कभी कभी खबरों में अजीब सी महक आती है (मार्च २०१९) महेश रौतेला द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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कभी कभी खबरों में अजीब सी महक आती है (मार्च २०१९)

कभी कभी खबरों में अजीब सी महक आती है(मार्च २०१९)

१.
कभी कभी खबरों में अजीब सी महक आती है,
जैसे देश स्वतंत्र हो गया है
उसकी अब अपनी राजभाषा है
जैसे चुनावों की घोषणा हो गयी है,
जो सोचा नहीं था वैसा हो गया है
हमारे बीच कुछ व्यक्ति ईमानदार हो गये हैं,
सेना बाढ़ में लोगों की सहायता कर रही है,
सायबेरिया से कुछ पक्षियां झील पर आ चुकी हैं,
हिमालय  साफ दिख रहा है,
भारत में नयी खोज हुई थी
अंक यहीं खोजे गये थे,
शून्य और दशमलव का आविष्कार हमारे पूर्वजों ने किया था,
विज्ञान ने लम्बी छलांग लगायी है।
कई खबरें  हमें जीवन्त कर जाती हैं
जैसे हम माता-पिता बन गये
हम दादा-दादी हो गये
हमारे घरों तक सड़क बन चुकी है
विद्यालय का उच्चीकरण हो गया
औषधालय खुल चुका है
हवाई यात्रा आरंभ हो गयी है
विकास हो रहा है 
प्यार जाने अनजाने पनप रहा है,
प्रजा में अमनचैन है
नयी क्रान्ति के लिए प्रस्ताव पास हुआ है।

२.

सत्ता को चुनाव से डर लगता है
जनता बेबफा हो 
लुटिया डूबो सकती है।
सत्ता जब खिसकती है
तो लगता है
धरती हिल रही है,
हवायें तूफानी हो चली हैं,
तब अपनी भाषा की याद सताती है,
हिमालय, गंगा, शिवजी, पार्वती
सब याद आने लगते हैं।
सीमा का जवान जो कल तक अदृश्य था
साक्षात देवता लगता है।
जहाज जो कल तक पुराना लग रहा था
वह सीमा पार दौड़ कर
कबड्डी खेल आता है।
सत्ता को लगता है
संजीवनी बूटी मिल गयी है,
लेकिन इधर न कोई लक्ष्मण है,
न रोने के लिए राम हैं।
३.
मैं बह जाऊँ, मैं बह जाऊँ नदिया बन के मैं बह जाऊँ,
शुभ्र मन से,शुभ्र तन से, शुभ्र ज्ञान से मैं आ जाऊँ
पर्वत ,पर्वत चढ़ जाऊँ, क्षणभर आकाश तक हो आऊँ,
मैं चलूँ, मैं चलूँ, गति को अपनी कभी न रोकूँ,
फूल फूल से,डाल डाल से सौन्दर्य गाढ़ा मैं ले आऊँ,
साल-साल को, दिन-दिन को, चख के जाऊँ,चख के जाऊँ,
मैं उड़ जाऊँ, मैं उड़ जाऊँ हवा बन के मैं उड़ जाऊँ।
४.
कोई सच ,सच नहीं होता
जैसे राजनैतिक सच,
कोई झूठ,झूठ नहीं होता
जैसे राजनैतिक झूठ।
५.
मेरी और तुम्हारी जब दोस्ती हुई
तो कौवा काँव-काँव कर रहा था,
हमने सोचा यह शुभ मूहुर्त है।
मेरी और तुम्हारी जब शादी हुई
तब भी कौवा काँव-काँव कर रहा था,
हमने सोचा यह शुभ मूहुर्त है।
पर जब कौवा हमारे सिर पर बैठा
तो हमने सोचा यह अपशकुन है।
६.
समाचारों की,खबरों की,अफवाहों की,
सीमा पार और सीमा के इस पार
धुंध सी छायी हुई है,
सच और झूठ के बीच चुनाव हैं।
७.
शब्दों के ऊपर शब्द
शब्दों के ऊपर शब्द,
कभी महाभारत हुई
तो कभी रामायण।
८.
जो उत्तुंग शिखर खड़े हैं
वही तो मेरा प्यार है,
जो समुद्र सा उछल जाय
वही तो मेरा स्नेह है,
जो हवा सा तुम्हें छू ले
वही तो मेरी प्रीति है।

