बैगिन नदी Geeta Shri द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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बैगिन नदी

बैगिन नदी

गीताश्री

सुबह से अन्ना की आंधी आई हुई है। सुना है, देशभर से अन्ना समर्थक रामलीला ग्राउंड पर जुडऩे वाले है। सारे टी वी चैनल चीख-चीखकर घोषणा कर रहे हैं।

“ये देखिए... लोगों का हुजुम उमड़ा चला आ रहा है। मैं भी हूं अन्ना की टोपी पहने, बच्चे, औरतें, मर्द सब उत्साह से भरे हैं।“

“भ्रष्टाचारियों के खिलाफ अगर आदमी की जंग शुरू हो गई है...”

“अन्ना आर-पार की लड़ाई लड़ रहे हैं...”

“अरविंद केजरीवाल सरकार को लिखी गई चिठ्ठी पढक़र जनता को सुना रहे हैं।“

“डॉक्टरों की टीम अन्ना की हेल्थ बुलेटिन जारी कर रही है...”

“मैं ठीक उस वक्त रामलीला मैदान में खड़ा हूं.. आप देख रहे हैं... मैं सौरभ, कैमरामैन संजय खन्ना के साथ... समाचार चैनल, दिल्ली।“

रिपोर्टर फिर चीखता है- “मैं कैमरामैन संजय को कहता है, वो कैमरा उधर घुमाएं जिधर देश के कोने-कोने से आए अन्ना के समर्थक हुंकार भर रहे हैं...”

“आप कहां से आएं हैं ?”

“कैसे प्रेरणा मिली?”

“आपको क्या लगता है?”

“सरकार झुकेगी?”

“अन्ना सफल होंगे?”

“देश में भ्रष्ट्राचार का खात्मा होगा?”

“आप लोकपाल बिल के बारे में क्या जानते हैं...?”

सवालों की बौछार और जनता में उबाल।

“हम अन्ना के साथ हैं।“

“हम भ्रष्ट्राचार का खात्मा चाहते हैं-“

“अन्ना ने मशाल जलाई है...”

“सारे भ्रष्ट्राचारी भस्म हो जाएंगे ...”

मैंने टीवी का वोल्युम और तेज किया।

दो लोग जवाब दे रहे थे, उत्साह और उत्तेजना में चीख रहे थे। वो आवाज और शक्ल कुछ जानी-पहचानी सी लग रही थी। देखी देखी सी, सुनी सुनी सी। कैमरा पास आया तो मैं चौक पड़ा। ओह! तो आप हैं। सरकारी बाबू! सिर से लेकर पांव तक भ्रष्ट्राचार में डूबे हुए।

कैसे-कैसे कारनामे किए... ये सब अन्ना को पता हो ना हो, हम जिला संवाददाताओं से क्या छुपेगा? और मैं तो तेरा ही मारा हूं- स्साले डी.एफ.ओ. शंकर खरे। अन्ना की आंधी में तेरे सारे गुनाह उड़ गए, साफ हो गए क्या? आंधी में उड़ा देने की ताकत होती है, दाग मिटाने की नहीं । ये दाग लिए मैं घूम रहा हूं, हरामखोर..खरे।

आंखों से चैनल की कवरेज, जयकार की गूंज और उत्तेजित भीड़... सब गायब।

.. .. .. .. .. .. .. .. .. ..

सुबह 8 बजे। कर्र-कर्र... बेसूरी बेल की आवाज ने उठा दिया। छोटे शहरो में किराए के मकान में एक बेल तक ढंग की लगाने की तमीज नहीं होती..बेसुरी बेल से कोफ्त, कौन है... करता हुआ मैं दरवाजे की तरफ बढ़ा। एक अनजाना सा आदमी दरवाजे पर खड़ा था। उसने पूछा- आप ही हैं सुभाष त्यागी जी।

“जी , क्यों?”

“बड़े साहब ने भेजा है। आपके लिए एक पैकेट भेजा है। देख लीजिए...”

