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भारत के अनमोल रत्न

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भारत के अनमोल रत्न “ रवींद्र नाथ टैगोर”

रवींद्रनाथ टैगोर एक ऐसा व्यक्तित्व जिसे शब्दों में बयां करना कठिन है। रवीन्द्र नाथ टैगोर के बारे में कुछ भी लिखना या बताने में शब्द कम पड़ जाएंगे । वह अद्भुत प्रतिभा के धनी थे।, इनके संपूर्ण जीवन से प्रेरणा व सीख मिलती है ,वह ऐसे विरले साहित्यकारों में से एक हैं जो आसानी से नहीं मिलते हैं एक ऐसी छवि जो अपने जन्म से लेकर मृत्यु तक के जीवन की एक अमर छाप छोड़ जाते हैं ।

रवींद्र नाथ टैगोर जी का जन्म कोलकाता के जोड़ासांको की ठाकुरबाड़ी में प्रसिद्ध और धनी बंगाली टैगोर परिवार में हुआ था, जिसके मुखिया देवेंद्रनाथ टैगोर जो कि एक ब्रह्म समाज के वरिष्ठ नेता थे ।वह बहुत ही सुलझे हुए सामाजिक जीवन जीने वाले व्यक्ति थे, उनकी पत्नी शारदा देवी बहुत ही सीधी और घरेलू महिला थी, 7 मई 1861 को उनके घर पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई इनका नाम रविंद्र नाथ टैगोर रखा गया यह उन के सबसे छोटे पुत्र थे ।

टैगोर जी जन्म से ही बहुत ज्ञानी थे उनकी प्रारंभिक शिक्षा कोलकाता के बहुत प्रसिद्ध सेंट जेवियर स्कूल में हुई थी लेकिन स्कूली शिक्षा का माहौल इन्हें पसंद नहीं आया इसलिए उन्होंने स्कूल की पढ़ाई छोड़ दी । ठाकुर जी की प्रारंभिक शिक्षा उन्हें संस्कृत ,बंगला, अंग्रेजी ,चित्र कला ,संगीत आदि की शिक्षा देने के लिए घर पर ही अलग-अलग अध्यापक नियुक्त किए गए थे। इनके पिता इन्हें बैरिस्टर बनाना चाहते थे इंग्लैंड के ब्रिजटोन मे पब्लिक स्कूल में उनका नाम लिखाया और लंदन विश्वविद्यालय में कानून का अध्ययन किया ,लेकिन वहां भी उनका मन नहीं लगा । 1880 में बिना डिग्री प्राप्त किए ही यह पुनः स्वदेश लौट आए ।

टैगोर जी का मानना था सर्वोत्तम शिक्षा वही है जो संपूर्ण सृष्टि के साथ हमारे जीवन मे सामंजस्य स्थापित करती है । टैगोर जी ने 6 वर्ष की उम्र में ही कविता लिख दी थी और 16 वर्ष की आयु में लघु कथा लिख डाली थी यह प्रकृति के प्रेमी थे और उस के सानिध्य में ही शिक्षा ग्रहण पड़ने करने पर बल देते थे ।

अपने विद्यालय जीवन के कटु अनुभव को याद करते हुए कहते हैं उन्होंने लिखा है-“ जब मैं स्कूल भेजा गया तो मैंने महसूस किया कि मेरी अपनी दुनिया मेरे सामने से हटा दी गई है उसकी जगह लकड़ी की बेंच तथा सीधी दीवारें मुझे अपनी अंधी आंखों से घूर रही हैं। “ इन्होंने अपने परिवार के साथ कई जगहों का दौरा किया 11 वर्ष की उम्र में उपनयन संस्कार के बाद टैगोर और उनके पिता कई महीनों के लिए भारत का दौरा करने के लिए 1873 में कोलकाता छोड़कर अपने पिता के साथ डेलाहौसी के हिमालय पर्वतीय स्थल चले गए थे ।वहां टैगोर ने जीवनी ,इतिहास ,खगोल विज्ञान ,आधुनिक विज्ञान और संस्कृत का अध्ययन किया । 1873 में अमृतसर में अपने 1 महीने के प्रवास के दौरान सुप्रभात गुरबानी और नानक वाणी से बहुत ही प्रभावित हुए थे जिसे स्वर्ण मंदिर में प्रतिदिन प्रातः गाया जाता हैं।

