढकेल दिया करती है। सुनील हल्के अंधेरे में उसे देर तक घूरता रहा। अंधेरे की परियां अलग अलग किस्म की होती हैं। यहां सुकून, वहां बेचैनी, यहां शांति, वहां आवेग, यहां नीरवता, वहां चीखें...यहां श्याम रंग...वहां रंगीन पट्टियां, उनमें लिपटी अंधेरे की परियां...

लाल रंग बोलता है...कम..कम हियर...

हरे रंग की ऊंगलियां बुलाती हैं...

बाकी सारे रंग, उसकी गुलामी करते हैं...आवाजें लगाते हैं...

सुनील को दिलचस्प लगा सब कुछ। उसे याद आया, गाड़ी की सीट के नीचे खुंसे हुए कुछ रंगीन कागज और उन पर खुला आमंत्रण।

सुबह पक्का देखूंगा...रिस्क लेने में क्या हर्ज है...ज्यादा दूर तक नहीं जाना...बस एक चांस..एक अनुभव..दोस्तो की महफिल में बेवकूफों की तरह बैठे रहना, कब तक।

उसे सुबह का इंतजार था। जब इंतजार हो तो सुबह भी रार ठान लेती है।

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“मैडम जी...ये लिफाफा आपके लिए। लेते जाइए, नहीं तो गुम हो जाएगा।“

सोसाइटी के गेट पर खड़े गार्ड ने निशा को आवाज लगाई। सुपर मार्केट से शांपिंग करके सामान से लदी फदी वह घिसटती हुई घर की ओर जा रही थी। घर, बच्चा और उसके बाद सारी शापिंग। थोक में सामान हो तो आर्डर करके मंगाया जा सकता है पर थोड़ा बहुत सामान तो खुद ही लाना पड़ता है। खास कर बच्चे के यूज वाला सामान। सुनील को फुरसत कहां. इन दिनों और देर से आने लगा है। शाम की पारी थोड़ी लंबी हो गई है। सुबह भी जल्दी भागता है। मानो इतनी हड़बड़ी हो कि ट्रेन छूट रही हो। पहले थोड़ी बहुत हेल्प हो जाती थी, पिछले एक महीने से तो सुनील को पंख ही लग गए हैं। रात को इतना थका हारा आता है कि निशा उसको कोई काम बताते हुए गिल्ड फील करने लगती है। सुनील को सबकुछ आराम से मिल जाए, सुबह वह ठीक से दफ्तर निकल जाए, कोई दिक्कत न हो। निशा को बस इतनी चिंता। सुनील उसे सारे पैसे थमा देता और खुद फक्कड़। जरुरत पड़ने पर निशा से ही पैसे मांग बैठता। वह जानता था कि निशा सोच समझ कर खर्च करती है। इस महीने 10 तारीख हो गए। सुनील पैसे देने का नाम ही नहीं ले रहा। बच्चे के कई जरुरी सामान खत्म थे। प्ले स्कूल में डाल दिया था। वहां अक्सर किसी न किसी चीज कि डिमांड आती रहती थी। निशा को ही भाग कर स्टेशनरी शाप पर जाना पड़ता था। कौन हेल्प करे। काम वाली बाई से घरेलू हेल्प तो हो जाती थी पर बाहर का सारा काम किससे करवाए। निशा अभी जरुरी चीजें लेकर लौट रही थी कि गार्ड ने एक लिफाफा पकड़ाया। लिफाफे पर उसके फ्लैट का न. लिखा था बस। उत्सुकता बस वहीं खोल लिया। लंबा सा प्रिंटेट खत। ऊपर लिखा था..मोटे मोटे अक्षरो में...

“हसबैंड औन रेंट।“

वह चकराई। ये क्या बला है ? कहीं ऐसी वैसी चीज तो नहीं। घर जाकर पढेगी। देखें तो क्या है..?

