छूटी गलियाँ
कविता वर्मा
(20)
क्या सही और क्या गलत फैसला आसान नहीं था। जिसे मैं सही कह रही थी शायद बिलकुल गलत था। विजय हमें यूँ अकेले छोड़ कर अपनी अलग दुनिया बसा ले और मैं कुछ ना कहूँ शायद ये गलत था। लेकिन उन्हें प्यार किया था, उनके व्यवहार की कायल थी मैं। उन अंतरंग क्षणों में जब कुछ पल के लिये ही सही वो मेरे थे सिर्फ मेरे और उनके प्यार से सराबोर उनके अंश को धारण करने के बाद उनकी वो चिंता देखभाल राहुल को गोद में लेकर प्यार से दमकती उनकी आँखें मुझे विश्वास करने पर मजबूर कर देती हैं कि उन्होंने भी मुझे दिल से चाहा था बस उस चाहत की उम्र कम थी।
शायद ये सही ही था सिर्फ साथ की आस में दामन थामे रखने से उनका प्यार थोड़ी पाया जा सकता था फिर उनके साथ साथ मैं और राहुल भी दुखी रहते। इस तरह तो उन्हें चले जाने देना ही सही था।
उनका चले जाना गलत था पर उन्हें न रोकना गलत नहीं था।
सही गलत की उलझन से निकलना आसान नहीं था। राहुल भी तो इसी उलझन में था लेकिन वह एक एक प्रश्न का सिरा पकड़ कर उसे सुलझाने के प्रयास में लगा था।
"मम्मी आपकी पापा से कब से बात नहीं हुई?"
"करीब चार साल हो गये, तुम्हारी दादी जब नहीं रहीं थीं तब वो आये थे, तभी उन्होंने मुझसे ये सब कहा था उसके बाद से उन्होंने कभी बात नहीं की।"
"आपने कभी उन्हें फोन लगाया, उनसे बात करने के लिए?"
"हाँ जब तुम बीमार थे हॉस्पिटल में थे तब मैंने उन्हें फोन लगाया था लेकिन उन्होंने फोन काट दिया।" अब मैं राहुल से कुछ भी छुपाना नहीं चाहती थी। उसके मन में पिता के लिए नफरत पैदा हो सकती है ये ख्याल भी अब मुझे नहीं था। मैं चाहती थी जितने जल्दी उसे सच पता चले उतना ही अच्छा है, सच छुपाते छुपाते थक गई थी मैं।
"अच्छा मम्मी अगर पापा आपके पास वापस लौटना चाहें तो आप उन्हें आने दोगी ?"
इस प्रश्न पर मैं अवाक रह गई मेरी आँखें छलछला आईं लेकिन राहुल के मन की इस आशा को कुचलने का साहस ना हुआ। बस चुपचाप उसके सिर पर हाथ फेरती रही। उसने भी दोबारा कुछ नहीं पूछा।
क्या वापस लौटना आसान था क्या ये सही था ? जिस वापसी की आस को मैं छोड़ चुकी थी उसे दुबारा जिन्दा करना भी नहीं चाहती थी। इस बात को सोचते ही एक आक्रोश उठा मन में। क्यों वापस आने दूँ मैं विजय को। वो चाहें तो छोड़ कर चले जाये वो चाहें तो वापस आ जाये। नहीं ऐसा नहीं हो सकता। अब हमने विजय के बिना जीना सीख लिया है। अब उनके लिये हमारी जिंदगी में कोई स्थान नहीं है।
दोपहर से शाम हो चली थी हम पिछले तीन घंटों से इस सदमे से उबरने की कोशिश में लगे थे। अँधेरा घिरने लगा मैंने राहुल से कहा, "बेटा उठो शाम हो गई है लाइट जलाओ।"
