फंदा Mukteshwar Prasad Singh द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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फंदा

"फंदा"
​एक ओर पति की अचानक मृत्यु के मानसिक आघात से बदहवास थी शकुन्तला। तो दूसरी ओर मृत आनन्द के घर वाले अवसाद मुक्त हो शकुन्तला पर कुलक्षिणी, डायन ना जाने क्या-क्या आरोप मढ़कर जबरन नैहर पहुँचा गये।
​अपने माँ-बाप के घर आकर पछाड़ खाकर रोती शकुन्तला बार-बार बेहोश हो जा रही थी। उसकी इस हालत को देख घर की बुजुर्ग महिलाएं और बहनें हमेशा घेरे रहती उसे। आनन्द की मौत का चैथा दिन बीत गया था। परन्तु शकुन्तला पानी की एक बूंद भी नहीं ली मुंह में। होश आने पर आनन्द, आनन्द बड़बड़ाती रहती। कम्पाउंडर अब तक जीवन रक्षा हेतु कई बोतलें ग्लुकोज वाटर चढ़ा चुका था।
​बिलखती रोती माँ की हालत देख चार वर्षीय पुत्र ’पुष्पम’ अपने माँ के मुंह पर अपना मुँह सटा रोने लगता,बोलता - उठो ना मम्मी, चलो ना पापा के पास। उन्हें बांधकर सबलोग कहाँ ले गये हैं। बताओ ना कहाँ गये। पुष्पम की मासूम बातों पर इर्द-गिर्द बैठी महिलाओं की आँखें भर जाती थीं। पर शकुन्तला दहाड़ मारकर रोने लगती। फिर बेहोश हो जाती। इसलिए माँ बेटा को अलग रखना जरुरी हो गया था। पुष्पम को बहलाने के लिए शकुन्तला की छोटी बहनें विनीता और नेहा पुचकारती हुई कहती- पापा शीघ्र आ जाएंगे। उनकी तबीयत खराब हो गयी है।इसलिए तुम्हारे दादा जी और अंकल अस्पताल ले गये हैं।यदि तुम रोते रहे तो वे कभी नहीं आएंगे। इसलिए अच्छे बच्चे कभी नहीं रोते।
पुष्पम तब चुप हो जाता। फिर पुष्पम को दूसरे कमरे में ले जाकर चाकलेट आदि देती। ​
​इधर शकुन्तला की माँ दमयन्ती भी बेसुध गुम सुम पड़ी रहती है।दमयन्ती अपने साथ घटित ऐसी ही घटना को याद कर विचलित थी।पुन: यह दूसरी घटना उसकी बेटी की ज़िन्दगी को डँस गयी।पन्द्रह वर्षों पूर्व शकुन्तला के पिता मोहन कुमार की मौत हुई थी। उस समय शकुन्तला, विनीता और नेहा की उम्र काफी कम थी। दमयन्ती देवी पर दुखों का पहाड़ टूट गया था। तीन-तीन बेटियों का बोझ आ गया और कमाने वाले पुरुष का साथ छूट गया था। इतिहास एक बार फिर इसी घर में दुहराया है।परन्तु तीनों बेटियों की परवरिश की खातिर दमयन्ती देवी ने दहलीज पार कर प्राइवेट नौकरी शुरु कर दी। मामूली तनख्वाह में घर संभालती हुई बेटियों को पढ़ाने लगी। बचपन से ’माँ’ के संघर्ष और दुःखों को अपनी आंखों से देखने और महसूस करने वाली तीनों बेटियाँ जब कुछ बड़ी हुई और समझने बुझने लगी, तब माँ की ताकत बनी।तीनों मेधावी थी। शकुन्तला ग्रेजुएट हो गयी। विनीता और नेहा मैट्रिक और इन्टर में थी। धीरे-धीरे दमयन्ती को इस बात का संतोष हुआ कि पति मोहन कुमार की मृत्यु के बाद उसने बच्चों की पढ़ाई और लालन-पालन में कोई कमी नहीं होने दी। ये बहनें अपने पाँवों पर निश्चित रुप से खड़ी हो पाएंगी।