“अच्छा, तो आपको भी मिला है ये लिफाफा। पूरी सोसाइटी की औरतो को मिला है ये..पढ लो..बड़े काम का है जी...सारी परेशानी दूर हो जाएगी...उसके लिखे पर न जाना...हसबैंड नहीं मिलेगा रेंट पर..हसबैंड जैसा चाहो तो मिल जाएगा...”

आंख मारती हुई बगल से मिसेज दिव्या निकल गईं। उनकी बातों में शरारत थी और लहजा गौसिंपिंग जैसा। निशा ने उन्हें देखा..हाथ हिलाती हुई वे दूर निकल गई थीं। उनकी हंसी दूर से चमक रही थी।

निशा तो तब दिव्या की हंसी और आंख मारने का मतलब समझ में नहीं आया था। पता तो तब चला जब उसने लिफाफे के अंदर लिफाफा देखा और चौंक गई। ये क्या मायाजाल है भाई...ऊपर ऊपर कितनी राहतें..और अंदर लिफाफे में जिंदगी का तिलिस्म जिसमें घुसने पर कम जोखिम और ज्यादा पैसा दिखाई पड़ रहा है। क्या उसे इस तिलिस्म में घुसना चाहिए। सोचते हुए उसकी आंखों के सामने इन दिनों पति का बदला हुआ व्यवहार, घर के प्रति उसकी उदासीनता, पैसे देने के मामले में किच किच..घूमने लगा।

कमसेकम घर बैठे कुछ पैसे कमा लेगी तो क्या समस्या। कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा। काम भी कुछ खास नहीं, कहीं आना जाना भी नहीं, बस घर बैठे कमाई का अच्छा साधन। उसने अंदर के लिफाफे पर नजर डाली। कुछ फोन न. दिए गए थे और विस्तार कमाई के बारे में जानकारी दी गई थी। उसने मन में सोचा..आज न जाने कितनी महिलाएं घर बैठे कमाई कर रही हैं। कोई बूटिक चला रही है तो कोई ब्यूटी पार्लर। किसी ने कोचिंग क्लासेज शुरु कर दी है तो किसी ने घर में क्रेच बना लिया है। घर बैठे औरतो ने कमाई के कई तरीके ढूंढ निकाले हैं। ये नया तरीका है, रोमांचक है, अलग हट कर है, कर लेने में क्या हर्ज है। इसमें न तो अपनी पूंजी लगती है न कुछ खर्च होना है, बस एक अपनी....।

हौले से सिहर उठती है। क्या कर पाएगी वो ये सब. उससे हो पाएगा...ऐसा काम तो उसने आज तक कभी सुना नहीं था। चंद साल ही तो हुए हैं दिल्ली आए। सारा समय गृहस्थी बसाने और नए शहर को समझने, सामंजस्य बिठाने में ही गुजर गए।

उसके भीतर से कुछ सवालो ने फन उठाए। कहीं वह नहीं कर पाई तो...किसी को पता चल गया तो...क्या उसे करना चाहिए...क्या पैसा उसके लिए इस समय इतना अहम हो गया है...”नहीं नहीं..नहीं कर पाएगी..” वह कंपकंपाई। लिफाफा से निकले पेपर को साइड में रख दिया।

