टूटते सामाजिक रिश्ते Rajesh Kumar द्वारा मानवीय विज्ञान में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

टूटते सामाजिक रिश्ते

अगर इस सृष्टि की सबसे सुंदर रचना है तो वो है मनुष्य!
मनुष्य का विवेकी होना, तथा आत्मज्ञान की ओर बढ़ना  ये कुछ गुण मनुष्य को बाकी जीवों से अलग होना दर्शाते हैं। हम सभी एक सामाजिक प्राणी है, इसलिए समाज के रिश्ते नाते और समाज संचालन की मुख्य भूमिका की एक कड़ी होते है। जिससे मिलकर एक समाज का भौतिक निर्माण होता है। दोस्तों समाज को चलाने के लिए इन ढांचागत चीजों के अलावा भी कुछ मुख्य चीजों की आवश्यकता होती है जिनमें आपसी रिस्ते नाते, सामाजिक संबंध में आपसी भाईचारा, प्रेम, सहायता करने की प्रवृत्ति ये वो सामाजिक अनुबंध होते है जो सीधे क्रिया के रूप में प्रकट होते है और इनके परिणाम व्यक्ति को तो सुखद अनुभूति करते ही है इसका प्रभाव समाज और संबंधों पर भी दिखाई पड़ता है। लेकिन इनका उद्गम हमारा मन, चित्त होते है ये भाव के रूप में दूसरों को देखकर अथवा स्वयं प्रेरणा से प्रकट होते है।
ये गुण अगर स्वच्छ रूप से उत्तपन्न हो तो सभी के लिए समान होते है। जब आपसी प्रेम, सहयोग से श्रेष्ठ रिश्तों नातों सम्बन्धों, तथा समाज  का निर्माण होता है जो हर व्यक्ति के लिए आनन्दमय और शांति पूर्ण वातावरण बना सकता है तो ये सब जानते हुए भी मनुष्य उन सामाजिक पारिवारिक रिश्तों, सम्बन्धों से दूर क्यों होता जा रहा है?
वर्तमान में टूटते संबंधों के लिए के कारण उत्तरदायी है।
1.अपनी संस्कृति से दूर होते जाना।
2.शिक्षा का बदलता स्वरूप।
3.बढ़ती व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएँ।
4.सोशल मीडिया के प्रभाव में वास्तविक रिश्तों से दूर होते लोग।
अब बात करते है स्वयं के परिवारों में रिश्तों में बनती दूरियों की दोस्तों माता-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नी पारिवारिक पृष्ठभूमि पर ये मूल नाते होते है। आज आप को घर घर में इन जन्मजात तथा खून के रिश्तों में स्वभाविक तौर पर टूटन बनती जा रही है।
जैसा कि ऊपर कुछ कारणों को बताया गया है लेकिन यहां दायित्व बोध(मेरी जिम्मेदारी), तथा स्वअधिकार(मेरा हक) जैसे मानसिक गुण भी बराबर जिम्मेदार है। परिवार में हर एक का उत्तरदायित्व अलग अलग होता है लेकिन एक उत्तरदायित्व सबका समान होता है कि परिवार का संचालन सही, शांतिपूर्ण, आनंदमय तरीके से हो। जिसके लिए कभी कभी अपने व्यक्तिगत हक से पीछे हटना होता है जो आजकल दिखाई नही पड़ता और ये भी एक कारक है।
पहले परिवार एक साथ बैठकर चर्चा किया करते थे, कोई भी बड़े निर्णय सर्वसम्मति से हुआ करते थे जिससे किसी को कोई शंका नही  होती थी और आज ये रीत ही समाप्त होती जा रही है। केवल अपने घर में ही नही बल्कि समाज में रहने वाले हर व्यक्ति के सुख दुख में शामिल होते थे। पहले अनजान व्यक्ति जो हमारे घर पर आ जाये उसे "अतिथि देवो भवः" की परंपरा के अनुरूप देवता मानकर सत्कार करते थे और एक सामाजिक रिश्ता स्थापित करते थे लेकिन आज के परिवेश में हम देखते है तो ये सारे सामाजिक रिश्ते नाते टूटते जा रहें है।
आज हमने कैसे समाज का निर्माण कर लिया है जहां हमें जन्म देने वाले, हमारा पालन पोषण करने वाले माता-पिता को ही वृद्धाश्रमों में आश्रय लेना पड़ रहा हो। ये कैसे समाज का निर्माण कर रहे है हम मनुष्य! क्या यही है भगवान की सर्वश्रेष्ठ रचना।
जरा विचार करिए हम और हमारी सम्पूर्ण मानव जाति किस ओर जा रही है। 
                            - राजेश कुमार

आप हमें youtub पर भी follow कर सकतें है।

     https://www.youtube.com/channel/UCDiW2OWUZeUbRPkVpA5snog