​ एक दिन दमयन्ती की नजर में आनन्द नाम का एक लड़का आया। सुन्दर, स्मार्ट और पढ़ा लिखा। वह सरकारी नौकरी में था। शकुन्तला के लिए आनन्द एक योग्य लड़का साबित होगा । शादी की बात आगे बढ़ी और एम॰ए॰ में पढ़ाई के दौरान ही शकुन्तला की शादी हो गयी।
​पिता के प्यार से महरुम रही बेटियों के जीवन में खुशी का रंग भरने का जो बीड़ा उठाया था दमयन्ती ने, उसमें पहली सफलता शकुन्तला और आनन्द की शादी से मिली। शादी भी एक ही शहर में हुई थी। इसलिए शकुन्तला सदा पास-पास रहती थी। पुत्र की भरपाई दामाद आनन्द के रुप में हो गयी। सब कुछ खुशी खुशी चल रहा था।
​ दामाद आनन्द की मदद से कुछ वर्ष बाद विनीता की शादी भी इसी पटना शहर के रहने वाले महेश नाम के लड़के से हुई। महेश भी स्वास्थ्य विभाग में नौकरी करता था। दो दामादों के घर आने से हमेशा खुशियों का वातावरण बना रहता।
​पर यह कौन जानता था कि शकुन्तला की शादी के महज़ पाँच वर्षों के अन्दर इसी घर में लौटी ख़ुशियों पर नियती की काली दृष्टि पर जाएगी। आनन्द की सड़क हादसे में मौत ने सब कुछ उजाड़ दिया था।
​ माँ और बेटी के जीवन में घटी एक जैसी दर्घटना रिश्तेदारों और पड़ोसियों को भी हिला कर रख दिया।ऐसा कोई सपने में भी नहीं सोचा था कि विधवा माँ के सामने ही बेटी भी विधवा हो जाएगी।
​दमयन्ती दामाद आनन्द की विकृत लाश अपनी आंखों से देखी थी। इसलिए बार-बार दृश्य नजरों के आगे आ जाती। आनन्द का शरीर जीप से कुचल जाने के बाद इतना क्षत-विक्षत हो गया था कि पहचानना भी मुश्किल हो गया था। दुर्घटना आॅफिस जाने के दौरान अशोक राजपथ मुख्य मार्ग पर हुई थी। घटना की खबर लगते ही निकट संबंधी घटना स्थल पर पहुँच गये थे। शकुन्तला संयोग से कंकड़बाग स्थित अपने माँ के घर पर थी। उसकी कानों तक उसके उजड़ने की खबर देने की किसी में हिम्मत नहीं थी। कपड़ों में लिपटी आनन्द की लाश पटना मेडिकल काॅलेज हाॅस्पीटल द्वारा देर शाम तक आवश्यक पुलिस कार्रवाइयों और पोस्टमार्टम के बाद सौंप दी गयी थी। घटना की खबर लगते ही दमयन्ती पटनामेडिकल हास्पीटल पहुँच गयी थी। वहीं से अपने देवर, आदि को फोन से खबर दे दी थी। तभी से अगल-बगल के घरों में खुसर-पुसर और हलचल मची थी। इस बात को शकुन्तला भी नोट कर रही थी कि कहीं कुछ अनहोनी हुई है पर उसे कोई बता नहीं रहा था।
​माँ दमयन्ती के दफ्तर से लौटने में हो रही देरी पर शकुन्तला बार-बार फोन लगा रही थी। पर रिंग होने के बावजूद माँ से बात नहीं हो पा रही थी। वह इस बात से अनजान थी कि उसकी माँ उसके पति की लाश के साथ है।
​आखिरकार घटना की खबर छोटे जीजा महेश द्वारा तब दी गयी। ससुराल वाले शकुन्तला को सूचना दिये बिना जब शव को दाह संस्कार के लिए ले जाने की तैयारी पूरी कर ली थी। महेश के लिए पति के अन्तिम दर्शन हेतु शकुन्तला को ले जाना हिन्दु रीति के अनुसार अनिवार्य था, जबकि ससुराल वाले शकुन्तला को बुलाना नहीं चाहते थे। इसलिए सूचना नहीं दी थी।
शकुन्तला को संभालते हुए महेश पटना सीटी ले आया। परन्तु कफन में लिपटी व रस्सी संबंधी लाष देखे बिना वह बेहोष हो गयी। उसकी बेहोश हालत में ही ससुरालवाले आनन-फानन में लाश लेकर जलाने चले गये। और अगले दिन शकुन्तला को जबरन कंकड़बाग वापस भेज दिया गया।