भीतर में भयानक दंव्द् चल रहा था। करे या न करे...दिल कह रहा था, मत कर...दिमाग कह रहा था, कर ले...कुछ नहीं होता। किसी को पता नहीं चलेगा। किसी को क्या पता चलेगा कि इस काम के पीछे कौन है...हमेशा राज, राज ही रहेगा। रहस्य के गहरे चादर में लिपटा हुआ रोमांचक काम जिससे धन बरसने की उम्मीद उस कागज में दर्ज थी और जो निशा को ललचा रही थी। उसने खुद को सोचने के लिए कुछ वक्त मुहैय्या कराया। पर बार बार निगाहें उस कागज पर चली जाती, जिस पर चंद फोन न. और नाम लिखे थे और साथ ही लिखा था, घर बैठे कमाई के आसान तरीके। निशा को अपनी आवाज पहली बार मीठी लगी। उसने अपने आप बोलना शुरु किया...हैलो...उसके बाद आवाज अटक गई। क्या बोले...किससे बोले...सामने कोई चेहरा नहीं। शून्य है..भाव शून्य, विचार शून्य...सामने दीवार पर उभर रही हैं कुछ छायाएं...गड्डमड्ड..सब अकेली..अपने से भिड़ती हुईं। अपने को धुनती हुई। अपनी देह मथती हुई। छायाएं लोट रही है...लहालोट हो रही है...अपनी ही देह मे घुसते छायाओं के हाथ...

निशा ज्यादा देर नहीं देख पाई...छायाएं कुटीली हंसी हंस रही थी और निशा के कान गरम हो गए। वह बेड पर ढह गई। मोबाइल दूर पड़ा था। वह उसे देख भी नहीं पा रही थी। तब तक पड़ी रही, विचारशून्य अवस्था में जब तक मोबाइल नहीं बजा। चिंहुक पड़ी। कौन होगा इस असमय में। छायाओं से आजादी पाने का सबसे आसान तरीका यही था किसी से बात करके मन को शांत किया जाए। ये अशांति भी तो उसने खुद ही चुनी थी। अभी सोच कर ये हाल है तो जब काम शुरु करेगी तब क्या होगा। इतनी बेचैनी में वह काम को सही ढंग से कैसे अंजाम दे पाएगी। अपने ही भीतर तमाम सवालो से घिरी वह व्यथित हो उठी थी। जवाब भी उसे खुद अकेले ढूंढना था। न किसी दोस्त से कोई सलाह नहीं चाहिए न ही सुनील से। ये काम अकेले का है और जिसे हर हाल में राज बनाए रखना है। लेकिन घर में पैसे आएंगे तो क्या सुनील नोटिस नहीं करेगा..

“हुंह..इतना बीजी रहता है कि क्या नोटिस करेगा..और मैं कौन सा कुबेर का खजाना अर्जित करने वाली हूं कि जवाब देना पड़ेगा। अपने खर्च के लायक कमा लूं बस। बात बात पर हाथ पसारने की नौबत तो खत्म हो।“ इतना सोचते ही निशा के भीतर स्वाभिमान सा जागा।

अपनी कमाई..! भिखारियों की तरह हाथ फैलाने से मुक्ति...! छोटी छोटी ख्वाहिशें पूरी कर सकूंगी।

और बिना खर्च के काम ! घर बैठे..कहीं आना न जाना..। गोपनीयता की गारंटी तो है ही। इसमें बुराई क्या है...ना हम खर्च होंगे न वो खर्च होंगे, बस एक आवाज का जाया होना है...!!

