छूटी गलियाँ - 4 Kavita Verma द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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छूटी गलियाँ - 4

  • छूटी गलियाँ
  • कविता वर्मा
  • (4)

    "साब बंद करने का टाइम हो गया है" पार्क के चौकीदार की आवाज़ ने तन्द्रा भंग की। रात के सन्नाटे में खुद को पार्क में अकेला पाकर अकेलेपन और रिक्तता का एहसास और गहरा गया थके कदमों से पार्क के बाहर आया एक सिगरेट ली और धीरे धीरे घर की और चल पड़ा।

    आज मन ज्यादा ही बैचेन और उदास था। कल उसकी बातों ने मेरा अतीत याद दिलवाया था आज उस अतीत ने मुझे उस अकेलेपन का एहसास करवाया। ना जाने क्यों मन उसके क्या नाम था उसका हाँ नेहा, नेहा और उसके बेटे के बारे में सोचना चाहता था, लेकिन आँखों के आगे सनी का चेहरा घूमता जा रहा था। मैं अपने बच्चों के लिए बहुत कुछ करना चाहता था पर समय के भंवर में अपनी जिम्मेदारियों की पतवार न संभाल पाया। मुझे लगा उस बच्चे के लिए कुछ करना चाहिए उसे संभालना चाहिए कहीं वह भी सनी की तरह गलत राह पर ना चल दे। जब से आया हूँ पश्चाताप की आग में जल रहा हूँ। अपने परिवार की देखभाल ना कर पाने का यह एहसास पल पल कचोटता है हर समय यही ख्याल रहता है किस तरह गुजरे वक्त को वापस लाऊँ और जिम्मेदारी निभाने में हुई चूक को सुधार लूँ।

    रोज़ शाम होते ही पार्क की ओर चल पड़ता लेकिन उन दोनों में से कोई भी मुझे ना दिखा। मन उदास होता चला गया, ऐसा लगा जैसे कुछ खो गया हो। हालाँकि उनसे मिलकर भी क्या करूँगा सोच नहीं पा रहा था, पर नेहा को ढूँढ रहा था न जाने क्यों ? उसके बेटे के लिए कुछ करना चाहता था पर क्या समझ नहीं पा रहा था।

    सात आठ दिनों बाद पार्क जाकर उनका इंतजार करने का उत्साह और उन्हें ढूँढ पाने की मेरी उम्मीद कम हो गयी पर सांझ होते ही एक बारगी मन को समझाया बस आज एक बार और, बस आज आखिरी बार, अगर आज भी वो न मिली तो फिर कभी उसे नहीं ढूँढूगा। वैसे अगर वह मिल भी गयी तो उससे कहूँगा क्या, कि मैं आपकी बातें सुन रहा था।

    फिर? फिर क्या अगर बातें सुन लीं तो? अब क्या करना चाहता हूँ?

    मदद ! कैसी मदद?

    कैसे? कुछ भी तो नहीं सोचा, फिर?

    लेकिन मन ने कहा बस आज आखिरी बार। पहले वो मिले तो फिर सोचूँगा क्या करना है?

    पार्क में घुसते ही सामने बेंच पर नेहा को बैठे देखा। मन बल्लियों उछलने लगा, लगा जैसे खज़ाना मिल गया।

    अगर उसने बात ना की तो? गलत समझा तो? मैं उससे कहूँगा क्या?

    सोचते हुए पार्क का एक चक्कर लगाया। ज्यादा दूर भी जाते न बना डर था कहीं वह फिर चली गयी तो? थोड़ी देर इंतज़ार किया कहीं उसकी सहेली तो नहीं आने वाली? मन ही मन बात करने की रूप रेखा तैयार की और अंततः हिम्मत जुटा कर बेंच के करीब पहुँचा।

    "क्या मैं यहाँ बैठ सकता हूँ?"

    "जी" संक्षिप्त सा उत्तर देकर वह एक ओर सरक गयी।

    "आप यहाँ अक्सर नहीं आती हैं?" सवाल थोडा अटपटा था यही पूछ पाया।

    "जी बहुत कम," उसके जवाब में निर्लिप्तता थी। अब तक वह मुझे पहचान नहीं पाई थी।

    कुछ देर खामोश रह कर एक बारगी विचार किया, महसूस हुआ वो ज्यादा देर रुकेगी नहीं, जो कहना है जल्दी कहना होगा या फिर कभी नहीं। अब उस शाम अँधेरे में उनकी बातें सुनने वाले व्यक्ति के रूप में अपनी पहचान भी उजागर करनी थी और नहीं जानता था वह किस तरह प्रतिक्रिया देंगी। उस रात अँधेरे में डरी हुई आँखें अगर आज उजाले में नफरत प्रकट करतीं तो अचरज की बात ना होती पर बात तो करनी ही थी।