वह लिफाफा थमाते हुए वहीं खड़ा रहा। छोटे कद का सामान्य सा इनसान। भावहीन चेहरा।

मैं असमंजस में पड़ा। इस श्यामगढ़ शहर के लिए बिल्कुल नया था। छोटे शहर के नए अखबार को जमाने के लिए मैनेजमेंट की तरफ से यहां भेजा गया था। शहर में अभी अपनी पहचान बनाई नहीं थी। सारा दिन-रात अखबार के कंटेन्ट और विज्ञापन के स्त्रोतों पर माथा खप रहा था। इससे लिपटकर कुछ वक्त रिपोर्टिंग में भी लगाना चाहता था ताकि जमीनी पत्रकारिता का भी मजा लिया जा सके।

“फिर यह लिफाफा क्या- किस लिए?” दांत चिआरे हुए वह ढीठ आदमी वहां खड़ा रहा।

लिफाफे के अंदर 25000/- रू० का एक बंडल था।

मैं हैरान! “ये क्यों?”

“सर। वो... साहब ने कहा है कि वह बसई डैम बह गई है जिसे आप देखने गए जा चुके थे। कुछ नुकसान हुआ है जान माल का... साब चाहते हैं कि यह खबर आपके अखबार में छपे। लोकल एडीशन और दिल्ली एडीशन दोनों में ।“

“व्हाट???”

“कल लोकल अखबारो में ये खबर छपेगी सर...सब इंतजाम कर लिया गया है। सब मैनेज हो गया। बस आप बचे थे। अतीक भाई ने आपके बारे में बताया तो चला आया।“

वह अपनी रौ में बोले जा रहा था।

“सर, यहां हम पत्रकारों को पहले खबर छापने के लिए नहीं, रोकने के लिए पैसे देते थे। अब मामला उलट गया है। अब साहेब ने नई पॉलिसी बनाई है..हें हें हें..आप नए हैं न धीरे-धीरे जानने लगेंगे।ज्ज् वह पलटा, और हां, इतना ज्यादा पैसा देखकर हैरान न होइए। आपका अखबार बहुत बड़ा है, दिल्ली से भी छपता है। इसीलिए आपका रेट लोकल से ज्यादा है”

“सर...। ध्यान रखिएगा...।“

इस विश्वास से भरा कि खबर तो छपेगी ही, वह रूम से बाहर निकल गया।

मेरी हथेलियों में बंडल गर्म होता रहा। ना मैं लौटा पाया, ना उसे डांट पाया और ना बहुत गुस्सा आया। कुछ देर समझ नहीं आया कि क्या और कैसे रिएक्ट करूं। लिफाफा टेबल पर रखकर सोच में डूब गया।

.. .. .. .. .. .. ..

“हमारा शहर घने जंगलों से घिरा है पहाडिय़ां और जंगल। ये घने जंगल के बीच आदिवासी गांव है। वहां कई नदियां हैं, नाले हैं। उन पर डैम बनाएं जाते हैं, ताकि जमा किए गए पानी का।“ असगर मुझे भौगोलिक ज्ञान दे रहा था।

बंसई गढ़ डैम देखने चले हम। जंगल के अंदर और अंदर...ऊबड़ खाबड़ सडक़ें, कच्चे मकान और छोटी-छोटी पुलिया। दूर-दूर तक बस्ती नहीं। कितना सुन्दर होता है- जंगल भी। ऊपर ऊपर शांत, भीतर भीतर हलचल। किसी संन्यासी स्त्री जैसा। कोई याद आया। कोई स्मृति घुमड़ आई। लेकिन जंगल के रास्ते जीवन से भी ज्यादा कठिन होते हैं, वे आपको सोच में डूबने नहीं देते। चौकन्ना करते चलते हैं।

हमारी बोलेरो गाड़ी ही टिक सकती है इस तरह की सडक़ों पर। हिचकोले खा-खा कर हड्डियां करकरा रही थीं। असगर ने दूर से दिखाया- एक नदी चमक रही थी। पास ही बैगाओं का गांव। पतली, लेकिन गहरी नदी, लबालब भरी हुई, आदिवासी युवती जैसी।

“यहां पर डैम बनना था, नहीं बना।“

“क्यों?”