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सुनील को इन दिनों हर चीज अच्छी लगती है। वह आफिस में लंच टाइम को ज्यादा उत्सवी मानने लगा है। कल तक उसे लंच करने वाले लोग वाहियात लगते थे। हुंह..फालतू टाइम वेस्ट करते हैं...लगता है सरकारी बाबू हैं..दोपहर के एक बजे नहीं कि सब निकल जाते हैं..किसी को टांग सीधी करनी है तो किसी को सिगरेट पीनी है तो किसी को अपनी गर्लफ्रेंड के साथ वाक पर जाना है। सुनील किसी लफड़े में नहीं पड़ता। उसे दोपहर में अपना केबिन बहुत अच्छा लगता है। आसपास के सारे केबिन खाली और वह लंच खाते हुए किसी अदृश्य छाया की गिरफ्त में चला जाता है। केबिन में हल्का अंधेरा उसे सुकून देने लगा है। हर समय चौकस रहने वाला सुनील अब सुस्ताने लगा है। मोबाइल कई बार इधर उधर भूल जाने वाला सुनील अब मोबाइल को हथेलियों में लिए फिरने लगा है। गाड़ी में खुंसे हुए कागज और रंगीन कार्डस उसकी दराज में पहुंच गई है जिसमें ताला लगा रहता है। कार्ड पर लिखे फोन न. वह सेव नहीं करना चाहता। किस नाम से करे..,सेव करके होगा क्या..उधर से कोई कौल नहीं आना...कौल तो उसे ही करना है। बदले में जो उसे मिलता है वह अविश्वसनीय, अकल्पनीय सुख है। फिलहाल उसे सुख का अहसास हो रहा है। इन दिनों आवाज उसके लिए एक दिगबंर परिकल्पना है। जिसके पीछे वह भाग रहा है। सिर्फ दोपहर क्यों..वह अब देर रात भी दिगंबर के पीछे भागना चाहता है। संभव नहीं...घर पर वह भाग नहीं सकता। उसे थमना होगा। यहां वल्गा को थाम लेना होगा। उसे सुरक्षित जगह की तलाश है। केबिन में वह आवाज के पीछे पड़ तो सकता है पर दौड़ नहीं सकता। उसे दौड़ना है, बेतहाशा, बेलगाम..इसमें आनंद है, बेचैनी है, पुकार है और भीतर की अव्यक्त बेचैनी को आराम है। वह नहीं चाहती कि उसे दौड़ते भागते और सुकून पाते कोई केबिन में देखे। आता जाता कोई झांक लेगा तो उसके परमानंद में, समाधि में खलल पड़ेगा। सबसे सुरक्षित जगह उसकी गाड़ी है जिसमें आजकल वह किसी कुलीग को लिफ्ट नहीं देऩा चाहता। घर पहुंचने के निर्धारित समय से एक घंटा लेट पहुंचने को निशा बुरा नहीं मानती आजकल। मस्त दिखती है। पिछले कुछ समय से उसकी चीख चिल्लाहट भी खत्म हो चुकी है। घर जैसे बड़ा स्मूद चल रहा है। उसने गौर से निशा का चेहरा देखा, वहां अबूझ सी छाया थी। इतना इत्मीनान तो कभी न था। निशा बिना शिकायतो को पिटारा खोले सुनील को चैन की नींद सोने कैसी देती है। सुनील को ये बात हैरान करने लगी थी इन दिनों। अपनी मस्ती में भी निशा के व्यवहार को गौर करता नहीं छोड़ा था। अपनी मस्ती भरे दिनों की शुरुआत में उसने निशा पर ध्यान नहीं दिया था। अब तो कुछ दिन हुए, उसे अच्छा लगने लगा है, सब सेट भी कर लिया। जब इत्मीनान हो तो दिमाग अपने परिवेश की तरफ जाता है। चौंकने की बारी तो उसकी थी। निशा ने तो डिमांड करना ही बंद कर दिया है। यहां ले चलो, वहां ले चलो, ये खरीदना है, वो खरीदवा दो, तुम ये नहीं दिलाते, तुम घर में वो नहीं लाते..सारे पैसे कहां खर्च कर डालते हो..निशा का स्थायी प्रलाप इन दिनों लगभग बंद था।

“कोई बात है क्या...? तुम बहुत शांत हो गई हो। बाजार भी अकेली हो आती हो..स्मार्ट हो गई हो..अब मेरी जरुरत नहीं रही, है ना...?”

निशा झेंप सी गई।

“नहीं ऐसा तो बिल्कुल नहीं, तुम पैसे तो दे ही देते हो, मैं तुम्हे तंग करुं, अच्छा नहीं लगता। शुरु शुरु में नयी जगह थी तो अजीब लगता था। अब तो सारी जगहे जान गई हूं। सारे काम खुद ही कर लेती हूं, आपको तो खुश होना चाहिए।“

“हां..हां..क्यों नहीं..बीवी आत्मनिर्भर हो तो पति कैसे न खुश होगा...जान छूटी तो लाखो पाए...”

