छूटी गलियाँ - 21 Kavita Verma द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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छूटी गलियाँ - 21

  • छूटी गलियाँ
  • कविता वर्मा
  • (21)

    सनी अभी भी रोये जा रहा था मैं उसे रोते हुए देखता रहा उसे इस दुःख में डूबते हुए देखता रहा जो उसे मेरे कारण मिला था फिर किसी तरह खुद को खींच कर उसके करीब लाया और उसे गले लगा लिया। मैं उसे पकड़ कर सोफे तक लाया वह सोफे पर बैठ गया। मैंने उसके कंधे पर हाथ रखा वह सोफे पर दूर खिसक गया मेरा हाथ खुद ही उसके कंधे से फिसल गया।

    सनी मेरे पुकारने पर उसने जलती आँखों से मुझे देखा आँखें भरी हुई थीं होंठ और नथुने कंपकंपा रहे थे। बहुत कुछ था जो उसके अंदर घुमड़ रहा था लेकिन बाहर नहीं आ पा रहा था। लिहाज का वह दरवाजा अंदरूनी थपेड़ों को झेलते हुए भी अब तक तो खड़ा था पर पता नहीं कब टूट जाने वाला था ? मैं उस सैलाब का सबब जान गया था लेकिन उस प्रतिपल कमजोर होते दरवाजे को थामना जरूरी था क्योंकि मैं नहीं चाहता था सनी आवेश में अब फिर ऐसा कुछ बोल जाये कि सच्चाई जानने के बाद उसे शर्मिंदा होना पड़े।

    "सनी तुम जानना चाहते हो ना अभी किसका फोन था ? नेहा और राहुल कौन हैं? उनसे मेरा क्या रिश्ता है? फिर मैंने पार्क में अचानक सुनी बातों से लेकर आज तक की सारी बातें उसे कह सुनाईं वह तने हुए चेहरे और जलती आँखों के साथ सब सुनता रहा।

    मैं धीरे से उसके कान में फुसफुसाया "मैंने तुम्हारी माँ को धोखा नहीं दिया बेटा मैं तो उसे बहुत प्यार करता था अभी भी करता हूँ मेरा विश्वास करो।"

    सनी ने अविश्वास से मेरी ओर देखा "मैंने आपको देखा तो ..." बस इतना ही कह पाया वह। गुस्से में लिहाज का जो आवरण छितरा गया था थोड़ा शांत होने पर फिर स्थिर हो रहा था।

    "सनी मैंने डूबती आवाज़ में उसे पुकारा "मैंने तुम्हारी मम्मी को धोखा नहीं दिया मैंने किसी को धोखा नहीं दिया बेटा।"

    "पापा मेरे बिगड़ने का इतना बड़ा बोझ आप दिल पर लिये हैं। प्लीज़ पापा आप खुद को दोष मत दीजिये, ये मेरा दोष था मेरी गलती थी" वह मेरे गले लग गया।

    "बेटा दोष चाहे जिसका रहा हो जिंदगियाँ तो सबकी बदल गईं, बस प्रायश्चित की एक कोशिश कर रहा हूँ।"

    "मुझे माफ़ कर दीजिये पापा मैंने आपको गलत समझा, मुझे लगा कि आपका कोई और परिवार है।"

    "अब तुम ही मेरे परिवार हो मेरे सब कुछ और अब बातें मत बनाओ चल कर डाइनिंग टेबल साफ़ करवाओ" मैंने हँसते हुए माहौल बदलने के लिये कहा।

    रात देर तक हम साथ साथ टी वी देखते रहे हालांकि बीच बीच में नेहा और राहुल का ख्याल भी आता रहा।

    ***

    राहुल सुबह उठा तो शांत ही था। मैंने आज फिर छुट्टी ले ली थी। राहुल को अकेला नहीं छोड़ना चाहती थी। नाश्ता करते हुए उसने पूछा "मम्मी आपके पास पापा का दुबई का नंबर है?"