“ नहीं, डैम है यहां पर... आपको, हमको नहीं दिख रहा। लेकिन सरकार मानती है कि बैगिन नदी के ऊपर डैम है। आप डीएफओ (डिस्ट्रिक्ट फोरेस्ट ऑफिसर) के पास चलिए वह कागज पर कई ऐसे डैम च्शोज् कर देगा कि आप जंगल में सारी जिंदगी घूम कर भी उसे ढूंढ़ नहीं पाएंगें।“ असगर हंस रहा था।

“ऐसा क्यों है यार? “ मैं झुझंलाया।

असगर ने एक कहानी सुनाई।

“अभी जो डी एफ ओ साहब हैं, उनके ठीक पहले जो थे, उनने डैम बनने का प्रस्ताव दिया। ८ लाख रूपये का खर्च दिखाया पैसा आया, डैम नहीं बना और दोनों डकार गया।“

“हें...फिर ?” मैं हैरान हुआ।

“उनका ट्रांसफर हुआ। ये अभी वाले आए। उन्होंने कागज मंगवाकर देखा, यहां डैम बना था, 8 लाख रूपये के कागज पर डैम जगमगा रहा था। उन्हें डैम का पानी सड़ा हुआ दिखा। उन्होंने सरकार को पत्र लिखा कि डैम में पानी सड़ गया है। कई तरह की बीमारियां फैल रही हैं। पानी साफ करवाना होगा, और टूट-फूट की मरम्मत भी। 5 लाख का बजट बनाया और पास करा लिया।“

“व्हाट??”

“जी सर... आपको डैम दिखे या न दिखे... अभी-अभी पांच लाख रूपये से इसकी सफाई हुई है...।“ असगर हंसे जा रहा था।

“तीसरा डीएफओ आएगा उसे दिखेगा कि डैम पुराना, जर्जर हो गया है, इसकी मरम्मत जरुरी है..वो सरकार को लिखेगा और..”

“यार... कुछ भी हो जाए, मैं इस अफसर का स्टींग ऑपरेशन करके बेनकाब कर दूंगा। क्या तुम मेरा साथ दोगे?”

मैं बुरी तरह झल्लाया हुआ था। असगर ने हंसी रोकी और मुझे घूरा।

“आप क्यों करेंगे ये सब? ना लिखना, ना कोई आंदोलन... अपन को क्या मतलब?”

उसने बात रफा-दफा करने की कोशिश की।

उस वक्त मैं चुप रहा।

“क्या मुझे उस डैम के पास वाले गांव में ले चलोगे?”

“बिल्कुल... आइए... चलिए... मिलिए, इन बेचारों से, जिन्हें कुछ पता ही नहीं- जंगली नाले में पानी भरा रहे, नदी छलकती रहे, इनका महुआ पकता रहे, सूरज अस्त... आदिवासी मस्त...”

असगर बोले जा रहा था। मेरे मन में एक जिहादी योजना जन्म ले चुकी थी।

असगर के लाख मना करने के बावजूद मैंने कथित डैम का फोटो उतारा हर कोने से. गांव के कुछ समझदार पुरुषों के साथ-साथ शाम बिताई। उनका नेता मोहर धुर्वे गांव का सबसे समझदार आदमी निकला।

धुर्वे ने सारा आयोजन किया था। महुआ की शराब ताजा थी। माटी के घड़े में ठंड़ी करके रखी हुई। पत्ते के दोने में पीना है। चखना में भुने हुए चने और कुछ अजीब से नमकीन। मेरा ध्यान बार बार कहीं और भटक रहा था। वो धुर्वे की भांजी थी। सुगा..सांवरी, मिट्टी से सनी हुई मांसल स्त्री। महुआ में मस्त धुर्वे ने कहा-

“सुगा ढोल ला जरा। गाना सुनाएगी..वो क्या गाती है तू..ऊगती जुघइयां रात राजा कैसे आए...”

