छूटी गलियाँ - 8 Kavita Verma द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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छूटी गलियाँ - 8

  • छूटी गलियाँ
  • कविता वर्मा
  • (8)

    उस दिन सुबह आठ बजे नेहा का फोन आया वह बड़ी घबराई हुई थी। "राहुल को बहुत तेज़ बुखार है वह अधबेहोशी की हालत में बार बार पापा पापा कह रहा है, मैं उसे हॉस्पिटल ले कर आई हूँ क्या करूँ कुछ समझ में नहीं आ रहा है।"

    "आप चिंता मत करिये कौन से हॉस्पिटल में है मैं अभी आता हूँ।" मैंने फ़ौरन गाड़ी निकाली और हॉस्पिटल पहुँचा, नेहा बदहवास सी खड़ी थी।

    "कहाँ है राहुल?"

    "अंदर डॉक्टर चेकअप कर रहे हैं, बुखार तो दो तीन दिन से था पर कल रात अचानक बढ़ गया।"

    "राहुल" डॉक्टर ने कमरे से बाहर आ कर पुकारा।

    "जी, कैसा है राहुल?".

    "बुखार तेज़ है हलके निमोनिया का असर है, कुछ टेस्ट करवाने हैं। ये कुछ इंजेक्शंस तुरंत ले आइये।" डॉक्टर ने प्रिस्क्रिप्शन पकड़ाते हुए कहा।

    नेहा ने पर्चे के लिए हाथ बढ़ाया, मैंने उससे कहा "आप राहुल के पास बैठिये मैं अभी आता हूँ।"

    राहुल को पहली बार देखा, मासूम सा चेहरा, घुंघराले बाल गोरा गेहुँआ रंग बिलकुल सोनू जैसा। मैं पता नहीं क्यों उसे देख कर भावुक हो गया, उसके सिर पर हाथ रखा तो अधबेहोशी की हालत में वह पुकार उठा पापा पापा .....… एक बार तो इच्छा हुई उसे गोद में लेकर खूब प्यार करूँ, उससे कहूँ बेटा मैं यहाँ हूँ तुम्हारे पास, तुम जल्दी ठीक हो जाओगे, मैं हूँ न ! फिर अपने आप को सावधान किया। ये क्या कर रहे हो, राहुल अधबेहोशी की हालत में है वह तुम्हारी आवाज़ सुन सकता है, स्पर्श महसूस कर सकता है, जिस आवाज़ को वह पापा की आवाज़ समझ रहा है उस आवाज़ के साथ तुम्हारा स्पर्श उसे उलझन में डाल देगा, सारे किये कराये पर पानी फिर जायेगा। मैं उसके सिर को सहला कर उससे दूर हो गया।

    सारा दिन उसके टेस्ट करवाने, रिपोर्ट का इंतज़ार करने और डॉक्टर से बात करने में निकल गया। शाम करीब चार बजे उसका बुखार कम हुआ वह सो रहा था, मैंने नर्स को उसका ध्यान रखने को कहा और नेहा से केंटीन चल कर कुछ खाने को कहा।

    "नहीं मुझे भूख नहीं है, अरे आपने भी तो सुबह से कुछ नहीं खाया।" ये याद आते ही वह उठ खड़ी हुई।

    हम दोनों आमने सामने बैठे थे खाने का ऑर्डर दे दिया था नेहा बहुत खामोश थी। वह चुपचाप मेज़ को घूर रही थी बिना किसी हरकत के, उसके चेहरे पर अज़ीब सी रिक्तता थी मैं बहुत देर तक उसे देखता रहा लेकिन उसके मन में क्या चल रहा है उसकी थाह ना पा सका और अचानक उसके चेहरे में मुझे गीता का चेहरा नज़र आने लगा। आखिरी बार शिकागो जाने से पहले खाने की मेज पर गीता को ऐसे ही बैठे देखा था बिना किसी भाव के बिलकुल खामोश। ऐसा भी नहीं लगा कि उसके भीतर कुछ घुमड़ रहा हो , बस थी एक ऐसी रिक्तता जो असहनीय थी।

    वेटर ने खाने की प्लेट्स मेज़ पर रखीं तो नेहा की तन्द्रा टूटी। मैंने मुस्कुराते हुए कहा "क्या सोच रही हैं?"

