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गजल - वतन पर मिटने का अरमान


" गरीब हूँ साहब"
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"भीगे हुए अरमान आज रोने को है|
मत रोको गरीबी को, पेट के बल भूखा मानव अब सोने को है"||

"वक्त गुजर गए इंसान फरिश्ता न बन सका|
रिश्ता खो गया कहीं, इंसानियत ताख पर है"||
आज भी हम चना चबेना खाकर, रात गुजार लेते हैं
पलीते तो आजादी के बाद भी पीछा न छोड़ सके||


वतन पर मिटने का अरमान
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हम देश के है ंशान, हमारी आन, हमारी बान,
देश की माटी पर सब कुछ है कुरबान||

देश में अमन और शांति चाहिए, हर ओर हो अमन'हो
ऐसा मन में क्रांति चाहिए, विचारों का हो गठबंधन |
चहूंओर स्पंदन, मन में नहीं क्रंदन, बेड़ियों का नहीं बंधन,
मन में सुंदर विचार हो, तब देश का उद्धार हो,
मन, वचन, कर्म का हो जगह जगह सत्संग|
ऐसा कर्णधार चाहिए,....
बस एक ही ख्वाहिश है मेरी....
मेरे मरने पर तिरंगा कफ़न चाहिए||


"वतन पर राख ही सही,इल्म कारगार होना चाहिए|
वतन के रखवालों को,हमेशा जिंदा होना चाहिए"||

"वतन पर मर मिटने का अरमान होना चाहिए|
जो कर सके वतन की हिफाजत,ऐसा इंसान होना चाहिए"||

"वतन के रखवालों में ,ऐसा जूनून होना चाहिए|
खंजर दुशमनो ंमें उठे, हिंदोस्ता में सूकून होना चाहिए"||



"इल्म खो गया"
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दोष न देना हमें ,आज इल्म कहीं खो गया
राग ,द्वेष, काम, क्रोध, में लबरेज़ मानव बौना कद हो गया||

भूख,भ्रष्टाचार अब चहूँओर सर उठाने लगा है
गरीबों को देखिए साहब, वह तीन बार खाने लगा है||

पेट पीठ में चिपकर, भूख को शर्मसार कर गयी
थाली बंटती रही सवर्णों में, जातिवाद पर उपकार कर गयी||

कब तक चीखती रहेगी मानवता, कोई सुनता क्यों नहीं?
तिरस्कार को बहिष्कृत करने का सुंदर विचार होना चाहिए||

सौ अरमान हैं मेरे ,मुझे भी वो अधिकार चाहिए
बस कुछ ख्वाहिश है मेरी, गरीबी से उद्धार चाहिए||





" खो गया इंसान"
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खो गया है इंसान यहाँ ,रहा नहीं सबेरा
अंधेरा बरसने लगा हर ओर, धुंध का सेहरा सजने लगा है||

क्या चाहिए तुम्हें अभी...? क्या तुम जिंदा हो अरमान..?
भ्रष्टाचारी नष्ट होंगे सभी, पहचानों मुझे, मैं हूँ हिंदुस्तान||

इंसान बदलने लगा है,
दिखावे के जामे में ढलने लगा है
दुसरो ंको बदलने की चाहत है
मगर खुद बेईमानी का हिजाब पहनने लगा है||


"अक्सर वतन पर मर मिटने की कसम खातें है ंलोग
जरूरत जब होती है मुकर जाते हैं लोग|"|


" झूठ बोलना अब रिवाज बनने लगा है इंसान एक दूजे को छलने लगा है....
इंसानियत बेईमानों की शक्ल में बेहिसाब पलने लगा है"||


" सच बताकर जो कभी उसने देखा होता,
सच ही सच को अपने करीब पाया होता... ||

चरमराई अर्थव्यवस्था
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"चंद रुपयो ं में बिक गई गरीबी
जब आंखें खुली तो तो बस दाने दो चार थे"||

"छत टपक रहा है पर मैं अमीर हूँ
जाने कितने ही गरीबों को बरसाती पानी पीते देखा है"||

"गरीब और गरीब बना, अमीर और अमीर
दोज़ख में मध्यम वर्ग गया, बाकी सब फकीर"||

कहकहे लगाए जा रहें हैं हर ओर
कहीं तबाही मची है कहीं शोर,
मिडिया खिड़कियों को खोल-खोल कर,
अटकलें लगा रहा है चहूंओर
श्श्श्श्श्श्श्श् ! धीरे बोलो कोई सुन लेगा
यह घायल अर्थव्यवस्था है
उसी ने मचाया है शोर
शोर शोर शोर शोर शोर...

"सागर के गर्त से कुछ चिथड़ों का थैला निकला है
आओ सब मिलकर बांट ले, उसमें से कंबल का थैला निकला है||
चरमराई अर्थव्यवस्था का मचा है शोर
अधमरे से पड़े मुर्दों, जागो तुम भी मचाओ शोर||

#डॉ रीना'अनामिका"


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