    मैंने गला खंखार कर साफ़ किया और कहा "मेरा नाम दीपक सहाय है मैं एक मल्टी नेशनल कंपनी में सीनियर मैनेज़र रह चुका हूँ, किन्ही कारणों से अभी मैंने नौकरी छोड़ दी है।"

    उसने प्रश्न वाचक निगाहों से मेरी ओर देखा, मेरा परिचय देने का कारण उसे समझ ना आया।

    मैंने फिर कहा "आठ दस दिन पहले आप अपनी सहेली के साथ शाम के समय यहाँ आयीं थीं, माफ़ कीजिये पर उस दिन मैंने आपकी बातें सुन ली थीं।"

    वह खामोश रही पर उसके चेहरे पर कई भाव आते जाते रहे।

    "देखिये मुझे गलत मत समझिएगा पर मैं उस दिन से आपकी समस्या के बारे में सोच रहा हूँ और मुझे लगता है कि मैं आपकी कुछ मदद कर सकता हूँ।" कह कर ये जानने के लिए कि उसकी क्या प्रतिक्रिया है मैंने विराम लिया।

    उसे मेरी बातों पर विश्वास हुआ या नहीं लेकिन उसने थोड़ी सी उत्सुकता दिखाई "कैसे?"

    मैं कुछ कहता उससे पहले ही वो बोल पड़ी "पर क्यों, आप मेरी मदद क्यों करना चाहते हैं?"

    ठीक ही तो है जिंदगी से इतना बड़ा धोखा खाने के बाद सहज ही किसी पर विश्वास करना मुश्किल है।

    मैंने संक्षेप में उसे अपनी जीवन कथा सुना दी जिसका सार ये था कि अपने बच्चों के प्रति जिम्मेदारियों का निर्वाह न कर पाया अब प्रायश्चित करना चाहता हूँ। अगर आपकी मदद कर पाया, आपके बेटे की किशोरवय को थोडा सा संबल देकर उसे विद्रोही बनने से बचा पाया तो मन को थोड़ी शांति मिलेगी।

    "आप करना क्या चाहते हैं?"

    मैंने संक्षेप में उसे अपनी योज़ना के बारे में बताया। वह ख़ामोशी से सुनती रही। अपनी बात ख़त्म करके मैं चुप हो गया और उसके जवाब की प्रतीक्षा करने लगा।

    काफी देर खामोश रहने के बाद उसने कहा "मैं नहीं जानती आपकी योज़ना कितनी कारगर होगी पर ऐसा भी लगता है कि अभी सामने जो समस्या है उसका कुछ समाधान तो है, परन्तु डरती हूँ एक समस्या के समाधान के परिणाम स्वरुप दूसरी समस्या न उत्पन्न हो जाये।"

    फिर कुछ देर ठहर कर बोली "पता नहीं मैं क्यों आप पर भरोसा कर रही हूँ पर फिर भी मुझे सोचने के लिए थोडा समय चाहिए।"

    "जी जरूर आप इत्मीनान से इस पर विचार करिए अंतिम फैसला आपका ही होगा।" कहते हुए मैंने जेब से अपना कार्ड निकाल कर उसे दिया, अगर आपको उचित लगे तो इस नंबर पर मुझसे बात कीजिये।

    उसने घडी देखी "ओह्ह बहुत देर हो गयी है अब मुझे चलना चाहिए।" कार्ड पर्स में रख कर वह खड़ी हो गयी।

    "जी नमस्ते" और वह तेज़ कदमों से पार्क के बाहर चली गयी।

    मैं वहीँ बैठा रहा मन में असीम शांति थी अपनी बात कह पाने का सुकून था। उसका उत्तर हाँ होगा या ना ये भी नहीं जानता था पर मन को हाँ की ही उम्मीद थी।

    फोन कि घंटी बजी तो लगा नेहा का ही फोन है। "हैलो मिस्टर सहाय मैं कपूर बोल रहा हूँ, कल कोर्ट में सुनवाई है आपसे कुछ पॉइंट डिसकस करने हैं आप आज मिल सकते हैं? जी शाम को सात बजे ठीक है।"