सुनील खुल कर हंसा। वह परिहास के मूड में था। निशा थोड़ी असहज हो रही थी। वह कुछ खोज रही थी। उसकी बेचैन निगाहे सुनील नोटिस कर रहा था। कभी अलमारी खंगाल रही है तो कभी अपना पर्स तो कभी ड्रेसिंग टेबल के पीछे के खाने।

“क्या ढूंढ रही हो, मैं कुछ हेल्प करूं ?”

“नहीं...ऐसा कुछ जरुरी नहीं...मैं खुद खोज लूंगी। मेरा इयर रिंग नहीं मिल रहा। नया ही खरीदा था “

“मैं सोच रहा हूं, तुम्हे एक छोटी गाड़ी ले दूं, आसपास जाने के लिए आसानी रहेगी। ड्राइविंग सीख लेना..”

“पहले कुछ पैसे तो जोड़ लो..घर तो इतनी मुश्किल से चलता है। कल को बेटा बड़ा होगा, उसकी जरुरतें, स्कूल, डिमांडस, दिक्कतें नहीं होंगी क्या ? कैसे मैनेज होगा ?“

“तब क्या लगता है तुम्हे, मैं इतने ही पैकेज पर, इसी कंपनी में सड़ता रहूंगा क्या..?”

“नहीं..मैं ऐसा क्यो सोचूंगी..क्यों चाहूंगी..जब होगा, तब होगा..तब तक सारे अरमान बचे रहे, कोई जरुरी है क्या ?”

सुनील थोड़ी देर चुप रहा।

“क्या तुम किसी डिप्रेशन में हो। ये सब सोच कर..., मुझसे कोई शिकायत..क्या मैं तुम्हारी सारी जरुरते पूरी नहीं कर पाता..मैं समझ नहीं पाता हूं निशा..कहा करो..जितना होता है, करता हूं..सब कुछ तुम्हारे ही तो हवाले। एटीएम कार्ड तुम्हारे पास है..तुम निकाल लिया करो..”

सुनील के गले से आवाज मानो किसी गहरे कुंए से निकली हो।

“निकालती तो हूं, मैसेज तुम्हारे मोबाइल पर डेलीवर होता है। तुम सौ सवाल करते हो..मुझे अच्छा नहीं लगता। आज जब तुमने बात छेड़ी है तो बता ही देती हूं..मुझे इस तरह किफायत में काम करने, जीने की आदत नहीं रही..हम घर में पैसे मांगते तो मेरे पिता मुठ्ठी में भर कर पैसे देते थे। कभी हिसाब नहीं लिया..यहां मुझे एक एक पैसे का हिसाब रखना अजीब सा लगता है..”

निशा वितृष्णा से भर उठी।

“सारी औरतें करती हैं निशा...क्या तुम ही अकेली करती हो..क्या तुम किसी और ग्रह से आई हो ?”

अपनी मां से पूछना..किया होगा या नहीं..? तुम्हें नहीं करना तो बता दो, आगे से मैं हैंडिल किया करुं..”

सुनील कड़वाहट से भर रहा था।

“सुनिए...45000 से दिल्ली में घर चलाना कठिन तो है न..सोचती हूं, मैं कुछ काम शुरु करुं..घर पर बैठ कर। आजकल कई काम है जिन्हें घर बैठकर आप कर सकते हैं..थोड़े पैसे आएंगे तो हमारी हालत और भी अच्छी हो जाएगी..

“देखो..रोहन की चिंता तुम कम किया करो...वह मेरा भी बच्चा है, समय पड़ने पर एक बाप का फर्ज अदा करुंगा। अभी से हम सोच सोच कर माथा क्यों खराब करें..छोड़ो भी..तुम क्या काम करोगी। रोहन से फुर्सत है तुम्हे..समय बचता है तुम्हारे पास...क्या काम हो सकता है...बताओ..”