टैगोर की माता का निधन उनके बचपन में ही हो गया था और उनके पिता व्यापक रूप से यात्रा करने वाले व्यक्ति थे तथा उनका लालन-पालन अधिकांशता नौकरों के द्वारा ही किया गया था । टैगोर जी को प्रकृति के सानिध्य में रहना बहुत पसंद था उन्होंने सर्वप्रथम 1863 ई० में बोलपुर के पास अपनी साधना के लिए एक आश्रम की स्थापना की कालांतर में यही स्थान टैगोर जी की कर्म स्थली बना ।

२३ वर्ष की अवस्था में मृणालिनी देवी से इनका विवाह हुआ ।जिससे इनके पांच संतानें हुई। इनके बड़े भाई की पत्नी कादंबरी देवी इनकी प्रिय मित्र और शक्तिशाली प्रभाव वाली स्त्री थी ,जिन्होंने 1880 में अचानक आत्महत्या कर ली थी इस कारण टैगोर और इनका शेष परिवार कुछ समय तक काफी समस्याओं से घिरा रहा था । रविंद्र जी ने एक बार अपनी पत्नी से विद्यालय खोलने की बात कही तो वह हंस कर बोली जो खुद कभी स्कूल नहीं गया वह विद्यालय कैसे खोल सकता है, मगर टैगोर जी अपने सपने को मूर्त रूप देने के लिए 1901 में शांतिनिकेतन की स्थापना के रूप में की वहां पर विद्यार्थी को प्रकृति के सम्मुख पढ़ाया जाता है रवीन्द्रनाथ टैगोर के अथक प्रयासों के बाद शांतिनिकेतन को विश्वविद्यालय का दर्जा प्राप्त हुआ जिसमें साहित्य कला के अनेक विद्यार्थी अध्ययनरत हुए ।

वर्ष 1920 में रविंद्र नाथ जी शांतिनिकेतन चले गए उन्होंने वहां पर एक आश्रम की स्थापना की यहां पर स्कूल पुस्तकालय और पूजा स्थल का निर्माण किया उन्होंने यहां पर बहुत सारे पेड़ लगाए और एक सुंदर बगीचा भी बनाया यहीं पर इनकी पत्नी और दो बच्चों की मृत्यु भी हुई उनके पिता भी 1905 मे चल बसे । कुछ समय तक टैगोर जी काफी अशांत रहे ।अब उन्होंने अपना मन स्वप्न पर केंद्रित कर लिया । उनका विचार था- कि स्वतंत्रता की मौजूदगी में ही शिक्षा के अर्थ और औचित्य मिलता है, उन्होंने तत्कालीन स्कूली शिक्षा को शिक्षा की फैक्ट्री बनावटी व रंगहीन दुनिया के संदर्भों से कटा हुआ माना था टैगोर जी का मानना था बच्चे की शिक्षा के लिए उसका पहला कदम प्रकृति के सानिध्य में लाना होगा जिससे वह प्रकृति के संपर्क में रहकर बच्चा विशाल दुनिया की वास्तविकता निरंतरता और खुशी से परिचित हो सकेगा ।

उनका मानना था कि हमारी शिक्षा स्वार्थ पर आधारित परीक्षा पास करने के संकीर्ण मकसद से प्रेरित यथा शीघ्र नौकरी पाने का जरिया बनकर रह गई है, जो एक कठिन और विदेशी भाषा में साझा की जा रही है । इसके कारण हमें नियमों ,परिभाषाओं ,तथ्यों और विचारों को बचपन से रखने की दिशा में ढकेल दिया गया है यह ना तो वक्त देती है और ना ही प्रेरित करती है ताकि हम ठहर कर सोच सके और सीखे हुए को आत्मसात कर सके ।

