छूटी गलियाँ
कविता वर्मा
(9)
"राहुल को एक और दिन हॉस्पिटल में रहना था। नेहा ने फोन पर बताया वह लगातार पापा को याद कर रहा है, बार बार पूछ रहा है पापा का फोन क्यों नहीं आ रहा, बड़ी मुश्किल से उसे बहला रही हूँ। हम लोग कल सुबह दस बजे घर जायेंगे।"
"जाओगे कैसे?"
"वह मेरे किरायेदार गाड़ी ले कर आ जाएंगे।"
"तब ठीक है जैसे ही पहुँचो मुझे मिस कॉल देना मैं फोन करुँगा, राहुल से बात किये बिना मुझसे भी रहते नहीं बन रहा।"
"जी ठीक है," नेहा की धीमी सी हंसी सुनाई दी।
"अरे हाँ आपने क्या कहा उससे, पापा का फोन न आने के लिए ?"
"मैंने कहा कि मेरी बात ही नहीं हो पाई और पापा को मेरा मोबाइल नंबर नहीं पता है और मुझे भी उनका नंबर याद नहीं है।"
मैं हंस दिया, "ठीक है मैं बात करूँगा।"
फोन पर बात करते हुए राहुल के पास शिकायतों का पुलिंदा था, "पापा देखिये न मम्मी ने जानबूझ कर आपको फोन नहीं किया, मैंने आपको कितना याद किया। पापा आप यहाँ होते तो मैं बीमार ही नहीं होता आप मुझे पहले ही ठीक कर देते, है न पापा?"
उससे बातें करते हुए मैं एक सुकून महसूस करता हूँ, मन बहुत हल्का हो जाता है। मैंने उसे ठीक से आराम करने और मम्मी की बातें मानने की नसीहत देकर फोन रख दिया।
कितना विश्वास करते है बच्चे अपने पापा पर। 'पापा होते तो मुझे बीमार ही नहीं पड़ने देते' राहुल की बात मन में गूंजती रही।
सनी और सोना भी तो मुझ पर ऐसा ही भरोसा करते थे, सोचते थे मैं उनकी जिंदगी सुखों से भर दूँगा, पर मैंने क्या किया? उनकी जिंदगी सिर्फ भौतिक चीज़ों से भर दी असल सुख तो भावनाओं में होता है, साथ देने में होता है। कहाँ मैं अपनी भावनाएँ उन तक पहुँचा पाया, न ही उनके लड़खड़ाते कदमों को संभालने के लिये उनके साथ रह पाया। अगर मैं यहाँ होता तो अपने बच्चों को वह सब देता जो उन्हें अपने पिता से मिलना चाहिए था।
ज्यों ज्यों अलग अलग स्थिति में मैं राहुल से बात करता अपनी जिम्मेदारियों को न निभाने का बोध गहराता जाता। अब मैं समझने लगा था कि बच्चे के लिए हर कदम पर माता पिता का साथ कितना जरूरी है?
राहुल
मैं दो दिन हॉस्पिटल में था लेकिन पापा का फोन नहीं आया, पता नहीं मम्मी ने उन्हें बताया भी या नहीं कि मैं बीमार हूँ, हॉस्पिटल में हूँ। अगर पापा यहाँ होते तो शायद मुझे एडमिट ही ना करना पड़ता वो घर पर ही मेरा इलाज़ कर देते, आखिर को वो इतने बड़े डॉक्टर जो हैं। लेकिन पापा यहाँ क्यों नहीं रहते? इंडिया में भी तो इतने बड़े बड़े हॉस्पिटल हैं क्या पापा वहाँ जॉब नहीं कर सकते? कई बार मेरा मन होता है पापा से कहूँ वापस आ जाएँ लेकिन डर लगता है। क्या पता उन्हें यहाँ आना पसंद ना हो, क्या पता वो इस बात पर नाराज़ हो जाएँ फिर यहाँ फोन करना ही बंद कर दें। वैसे भी मम्मी तो कभी उन्हें फोन लगाती नहीं है, जब भी कहो हमेशा बहाना बना देती हैं।
पापा हमें भी तो वहाँ नहीं बुलाते हमेशा के लिए नहीं तो कुछ दिनों के लिए तो बुला ही सकते है। पता नहीं मुझे ऐसा क्यों लगता है जैसे मम्मी पापा के बीच में बहुत दूरी है। वे दूसरे मम्मी पापा जैसे नहीं हैं। ना मम्मी उनसे ज्यादा बात करती हैं न ही पापा कभी उनसे बात करवाने का कहते हैं। अगर मैं कभी मम्मी को फोन देता हूँ तो वे हाँ हूँ कह कर फोन रख देती हैं, इस बात से मुझे और ज्यादा डर लगता है। क्या मम्मी पापा अलग हो गए हैं? क्या उनका तलाक हो गया है? पापा इतने सालों से फोन क्यों नहीं करते थे? क्या उन्हें हमारी बिलकुल फिक्र नहीं है?