    "जी कुछ नहीं, सॉरी" मेरी उपस्थिति नज़रअंदाज़ करने का बोध उसके स्वर में भर आया।

    "कोई बात नहीं मैं समझ सकता हूँ, लीजिये शुरू कीजिये।" मैंने प्लेट उसकी ओर बढ़ा दी लेकिन अपने शब्दों पर खुद ही अटक गया 'समझ सकता हूँ' फिर मैं उस समय क्यों नहीं समझा? गीता को घेरते उस खालीपन को कैसे अनदेखा कर गया।

    केंटीन से बाहर निकलते हुए नेहा ने कहा "आप साथ थे तो मन को एक तसल्ली थी नहीं तो मैं अकेले कैसे सब करती। राहुल को कुछ हो जाता तो? वही तो जीने का एकमात्र सहारा है।"

    "अरे कुछ नहीं होता राहुल को, आप क्यों निगेटिव सोच रही हैं? अब तो सब ठीक हो गया है।"

    "आप अब घर चले जाइये, सुबह से परेशान हो रहे हैं, राहुल भी अभी सो रहा है।"

    मैंने दो मिनिट सोचा फिर नेहा से कहा "वह अभी सो रहा है इसलिए अगर आपको घर का कोई काम हो तो कर आइये, मैं तब तक यहाँ रुकता हूँ, क्योंकि उसके जागने के बाद मैं यहाँ नहीं रुक सकता, वह मेरी आवाज़ या बात करने का तरीका पहचान सकता है। मैं शाम को आपके मोबाइल पर फोन करके उससे बात करूँगा।"

    "मुझे काम तो कुछ खास नहीं है, लेकिन राहुल को शायद एक दो दिन यहाँ रुकना होगा उसके कुछ कपड़े वगैरह लेने है।"

    "तो ठीक है आप चली जाइये मैं रुकता हूँ यहाँ पर, लेकिन जाएँगी कैसे?"

    "मैं ऑटो ले लूँगी, आपको कोई परेशानी तो नहीं होगी?"

    "कैसी बात करती हैं आप, बेझिझक जाइये मैं यहीं हूँ।"

    नेहा के जाने के बाद मैं राहुल के पास ही कुर्सी पर बैठ कर उसे देखने लगा, वह गहरी नींद में था। यह कैसा रिश्ता बन गया है इस बच्चे के साथ? क्या नाम है इस रिश्ते का? क्या हक़ है मेरा इस पर? बिना किसी हक़ का यह रिश्ता पता नहीं कितनी दूर चलेगा और उसके बाद इसका क्या अंजाम होगा? क्या राहुल सब कुछ जान कर भी मुझसे अपने पापा की तरह ही व्यवहार करेगा या इस अनहक रिश्ते को भूल जायेगा? उसे देखते देखते मेरी आँख लग गयी। करीब छह बजे दरवाज़े पर खटखटाहट से मेरी आँख खुली।

    "ये अभी तक सो रहा है उठा नहीं?" हाथ के बेग कुर्सी पर रखते हुए नेहा ने कहा।

    "हाँ अब उसे आराम है इसलिए उठा नहीं।"

    नर्स ने राहुल की नब्ज़ देखी बुखार चेक किया बॉटल बदली और नेहा को देख कर मुस्कुरा कर बोली "फिकर मत करो अब बुखार नहीं है कल तक ठीक हो जायेगा।"

    नर्स के जाने के बाद मैंने नेहा से कहा "अब मैं भी चलता हूँ, रात में आप यहाँ अकेली रुकेंगी कोई और फ्रेंड या रिश्तेदार जिसे बुला सकें?

    "नहीं मैं खुद ही रुकूँगी मैंने किसी को खबर नहीं की, वो तो राहुल बेहोशी में पापा पापा पुकार रहा था इसलिए आपको फोन कर दिया। मुझे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था।"

    "यदि कहें तो मैं आ जाऊँ।" मैंने झिझकते हुए कहा कहीं वो कुछ गलत न समझ बैठे।

    "नहीं अब सिर्फ सोना ही तो है, राहुल भी अब ठीक है, फिर आपका सामने होना आपकी आवाज़ कहीं पहचान गया तो।"

    "ओह्ह मैं तो भूल ही गया था।"

    "आप रात में फोन करेंगे क्या?"