सुगा मस्त होकर गा रही थी। असगर ने मैंने इसका अर्थ पूछा।

“प्रेमिका प्रेमी से कहती है कि हे प्रिय, चांद निकल रहा है. इतनी रात तुम कैसे आए हो। हमारा तुम्हारा तो रोज आधे रास्ते में मिलन हो जाता है। तुम रात को कैसे आए हो, तुम्हारा चेहरा उदास लग रहा है..तुम कहां रोते रहे हो...”

असगर गाने के अर्थ खोल रहा था कि महुआ परोसने वाला भदरु बैगा बड़बड़ाया..”ईतरी बण किसा आय जानवी तो तोरच नहीं जानवी तो मोरय आय...खी खी खी..” मुंह में कैद गंधाती हवा आजाद हुई और जंगल की हवा में महुआ की गंध लहर गई। सुगा हंसी, मुझपर एक भरपूर नजर डाली और कौंध कर चली गई। मैं दूर तक उसे देखता रहा और शायद भदरु ने ये सब देखा। मुझे वह जाती हुई नही, आती हुई दिख रही थी। उसका गाना कहीं धंस गया था। सांवली चमकीली अधढंकी काया पास आए जा रही थी। वह काया सल्वाडोर डाली की पेंटिंग में चित्रित घड़ियों की तरह पिघलती हुई मेरी काया पर पसरने लगी थी।

मैंने देह झटक दी....वह पिघली हुई काया दूर जा गिरी।

मैं अपना उद्देश्य भूल ना जाऊं..। मैं असली मुददे पर आना चाहता था.

महुआ रस के दौर में मैंने उनके हलक से डैम घोटाले वाली बात उतार दी। असगर छत्तीसगढिय़ां बोली में माहिर था। हिंदी को दुरूस्त करके उन्हें समझाता रहा। वह मस्ती में था। उसे लग रहा था कि सुबह हुई, और डैम फिर ओझल। ये शहरी पत्रकार यूं ही में अपना माथा खराब कर रहा हैं। मैं शहर लौट आया और अपने पेंडिंग कामों को पूरा करने में उलझ गया। दिमाग पर डैम के साथ साथ गाने के बोल भी कौंध रहे थे। पिघलती हुई काया बार बार परेशान कर रही थी। बार बार झटक कर खुद को अलग कर लेता। मुझे कुछ आवश्यक काम जो करने थे।

एक दिन मार्केटिंग वालों के साथ सिर खफा ही रहा था कि असगर सिर पर सवार हो गया।

“आपने क्या कर दिया सर। बसई डैम वाली बस्ती के 40 आदिवासी मीलों पैदल चलकर शहर आ गए है। उन्होंने कलेक्टर के घर को घेर लिया है... गजब हो गया...।“ असगर की घबराहट देखने लायक थी।

मैं भी दंग रह गया।

“ चलो... मुझे वहां ले चलो, जहां ये सारा हंगामा हो रहा है... । मैने असगर का हाथ पकड़ा, मार्केटिंग मैनेजर रोहित पाल को बाद में बात करने को बोलते हुए दन्न से निकल गया। कलेक्टर के घर के बाहर सन्नाटा। एक भी आदिवासी नहीं। सामान्य भीड़, रोज की तरह हाथों में आवेदन पत्र लिए भटकते स्थानीय लोग।

“कहां गए सारे के सारे लोग...” असगर चौंका। मेरी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था। 40 लोग एक दम से कहां गायब?