    "हाँ है तो।"

    "मैं एक बार उन्हें फोन लगाऊँ?" क्या था ये खून की कशिश या आशा की लौ बुझने से पहले एक बार अपनी पूरी ताकत से चमक उठना चाहती थी।

    सोचने के लिये एक मिनिट ठिठकी मैं, "ठीक है तुम चाहते हो तो लगाओ" मैंने डायरी में लिखा नंबर उसे दे दिया।

    दो तीन बार फोन की घंटी बजती रही राहुल के चेहरे पर कई रंग आते जाते रहे फिर फोन काट दिया गया। उसका रुआंसा चेहरा देख कर मेरा खून खौलने लगा। ऐसी कौन सी आफत पड़ जाती विजय के घर संसार पर अगर एक बार फोन उठा लेते? ये भी नहीं सोचा कहीं हम किसी मुसीबत में तो नहीं हैं। अपने बेटे से इस कदर बेगानापन, राहुल की मायूसी देख विजय के लिए मन में उठी गुस्से और नफरत की लहर पूरे वेग से थपेड़े मारने लगी।

    "राहुल चलो खाना खा लो, तीन घंटे के असफल प्रयासों के बाद अब वह बुरी तरह हताश था। मुझसे लिपट कर वह फूट फूट कर रोता रहा। अकेलेपन और बेबसी का जो एहसास पिछले चार सालों से मुझे खाए जा रहा था आज अपने चरम पर था। शब्द खामोश हो गये थे समझ नहीं आ रहा था क्या कह कर उसे ढ़ाढस दूँ।

    "मम्मी मैं अपने पापा से कभी बात नहीं कर पाऊँगा। वो कभी हमसे मिलने नहीं आएँगे ना। उन्हें हमारी बिलकुल चिंता नहीं है? वो मुझे बिलकुल प्यार नहीं करते ना? क्यों मम्मी, उन्होंने दूसरी शादी कर ली तो क्या मैं तो उनका ही बेटा हूँ ना? हिचकियों से उसका गला रुंध गया।

    मेरा बेटा कल से सदमे में था, कल मुझे कमजोर देख कर जाने कहाँ से हिम्मत बटोर लाया था पर आज उसकी हिम्मत बिखर गई। मैं क्या कहती उसे, कैसे समझाती और क्या समझाती? सिवाय चुप हो जाओ मत रोवो कहने के मेरे पास कुछ नहीं था। खाना ऐसे ही रखा रह गया।

    चार बजे फोन की घंटी ने हम दोनों को चैतन्य किया। मिस्टर सहाय का फोन था, राहुल की मनस्थिति तो मैं खुद ही नहीं समझ पा रही थी उनसे क्या कहती? "उसे थोड़ा समय देना चाहिए" बस इतना ही कह सकी। समझ रही थी उनके मन में ढेर सारे सवाल हैं, बहुत कुछ जानना चाहते हैं वो लेकिन मैं बात करने की मनस्थिति में नहीं थी। "मैं आपको फोन करूँगी," बस इतना ही कह पाई।

    आज रविवार है सुबह से ही दिल धड़क रहा है। आज दोनों भैया आने वाले हैं। विजय के बारे में तो जो है सो है लेकिन मैंने उन्हें कुछ नहीं बताया इस बात के गुस्से का सामना कैसे करूँगी ये सोच सोच कर घबरा रही हूँ। इसी बैचेनी में सुबह के काम निबटाती रही।

    "आइये भैया" नज़रें नीची कर लीं मैंने। उन्होंने भी ख़ामोशी से मेरे सिर पर हाथ रख दिया। राहुल को देख कर जरूर उनके चेहरे पर एक उदास सी मुस्कान आई। वे राहुल से उसके स्कूल पढाई दोस्तों के बारे में बातें करते रहे। राहुल के सामने उन्होंने कोई बात शुरू नहीं की बस चुपचाप घर की व्यवस्थाएं देखते रहे। विजय के बिना जिंदगी में कौन कौन सी दुश्वारियाँ और कमियाँ हैं उसका अवलोकन करते रहे।