    "लेकिन वह मोबाइल पर लोकल नम्बर पहचान लेगा। बहुत शार्प माइंड है उसका" मैंने मेडिकल कंपनी वाली बात याद करते हुए कहा।

    नेहा मुस्कुराई, एक गर्वीली मुस्कान उसने प्यार से राहुल को निहारा। "हाँ बहुत तेज़ है उसके टीचर्स भी यही कहते हैं।"

    "ऐसा करते हैं, अभी तो मैं जाता हूँ आज फोन नहीं करूँगा, देखते है कल तक शायद वह घर आ जाये फिर लेंड लाइन पर फोन करूँगा। ठीक है अपना ध्यान रखना।" मैं बाहर निकल गया।

    घर पहुँच कर मैं नहाया, सुबह जल्दी में बिना नहाये ही चला गया था। तब तक मेरा टिफिन आ गया। सनी राहुल, राहुल सनी के बारे में सोचते सोचते मैंने एलबम निकाले और पुरानी फोटोज देखता रहा, जाने के पहले की एक फोटो जिसमें मैं और गीता बैठे थे सनी गीता के और सोना मेरे पीछे कंधे पर हाथ रख कर खड़े थे। सोना जिद करके मेरे पीछे खड़ी हुई थी यह तर्क देते हुए कि पापा मुझे ज्यादा प्यार करते हैं इसलिये उनके साथ मैं ही खड़ी होऊँगी और सनी उसे मुँह चिढ़ा कर गीता के पीछे खड़ा हो गया। यह हमारी परफेक्ट फैमली फोटो थी सोना मेरी प्यारी बिटिया, मेरी आँखें भर आईं।

    रात देर तक मैं एलबम देखते बीते खुशनुमा दिनों को याद करता रहा कितनी ही बार आँखें आँसुओं से धुंधला गईं कितनी ही बार फोटो पोंछ कर सुखाये। जब सब बंद करके लेटा तो नेहा का उदास चेहरा याद आ गया। उसके मन का डर और उससे अकेले जूझती वह। कितना मुश्किल होता है जब बच्चे पर विपत्ति आये तब उसे अकेले संभालना। जब सोना चली गई और गीता बेहोश थी ऐसा ही डर मुझे भी लगा था और जब गीता भी चली गई थी तब तो मैं बिलकुल ही हताश हो गया था। खुद में विश्वास ही नहीं रह गया था। अकेले सनी को संभालना असंभव लग रहा था। रिश्तेदार के नाम पर मेरे दूर के एक भाई और गीता की बहन ही थे लेकिन वे भी सिर्फ रिश्तेदारी निभाने आये थे। उनसे किसी जिम्मेदारी उठाने में मदद की कोई उम्मीद नहीं थी।

    सुबह नेहा को फोन करके राहुल की तबियत का हाल पूछा, "रात में वह आराम से सोया, अब बुखार नहीं है, इस समय वह बाथरूम में है।"

    "आज डिस्चार्ज हो जायेगा?"

    "पता नहीं डॉक्टर के आने पर पता चलेगा, क्या पता एक और दिन ऑब्ज़र्वेशन में रखें।"

    "ठीक है जो भी हो मुझे बताना, अगर जरूरत हो तो मैं आऊँ?"

    "नहीं नहीं यहाँ सब ठीक है, आज शायद मेरे कलीग, पडोसी वगैरह भी आएँगे, अब सबको पता चल गया है, फिर आपके होने से …" कहते कहते वह चुप हो गयी।

    "नहीं कोई बात नहीं, वैसे मैं राहुल के सामने आना भी नहीं चाहता, फिर भी कोई जरूरत हो तो बताना।"

    "मम्मा पापा का फोन है क्या?" राहुल की आवाज़ आई वह बाथरूम से बाहर आ गया था।

    "नहीं नहीं मेरी फ्रेंड का फोन है।"

    "मम्मा आपने पापा को बताया मेरी तबियत ठीक नहीं है मैं हॉस्पिटल में हूँ।"

    "मैं बाद में बात करती हूँ" कहते हुए उसने फोन रख दिया।

    पता नहीं क्या क्या कह कर बहलाया होगा नेहा ने राहुल को, मेरा भी मन उससे बात करने का हो रहा था।

    ***