बेदर्द सास-श्वसुर को शकुन्तला कुछ कहने की स्थिति में नही थी।
ससुरालवालों ने स्पष्ट कह दिया था, अब इस घर में अपने पति को खाने वाली डायन के लिए कोई जगह नहीं। श्राद्ध क्रिया-कर्म में भी नहीं आएगी अब।
​इस तरह आनन्द की मृत्यु पश्चात् शकुन्तला की बेहोशी और बदहवासी की ही दशा में ग्यारह दिन बीत गये।
शकुन्तला को हिम्मत देती हुई माँ दमयन्ती ने पिता की मौत याद दिलायी। बोली .मेरी तरह बनना होगा। मेरी बेटी टूट नहीं सकती। बारहवें दिन गायित्री परिवार की रीति-रिवाज से श्राद्ध कर्म सम्पन्न हुआ।
आनन्द की मौत के लगभग चार माह बीत गये। शकुन्तला दिन रात छत को एक टक निहारती रहती ।उदासी में डूबी रहती ।हँसता खेलता जीवन तार-तार हो गया था। सोच के सभी रास्ते अंधे कुएं की ओर जा रहे थे। अब पुष्पम का भविष्य उसके हाथों में बंद था। अब कण-कण बिखर चुकी शकुन्तला को पुनः खड़ा होना था। अन्यथा दो जिन्दगियाँ दाँव पर लग जाएंगी।
​ अनुकम्पा चयन समिति के पास जमा अभ्यावेदन की संचिका तैयार कर रहे क्लर्क ने दमयन्ती देवी को बताया कि आपकी पुत्री द्वारा अनुकम्पा की नौकरी के लिए आवेदन प्राप्त हो गया है। आज मैंने संचिका तैयार कर कागजातों की जांच के बाद चयन समिति के समक्ष पेश कर दिया है।
इतना सनुते ही दमयन्ती के पाँव तले की जमीन खिसक गयी। वह आफिस से निकल सीधा अपने घर आ गयी। अपने कमरे में चुपचाप बैठ गयी। आज वह काफी उद्विग्न और बिफरी हुई थी। अपने आप पर क्रोध आ रहा था। शोक संतप्त बेटी के दुख में वह भूल गयी थी कि दाह संस्कार के दूसरे दिन ही उसकी शोक से पीड़ित पुत्री को आनन्द के घरवालों ने जबरन कंकड़बाग भेज दिया था। सम्पूर्ण सच अब सामने था। शकुन्तला को हक से बेदखल करने की साजिश का अचानक पर्दाफाश होते ही वह हतप्रभ थी। ऐसा भी हो सकता है कि पांच वर्षों के दाम्पत्य जीवन जीने वाली पत्नी को, घिनौने लोग स्वार्थ की बलि चढ़ा दे।आनन्द की मृत्यु के बाद सास, ससुर, ननद, जेठ, जेठानी एक षड्यंत्र रचकर वैदिक शादी से बंधी पति-पत्नी के रिश्ते को ही समाप्त कर दिया। मायके में माँ बहन के साथ शकुन्तला रह तो रही थी पर, बेसुध बुत बनी। परन्तु वाह रे भाग्य! निर्दयी समाज ने संकीर्णता की मिशाल पेश कर दी। शकुन्तला को तब गहरा झटका लगा जब घरवालों द्वारा आनंद की पत्नी होने के सबूत मिटाकर उत्तराधिकारी होने से वंचित कर दिया गया। शकुन्तला को बेदखल करते हुए एक गैर औरत मंजू को आनन्द की विधवा बना दिया गया। अनुकम्पा पर नौकरी हेतु फर्जी कागजातों को पेश कर दिया गया। मंजू कोई और नही उसकी जेठानी थी जिसने नकली पत्नी बनकर शकुन्तला के हक को छीनने में अपनी सहमति दी थी। एक तरफ शकुन्तला विक्षिप्तावस्था में थी, तो दूसरी ओर शातिर लोग अपनी चाल चलने में संलग्न थे।