असगर मुझसे छूट कर कलेक्टर के गार्ड के पास भागा। दोनों कुछ फुसफुसाए, असगर लपकता हुआ मेरे पास आया।

“सबको बस स्टैंड ले गये हैं, ट्रैक्टर में भरकर। वहां से उनके गांव रवाना कर देंगे।“

असगर को यही जानकारी थी।

मैंने कहा- “बस स्टैंड चलो।“

मोटर साइकिल उधर ही मुड़ी। सामने वह पिघली हुई काया आकर खड़ी हो गई। पहले तो मुझे भ्रम लगा। मैंने सिर को झटका दिया। देह में झुरझुरी सी हुई। वह कहां होगी जंगल से इतनी दूर। होगी किसी वन में हिरनी की तरह कुंलाचे भरती हुई। गा रही होगी कहीं...फूलो से बात कर रही होगी। गोदना से भरी लड़की का यहां कठोर पथ पर क्या काम...

मैं गलत था। वह सचमुच थी। पिघली हुई नहीं, इस्पात की तरह खड़ी, अडिग। वह कुछ इशारे कर रही थी। असगर को बता रही थी। मेरी तरफ ठीक से नहीं देख पा रही थी। अब मेरी काया पिघल रही थी। मोटर साइकिल पर अब हम तीन सवार थे। वह हमें लेकर बस स्टैंड तक जा रही थी। उसके अनुसार वह हम लोगो के इंतजार में वहां छुपी थी ताकि सारा सच बता सके। मैं उसकी इस प्रतिब्द्धता पर फिदा हो गया। मोटर साइकिल पर सबसे पीछे वह बैठी थी। हम दोनों भरसक कोशिश कर रहे थे कि कम से कम छू सके देह। मुझे महुए की गंध घेर रही थी। असगर से चिपका हुआ मैं दिग्भ्रमित हो रहा था।

बस स्टैंड में कोई गाड़ी सवारी नहीं थी। जमीन पर सारे आदिवासी बैठे थे। शाम की छायाएं उनके चेहरे पर थी। भीतर-भीतर खदखदाए से-जैसे महुआ उनके तसले में शराब बनने से पहले खदखदाती है। मैं बिशन धुर्वे के पास धीरे से जाकर बैठा। यही लीडर था सबका। मैंने इसे ही भडक़ाया था सबसे ज्यादा। मैं मामला समझने लगा और इधर असगर मोटर साइकिल लेकर फरार।

मैं चिंतित और चौकन्ना हुआ.

कहां गया, क्यों गया...

“कलेक्टर जी कह रहे थे कि डैम वहां बनेगी नहीं, किसने भडक़ा दिया, तुम लोगों को। अगर तुम लोग चाहते हो, तो सर्वे करा लेते हैं और फिर डैम भी बन जाएगी- क्या दिक्कत है। किसने भडक़ाया, किसने आग लगाई?”

धुर्वे बोल रहा था।

“बाबू साहेब.. वो आपका नाम पूछ रहे थे।“

“हम तो तुम्हें जानते नहीं, सो हमने बस कहा कि दो पत्रकार आए थे। अब हम वापस जाते हैं, फालतू में हम सबका टैम खराब हुआ। कुछ खेत में काम कर लेते, शाम हो रही है कु छ इंतजाम भी नहीं यहां। सब भूखे हैं। पैदल चलकर आएं, वापस जाने की हिम्मत नाही बची...”

धुर्वे की बात सुनते-सुनते मैने चारों तरफ नजर दौड़ाई, कहीं कुछ खाने को मिल जाए तो उन्हें दिया जाए। असगर से तो बाद में निपटूंगा।

सुगा चुपचाप भीड़ के आगे जाकर खड़ी हो गई। मुंह सूखा हुआ था। मानो उसे भी भूख प्यास लगी हो।

दूर से असगर मोटर साइकिल आती दिखी। राहत मिली।

लौट आया, थैंक गॉड। भीतर का खौफ थोड़ा कम हुआ।

असगर ने अपनी मोटर साइकिल से एक बड़ा झोला-सा उतारा और धुर्वे को दिया- “चचा, ये तो अभी यहां इतना ही हो सकता है रूपये को बांट दो, कुछ खा लो। रात को यहीं सो जाओ, भोर में पैदल ही निकल जाना” झोले में नमकीन और कुछ पानी की बोतलें थीं।

धुर्वे समेत सभी गदगद। खाने पीने को जो मिल गया था।

मुझे थोड़ा चैन मिला, लेकिन भीतर भीतर एक खुराफाती योजना पनप रही थी।

इन्हें वापस तो जाने नहीं देना...