जो कांटों से बिंधता रहे
वही फूल तो संसार है,
जो जल-थल-नभ को मुड़ता रहे
वही प्यास ही चेतना है,
जो राह अपनी बना ले
वही भाव तो अमर है।
९.
जनता के ठग 
इधर भी हैं
उधर भी हैं,
जनता किंकर्तव्यविमूढ़ 
इनको भी सुन रही है
उनको भी सुन रही है।
१०.
ओ शाम कभी तो खुला करो
मन के लिए,मनुष्य के लिए,
प्यार को पास ला
कभी तो गुनगुनाओ।
धरती की पूरी परिक्रमा कर
कभी तो मिठास दे दो,
जलती हुई रोशनियों में
क्षणभर घुलमिल लो।
ओ शाम एक आलिंगन में
सम्पूर्ण प्यार लपेट दो,
पूरे दिन की बातों को
गहरा रंग दे,सुला दो।
११.
ये गहरा-गहरा क्या है गोरी,
ये प्यारा-प्यारा क्या है गोरी,
शिव-पार्वती कहाँ हैं गोरी,
मन का सच्चा कौन है गोरी?

हँस के कह दूँ मानोगी गोरी,
मुस्कुरा कर देखूं मानोगी गोरी,
रंग उड़ा दूँ नाचोगी गोरी,
गीत बना दूँ गाओगी गोरी?
१२.
मेरी कहानी अद्भुत थी
चारों ओर से पहाड़ों से घिरी थी,
हवा जो चल रही थी
वह भी कुछ गुनगुना रही थी,
जैसे प्यारा के किस्से बुदबुदा रही हो,
या संघर्ष का अध्याय खोली रही हो।
मेरे पास बहुत कुछ नहीं था,
महाभारत का अधूरा ज्ञान था
रामायण की अल्प कथा थी,
थोड़ा आकाश था
थोड़ी धरती थी,
 मुट्ठी भर सच-झूठ था।
किसी वृक्ष की छाया में बैठ
मैं बुद्ध भगवान की तरह सोचता
पर अगले ही क्षण तीक्ष्ण भूख
मुझे मथ डालती।
अनुभव लेते-लेते मैं जवान हो गया,
जीवन का अनुभव था,
जीने की तरह मरना भी एक कला है
धीरे-धीरे मैंने समझा।
प्यार के हाथों ने
जो भी गुणा-भाग किया
मेरी कहानी में जुड़ता गया,
इस बीच नदी ने कभी नहीं कहा
कि उसका सुन्दर वर्णन हो,
पहाड़ ने कभी नहीं कहा
कि उसकी ऊँचाई का बखान हो,
धरती उदार बन 
हमारे गुण- दोष देखती रही।
मेरी कहानी अद्भुत है
चारों ओर से पहाड़ों से घिरी है।
१३.

बहुत बार यादें
गरजती हैं,
बरसा की तरह  बरसती हैं,
कई बार चाँद की तरह
घटती-बढ़ती चमकदार हो जाती हैं,
यदाकदा बगल से गुजर
हल्की सी आहट दे जाती हैं।
रात के घनघोर अँधेरे में
दीपक सी जलने लगती हैं।
१४.
धीरे-धीरे बातें कमजोर हो जाती हैं
धीरे-धीरे टाँगें कमजोर हो जाती हैं,
धीरे-धीरे आँखें मद्धिम हो जाती हैं,
धीरे-धीरे हाथ समें लाठियां आ जाती हैं।
१५.
बहुत दूर से आवाज आती है
कानों में भनभनाती है,
सुनने की कोशिश में
बहुत कुछ सुनायी नहीं देता है,