जब शकुन्तला कुछ सामान्य हुई तब दमयन्ती देवी निकट बैठकर उसके बालों में हाथ फेरते बोली - नियति का निर्धारित विधान स्वीकार करो बेटी। अधिक दिनों तक यों ही दग्ध हृदय की वेदना झेलती रहोगी तो मुँह का निवाला छिन जाएगा। तुम्हारे भाग्य में विधाता ने जो कुछ लिखा है, उसे तो भोगना ही पड़ेगा, परन्तु पुष्पम के हिस्से दुख की परछाई मत पड़ने दो। ’आनन्द’ की पत्नी के रुप में तुम्हारी जगह जेठानी मंजू को खड़ा किया गया है। तुम कब तक शोक मनाओगी बेटी। अब वक्त आ गया है समाज के खिलाफ उठ खड़ा होने,लड़ने और संघर्ष करने का। आंसुओं को पोंछ डाल और कूद पड़ो हक की लड़ाई जीतने के लिए मैदाने जंग में।
​ उदास पड़ी शकुन्तला का चेहरा अचानक सख्त हो गया। वह अपने पुत्र की परवरिश के लिए ’आनन्द’ के मृत्योपरान्त नौकरी के लिए निकल पड़ी घर से। जिला अनुकम्पा समिति के सामने रख दिये अपनी शादी के सभी साक्ष्य। मसलन अपने संग आनन्द की तस्वीरें, शादी के आमंत्रण कार्ड, शादी समारोह की तस्वीरें, पुत्र के जन्मदिन पर आनन्द की विविध तस्वीरें ,मुहल्ले के लोगों द्वारा दी गयी गवाही। जेठानी मंजू देवी द्वारा समर्पित कागजों को पूर्ण फर्जी बताते हुए शकुन्तला आपत्ति दर्ज करायी और जाँच के लिए अनुरोध किया।
​चूंकि पैसे की ताकत पर तैयार सारे साक्ष्य को असली बनाकर मंजू देवी के पक्ष में प्रस्ताव तैयार हो चुका था। इसलिए अब शकुन्तला को यह सिद्ध करने की जद्दोजहद करनी पड़ रही थी कि वह मृत आनन्द की एक मात्र विधवा पत्नी है।
​ शकुन्तला अपनी माँ दमयन्ती के संग संघर्ष कर रही थी। जबकि ससुराल पक्ष के सारे लोग शकुन्तला के खिलाफ कमर कसे थे। आखिरकार एक रोशनी दिखाई पड़ी। लोकायुक्त के समक्ष शकुन्तला अपने मासूम बेटे को साथ लेकर पहुँच गयी। उसने आवेदन देकर स्पष्ट कहा - अगर मुझे अपने स्वर्गीय पति आनन्द की विधवा होने से वंचित किया गया तो मैं अपने पुत्र के साथ आत्मदाह कर लूंगी।
​लोकायुक्त द्वारा सम्पूर्ण मामले पर तुरन्त जांच प्रतिवेदन मांगा गया। जांच में शकुन्तला एकमात्र विधवा पत्नी के रुप में प्रतिवेदित की गयी। स्वार्थी समाज के खिलाफ आखिरकार वैधव्य दुख से त्रस्त शकुन्तला को यह साबित करनी पड़ी कि वही आनन्द की पत्नी है। आत्मा चित्कार कर उठी।
​चयन समिति में शकुन्तला के लिए नये सिरे से कागजात तैयार हुए और मंजू देवी के नकली कागजातों को रद्द कर दिया गया। अब शकुन्तला के पक्ष में प्रस्ताव पेश किया गया। चूंकि आनन्द आदेशपाल पद पर कार्यरत सरकारी सेवक था, इसलिए उसकी विधवा को उसी पद पर बहाली की अनुशसा की गयी। और नियुक्ति के लिए पत्र निर्गत हुआ। शकुन्तला ने इस नियुक्ति के विरोध में एक बार फिर आवाज उठायी।अपनी शैक्षिक योग्यता का हवाला देकर क्लर्क पद पर नौकरी प्रदान करने का दावा किया। पर दावा खारिज कर दिया गया।
​शकुन्तला ने तब राज्य के सभी आला अधिकारियों को अनुनय पत्र भेज दिया। उसने योग्यता के आधार पर क्लर्क पद की माँग की। एक जान पहचान के आफिसर की सलाह पर पटना सचिवालय में पहुँच गयी। पर सचिवालय में संचिकाओं की तिलिस्मी दुनियां को देख दंग रह गयी।