    खाना खाने के बाद छोटे भैया राहुल के साथ उसके कमरे में प्ले स्टेशन से खेलने लगे। ड्रॉइंग रूम में मैं और बड़े भैया चुपचाप बैठे थे। अचानक वे बोले "तूने हमें पराया कर दिया नेहा।"

    "नहीं भैया ऐसा मत कहिये, आप लोगों के सिवाय अब मेरा है ही कौन? वो तो राहुल को ऐसी कोई बात बताना नहीं चाहती थी पता नहीं वो इसे सहन कर पाता या नहीं, इसी लिए इस बात को दबाये बैठी रही।"

    "कब तक उससे छुपाओगी?"

    "अब नहीं भैया मैंने उसे सब बता दिया है, तभी से वह बहुत दुखी है आज आप लोगों के आने से थोड़ा नार्मल हुआ है।"

    भैया ने अपने संपर्कों से सब पता करवा लिया था। वो बहुत गुस्से में थे विजय पर धोखाधड़ी का केस कर उसका कैरियर उसका संसार उजाड़ देना चाहते थे।

    "इतना करके भी क्या हासिल होगा भैया? मेरा संसार तो नहीं बस पायेगा, राहुल को पिता का प्यार तो नहीं मिल पायेगा, विश्वासघात की उस चोट का दर्द तो कम नहीं होगा इतने सालों का अकेलापन तो नहीं भर पायेगा फिर बात फैलेगी लोगों के ताने, उनकी घूरती आँखें, उनके प्रश्न हमारा जीना मुश्किल कर देंगे।"

    भैया के साथ रहने का प्रस्ताव भी मैंने अस्वीकार कर दिया।

    भैया ने मकान के पेपर्स देखे खर्चे की व्यवस्था की पड़ताल की किसी भी जरूरत के लिए सबसे पहले उन्हें बताने का वादा लिया और कानूनन तलाक लेने की सलाह भी दी। सुनते ही मन धक से रह गया, तलाक। संबंध भले ना रहा हो लेकिन इसे पूरी तरह तोड़ देना। "सोचूँगी भैया अभी तो राहुल को संभालना है वह बहुत सदमे में है।"

    भैया को विदा करते रुलाई फूट गई। राहुल ने इस सदमे से कुछ ज्यादा ही सीख लिया था उसने अपने दुःख को दबा कर झूठी मुस्कराहट का पर्दा डालना सीख लिया था। मन के सूनेपन को खुद ही की बातों से दूर करना सीख लिया था लेकिन फिर भी था तो वो बच्चा ही देर तक भैया के सीने से लगा रहा। भैया के स्पर्श में खुद की असुरक्षा, अकेलेपन का संबल तलाशता रहा। थाह लेता रहा उनसे रिश्ते की गहराई की या शायद रिश्ते से मिली चोट पर खुद ही मलहम लगाता रहा। जब भैया ने उसके सिर पर हाथ रखा उसके आँसू बह निकले, मन का डर शब्द बन होंठों पर आ गया "मामा आप फिर आओगे ना?"

    भैया भी कहाँ अपने आँसू रोक पाये उसे फिर से अपने सीने से लगा कर बाँहों में भींच लिया। "हाँ बेटा मैं आऊँगा तुम अपने को कभी अकेला मत समझना। मैं हूँ तुम्हारे दोनों मामा हमेशा तुम्हारे साथ हैं।"

    अब से हर बात बताने का और छुट्टियों में वहाँ आने का वादा लेकर भैया चले गये। भैया के जाने के बाद घर एकदम सूना हो गया।

    आज रविवार भी गुजर गया चार दिन हो गये, राहुल का हाल जानने की बैचेनी गुस्से में बदलने लगी। फोन लगाना चाहता था लेकिन पता नहीं वहाँ कैसी परिस्थिति हों, अभी तो नेहा के भाई भी आये होंगे ये सोच कर नहीं लगाया।

    ***