कोई कह रहा है
डूबती नाव डूबती नहीं
खोता हुआ खोता नहीं
मरने वाला मरता नहीं
बुझने वाला बुझता नहीं।
१६.
ओ पहाड़ तुम जिन्दा रहना
और मैं भी जिन्दा रहूँगा,
बरफ तुममें गिरती रहे
नदियों के स्रोत अमर रहें
हवायें सारी ठंडी रहें,
ओ पहाड़ तुम कौतुहल भरते रहना,
देश के लिए खड़े हो
झंडा ऊँचा फहराते रहना
सुख-दुख की सांसों में आते रहना।
१७.
कब सुबह हुई हमें भी बताना
कब प्यार हुआ हमें भी कहना
कब राह बनी हमें भी सुनाना
कब दुनिया बदली हमें भी समझाना।
१८.
जीवन में बहुत कुछ है
पेड़ के नीचे बैठ जाओ तो तब भी,
पहाड़ पर चढ़ो तब भी
नदी में नहाओ तब भी,
प्यार से सोचो तब भी
चलते रहो तब भी,
युद्ध लड़ लो तब भी
विजय पा लो तब भी।
चौकीदार और चोर के अलावा
जीवन में बहुत मिठास है।
१९.
समुद्र में जितने पत्थर फेंके, सब डूब गये,
नल-नील वाले अलग पत्थर थे जो तैरते रहे।
२०.
तब समय कुछ और था
प्यार में प्रवाह था
उसी में  अनादि था।
सत्य में विश्वास था
झूठ का तिरस्कार था,
अन्न भी शुद्ध था
मन पूरा  अगाध था,
जहाँ पर खड़ा था
वहीं पर आराम था।

प्रकाश की लालसा
मनुष्य का ध्येय था,
संत से साधु तक
प्रकाश ही महान था।
जगा हुआ ज्ञान ही
सरल और सम्पुष्ट था,
मनुष्य का प्रयास ही
समय का प्रमाण था।
२१.
कुछ लम्बी बातें कर लें
उन पेड़ों के बारे में
जो जंगल से लुप्त हो रहे हैं,
उन पहाड़ों के बारे में
जो कट कट कर गिर रहे हैं,
उस सागर के बारे में
जो जमीन को निगल रहा है,
उन रिश्तों के बारे में
जो कर्कश हो चुके हैं,
उन राहों के बारे में
जहाँ हम साथ-साथ चले थे,
उन गांवों के विषय में
जो बचपन में आये थे,
उन शहरों के बारे में
जो विचित्र हँसी हँसते थे,
उन कटु अनुभूतियों के बारे में
जो बेरोजगारी से बिखरे थे,
उस महाभारत के बारे में
जिसके पात्र हम भी थे,
उस नदी के बारे में
जो देखते देखते मैली हो गयी थी,
उस कहानी के बारे में
जिसे हम बार बार दोहराते थे।
उस प्यार के बारे में
जो जमा, बहा,उबला और वाष्पित हो गया था।
२२.
अरे बचपन तेरे लिये तो
मैं कई जन्म रूका रहा।

कुछ खिलखिलाने का मन था
कुछ मुस्काने का दिल बना था,
कुछ बिना बात चलने का नशा था
कुछ बिना कहे समझने का शौक था।

वह खेत को सींचने की बात थी
वह जंगल का बड़ा साथ था
वह अजीब सी लिखा-पढ़ी थी
वह अद्भुत मन में उछाल था।

अरे बचपन तेरे लिये तो
मैं कई जन्म रूका रहा,
कुछ नींद तुझमें ऐसी थी
कुछ खेल न्यारे-प्यारे थे।