उस शाम राहुल गुमसुम ही रहा ना टी वी देखा ना खेलने गया। हम उदासी में डूबे थे लेकिन सच कह देने से मेरा मन हल्का था। मिस्टर सहाय को फोन करके बताना था लेकिन अभी किसी से बात करने का मन ही नहीं था।
मैं तेज़ी से कमरे में चहल कदमी कर रहा था बार बार फोन उठा कर देखता मोबाईल चेक करता नेहा के फोन का बेसब्री से इंतज़ार था। क्या उसने राहुल को सब बता दिया? राहुल की क्या प्रतिक्रिया रही? सब जानने की उत्सुकता चरम पर थी। सनी कहीं बाहर से आया था मुझे बैचेनी से टहलते देख एक बार जलती आँखों से मुझे देखा और कमरे में चला गया।
"सनी सनी" मैंने पुकारा लेकिन कोई जवाब नहीं मिला। क्या हो गया है इसे पिछले कुछ दिनों से ये मुझसे बात क्यों नहीं कर रहा है? मुझे याद आया उसके आखिरी पेपर वाले दिन से। क्या मैंने ऐसा कुछ कह दिया जिसने उसे आहत किया, लेकिन बहुत याद करने पर भी ऐसी कोई बात मुझे याद नहीं आई। फिर क्या था जो उसे अवसाद में ले जा रहा था। ये स्थिति उसके लिये खतरनाक हो सकती है, उसे फिर नशे की ओर धकेल सकती है। ये बात ध्यान में आते ही मैं हिल गया, नहीं नहीं मैं सनी को फिर उस अँधेरी दुनिया में गुम होने नहीं दे सकता। मुझे उसका हाथ थामे रहना होगा, उसे समझ कर उसकी उलझनों को सुलझाना होगा। छह साल पुरानी गलती का अंजाम देख लेने के बाद उसे फिर से दोहराना नहीं है। सनी किसी बात से बेहद परेशान है मुझे उसकी परेशानी बाँटनी होगी। नेहा का फोन भी नहीं आया पता नहीं वहाँ क्या हुआ होगा? क्या करूँ पहले वहाँ फोन करूँ या सनी से बात करूँ?
तभी सनी अपने कमरे से बाहर आया और अपना टिफिन उठा कर वापस जाने लगा। "सनी यहीं बैठो मुझे तुमसे कुछ बात करनी है।" मेरे स्वर में आदेशात्मक कठोरता थी। उसने एक बार मुझे देखा, वह मेरी उपेक्षा कर टिफिन लेकर अपने कमरे की ओर बढ़ने लगा। बहुत काबू करने पर भी मेरे स्वर से चिंगारियाँ फूट पड़ीं मैं जोर से चिल्लाया सनी।
पता नहीं उसके मन में कैसा गुबार भरा था लेकिन मेरा गुस्सा समझ कर वह वहीँ बैठ गया। हम दोनों चुपचाप खाते रहे, मैं सोचता रहा बात कैसे शुरू करूँ लेकिन वह निश्चिंत था शायद जानता था कि हमारे बीच कोई बात नहीं होगी या मेरे प्रश्नों की बौछार का इंतज़ार कर रहा था। जो भी हो पर वह बस खा रहा था बिना मेरी ओर देखे, बिना मेरी उपस्थिति की परवाह किये। उसकी ये उपेक्षा मुझे कमजोर कर रही थी, मुझे उसके साथ संबंधों में साल भर पीछे धकेल रही थी। खाना ख़त्म हुआ ही था कि मेरा मोबाइल बज उठा, नेहा मैंने लगभग झपटते हुए टी वी पर रखा फोन उठाया।
"हैलो नेहा, हाँ बोलो क्या हुआ, तुम्हारी बात हुई राहुल से? क्या बताया उसे? कैसा है वह? सब ठीक तो है न?