विश्व विख्यात गुरुदेव रविंद्र नाथ टैगोर साहित्यकार ,पत्रकार , तत्वज्ञानी ,दार्शनिक ,अध्यापक, शिक्षा शास्त्री टैगोर का ऐसा गौरवशाली व्यक्तित्व है जो उन्हें आधुनिक भारतीय विचारक के रूप में घोषित करती है ।आधुनिक भारतीय विचारक रविंद्र नाथ टैगोर की पहचान मुख्यतया कवि ,कलाकार के रूप में होती है । अपनी अनुपम कृतियों के द्वारा टैगोर ने मानव मूल्यों के बारे में आपने जो विचार व्यक्त किए थे वह राजनीतिक ,शैक्षिक चिंतन की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। टैगोर ने व्यक्ति की सकारात्मक स्वतंत्रता के द्वारा अपने सृजनशील चेतना के सामंजस्य को मूर्त रूप प्रदान करते हुए शिक्षा प्राप्त कर उसका प्रचार करना बताया है प्रत्येक मनुष्य की व्यापकता ही उसकी अमूल्य निधि होती है जो उसे दूसरों से भिन्न करती हैं और यही पृथकता उसके मूल उद्देश्य को निर्धारित करती है । टैगोर जी शिक्षा को ही सबसे बड़ा हथियार मानते थे और उनका मानना था कि शिक्षा के द्वारा ही हम अपने भीतर के प्रकाश से सत्य को खोज कर निकाल सकते हैं । सत्य से ओतप्रोत हुए ज्ञान को ना कोई काट सकता है और ना ही इसकी कल्पना कर सकता है ।

टैगोर के अनुसार - “ सृष्टि ईश्वर की लीला है अत: संसार से मुंह मोड़ कर ईश्वर को पाने का प्रयास व्यर्थ है व्यक्ति में सकारात्मक स्वतंत्रता होनी चाहिए । “ उनके विचार था कि स्वतंत्रता की मौजूदगी मे ही शिक्षा को और भी उचित अवसर मिलता है । टैगोर जी के अनुसार ,- “व्यक्ति के अस्तित्व के दो रूप होते हैं एक उसका भौतिक अस्तित्व जो कि नियमों में बना है और दूसरा उसका आध्यात्मिक अस्तित्व होता है जो उसे अन्य व्यक्तियों से पृथक और विलक्षण सिद्ध करता है यही वैधता मनुष्य की अमूल्य निधि है यही उसके जीवन के मूल उद्देश्य को निर्धारित करती है ।

जहां मन में भय ना हो कोई और ऊंचा हो भाल,

जहाँ ग्यान हो मुक्त ,

जहां संकीर्ण दीवारों में ना बटी हो दुनिया ,

जहां सत्य की गहराई से निकलते हुए शब्द सभी ,

जहां दोषरहित सृजन की चाह में

अनथक उठती हो सभी भुजाएं ,

जहां रूढ़ियों के रेगिस्तान में खो न गई हो ।

( गीतांजलि से टैगोर की मशहूर कविता )

टैगोर की इस कविता में उनके प्रखर विचारों और गहरे मानवतावादी जीवन दर्शन की झलक मिलती है । करीब 80 साल की जीवन यात्रा में एक महान चिंतक दार्शनिक शिक्षाविद के तौर पर दुनिया को लगातार समृद्ध किया उनका चिंतन बताता है कि वह सही मायने में एक विश्व नागरिक विश्व गुरु थे ।

टैगोर ने ऐसी शिक्षण विधि पर बल दिया जिससे विद्यार्थी की जिज्ञासा और रूचि बनी रहे गुरुदेव जी के अनुसार भ्रमण के समय पढ़ाना, क्रिया विधि ,वाद विवाद तथा प्रश्नोत्तर विधि के द्वारा ही पठन पाठन का कार्य होना चाहिए यही उनके विचारों में वैज्ञानिक चिंतन है जिससे शिक्षा का प्रत्येक क्षेत्र प्रभावित होता है । रवीन्द्र जी की आध्यात्मिक एवं नैतिक शिक्षा सार्वभौमिक एवं मानवीय मूल्यों को प्रतिपादित करती है । ऐसी शिक्षा की उपयोगिता एवं सार्थकता प्रत्येक देश तथा काल में सदैव बनी रहेगी । शान्ति निकेतन उदारता एवं विभिन्न संस्कृतियों का संगम स्थल है । आज भी इसे विश्व का अद्वितीय शैक्षिक संस्था के रूप में जाना जाता है। टैगोर जी बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे । कवींद्र रवींद्र की साहित्यिक प्रतिभा सर्वतोमुखी थी ।उन्होंने अनेक कहानियां, नाटक ,उपन्यास ,निबंध व कविताएं लिखी थी । वह अंग्रेजी व बंगला भाषा में लिखते थे । टैगोर जी का मानना था कि – “ सबसे बड़ी शिक्षा वही है जो संपूर्ण सृष्टि के साथ हमारे जीवन में सामंजस्य स्थापित करती है शिक्षा के द्वारा ही हम अपने बौद्धिक विकास को चाकू की धार से भी तेज कर हर क्षेत्र में विजय पाई जा सकती है बिना शिक्षा के मनुष्य का बौद्धिक विकास बंद हो जाता है ।“