अभी मैं हॉस्पिटल में था तो मम्मी ने सब संभाल लिया लेकिन अगर कभी मम्मी को कुछ हो गया तो, मैं अकेला क्या करूँगा, कैसे सब संभालूँगा? पापा इतनी दूर हैं उनका तो फोन नंबर पता कुछ भी नहीं है मेरे पास। इस शहर में हमारे कोई रिश्तेदार भी नहीं हैं, मामा भी इतनी दूर रहते हैं। ये सोच सोच कर मुझे बहुत डर लगता है। मम्मी से कहता हूँ तो वो बात बदल देती हैं पापा से कहना चाहता हूँ लेकिन कह नहीं पाता। क्या सभी बच्चे पापा से मन की बात नहीं कह पाते होंगे? मेरे दोस्त अमेय और विनय तो अपने पापा के बहुत करीब हैं अपनी सारी बातें उनसे शेयर करते हैं। अगर मेरे पापा यहाँ रहते तो मैं भी पापा से सारी बातें कहता हम दोनों बहुत अच्छे दोस्त होते।
जब मैं हॉस्पिटल में था तब मुझे ऐसा लगा था जैसे पापा भी वहीं हैं मेरे पास मेरा ध्यान रख रहे हैं। मुझे ऐसा क्यों लग रहा था?क्या पापा को पता चल गया था कि मैं बीमार हूँ, लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है?
रिहैबिलिटेशन सेंटर से काउंसलर का फोन आया "मिस्टर सहाय उस दिन आप आये थे न, हाँ जिस दिन आपने स्पेशल परमिशन ली थी सनी से मिलने की? क्या बात हुई थी आपकी सनी से?"
"क्यों क्या हुआ? बात तो कोई खास नहीं हुई," मैं थोड़ा घबरा गया।
"नहीं नहीं कोई खास बात नहीं है पर हाँ खास है भी। वो रुबिक क्यूब आप दे गए थे उसे?"
"जी हाँ वह उसके बचपन में मैंने उसे दिलाया था, उसके बर्थ डे पर।"
"बहुत अच्छा हुआ जो आपने उसे वह दिया, अब जब भी वह बैचेन होता है उसे ज़माने में लग जाता है। वह काफी शांत और खुश रहने लगा है। हमें उम्मीद है वह जल्दी ही ठीक हो जायेगा आप चाहें तो उससे फिर मिल सकते हैं।"
"कब, कब आऊँ उससे मिलने?" ख़ुशी के अतिरेक मेरी टाँगे काँपने लगीं।
"कल आ जाइये, ग्यारह बजे।"
मैं गीता की तस्वीर के सामने खड़ा हो गया "गीता देखा, देखा मेरा सनी, कितना तरसाया है मैंने उसे अपने प्यार के लिये, क्यों नहीं मैंने उससे पहले ही कहा कि मैं उसे प्यार करता हूँ, मैं वाकई उसे बहुत प्यार करता हूँ तुम तो जानती हो ना ? काश मैं पहले उससे कह पाता तो आज हम सब साथ होते। मैं तो कभी तुम से भी नहीं कह पाया कि कितना प्यार करता हूँ तुमसे। मुझे माफ़ कर दो गीता, मुझे माफ़ कर दो सोना बेटा," मैं फफक फफक कर रो पड़ा।
मैं खुश था कि सनी ठीक हो रहा है, मैं खुश था वो जान गया है कि मैं उससे प्यार करता हूँ, फिर भी मेरे आँसू थम नहीं रहे थे। मैंने अपने आप को रोका भी नहीं खूब रो चुकने के बाद मन हल्का हुआ।
दूसरे दिन मैं ग्यारह बजे से पहले ही सेंटर पहुँच गया, सनी मुझे देख कर हैरान रह गया। "पापा आप आज यहाँ?"