“छोड़ो..तुम नहीं समझोगे...अपनी ही सोसाइटी में कई हाउस वाइफ्स ने घरो में क्या क्या काम शुरु किए हुए हैं..तुम्हे पता भी है..पैसे भी कमा रही हैं, घर का सुख भी है...मैं सोच रही हूं..”

सुनील उठा और रोनू.. रोनू..बाबू बब्बू.. करता हुआ ड्राइंग रुम की तरफ चला गया। निशा जानती थी, इन दिनों सुनील झगड़े को बहुत गंभीरता से नहीं लेता और चेहरे पर मुर्दनी गायब, हल्की स्मित बनी रहती है।

दोनों एक दूसरे के बदलाव को नोटिस कर रहे थे। किसी को किसी की खबर नहीं।

000

निशा बेचैन थी। उसका एक मोबाइल नहीं मिल रहा था। कहीं गोपनीय जगह रख कर भूल गई थी। परेशान थी कि न मिला तो वह अपना काम कैसे कर पाएगी। वह काम जो दोपहर में करती थी, रोज, नियमबद्द। जब दोपहरी शांत होती, रोहन सो जाता, कामवाली “काम” निपटा कर वापस चली जाती, वह आराम से ड्राइंगरुम में बैठ कर “काम” करती, फोन पर। वह अपनी आवाज बेचती थी। किसी अनदेखे, अदृश्य पुरुष के कानों में, उसकी उत्तेजना भड़काने या उसका एकांत बांटने के लिए, कभी कभी किसी शोक संतप्त दिल को राहत देने के लिए, तरह तरह की आवाजें निकालती, बन बन कर बोलती और तरह तरह के संवाद बोलने पड़ते थे। यह सब निशा का अपना गढा हुआ कम था, रटा रटाया हुआ ज्यादा था। सब कुछ उसे फोन पर सीखाया गया था। एक अनजान सी लड़की आई थी, उसे स्मार्ट फोन पकड़ा कर, सब कुछ समझा कर चली गई थी। सोसाइटी के गेट पर जो लिफाफा मिला था, उस पर लिखा था- “हसबैंड औन रेंट।“

यह पढ कर अन्य महिलाओं की तरह निशा भी चौंक गई थी। खोला तो अंदर कई प्वाइंटस थे। जैसे..अगर आपके पति बहुत व्यस्त रहते हैं, उनके पास पैसे हैं पर घरेलू कामो के लिए वक्त नहीं, आपकी शापिंग कराने का धैर्य नहीं उनके पास, आप घर से निकलना नहीं चाहती, आपका बच्चा छोटा है, घर पर केयर करने वाला कोई नहीं, बिजली बिल चुकाने जाना है, मोबाइल का बिल जमा करना है, हाउस टैक्स का वक्त आ गया है, बैंक में चेक ड्राप करवाना है.....लंबी फेहरिस्त कामों की...

तो...आप निराश न हों। है कोई जो आपका ये सारा काम कर सकता है।

हम आपको हसबैंड नहीं दिलवा सकते पर हसबैंड जैसा कोई सेवक जरुर मुहैय्या करा सकते हैं जो आपके एक कौल पर आपके दरवाजे पर हाजिर हो जाएगा और आपकी सारी परेशानियां दूर। पति से आपकी शिकायतें भी खत्म और काम भी हो जाएगा। मामूली सी फी और परेशानियां दूर।“

अगर आप जरुरतमंद हैं तो नीचे दिए गए नंबरो पर संपर्क करें...987..., 856..., 999911..ढेर सारे फोन न. और नीचे कंडीशन अप्लाई जैसा कुछ लिखा हुआ। गौर से देखने पर निशा ने पढा था..