कुछ हँसी चुराने की अदा थी
कुछ टेड़ी-मेड़ी दौड़ थी,
कुछ शब्दों का भँवर था
कुछ प्यार के झोंके थे।
२३.
तूने जो रचा, अच्छा रचा,
जन्म के साथ साथ मृत्यु भी रची।
धरती के साथ सूरज भी रचा,
दिन के साथ रात भी रची,
तूने जो रचा, अच्छा रचा।
२४.
रचने वाले तुझमें बात कुछ और है,
थोड़ी खुशियां बांटता है, तो मुट्ठी भर खुशियां छोड़ देता है।
२५.
मृत्यु हमें कोमल बना देती है
इतनी कोमल कि 
आँखें डबडबाने लगती हैं।
रचने वाले का सुर व्यक्त हो
मन के आवरण को ढीला ढाला कर,
हमें फूल सा कोमल कर देती है।
मरने वाले का उधार सम्पूर्ण हुआ,
वाणी कोमलता से आवृत्त
ठाठस देती है।
जो रचने वाले ने रच दिया
उसे मिटाया नहीं जा सकता है,
मृत्यु के गर्भ से निकली सब बातें,
हमें कोमल बना देती हैं।
२६.
मैं तेरे ही गुण गाता हूँ भारत
पता नहीं किस ओर मुख करूँ
पर तेरे ही गुण गाता हूँ भारत।

तेरे वृक्षों पर बैठ बैठ कर,
खेत खलिहानों को देख देखकर,
वसंत शिशिर को सोच सोचकर,
राजनीति के दाँवपेंच में,
मैं तेरे ही गुण गाता हूँ भारत।

महाभारत को सुना सुनाकर,
रामायण को वाच वाचकर,
गीता को उठा उठाकर,
इधर -उधर की धुँध मिटाकर,
मैं तेरे ही गुण गाता हूँ भारत।

सत्ता की इस दौड़-धूप में,
हिमालय का सौंदर्य बोध ले,
गंगा की ओर कदम बढ़ाकर,
तीर्थ-तीर्थ से आत्मतत्व ले,
मैं तेरे ही गुण गाता हूँ भारत।
२७.
बचपन की राहें कुछ और थीं
हर मोड़ दिखता कुछ और था,
प्यार की ऊँचाइयाँ कुछ और थीं
विश्वास सरकते कुछ और थे।

विद्यालय का होना कुछ और था
विद्या की कृपा कुछ और थी,
संत की छवि कुछ और थी
कविता कंठस्थ होती कुछ और थी।

पहाड़ का मतलब कुछ और था
मन की उधारी कुछ और थी,
नदी में ठहरना कुछ और था
किसी को देखना कुछ और था।

जिन्दगी के एहसास कुछ और थे
गुनगुनाने का अर्थ कुछ और था,
मुस्कराने के कारण कुछ और थे
मिलने की वजह कुछ और थी।
२८.
नदी के अन्दर बाढ़ नहीं है
हवा में कोई तूफान नहीं है
फिर भी मेरे देश के अन्दर
बहुत बड़ा हाहाकार मचा है।

धूप में बहुत ताप नहीं है
काँटे सब विषाक्त नहीं हैं,
फिर भी मेरे देश के अन्दर
बहुत बड़ा विवाद मचा है।

स्वभाव से सब साधु नहीं हैं
ज्ञान की सर्वत्र भूमि नहीं हैं,
फिर भी मेरे देश के अन्दर
गजब की जयजयकार मची है।

जुए में शकुनि नहीं है
किसी को वनवास नहीं है,
फिर भी मेरे देश के अन्दर
बहुत बड़ा महाभारत छिड़ा है।
२९.
कुछ अच्छे थे,कुछ बुरे थे
कुछ मेरे जैसे लगते थे,
कहीं अँधेरा, कहीं उजाला
कहीं मेरे घर से दिन रहते थे।

कुछ मीठे थे,कुछ खट्टे थे
कुछ मेरे जैसे लगते थे,
कुछ साधु थे, कुछ कर्कश थे
कुछ गीतों में आते थे।

कुछ को पहिचाना, कुछ को जाना
कुछ अनजाने रह जाते थे,
जो आया था,उसको जाना
ऐसे घर में सब रहते थे।

**महेश रौतेला