    फोन रख कर मैं निढ़ाल सोफे पर पसर गया। सनी मेरा बेटा, मेरी आँखें भर आयीं।

    उम्र बढ़ने के साथ साथ सनी की निरंकुशता बढ़ने लगी। हाथ में पैसा और बिना किसी रोक टोक के वह गलत संगत में पड़ गया। रात देर तक पार्टी शीशा पीना, डिस्को, पब, लड़कियों का हीरो, इस चकाचौंध में पढ़ाई लिखाई बर्बाद हो गयी। कई बार उसकी बदतमीजियों और अनुशासन हीनता के लिए गीता को स्कूल बुलवाया गया। गीता के समझाने का, उसके आँसुओं का उस पर कोई असर नहीं पड़ा। आखिर बारहवीं में उसे स्कूल आने से मना कर दिया गया, बड़ी मुश्किल से सिर्फ परीक्षा देने की अनुमति मिली। वह उसके जीवन का पहला झटका था। उस दिन गीता फोन पर फूट फूट कर रोई थी। वह उसके सामने भी रोई और गिड़गिड़ाई तब उसने बारहवीं पास करने का आश्वासन दिया परंतु अपनी आदतों को बदलना और खुद पर नियंत्रण रखना उसके लिए आसान ना था। जैसे तैसे उसने परीक्षा दी और तृतीय श्रेणी से पास हो गया पर अब आगे भविष्य अंधकारमय था। किसी अच्छे कॉलेज में एडमिशन मिलना नामुमकिन था, भविष्य की कोई योजना नहीं थी। वह लक्ष्यविहीन, दोस्तों की झूठी तारीफों से खुद को बहलाता रहा, भटकता रहा और एक दिन बेख्याली में उसने एक व्यक्ति को बाइक से जोरदार टक्कर मारी, वह व्यक्ति फुटपाथ से टकराया और मर गया। हक्का बक्का वह उठ भी नहीं पाया और फिर उसने खुद को हवालात में पाया।

    बदहवास गीता ने मुझे फोन किया मैं मीटिंग में व्यस्त था इसलिए फोन नहीं उठा पाया, बार बार फोन आने पर झुंझला गया और फोन उठाते ही गीता पर चिल्ला पड़ा। मेरे इस तरह चिल्लाने झल्लाने से गीता का रहा सहा हौसला भी टूट गया रोते हुए उसने जो बताया उसे सुन मेरे पैर के नीचे से जमीन खिसक गई। दूसरे दिन हमारा एक प्रोडक्ट मार्किट में आने वाला था इसलिए तुरंत वापस नहीं आ सकता था। वहीँ से अपने कुछ मित्रों को फोन करके गीता की मदद करने और वकील का इंतज़ाम करने का आग्रह किया। पंद्रह दिनों बाद जब मैं वापस आया गीता लस्त हो चुकी थी, ऐसा लगा इन पंद्रह दिनों में उसने उम्र के पंद्रह वर्ष पार कर लिए हों। सनी घर पर ही था पर मुझसे आँख नहीं मिला पाया, आँख तो मैं भी नहीं मिला पाया उससे। उसकी इस हालत के लिए मैं ही जिम्मेदार था, मैंने ही उम्र के उस दौर में जब उसे मेरी सबसे ज्यादा जरूरत थी कल्पना लोक में अकेला छोड़ दिया था उसके पंखों को मजबूत किये बिना।

    अब वह भी इस बात को समझ रहा था उसके मन में मेरे प्रति एक वितृष्णा थी, जो उसकी आँखों में भी उतर जाती थी। मैं भी उसके सामने बहुत असहज महसूस करता था। आठ दिन मैं घर पर रहा पर हमारी बात नहीं हुई। चाह कर भी मैं उससे उसके भविष्य के, आगे की पढाई और प्लानिंग के बारे में कोई बात नहीं कर पाया। उसके दोस्तों ने उससे किनारा कर लिया था। वह अपने कमरे में अकेले बैठा रहता, गीता तो बौरा सी गई, बेटे की हालत उससे देखी न जाती।

    मैं कितने दिन रुक पाता वैसे भी ये अचानक ली गईं छुट्टियाँ थीं, मेरा रुकना मुश्किल था। इस बीच मैंने सनी को आगे कोई कोर्स करने की सलाह दी, वह चुपचाप सुनता रहा।

    सोना भी चुप चुप ही रही। घर का माहौल बहुत बोझिल हो गया। मैं पाँच साल पहले छोड़े गए अपने खुशहाल परिवार की याद करके यहाँ वहाँ होकर अपने आँसू पोंछ लेता। गीता की आँखें तो हमेशा भरी होतीं और उसमे एक प्रश्न डबडबाता रहता आखिर क्या मिला ?

    ***