"हाँ मैंने राहुल से बात की उसे सब कुछ बता दिया, सब ठीक है। मैं आपसे कल बात करूँगी।" फोन कट गया।
नेहा ने राहुल को सब कुछ बता दिया, सब कुछ याने विजय के बारे में मेरे बारे में। राहुल ने क्या कहा कैसे लिया इस सब को? मेरे मन में विचारों का द्वन्द शुरू हो गया। क्या सब जानने के बाद राहुल अब मुझसे बात करेगा? अगर नहीं की तो क्या मैं उससे बात किये बिना रह पाऊँगा? इस विचार ने मुझे हिला दिया, नहीं मैं राहुल के बिना नहीं रह सकता, मैं बड़बड़ाने लगा। तभी मेरे पीछे दरवाजा धड़ाक से बंद हुआ मैं पलटा सनी अपने कमरे में जा चुका था। दरवाजे के जोर से भड़कने से मेरा गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया। फोन बंद करते ही मैं चिल्लाया "सनी।" उसकी बढती बदतमीजी से मेरा धैर्य टूटता जा रहा था। मैं तेज़ी से उसके दरवाजे तक पहुँचा और जोर जोर से दरवाजा पीटने लगा। "सनी सनी दरवाजा खोलो यह क्या बेहूदगी है? मैं देख रहा हूँ आजकल तुम अपनी तमीज भूलते जा रहे हो। क्या प्रॉब्लम है? बाहर आओ बात करो मुझसे" कह कर मैंने दरवाजा जोर से भड़भड़ा दिया।
"मुझे आपसे कोई बात नहीं करना आप चले जाइये प्लीज" बंद दरवाजे के पीछे से जलती हुई आवाज़ आई।
तभी पिछले दो मिनिट मेरे सामने से रील की तरह गुजरे, फोन की घंटी बजना, मेरा झपटना, नेहा, राहुल, सनी। ओह्ह सनी ने सब सुन लिया। दिमाग ने पीछे रोल करना शुरू किया, मेरा फोन पर राहुल से बात करना, सनी का तना हुआ चेहरा, जोर से दरवाजा बंद करना, पार्क में राहुल से पहली बार मिलना, गेट पर सनी ....ओह्ह इसका मतलब सनी नेहा और राहुल को लेकर परेशान है। कहीं वह नेहा और मेरे बारे में तो.... नहीं नहीं, मुझे उससे बात करनी होगी, उसे सब सच बताना होगा। अब मैं उसके और मेरे बीच कोई दूरी नहीं रखना चाहता, उसे खोना नहीं चाहता।
अगर उसने मेरी बात का विश्वास नहीं किया तो? अगर उसे मेरा नेहा और राहुल से मिलना पसंद नहीं आया तो? क्या मुझे राहुल से बात करना बंद करना होगा? क्या मैं राहुल के बिना रह पाऊँगा? हे भगवान ये सब क्या सोच रहा हूँ मैं? ऐसा लगा सिर में खून का दौरा अचानक बढ़ गया। मैंने गिलास भर पानी पिया।
"सनी दरवाजा खोलो, मुझे बहुत जरूरी बात करना है। सनी पहले बाहर आओ फिर बात करते हैं।" मैंने हौले हौले दरवाजा खटखटाना शुरू कर दिया साथ ही मुलायम स्वर में उसे पुकारता भी रहा।
उसी पल दरवाजा खुला,"आपने मेरी मम्मी को धोखा दिया है। यू हैव अनदर फैमिली।"
आवेश में उसके होंठ काँप रहे थे कहते कहते वह रो पड़ा एक छोटे बच्चे की तरह। "यू आर अ चीटर। मैंने खुद देखा है अपनी आँखों से आपको पार्क मे, फोन पर बाते करते अभी अभी उसी का फोन आया था ना ? मम्मी" वह गीता की फोटो के पास दीवार से सिर टिका कर खड़ा हो गया।
इस अप्रत्याशित आक्षेप ने मुझे सुन्न कर दिया। किसी तरह खुद को ठेल कर सोफे तक लाया। ये क्या हो गया मुझसे इतनी बड़ी चूक कैसे हो गई? राहुल के बारे में सोचने में इतना गुम हो गया कि सनी के बारे में सोचा ही नहीं। सोचा ही नहीं पहले से टूटा हुआ मेरा बच्चा मुझे राहुल और नेहा से बात करते देख ग़लतफ़हमी का शिकार हो सकता है।
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