छूटी गलियाँ - 3 Kavita Verma द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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छूटी गलियाँ - 3

  • छूटी गलियाँ
  • कविता वर्मा
  • (3)

    शॉपिंग घूमना फिरना मिलना जुलना सब से फुर्सत होकर सनी और सोना की पढ़ाई लिखाई के बारे में बात की तो दोनों के मुँह ऐसे बने मानों कुनेन की गोली दे दी हो। पता चला अर्ध वार्षिक परीक्षा में दोनों के रिजल्ट ठीक नहीं आये। उन्हें ठीक से पढ़ाई करने की और उनके पिछले परफोर्मेंस की बात करनी चाही तो सनी ने बड़ी चालाकी से बात मोड़ दी।

    "पापा मर्सिडीज़ कितने की आती है? इंडिया में मिलती है?"

    सोना ने भी चहक कर कहा "पापा अपन मर्सिडीज़ लेंगे लाल रंग की।"

    "हट लाल नहीं ब्लेक, ब्लेक मर्सिडीज़ बहुत शानदार लगती है।" और उसके रंग पर दोनों झगड़ पड़े।

    मैं उन्हें छोड़ कर खाना लगाती गीता के पास आ गया और बड़े गर्व से कहा "देखा एक ही साल में हमारे बच्चों के सपने कितने बड़े हो गए हैं।"

    बाहर से तेज़ गति से तेज़ हार्न बजाते हुए एक मोटर सायकिल गुजरी उसकी आवाज़ से मेरी तन्द्रा भंग हुई। खिड़की से बाहर झाँक कर देखा वैसा ही सन्नाटा पसरा था जैसा मेरे मन और घर में था। दरवाज़ा ठीक से बंद कर पानी पिया लाइटें बंद कीं और बेडरूम में आ गया। कितने मन से इस कमरे का कायाकल्प किया था शानदार बेड, महंगे परदे, निर्जन रेगिस्तान में चाँदनी रात में आँखों में आँखे डाले प्रेमी युगल की बड़ी सी पेंटिंग और साइड टेबल पर रखी मेरी और गीता की तस्वीर। आज बिना गीता के ये कमरा ही रेगिस्तान हो गया है जिसमे अब कभी चाँदनी नहीं बिखरेगी।

    "आजकल बच्चों का मन पढ़ने में नहीं लगता," उस रात गीता ने मुझसे कहा था।

    "अरे अभी नयी नयी चीज़ों का शौक है कुछ दिनों में इनकी आदत हो जाएगी फिर सब ठीक हो जाएगा" मैंने लापरवाही से कहा था। सुनकर गीता चुप हो गयी उसका चेहरा देख कर मुझे महसूस हुआ पढ़ाई के मामले में लापरवाही ठीक नहीं है, "ठीक है मैं कल दोनों से बात करूँगा" मैंने उसे आश्वस्त किया।

    सुबह बच्चों को हिदायत दी कि पढ़ाई ठीक से करना है अगली बार रिजल्ट ऐसा नहीं आना चाहिए नहीं तो सब बंद कर दूँगा, बच्चॊ ने बड़े अनमने ढंग से सुना और इधर उधर हो गए।

    सुबह दूध वाले की आवाज़ से मेरी आँख खुली। खुद की स्थिति को समझने में वक्त लगा। रात जाने कितनी देर मैं पुरानी यादों में खोया रहा और जाने कब आँख लगी। उठ कर अपने लिए चाय बनाई। अपने रूटीन कामों में रात की बातें ध्यान से उतर गयीं लेकिन शाम को पार्क में घूमने जाते ही एक दिन पहले की सभी बातें जेहन में घूम गयीं।

    क्या वो आज फिर आयी होगी ? क्या किया होगा उसने अपनी परेशानी का ? ये सोचते सोचते मैंने पार्क का एक चक्कर लगाया फिर गेट के समीप ही एक बेंच पर बैठ गया।