​ आनन्द की मौत के बाद भले ही सूखकर कांटा बन गयी शकुन्तला, पर वह गौरवर्णा, बड़ी-बड़ी आँखों वाली, सुन्दर, सुगठित देह की मालकिन थी। इस हाल में भी उसके नैन नक़्श आकर्षक थे। कागजातों का पुलिन्दा लिये जब उसने सचिवालय के अन्दर कदम रखा था बाबुओं की नजर से बच ना सकी। जिस टेबुल के सामने खड़ी होती मख्खियों की तरह लोग उसकी चारो ओर भिनभिनाने लगते। मदद की बजाय नियमों का हवाला देकर उसके आवेदन को खारिज तो करते, पर तिरछी नजरें डाल जब उसके जिस्म की ओर देखते तो आश्वासन दे डालते कि कोई न कोई रास्ता निकालूंगा। अकेले में मिलो। आफिस के भीड़-भाड़ में नियमावली ढूंढ़ना मुशकिल है।
​ जब शकुन्तला अकेले मिल पाने में असर्मथता जताती तो बड़े बाबू, छोटे बाबू सभी एक स्वर में कह उठते, तब जिन्दगी भर चक्कर लगाते समय बीत जाएगा। नौकरी पानी है तो जैसा कहूं, वैसा करो। नियम को ढूँढकर निकालने के बदले हमारे संग रात बिताओ। पति तो रहा नही, हम सब ही सहारा हैं। पहले एक पुरुष तुम्हारे भाग्य में था, अब कई पुरुष तुम्हारा भाग्य बनाएंगे। शैक्षणिक योग्यता के आधार पर नौकरी तय नहीं होती है। नौकरी तय होती है संचिका में दी गयी हमारी टिप्पणियों से।
​शकुन्तला हतप्रभ थी। ये कौन सा दिन देखना पड़ रहा है। पग-पग पर हवस का शिकार बनाने के लिए आतुर लोगों की भूखी नजरों को महसूस कर सिहर उठी। उसे नौकरी पाना और अस्मत बचाना कठिन लगने लगा। बाबुओं की उल्टी सीधी बातें सुन जब वह सचिवालय से घर लौटती तो औंधे मुंह बिस्तर पर पड़ी घंटों रोती रहती। हाँ, जैसे-जैसे आंसू निकलते वह सख्त होकर अगले दिन की योजना बना लेती।
​मजबूर होकर एक दिन सेक्शन आॅफिसर के बुलावे पर उसके क्वार्टर पर जाना पड़ा। सेक्शनल आॅफिसर का स्पष्ट आदेश मिला था। ठीक आठ बजे आ जाओ मेरे गर्दनीबाग के सरकारी क्वार्टर में। हाँ, पर अकेली आना साथ में कोई रिश्तेदार नहीं रहे। आवास पर ही ’’सरकारी सर्कुलर’’ देखूंगा। उम्मीद है काम हो जाएगा।
​’शकुन्तला’ ने हाँ में सिर हिलाया और आवास पहुँचने का पता, क्वार्टर नम्बर, रोड नम्बर आदि नोट कर लिया।​
​रात के आठ बजे जब वह सेक्शन आॅफिसर के आवास पर पहुँची तो यह देखकर दंग रह गयी कि वहाँ तो पूरा सेक्शन ही बैठा है। आदेशपाल से लेकर छोटे बाबू, वरीय बाबू तक। सेक्शन आॅफिसर मायानाथ के कमरे में आधे दर्जन मर्दों को बैठे देखकर सम्पूर्ण शरीर में कंप-कंपी उठ गयी। शकुन्तला अपनी इज्जत दांव पर रख यहाँ तक पहुँची थी। मायानाथ उठकर अपनी बगल में बिठाया। शरीर पर हाथ फिराते हुए पुचकारना शुरु किया। पति मर चुका है। तुम अभी जवान हो। नौकरी करोगी तो हम जैसे मर्दों के बीच ही रहना पड़ेगा। अभी से यह सब सीख लोगी तो भविष्य में कभी दिक्कत नहीं आएगी। सदा सफल रहोगी। आज के बाद तुम जैसा चाहती हो वैसा ही होगा। तुम्हारी नौकरी पक्की।
​नौकरी के लिए ही तो जाल में फँस गयी शकुन्तला।जहाँ जिस्म खुरचने के लिए आधे दर्जन बाबू लोग जश्न मनाने बैठे हैं।
