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प्रेम की पराकाष्ठा

"प्रेम" एक भाव जिसकी व्याख्या की तो जाती है परंतु लेखनी अथवा वक्तव्य से प्रेम को पूर्ण परिभाषित करना असंभव है। प्रेम तो वह बह्मांड है जिसमें अनेकों भाव, अनेकों अनुभव छण समाते जा रहे है। यह तो जल की वह धारा है जिसका उद्गम तो अवगत है परंतु इसके कोई अंत नही। प्रेमी इसी अद्वितीय भाव के प्रकट होने पर जब प्रेम उनके जीवन में उतरने लगता है तब धीरे धीरे जीवन के अन्य सम्बंधों, अन्य भावों से वह दोनों परिचित होने लगते है यह तभी सम्भव है जब विशुद्ध प्रेम उनके अन्तःकरण में जाग्रत है। किसी से प्रेम होना तो आसान होता है लेकिन उस प्रेम को निभाना बहुत ही कठिन होता है। जब दो प्रेमियों का प्रेम प्रारंभ होता है तब सबसे पहले डर का भी अंकुरण होता है लेकिन जैसे जैसे प्रेम अपनी विशुद्धता की और बढ़ने लगता है तब कई प्रकार के अवगुण प्रेम के मार्ग के बाधक बनकर खड़े होते है। यदि प्रेमी निषार्थता से अपने प्रेम को आगे बढ़ते है तब भय, स्वार्थ, मोह, अहंकार, ईर्ष्या आदि अवगुण स्वतः ही प्रेम के मार्ग से दूर होने लगते है। कई बार प्रेमी आपस में रुष्ट होते है, वार्तालाप बाधित होता है, या कोई और हमारे प्रेमी से बात करे जिससे हम प्रेम करते है तो उससे ईर्ष्या होती है लेकिन विशुद्ध प्रेम में इन अवगुणों का कोई स्थान नही होता। जब हम निश्छल, ईर्ष्यारहित विशुद्ध प्रेम को प्राप्त करते है तो लगता है जीवन में पाने के लिए और कुछ शेष नही रह जाता है चुकी वही प्रेम अन्यों के लिए भी हमारे हृदय में जाग्रत हो जाता है। शत्रु पर भी प्रेमवश दया का भाव उमड़ने लगता है। हमारे मन व शरीर का कण कण रोमांचित हो उठता है। हमारे हृदय में एक अलौकिक ऊर्जा का प्रवाह प्रारम्भ हो जाता है। परन्तु इस स्थिति को प्राप्त करने से पूर्व दोनों प्रेमियों को न जाने कितने अवगुणों से मुक्ति पानी होती है, न जाने कितनी ही परीक्षाओं की कसौटी पर अपने प्रेम को तौलना पड़ता है।
प्रेम की राह में सांसारिक नियम, रीतियां भी बाधा बनती है परन्तु इन सब कसौटियों पर दोनों प्रेमियों को अपने प्रेम को तौलना होता है यदि दोनों में से कोई एक डगमगाए तो दूसरे का उत्तरदायित्व होता है कि वह अपने प्रेम के साथ साथ दूसरे को भी सँभाले। इस प्रकार की कठिनाइयों का सामना करते हुए प्रेमी आगे बढ़ते जाते है। जब दोनों प्रेमी एक दूसरे को बिन बताएं समझने लगते है। दूसरे से कुछ पाने की कोई लालसा शेष नही रह जाती तब विशुद्ध प्रेम का उदय होता है। बड़ा विचित्र होता है विशुद्ध प्रेम में, एक समय जब दोनों प्रेमी एक दूसरे में समाहित हो जाते है। भौतिक रूप में तो वो दो होते है लेकिन उनके हृदय, अंतर्मन एक हो जाते है। एक दूसरे अभाव में वह अपने को पूर्ण अनुभव नही करते लेकिन यदि किसी कारणवश एक दूसरे का त्याग करना हो तो अपने हृदय में असंख्य वेदनाओं के बाद भी एक दूसरे को खुशी खुशी विदा कर दें। आप अनुभव कर सकते है वो पल जिसके बिन तुम अधूरे हो, जो संसार में तुम्हे अति प्रिय या कहे तुम्हारा संसार वही हो और एक दिन तुमसे कहा जाए आप अपने प्रेमी की डोली को कंधा दो। तब आप अपने विशुद्ध प्रेम को स्वीकार करते हुए भी आँखे भी आप के प्रेम के वेग को रोक पाने में असमर्थ हो जाए तब वो आपके विशुद्ध प्रेम की ही शक्ति होती है। आप स्वयं असहनीय वेदनाओं को सहन कर वह करते है। आप का संसार, आप का राग आपका जीवन कहीं समय के तूफान में औझल हो जाता है और आप यह सब देखते रह जाते है। तब भी हमें हमारे विशुद्ध प्रेम ही हमे उन वेदनाओं को सहन करने का सामर्थ्य देता है। यही होती है
"प्रेम की पराकाष्ठा"

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