टैगोर जी की उपलब्धियां

रविंद्र नाथ टैगोर जी को अपने जीवन में अनेक उपलब्धियों से नवाजा गया परंतु उसमें सबसे प्रमुख गीतांजलि के लिए 1913 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया गीतांजलि लोगों को इतनी पसंद आई कि अंग्रेजी फ्रेंच जर्मन जापानी रूसी आदि विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं में इसका अनुवाद किया गया टैगोर का नाम दुनिया के कोने-कोने में फैल गया और वे विश्व के मंच पर स्थापित होगा ।

टैगोर जी दुनिया के अकेले ऐसे कवि हैं जिन की रचनाएं दो देशों का राष्ट्रगान है भारत का राष्ट्रगान “जन गण मन “और बांग्लादेश का राष्ट्रीय गान “ आमार सोनार बांग्ला “टैगोर जी की रचनाएं हैं । इन्हें गुरुदेव ,कवि गुरु, और रविंद्र नाथ टैगोर के उपनाम से भी जाना जाता है ,यही उनकी अमरता की निशानी है ।

टैगोर जी अपने जीवन में तीन बार अल्बर्ट आइंस्टीन जैसे महान वैज्ञानिक से मिले वह रवींद्रनाथ टैगोर जी को रब्बी टैगोर कह कर बुलाते थे । (रब्बी का मतलब गुरु होता हैं ।)

रविंद्र नाथ जी की रचनाओं मे स्वतंत्रता आंदोलन और उस समय की झलक स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है 16 अक्टूबर 1920 में उनके नेतृत्व में बंग-भंग आंदोलन का आरंभ हुआ इसी आंदोलन ने भारत में स्वदेशी आंदोलन का सूत्रपात किया ।

टैगोर ने विश्व में सबसे बड़े नरसंहारों में से एक जलियांवाला कांड 1919 की घोर निंदा करते हुए उसके विरोध में ब्रिटिश प्रशासन के द्वारा प्रदान की गई नाइटहुड की उपाधि लौटा दी । अधिकतर लोग इन्हें कवि के रूप में जानते हैं किंतु ऐसा नहीं था कविताओं के साथ-साथ उन्होंने लेख, उपन्यास ,लघु कथा, ड्रामा ,यात्रा वृतांत और हजारों गीत लिखे उन्होंने लगभग 2230 गीत लिखें और इन गीतों को रविंद्र संगीत कहा जाता है । टैगोर जी उत्कृष्ट कोटि के संगीतकार और पेंटर भी थे रविंद्र जी ने साहित्य की अनेक विधाओं में सृजन किया है । इनकी कहानियों में काबुलीवाला ,मास्टर साहब, पोस्ट मास्टर आज भी लोकप्रिय है ।

रविंद्र नाथ टैगोर जी उनके राजनीतिक विचार बहुत ही जटिल थे उन्होंने यूरोप के उपनिवेशवाद की आलोचना की और भारतीय राष्ट्रवाद का समर्थन किया इसके साथ ही उन्होंने स्वदेशी आंदोलन की आलोचना की और कहा हमें जनता के बौद्धिक विकास पर ध्यान देना चाहिए इस तरह से ही हम सफलता का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं भारतीय साहित्य गुरुदेव रविंद्र नाथ टैगोर के योगदान के लिए सदैव ऋणी रहेगा ।वह अकेले ऐसे भारतीय साहित्यकार हैं जिन्हें नोबल पुरस्कार मिला और वह प्रथम एशियाई और साहित्य में नोबेल पुरस्कार पाने वाले पहले गैर यूरोपियन थे ।