इनका यहां आना व्यर्थ नहीं जाने दूंगा- चाहे जो हो जाए।

मैंने धुर्वे को कहा, “चचा आप मुझ पर यकीन रखो, मैनें आपको जो कुछ बताया, एकदम सही था। आपको भडक़ाने से मुझे क्या मिला? आप सुबह वापस नहीं जाओगे। आप एक और मेरी बात मान लो। मैं अभी एक घंटे में आता हूं। आप देखना, प्रशासन हिलाकर रख देंगे। बस अभी जाने के बारे में मत सोचो।“

सुगा सीधे मेरे पास आई और उसने हाथ ऊपर उठा कर मुझे आश्वस्त किया कि वह यहां से हिलेगी भी नहीं, जब तक मैं नहीं कहता। मेरा मन हुआ, उसे गले लगा लूं। मुझ अजनबी पर वह इतना भरोसा कर रही है। अब समझ में आया कि कासीबाई ने कैसे अंग्रेज प्रेमी पर भरोसा कर लिया होगा। न उम्र देखी और न प्रेमी की चालाकी भांप सकी। सुगा भी क्या उसी दिशा में....मैं अकबकाया। इतने झंझावातो को एक साथ कैसे संभालूं। सामाजिक हित के आगे पर्सनल बातें कहां से घुसी चली आ रही थीं। मन को कड़ा किया। इतिहास नहीं दोहराने दूंगा। मेरे चेहरे पर रंगों की परछाई देख असगर थोड़ा चिंतित दिखा।

वह मेरे मन को नहीं पढ़ पा रहा था। भदरु जरुर सुगा के बगल में खड़ा होकर मुझे घूरे जा रहा था। असगर ने मेरी तरफ सवालिया निगाह से देखा। वह मेरे दिमाग को पढ़ नहीं पा रहा था। मेरे साथ चुपचाप ऑफिस तक हो लिया। मैं सीधा प्रेस पहुंचा। बड़े-बड़े सादे कागज मंगवाएं और वापस बस स्टैंड लौट आया।

सुबह-सुबह छोटे से शहर में मार्निंग वॉक करते लोगो ने देखा, हाफ पैंट पहनकर दौड़ते हुए कलेक्टर ने देखा, ऊंघते हुए डयूटी पर लौटते हुए सिपाहियों ने देखा, अखबार बांटने वाले हॉकरो ने देखा, काम पर जाती दाईयों ने देखा, एक बड़ी-सी जुलूस हाथों में तख्तियां लिए सीधे कलेक्टर का घेराव करने बेखौफ चली आ रही है। जिसमें सबसे आगे सुगा और भदरु थे।

उन पर लिखा था- हमारी बांध वापस करो, झूठा कलेक्टर.. हाय-हाय, वन्य अधिकारी को गिरफ्तार करो भीड़ के आगे वीडियोग्राफर अपने काम पर लगा हुआ था। मैं और असगर सबसे पीछे। हमें तो असर देखना था।

थोड़ी देर बाद हम कलेक्टर के दफ्तर में बैठे थे। भीड़ को बाहर ही रोक दिया गया था।

कलक्टर ने गेट कीपर को कहा, दरवाजा बंद करों थोड़ी देर किसी को आने ना देना। धड़ाम से दरवाजा बंद करके गार्ड गया और हमारे दिल धक-धक। एकदम से इस तरह सामना करने को हम तैयार नहीं थे। मोबाइल दीजिए।

क्यों?