​छोटे बाबू ने भी समझाया। ये माँसल अंग किस काम के जिसका उपयोग ना हो। इसका उपयोग करोगी तो सब कुछ पाओगी। ढंकती फिरोगी तो कभी सफल नहीं रहोगी। वैसे भी अभी लम्बी उम्र बाकी है। लाख कोशिश करो ढंक नहीं पाओगी।मैं नहीं तो कोई और, तुम्हें अपनी बिस्तर पर सुलायेगा। इसलिए आज ही इसे अनावृत कर दो। अफसोस और ग्लानि मन में कभी मत रखो। ऐसा मत समझना कि इस राह से गुजरने वाली तुम पहली नारी हो। सैकड़ों इस राह से गुजर कर ऊँची मंजिल पर बैठी हैं।
​सेकशन आॅफिसर मायानाथ का आवास आज वासना का अड्डा बना था। घर खाली मिला, क्योंकि मायानाथ की पत्नी और बेटी गाँव गयी हुई थी। वह दो दिनों बाद आने वाली थी। इसलिए जश्न का इससे उपयुक्त स्थान कहीं और नहीं था।
​सभी के हाथों में जाम आ गये थे। आदेशपाल रोहित बारी-बारी से सबके हाथों में थमाया था। ड्राइ फ्रूट की प्लेटें सजी थीं। काजू ,बादाम, पिस्ता धीरे-धीरे चबा रहे थे। पर शकुन्तला बेहोशी की ओर बढ़ती जा रही थी।
​अचानक क्वार्टर के दरवाजे का गेट ढ़कढ़काया। मायानाथ ने उठकर गेट खोला तो सामने पत्नी और बेटी को देख सहम उठे। अब तो उनकी काली करतूत का पोल खुलने वाला था।
​उसी वक्त अन्दर कमरे से कुछ मर्दों के ठहाकों और एक औरत की चीख की आवाज आयी। मायानाथ की पत्नी शांति एवं बेटी नूतन सीधा आवाज वाले कमरे में लगभग दौड़ती हुई पहुँच गयी। वहाँ का दृश्य देखकर मां बेटी शेरनी की तरह चिंग्घाड़ उठी।
​ शकुन्तला उठकर भागी और शांति के शरीर से लिपटकर बोली - मेरी इज्जत बचाइये। नौकरी देने के नाम पर यहाँ आने के लिए इनलोगों ने मुझ विधवा को मजबूर किया है।
​माँ से अलग कर नूतन ने शकुन्तला को अपने सीने से लगाते हुए कहा- बहन, तुम अकेली नहीं हो। तुम्हें इज्जत और इंसाफ दोनों मिलेगा।
​मायानाथ की बोलती बंद थी। सचिवालय के सभी सहायक शांति देवी से हाथ जोड़कर माफी माँगने लगे। शांति चिल्लायी - आप लोगों को माफी नहीं जेल चाहिये। आप सब नौकरी के नाम पर एक विधवा को कलंकित करने का जाल बुना है। इस पाप की सजा नौकरी से बर्खास्तगी ही होगी। मैं प्राथमिकी दर्ज कराऊँगी। आप सबों ने मेरे घर को पाप का अड्डा बना लिया।
​उन बाबुओं के चेहरे की रंगत उड़ गयी। वे लोग शकुन्तला के पांव पकड़ लिये।
​अन्त में इस समझौते के बाद शांति और नूतन द्वारा माफी दी गयी कि यदि एक सप्ताह के अन्दर शकुन्तला का क्लर्क पद पर नियुक्ति पत्र नहीं मिला तो परिणाम भोगने के लिए सभी तैयार रहेंगे। मैं शांति देवी और मेरी बेटी नूतन शकुन्तला के पक्ष में गवाही देकर मामला दर्ज कराएँगे।
​सबों ने मदद देने की कसम खायी।
​अपराध बोध से ग्रस्त मायानाथ एवं उनके सहकर्मियों के प्रयास से शकुन्तला को क्लर्क पद पर नियुक्ति पत्र मिल गया।
​नियुक्ति पत्र मिलने के बाद शकुन्तला ने सचिवालय के वित्त शाखा में योगदान दिया। और प्रत्येक दिन कार्यालय आने लगी। बेटा पुष्पम की देखभाल छोटी मौसी ’नेहा’ किया करती।