"हाँ बस तुमसे मिलने का बहुत मन हो रहा था, कैसे हो?"
"मैं ठीक हूँ पापा आप कैसे हो?"
मैं उसकी ओर देखता रह गया मेरा बेटा मेरी चिंता करता है। "मैं ठीक हूँ डॉक्टर ने तुम्हारी प्रोग्रेस के बारे में बताया।" कुछ देर खामोश रहने के बाद मैंने कहा "बेटा जल्दी ठीक हो जाओ।"
"जी पापा मैं पूरी कोशिश कर रहा हूँ।"
काफी देर मैं उसका हाथ पकडे बैठा रहा, हमारी ख़ामोशी ही हम दोनों के दिलों की आवाज़ थी, जाने से पहले मैंने उसे गले से लगाया आज मैं उसकी हथेलियों का दबाव अपनी पीठ पर महसूस कर रहा था। उस स्पर्श की ऊष्मा ने संबंधों पर जमी रही सही बर्फ को भी पिघला दिया।
दिन इसी तरह बीतते रहे सनी से मिलना राहुल से फोन पर बातें। बीचबीच में नेहा से बात और मुलाकात होती रहती, वह बताती रहती राहुल के अपने पापा को लेकर सवाल बढ़ते जा रहे हैं। अब तो वह मेरे और अपने पापा को लेकर भी सवाल पूछने लगा है पता नहीं क्यों उसे लगता है कि उसके पापा कभी उससे मिलने नहीं आयेंगे।
मैं जब भी उससे बात करता वह जरूर पूछता "पापा आप इंडिया कब आऐंगे?" मैं हर बार समय न होने का बहाना बनाता, उससे बात करके ही फोन बंद कर देता कभी नेहा से बात नहीं करता था शायद इसलिए उसे शक़ होने लगा कि उसके मम्मी पापा के बीच सब कुछ सामान्य नहीं है। वैसे भी इतने सालों तक उसके पापा का फोन नहीं आना फिर सिर्फ राहुल से बात करके फोन बंद कर देना इस शक़ को पैदा करने के लिये काफी था।
हमने इस बारे में क्यों नहीं सोचा हमसे बहुत बड़ी चूक हो गई थी। बहुत सोचने के बाद भी इसका कोई हल नज़र नहीं आ रहा था। अब अगर मैं नेहा से बात करना शुरू भी करता या वो ही झूठमूठ मुझसे यानि राहुल के पापा से बात करती भी तो अब वह सामान्य नहीं लगता। जो बात बीते कुछ सालों में फिर कुछ महीनों में नहीं हुई वह उसके सवालों के उपजने के बाद अचानक शुरू हो तो अजीब ही लगेगा। राहुल की पापा से मिलने की उत्सुकता को तो रोका नहीं जा सकता था।
मैंने नेहा से पूछा "आपने कभी विजय से बात नहीं की?" मैं खुद आश्चर्य चकित था कि पहली बार और सिर्फ एक बार सुना नाम मुझे कैसे याद रहा। ऐसा लगा मानों दिमाग पर गहरे अंकित हो गई थी वह पहली बात जिसे मैंने अनायास सुन लिया था।
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