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स्मृति शेष


पिता की अचानक हुई मृत्यु से मैं बहुत व्यथित हो गई । इस झटके को मैं काफी समय तक भूल नहीं पाई । यह सदमा आज भी मुझे सालता है । मेरी लेखनी आज अपने उस दर्द को व्यक्त कर अपनी श्रद्धांजलि व्यक्त करती हूं ।धन्यवाद )
॥ स्मृति शेष…॥

अंत से अनंत तक
दिग से दिगन्त तक ,
अपने आस -पास ,
फैला रहा मोह का मायाजाल ।
भ्रम के जाल में ,
सब कुछ अपने पास में,
आप थे हम थे ,
सभी अपने खास थे।
सब कुछ कहते रहे,
दर्द सब सहते रहे,
शुरू हो चुका था सफर
इस धरा से अनंत का,
कहते रहे कथा अनेक,
उस जगत जननी मां का ,
काल रूप शैतान का ,
पर, हम देखते रहे सपना
फागुन और बसंत का ।
कितना आगाह किया –
“ वक्त नहीं मेरे पास है ,"
चल रही जो यत्न पूर्वक
गिनती की वह सांस है ।“
यह अनर्गल प्रलाप समझ
सिरे से नकार कर ,
यत्न पूर्वक जुट गए
उनकी सांसों को सहेजने में ।
समेटने ,सहेजने में ,
सब कुछ ,बिखर गया ………
हम देखते ही रह गए,
प्राण ,वायु संग निकल गया ।
अचानक छलकर ,
पापा !क्यों हमें अकेला कर गए ?

नमिता “प्रकाश”
2-गजल
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जिन्दगी में नशा जब जीने का छाता है ।
इंशा कभी हंसता, कभी मुस्कुराता है ।

हार क्या ,जीत क्या परे रखकर ?
अपनी ही धुन में गुनगुनाता है ।

बात करने का उसका अंदाज ही
उसकी अपनी औकात बताता है ।

कैसे जीते हैं अपनी मोहब्बत सनम ?
यह भय हरदम उसको सताता है ।

कभी बोझिल ना लगने लगे जिंदगी,
रोज सपने नये फिर सजाता है ।

दिन रात की उठापटक से दो हाथ कर,
देखे सपनों को सच कर दिखाता है ।

अपने अंदाज में जीने के लिए ,
एक नई दास्तान लिख जाता है ।

कुछ अलग करने की खातिर ,
अंतरिक्ष को भी खंगाल ता है ।

चाहत को अपना जहां समझ कर,
चांद तारे धरा पर उतार लाता है।
( 3)
!!!!गीत!!!!
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जाओ प्रिये !मैं तुम्हें प्यार नहीं करता ,
बातें वफा की इकरार नहीं करता ।

यह चूड़ी ,मंगलसूत्र क्या है किसी और का ,?
लबों की लाली ,बिछिया की दरकार नहीं करता।

तन का तन से ही रिश्ता है खाली,
दिल का मन से करार नहीं करता ।

मन की व्यथा को तू भी न जाने,
आह ! की आहट पुकार नहीं करता ।

जख्मों को देख कर क्यों होता है खुश ?
फिर क्यों कहे व्यापार नहीं करता ?

अश्कों के समंदर में मैं डूबा हूँ सनम ,
झूठा ही सही तू इसरार नहीं करता ।

चूड़ी सा नाजुक दिल टूटा है हरदम ,
मरहम का अब मैं इंतजार नहीं करता ।

तुम से शुरू होकर अंत भी तुम ही पर,
फिर भी जाने क्यों ऐतबार नहीं करता ?

नमिता “प्रकाश”


!!गजल !!
मोहब्बत की पुस्तक जरा खोलिए ।
गीत हो या ग़ज़ल गुनगुना लीजिए ।।

दिल है मेरा मगर धड़कनें यह तेरी ,
इनकी सांसो को हमदम बना लीजिए ।

छा गई महफिलों में तबस्सुम मेरी ,
बिजलियाँ बनके यूं ना गिरा दीजिए ।

मेरे सीने से लग के कहे यह सनम ,
तू है मेरा खुदा, खुद में समा लीजिए।

गर जिंदगी है जहर इस को पीना पड़े,
अपने अधरों से अमृत पिला दीजिए ।

ऐसा क्या कह दिया जो खता हो गई ?
भूला- बिसरा समझ कर भुला दीजिए ।

आइना सी मोहब्बत है जानिब मेरी ,
अपनी किस्मत समझ चमका लीजिए ।

हो के मदहोश हम जो घायल हुए ,
प्यार का जाम लबों से लगा दीजिए ।

मेरे गुलशन की नकहत हो जाने-- जिगर,
अपने जूँड़े में गुल को सजा लीजिए ।

कितनी प्यारी सी मासूम, मोहब्बत मेरी ,
अपने आंगन में उसको बसा लीजिए ।

नमिता “प्रकाश”
( स्वरचित मौलिक रचना )

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