    ***

    मैं तो वापस सिंगापुर चला गया पर पिता की देखभाल और अनुशासन के अभाव में सनी और सोना उद्दंड होते गए। अपने बढ़ते खर्चों के लिए गीता से मान मनोव्वल तो कभी इमोशनल ब्लेकमेल कर पैसे लेते रहे जब ये दोनों वार खाली जाते तो मुझसे फोन पर ऐसी ऐसी भावुक बातें करते कि मैं ही उन्हें गीता से कह कर पैसे दिलवा देता। कभी ये नहीं सोचा मैं इस तरह उनकी नज़रों में गीता का मान कम करते जा रहा हूँ। वे उद्दंड होते हुए कब बुरी संगत में पड़ गए पता ही नहीं चला।

    एक बार वापस आने के बाद दो साल तक मुझे छुट्टी नहीं मिली। बच्चों से बात होती वे मुझे याद करते मेरे वापस आने की बाते करते मेरे पास आने की जिद करते और मैं अपनी मजबूरियों में बंधा कोरा आश्वासन उन्हें पकड़ा देता। अपनी इस ग्लानि को कम करने के लिए ही मैं उनकी हर छोटी बड़ी जिद पूरी करने के लिए गीता से आग्रह करता रहा। मेरे जेहन में बच्चे अभी भी मासूमियत से भरे भोलेभाले थे जिनकी आँखों को मैं बड़े बड़े सपने देकर खुद का बड़प्पन साबित करना चाहता था। इसलिए गीता की शिकायतों को कभी समझ ही नहीं सका। सोलह साल का सनी डिस्कोथेक पब पार्टी में जाने लगा, उसके जन्मदिन पर मैं नहीं आ सका इसलिए उसने तेज़ रफ़्तार बाइक लेने की जिद की। उसकी फरमाइश सुन कर तो मैं भी असमंजस में था लेकिन वह रुआंसा हो गया तो मैं इनकार नहीं कर सका और अपने एक मित्र से कह कर उसके लिए बाइक दिलवाई।

    सोना को नयी नयी ड्रेस खरीदने का बहुत शौक था उसकी भी आये दिन सहेलियों के यहाँ पार्टियाँ होती थीं। गीता मना करती तो जिद पर अड़ जाती या रोनी सूरत बना कर कहती "आप कही ले नही जातीं पापा यहाँ है नहीं सब लड़कियां अपने पापा के साथ घूमने जाती हैं मैं सहेलियों के यहाँ भी नहीं जा सकती, वही घर स्कूल मैं बोर हो जाती हूँ।"

    गीता को पता ही नहीं चला सहेलियों पार्टियों की आड़ में उसके कितने बॉय फ्रेंड बन गए थे जिनके साथ वह घंटों समय बिताया करती। उनकी ये दोस्ती कितनी गहरी है ये गीता जान ही नहीं पायी। वह अपने अकेलेपन और घर बाहर की जिम्मेदारी से ही जूझती रही उस पर उसकी हर बात काट कर अनजाने ही मैंने बच्चों पर से उसका अंकुश ख़त्म कर दिया था। अब गीता का बच्चों से कुछ कहना उसका बच्चों द्वारा सीधा अपमान सा होता था इसलिए भी वह चुप लगा जाती। जब देखते बर्दाश्त नहीं होता तो कहती भी लेकिन वहाँ सुनने और समझने वाला था ही कौन?

    दो साल बाद मैं सिर्फ पंद्रह दिनों के लिए आ सका पर मेरे पास इतना समय ही कहाँ था कि उन्हें देख और समझ सकूँ? मैं तो अपने वीजा की अवधि बढ़वाने में ही लगा रहा। गीता ख़ामोशी से मुझे भागदौड करते देखती रही, न उसने कुछ कहा न मैंने कुछ पूछा। हालाँकि इस बार बच्चों की उद्दंडता मुझे खटकी उनमे बहुतेरे बदलाव को मैंने महसूस भी किया पर ये शायद मेरा अपराध बोध ही था कि मैं इस बारे में कोई बात नहीं कर सका।