“अगर आप अपने अकेलेपन से परेशान हैं, दोस्त बनाना चाहती हैं, घर की आर्थिक हालत ठीक नहीं, आपकी आवाज सुरीली है, आप वाचाल हैं, आप घर बैठे, सुरक्षित और आसान कमाई करना चाहती हैं तो हमें इस न. पर एक मिस्ड कौल दें। हमारे प्रतिनिधि आपसे खुद संपर्क करेंगे। आपके नाम को गोपनीय रखने की पूरी गांरटी है। हम आपकी पहचान गुप्त रखेंगे।“

कौन्टैक्ट पर्सन-

तमन्ना

मोबाइल न. 88919...., फ्रेंडशिप क्लब

000

सुनील की दोपहरी और शामें भिन्न आवाजो से भरी हुई थीं। रंग बिरंगी आवाजें। आवाजों के भी इतने रंग होते हैं, सोचा न था। वह इन दिनों कानो से देख और महसूस सकता था। जब वह फोन पर होता था तब नितांत अकेला और मस्त होता था। अपने अकेलेपन को इन्हीं रंगीन आवाजो से भरता था। शुरु शुरु में टेस्ट करने के खयाल से जिस गली में घुसा था, वह अंतहीन निकली। वह जानता था कि ये आवाजें बेहद महंगी है, पर उसके आसपास तो हैं। मन बहलाती हैं। लेकिन वह न अकेला था, न दुखी न दोस्तविहीन। उत्सुकता जगी जब उसने कार के विंडस्क्रीन में खुंसा हुआ लिफाफा खोला था।

उस पर लिखे शब्द इतने उत्तेजक थे कि वह क्या, कोई भी मर्द कुछ देर के लिए विचलित हो ही जाएगा, बाद में भले वह संभाल ले खुद को।

ब्लैक एंड व्हाइट दो पेपर थे जिन पर रोमन में लिखा था...”हैलो दोस्त, मेरा नाम बसुंधरा है, मैं एक कौल सेंटर मे एजेंट हूं। मेरा सपना है कि अपनी जिंदगी में बहुत बड़ा मुकाम हासिल करुं। मुझे पसंद है, लोगो से उनके जीवन के बारे में जानना। आप अपनी जिंदगी के अनुभव के बारे में बताना। नए लोगो से मिलना और उनसे बहुत सारी बातें करना मुझे अच्छा लगता है। मुझे लगता है कि इस जीवन में दोस्ती से बढ कर बड़ा कोई रिश्ता ही नहीं। आपकी कौल का इंतजार करुंगी। मेरा न. नीचे हैं...”

0018766....

0044744...

003246...

005094..

नाम-बसुंधरा

उम्र-20

जेंडर-फीमेल

स्टेटस-सिंगल

एक युवा सुंदर, उत्तेजक भंगिमा वाली लड़की का चेहरा।

सुनील जानता था कि ये न ये तस्वीर सही है न नाम। सही है तो ये फोन न., जहां कोई आवाज होगी जो उसे इंटरटेन करेगी, आईएसडी कौल करने पर।

उसने दूसरा पेपर खोला....हिंदी में टाइप किया हुआ था।

नाम-तमन्ना, उम्र-20, फीमेल, सिंगल

“हैलो दोस्त, मेरा नाम तमन्ना है। मुझे दोस्ती करना पसंद है। क्या आप मेरे दोस्त बनना पसंद करोगे।

मुझे दोस्तो के साथ पार्टी करना, समय बिताना, बहुत सारी बातें करना अच्छा लगता है। मेरे घर वालो को मेरी इस आदत से कोई प्राब्लम नहीं है। अगर आप एक गर्लफ्रेंड चाहते हैं तो मुझे कौल करो किसी भी समय। रात हो या दिन, जब आपका दिल चाहे। हमारी दोस्ती में कभी पैसे को मत लाना। सिर्फ तुम्हारा प्यार चाहती हूं। पैसे नहीं। आप की कौल का इंतजार करुंगी। मेरे नंबर नीचे लिखे हैं...”