गुरुदेव के शांतिनिकेतन से निकली कई महान विभूतियों में एक नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री प्रोफेसर अमर्त्य सेन बताते हैं कि वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने टैगोर के लिए इतना महत्वपूर्ण था कि इसके लिए वह महात्मा गांधी का विरोध करने से भी नहीं हिचकते थे । वे गांधीजी की खुलकर तारीफ करते थे लेकिन तार्किक मुद्दे पर जहां जरूरी लगा अपनी असहमति भी जाहिर करते थे मिसाल के तौर पर 1934 में बिहार में आए भयानक भूकंप को - “हमारे पापों खासतौर पर आस्था के पाप के कारण ईश्वर के द्वारा दी गई सजा बताया “ तो टैगोर ने इसका खुलकर विरोध किया – “उन्होंने कहा कि प्राकृतिक घटना के बारे में या वैज्ञानिक नजरिया बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि देश का एक बड़ा तबका ऐसी बातों को फौरन स्वीकार कर लेता है ।“

गुरुदेव टैगोर जी देश प्रेम की भावना से ओतप्रोत होने के बावजूद अंधराष्ट्रवाद के खतरों से भी लोगों को आगाह किया था । पूरी मानवता को एक सूत्र में पिरोने का ख्वाब देखने वाले गुरुदेव सांप्रदायिक नफरत और धार्मिक कुरीतियों को बर्दाश्त नहीं कर पाते थे ।1990 में प्रकाशित नाटक “विसर्जन ‘में टैगोर ने धर्म के नाम पर हिंसा का विरोध किया है । सांप्रदायिक राजनीति के बारे में उन्होंने दशकों पहले जो लिखा था वह आज भी प्रासंगिक है कुछ स्वार्थी समूह अपनी महत्वाकांक्षा और बाहरी उकसावे से प्रेरित होकर सांप्रदायिक सोच को बढ़ावा देते हैं और उसका इस्तेमाल विनाशकारी राजनीतिक उद्देश्य के लिए करते हैं । गुरुदेव की आवाज आज भी इंसानियत के दरवाजे पर दस्तक दे रही है ।

टैगोर के संपूर्ण शिक्षा दर्शन का मूल्यांकन करते हुए डॉ H .D. मुखर्जी ने लिखा कि” टैगोर आधुनिक भारत के शैक्षणिक प्रधान के पैगंबर थे ‘। विश्व मानवता के पर्याय टैगोर जी का जीवन साहित्यकार ,अध्यापक एवं दार्शनिक के रूप में नागरिकों को प्रेरणा देता रहेगा । इन्हें गुरुदेव की उपाधि से गांधी जी ने ही नवाजा था गुरुदेव की मृत्यु पर गांधी जी ने कहा था कि हम ने विश्व के एक राष्ट्रवादी मानवता के पुजारी को खो दिया है । शांति निकेतन के रूप में उन्होंने राष्ट्र के लिए ही नहीं समस्त संसार के लिए अपनी विरासत छोड़ी ।

रविंद्र नाथ टैगोर जी ने अपने जीवन के अंतिम 4 साल पीडा औंर बीमारी में बिताए । जब भी वह ठीक होते तो कविताएं लिखने लगते थे । लंबी बीमारी के बाद 7 अगस्त 1941 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया भारतीय साहित्य गुरुदेव रविंद्र नाथ टैगोर के योगदान के लिए सदा ऋणी रहेगा ।

गुरुदेव रविंद्र नाथ टैगोर भारत की उन महान विभूतियों से एक हैं जिनका नाम सदैव सुनहरे अक्षरों में हमारे मन-मस्तिष्क पर अंकित रहेगा । यह भारत के अनमोल रत्नों में से एक थे । महात्मा गांधी ने गुरुदेव द्वारा स्थापित संस्थाओं के बारे में कहा कि गुरुदेव की शक्ति नई चीजों के निर्माण में थी उन्होंने शांतिनिकेतन , श्रीनिकेतन , विश्व भारती जैसी संस्थाओं की स्थापना की । इन संस्थाओं में गुरुदेव की आत्मा निवास करती है और यह संस्थाएं केवल बंगाल की ही नहीं वरन पूरे भारत की धरोहर हैं ।

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