दोनो लोग दीजिए। जोर से डपटा।

हमने आज्ञाकारी बालक की तरह मोबाइल उनकी तरफ बढा दिए। दोनो मोबाइल अपने ड्राअर में रख लिया और मुखातिब हुआ।

मैं खौल रहा था। मन हुआ एक झापड़ दूं और चिल्लाने लगूं।

असगर जैसे मुझे रोक रहा हो... आप तो निकल जाएंगे, दिल्ली। हमें तो जिले की रिपोर्टिंग करनी है। कलेक्टर का दिमाग फिर गया तो कहीं का नहीं छोड़ेगा...।

“तो इन सबके पीछे आप लोग हैं? क्या चाहते है? क्यों कर रहे हैं ये सब?”

“इन भोले भाले आदिवासियों के साथ अन्याय हुआ है।“

“तो... क्या आपने ठेका ले रखा है इनका? वाह।“

“नहीं..फिर भी एक जागरूक नागरिक होने के...”

“कल रात आपने इन्हें रोका और खाना पानी भी दिया..क्यों? “

“सब भूखे थे, थके थे, हमारा फर्ज..”

“गार्ड..” हमारी बात बीच में ही रुक गई। वह चीखा।

“जी सर..” गार्ड अदब के अपने मशीनी अंदाज में आकर खड़ा हो गया।

“इस शहर में और भी लोग हैं भूखे प्यासे सोते हैं रात को, उन्हें क्यो नहीं खिलाते खाना? “

“सुनो..आज से ये दोनों लोग हमारे कलेक्टेरिएट के सभी कर्मचारियों को खाना खिलाएंगे मुफ्त..सबको बता दो”।

“जी सर..” गार्ड घूमा और चला गया। क्या वकवास है? मैं बौखला उठा। असगर का चेहरा पल भर के लिए बुझा।

“और ये तख्तियां ..क्या मालूम है आपको डैम के बारे में? दिल्ली से आए हैं ना आप..मि. सुभाष त्यागी जी? लाला के अखबार में काम करते हैं ना.” .वह दांत पीस रहा था।

“जी..इससे आपको मतलब?”

“अगर मुझे इससे मतलब नहीं तो आपको डैम से क्या मतलब?”

यह बोलते हुए उसके भाव थे कि बेट्टा..अब करो तर्क..ना पछाड़ दूं तो कहना..।

“क्या मतलब..डैम को लेकर घोटाला हुआ है, आप जानते हैं, मानने के बजाए हमें धमका रहे हैं।“

“तो लिखिए ना आप..कोई सबूत है आपके पास?” उसने धमकी दी।

“है ना..हमने वहां की तस्वीरें ली हैं, गांव वालो से बात की है..दिल्ली के अखबार में छप जाए तो हंगामा हो जाए..”

“अच्छा..???? धमकी??? गुड..वेरी गुड..वेलडन..।“ उसने घंटी बजाई

“अब आपलोग तशरीफ ले जाएं। ये लीजिए अपना टुनटुना..इस मुद्दे पर कल बात करते हैं। मैं छानबीन करवाता हूं..आपको पूरी रिपोर्ट दी जाएगी, इंतजार करें..नमस्ते।“ हाथ जोड़ा और बाहर जाने का इशारा किया।

उसके रुख के अचानक नरम पड़ जाने पर मैं भौंचक रह गया। असगर के चेहरे पर कोई हैरानी नहीं थी। जैसे उसे इस तरह के वार्तालाप की आदत हो।

बाहर फिर भीड़ गायब। तख्तियां जमीन पर धराशायी पड़ी थी जिन्हें पुलिस के सिपाही उठा उठा कर एक तरफ जमा कर रहे थे। पता चला कि एक बस में सबको ठूंसकर वापस गांव भेज दिया गया है। किसी ने ये भी बताया कि धुर्वे को पता नहीं क्या पट्टी पढाया गया कि वह सुभाष और असगर को गाली देता, कोसता हुआ गया। मैं इस पूरे मामले में पक गया था। असगर ने भी हाथ जोड़ लिए। उसे अपनी दूकान बंद होती नजर आ रही थी। सारी योजना पर पानी फिर चुका था। हमारे हाथ फिलहाल सिर्फ पराजय थी। रह रह कर कलक्टर के चेहरे पर आश्वस्ति के भाव बुरी तरह खल रहे थे। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि मैंने क्या गलत किया। जो किया, वो करना चाहिए था या नहीं, क्या गलत हाथ जला बैठा..अपने काम से मतलब रखना चाहिए था, स्टोरी लिखनी थी, चुपचाप, हंगामा करवा देना चाहिए था..इस पचड़े में पडऩा नहीं चाहिए था। क्या जरुरत थी एक्टीविस्ट बनने की। पता नहीं इसके क्या दूरगामी परिणाम होंगे।