​आनन्न्द की मृत्यु से नौकरी पाने तक की यात्रा में छोटी-बड़ी इतनी बाधाएं आती रही। यहाँ तक की इज्जत तार-तार होने का भी कुचक्र हुआ। पति के हक से बेदखल करने के लिए ससुराल वालों ने कुचक्र किया। शकुन्तला अब एक पत्थर दिल कठोर नारी बन गयी। पुरुषों से घोर नफरत हो गयी। बात करना पाप समझने लगी। वह मर्दों से बात ही नहीं करती। यह आदत अब मुसीबत बनने लगी। सभी पुरुष सहकर्मी भी शकुन्तला से दूरी बना चुके थे। काम नहीं कर पाने के कारण शो कॉउज पूछे जाने लगे। उसे हर मर्द में वही जानवर दिखता जिसके पंजे जिस्म नोचने वाले हों। शकुन्तला ने माँ दमयन्ती को कार्यालय की परेशानी बता सुबकने लगी।
दमयन्ती ने समझाया -"सभी मर्द क्या एक से ही होते हैं ? अपने स्वभाव और सोच में परिवर्तन लाओ बेटी।
​धीरे-धीरे एक वर्ष से अधिक का समय बीत गया। तब कहीं अपने स्वभाव में परिवर्तन ला सकी शकुन्तला। अब कार्य निबटाने के दौरान पुरुष सहकर्मियों से मदद लेने लगी। आखिर कब तलक अलग-थलग रहकर सरकारी कामों में दक्ष बन पाती। अपने वर्क के प्रति समर्पित शकुन्तला कार्यालय समय से आधे घण्टा पहले ही पहुँच जाती थी। अब उसे पुरुष के साथ बैठने, बातें करने में कोई परहेज नहीं था, पर सतर्क रहती थी।
हाल में नव पदस्थापित एक वरीय सहकर्मी की कार्यशैली और व्यवहार से वह आकर्षित हो गयी। वह दूसरे कार्यालय से स्थानान्तरित होकर आया था। अचानक दोनों के बीच दोस्ती गाढ़ी हो गयी। घर से लाये टिफिन का खाना उसके साथ बांटकर खाती। आॅफिस बंद होने पर संग-संग बाहर निकलती।
इसका गलत अर्थ निकलने लगा। कार्यालय में यह विषय एक गोसिप बन गया।
पर शकुन्तला निडर बनी थी। वरिष्ठ सहकर्मी सूरज को वह अपना सबसे अधिक विश्वासी व शुभचिंतक मानती।
​एक दिन आॅडर्ली गोविन्द ने कटाक्ष करते हुए, शकुन्तला को सुनाकर कह दिया - अब तो विधवा भी प्रेम-प्यार करती है। कैसा समय आ गया है। सूरज बाबू से शादी भी कर ले तो कोई बड़ी बात नहीं।
​शकुन्तला तुरन्त मुड़कर गोविन्द के पास पहुँच गयी और चिल्लाकर बोली - यदि तुम मुझ पर ऊँगली उठाते तो शायद मैं तुम्हें कुछ नहीं बोलती। पर तूने सूरज बाबू का नाम मेरे साथ जोड़कर उन्हें लांछित किया है, इसलिए तुम मेरे चांटे का हकदार हो। फिर कसकर गाल पर एक चाँटा मार दिया।
​नौकरी पाने से अभी तक जितने भी पुरुष मेरे सामने आये मुझे ’दलदल’ में धकेलना चाहा। परन्तु सूरज बाबू मेरे सूखे हृदय पर ऐसी छाप छोड़ी है कि मैं शिकायत नहीं सुन सकती। मेरे मन में पुरुष के प्रति जो नफरत थी, वह दूर हो गयी है। इन्होंने मुझ जैसी एक टूटती बिखरी नारी को संवारा है। इस कार्यालय में कौन ऐसा नाम है जिसने मुझे शोषण करने का उपाय नहीं किया है। सब अपने-अपने सीने पर हाथ रखकर बोले। मैं आत्महत्या करने वाली थी। पर सुरज बाबू जब से आये मुझसे अपने सगे की तरह बातें की। मैंने अपने साथ घटी हरेक घटना को विस्तार से बताया था। उन्होंने मुझे ’डिप्रेशन से बाहर निकाला, मुझे जीने की कला सिखायी। वे मेरे ’तन’ से नहीं मेरे ’मन’ से जुड़े हैं। उन्हीं की बदौलत अब मैं जी सकूंगी।

•मुक्तेश्वर प्रसाद सिंह