शीर्षक :मजदूर
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उम्र का कोई भी पडा़व
मेहनतकश के आगे
लाचार नहीं होता...
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ताकत है ,जब तक धमनियों में
वह मेरुदंड का आधार नहीं होता....
"परिश्रम उसकी पूंजी है
आमदनी उसकी खुशियां"
चवन्नी-अठन्नी कमा कर भी
खुश रखना..
उसके परिवार को आता है...
जब भी वह थका हारा घर आता है..
गलास भर ठंडा पानी पीकर
इत्मीनान की सांस लेकर
आशीर्वाद की नजरों से वह...
अपनी अर्धांगिनी,
अपने बच्चों.. और...
अपने पोते पोतियों का मुख देखता है...
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•••••स्मार्ट वर्क की परिभाषा नहीं जानता वह
नहीं हार्ड वर्क का व्याख्यान•••••
बस भोर होते ही..
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---- उसकी खत्म हो जाती है थकान...
दुनिया चांद तारों को छूती है
वह छूता है परिवार के मर्म को-
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आवश्यकताएं पूरी हो सकें...
इसलिए बनता है कभी *हरकारा*
कभी बनता है *विशाल ह्रदय का पिता*
कभी *समाधान युक्त व्यक्तित्व*
कभी *ममतामयी माँ*
कभी *कठोर मुखिया*
पेट पालने हेतु... बन जाता है *मजदूर*
फिर भी वह बसता है...
अपने परिवार के ह्रदय में
करता है रात दिन काम....
परिश्रम उसकी पूंजी है
फिर उसे कहां मिलता आराम
....... ...????
कम मजदूरी मिले या अधिक
परवाह नहीं रुपयों की उसे..
परिवार के सपनों को संजोता है
उनके सपनों को पूरा करने के लिए
दिन रात करता रहता है काम
•वह ••मजदूर•• है साहब....
भला कैसे करेगा आराम?• ...
#स्वरचित_रचना
२०/०५/२०२२
#डॉ_रीना_सिन्हा_अनामिका--
हमारा बचपन
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नाव और बचपन का संग
बहुत पुराना है
कागज की कश्ती है मन पतवार है
और बचपन दीवाना है
..
याद हो आया वह पल
जब हम बारिश की पानी में
भीग भीग नहाते थे
अपने किताब कॉपियों के
पन्नों को फाड़- फाड़
चुपके से सुंदर नाव बनाते थे...
अल्हड़ बचपन का जमता
अंजुमन सा फक्त नजारा था...
.......
मौजों के संग मस्ती थी
जुगनुओं का भी किनारा था...
......
....
एक जंग शुरू होता
नाव बनाने का.
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एक जंग शुरू होता
दोस्तों को मनाने का....
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हर वक्त हम ही ..
क्यों किताब के पन्ने फाड़ें?
शरारतों की टोली में बराबरी का टेक
चुका लें.....
दोस्त हैं हम तुम ...
तो कोई एक ही रिश्ता क्यों निभाएं... ?
सब कोई मिलजुलकर
अपना खेल निपटाएं...
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* बारिश का पानी हो
या पोखर का सुंदर किनारा*
नाव के संग, संग बहता
हम सब का प्यार
बहुत ही सारा...
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जाने कहाँ .....
वो सुंदर बचपन खो गया... ?
दोस्त तो अभी भी हैं
और नाव भी हम
अब भी "गाहे बगाहे"
बना लेतें हैं...
...
पर वैसा सुंदर पल कहाँ से लाएं?
जिससे वो पल सुनहरा बनाएं...
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जिसमें हमारा बचपन कैद हो
हमारे अल्हड़पन की कहानी कैद हो
"वो सुनहरा निर्दोष एकता कैद हो"
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वो लम्हा जो हर प्रकार के भेदभाव
से परे था...
वैसा ख्वाब कहाँ से लाएं... ?
जहाँ कागज की कश्ती थी
पोखर का किनारा था..
मनोहारी बचपन था
दोस्ती ही सहारा था...
......
------#डॉरीनाअनामिका-----
------#स्वरचितरचना-------
----दिनांक२०/०५/२०२२
कुछ छिटपुट रंगोली
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"ज्यादा कुछ नहीं
मैं शब्द हूँ..
जो कवि की लेखनी से उतर जाऊं तो कविता
जो लेखक की लेखनी से उतर जाऊं तो कहानी.. "
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किसे क्या पता
लडाई की वजह क्या थी?
लडा़ई हुई
हाथापायी हुई
रिश्तों का तमाशा हुआ
सहोदर थे अब बिखर गए
जब मिले... दुख ने ही इकट्ठा किया..
सुख में कहाँ किसी ने याद किया...
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आज पडा़व का काफि़ला कहीं और है
कल कहीं और होगा...
मन माने या न माने.
माटी का ठिकाना है आज कहीं और है
कल कहीं और होगा..
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तू कहे तो आसमां झूका दूं
चांदनी जमी पर बिखरा दूं
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मै चाहते मुहब्बत हूँ
बदले हुए रूख से
सारी दुनिया को
समझा दूं
----अनामिका-----