पहली बार अहसास हुआ कि सत्ता कितनी ताकतवर होती है। असगर मुझसे पीछा छुड़ा कर तीर की तरह निकल गया। मैं अकेले श्यामगढ की सडक़ पर टहलता हुआ चला जा रहा था। वह सांवली, गोदना से भरी पिघलती हुई काया याद आ रही थी। उसकी दो चमकीली आंखें धंस गई थीं। मैं इस दृश्य को किसी कैनवस पर उतार देना चाहता था।

असगर कहां गया...अचानक तंद्रा टूटी।

असगर..हां उसे पकडऩा जरुरी है। वही एकमात्र गवाह है इन सारी चीजो का।

.. .. .. ..

दफ्तर में असगर मस्ती में इधर उधर फडफ़ड़ा रहा था। कुछ ज्यादा ही चहक फहक थी उसके व्यवहार में।

“यार, मैं यहां बिल्कुल नया हूं। ये क्या हो रहा है..कल दिन की घटनाएं दिमाग से हटी नहीं थी। मैं तो बसई डैम की स्टोरी प्लान ही कर रहा था कि ये..।“

असगर को पहले से सारा अनुमान था। वो भांप गया।

“जानता हूं सर, जानता हूं। आप तक भी पहुंचा ना माल...सबके पास पहुंच गया होगा। आज तो सबकी सुबह बन गई। ऐश करिए, क्या करना है। डैम बहती है तो बहे..बहती रहती है, बिना बने बह गई तो क्या हुआ। छोटी सी खबर सिंगल कॉलम लगा देंगे..कल सारे लोकल पेपर में होगा। हम नहीं छापंगे तो दिल्ली से असगर मुझे समझा रहा था। मेरा माथा घूम रहा था। अब तक प्रेस कांफ्रेंस में गिफ्टचेक या गिफ्ट तक ही सीमित था अपना मामला। किसी ने खबर रोकने के लिए इतनी मोटी रकम नहीं दी। “

“डैम की तस्वीरे कहां है?” मैं व्याकुल हो उठा।

“वो तो सरजी..डीएफओ साहेब को दे दी। अब उसका करना क्या सरजी..डैम तो गई..”

“तुम्हें क्या मिला असगर?”

“मैंने तो सरजी, पहले तो मैं पैसा ही लेता था। लेकिन हमारी अम्मी हराम का पैसा घर लाने को मना करती हैं। सो मैंने सडक़ पर ईंट-रोड़ी-सीमेंट की सप्लाई का ठेका ही मांग लिया..” असगर अपने पराक्रम के किस्से बेहिचक सुना रहा था और मेरा माथा घूम रहा था। ये क्या जगह है दोस्तो..ये कौन सा दयार है..। दिमाग में एक अनजानी-सी डैम की छवि, डैम बहने की सूचना देने वाले प्रेस रीलीज पर कलेक्टर समेत आदिवासियों के लोकल नेता धुर्वे का बयान सब गड्डमड्ड हो रहा है। आंखो में एक जंगल भर रहा है..

कोई बैगिन स्त्री गा रही है...उसकी आवाज में खोज है, दर्द है, पुकार है...आवाज में कई दृश्य है। आवाज भी पिघल रही है...

“ऊंघती जघुइयां रात राजा कैसे आए, मोर पिया कहां राए..आवत रहे, जावत रहे..आधा गली भेंट हो जाए..रात राजा कैसे आए..”

***