    वापसी के पहले वाली रात गीता मेरे कंधे पर सिर रख रोती रही मैं उसके सिर को सहलाता रहा परन्तु उसे सांत्वना देने के लिए मेरे पास शब्द नहीं थे। उसके प्रति बच्चों के व्यवहार ने मुझे भी चिंता में डाल दिया था और इसका कुछ कुछ कारण भी मैं समझ रहा था। इस बार जब वापस लौटा तो दिल पर एक बोझ सा था पहली बार एहसास हुआ पिता की अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने में कहीं चूक रहा हूँ। गीता के अकेलेपन, उसकी सूनी आँखें और खामोश होंठों की आवाज़ दिल को गहरे तक बींधती रही। सारे रास्ते सोचता रहा कि अब मुझे वापस लौट जाना चाहिए। वाकई बच्चों को मेरी जरूरत है। गीता अकेले इन जिम्मेदारियों के बोझ तले पिस रही है।

    सिंगापुर पहुँचते ही बॉस ने मुझे खबर दी "मिस्टर सहाय आपके परफोर्मेंस को देखते हुए कंपनी ने आपका कांट्रेक्ट तीन साल और बढ़ा दिया है आपकी तनख्वाह करीब डेढ़ गुना बढ़ाई है और अगले महीने आपको शिकागो का ऑफिस हेड बनकर ज्वाइन करना है।" मुझे वापस लौटने का अपना निश्चय याद आया लेकिन दूसरे ही पल ओहदे की गर्मी और डॉलर की चकाचौंध में वह धुंधला पड़ गया। मैंने गीता को फोन पर जब वह खबर दी उसने बड़े ही शांत भाव से मुझे बधाई दी, वह खुश थी, नाराज़ या निराश मैं समझ नहीं सका, पर बच्चे बड़े खुश थे और इस बार कहीं बाहर घूमने जाने का पक्का वादा उन्होंने मुझसे ले लिया था।

    शिकागो पहुँच कर सबसे बड़ी समस्या आयी दिन और रात के फर्क की। मैं देर रात तक काम करता जब यहाँ दिन हो चुका होता लेकिन तब तक मैं इतना थक चुका होता कि बच्चों से बात करने की हिम्मत ही नहीं रह जाती, और जब मेरी सुबह होती तब ऑफिस पहुँचने की जल्दी और दिन भर के काम का टार्गेट या मीटिंग। बच्चे उस समय तक स्कूल जा चुके होते बस गीता से ही २- ५ मिनिट बात हो पाती। सन्डे सेटरडे कहाँ जाते पता ही नहीं चलता, लेकिन आज लग रहा है शायद व्यस्तता के बहाने सामना करने से बचता रहा था मैं। नौकरी की अपनी सफलता के पीछे किसी मोर्चे पर असफल होने का एहसास लगातार सालता रहता था पर अपनी सफलता के जश्न में उस नाकामयाबी को भुलाने का भुलावा खुद को देता रहा।

    उस दिन सुबह सुबह फोन की घंटी बजी। "हैलो" गीता थी फोन पर "तुम इतने भी क्या बिज़ी रहते हो कि बेटी का जन्मदिन भी याद नहीं रहा तुम्हे ? उसकी सभी सहेलियां इंतज़ार कर रही हैं कब तुम्हारा फोन आये और कब वह केक काटे।" पहली बार गीता के स्वर में नाराज़गी थी।

    "ओह आज क्या तारीख है? अरे मैं कल बहुत देर से आया इसलिए नींद नहीं खुली।" अपने अपराध बोध को कैफियत देते हुए मैंने कहा। बेटी से बात करते उसे बधाई दी। उसने जब रुआंसे स्वर में बात की तो मन व्यथित हो गया। मेरी व्यस्तता या लापरवाही से वह अपनी सहेलियों के सामने आहत हुई थी।

    मेरी व्यस्तता बढती ही गयी बच्चों के, गीता के जन्मदिन, यहाँ तक की हमारी शादी की सालगिरह भी मुझे याद नहीं रहते थे। कई बार मोबाइल में अलार्म लगाया पर वह जब बजता तब किसी जरूरी काम में व्यस्त रहता और बिना उसे देखे बंद कर देता और इस तरह भौगोलिक दूरी स्थिर रहते हुए भी सालों साल मैं परिवार से दूर होता गया।

    ***