वही सारे नंबर इस पेपर पर लिखे हैं।

फर्जी तमन्ना का बिकिनी फोटो, ऊंगलियां गीले बालो से खेलती हुई।

दोनो पेपर के बीच में एक रंगीन कार्ड भी दबा हुआ था। उस पर दोनो साइड अलग अलग लड़कियों की तस्वीरें, नाम और फोन नंबर। कोई शबाना, कोई प्राची तो कोई रीतू, तो कोई जोया खान...

सारे फोन नंबर देश के बाहर के। वह नंबर से देश की पहचान नहीं कर सका। डबल जीरो ही बताने के लिए काफी है।

उत्सुकता जगाने वाली बातों और तस्वीरो ने सुनील को धीरे धीरे अपनी गिरफ्त में ले लिया था। कभी कभी वह कौल नहीं करता तो उसे मैसेज आते या मिस्ड कौल, उन्हीं नंबरो से और वह निरंतर धंसता चला गया। जितना निकलना चाहता, उतना ही वह उसे मजा आने लगा था। अभी एक महीना हुआ था और मोबाइल के बिल ने उसकी नींद उड़ा दी थी। कहां से भरेगा इतना पैसा..घर खर्च में कटौती करेगा तो निशा क्या कहेगी। अब तक सारे पैसे निशा को थमा देने की आदत थी। इस बार कुछ करना पड़ेगा उसे। नहीं तो मोबाइल बिल नहीं पे कर पाएगा। वह तो तह हैरान रह गया जब उसने निशा को थोड़े कम पैसे पकड़ाएं तो निशा ने बिना कुछ कहे चुपचाप रख लिया। न ताने, न उलाहने न कोई सवाल, जो मिल गया वही अच्छा का भाव चेहरे पर। निशा का यही बदलाव उसके भीतर कहीं धंस गया।

“क्या ढूंढ रही हो ?”

“कुछ नहीं..दो दिन हो गए, इयर रिंग्स मिले ही नहीं..कहीं रख कर भूल गई हूं।“

“कहीं ये तो नहीं। देखो...अच्छा इयरिंग्स है...काफी मंहगा लगता है...लो...यही सोफे के पीछे गिरा पड़ा था। साइलेंट पर रखोगी तो मोबाइल कभी न ढूंढ पाओगी। ये लो...”

सुनील ने निशा के हाथ में स्मार्ट फोन रख दिया। निशा का चेहरा फक्क पड़ गया। मोबाइल लेते हुए उसके हाथ कांप रहे थे और सुनील झटके से घर से निकल गया। कार में बैठते ही उसने अपने मोबाइल में मिस्ड कौल चेक किया। निशा के नए मोबाइल से उसने अपने नंबर पर जल्दी से एक मिस्ड कौल देकर मोबाइल निशा को थमा गया था। यह मोबाइल उसने पहली बार देखा था। निशा के पास तो नोकिया ई 71 था। वह तो कहीं भी पड़ा रहता था। मोबाइल के प्रति लापरवाह निशा उसे कहीं भी रख देती थी।

सुनील के मोबाइल की स्क्रीन पर जो मिस्ड कौल की जगह लिखा आया....प्राइवेट नंबर।

दफ्तर की तरफ जाते हुए सुनील ने कार की सीट के नीचे से सारे पेपर निकाले और नहर की तरफ देखा। उसका स्थिर पानी आज कुछ ज्यादा ही मटमैला दिख रहा था, जलकुंभी के पत्तो ने उसे ढंक दिया था। बचे हुए पानी के हिस्से में कूड़ा करकट इकठ्ठा था। ठीक उसी जगह सबसे बचा हुआ पानी चमक रहा था। उसने कागज की चिंदियां उसकी तरफ उछाल कर फेंक दिया।

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