अक्टूबर २०१८ की कविताएं महेश रौतेला द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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अक्टूबर २०१८ की कविताएं

अक्टूबर २०१८ की कविताएं:
१.
जिन्दगी अभी बाकी है
वृक्ष बड़ रहे हैं,फूल खिल रहे हैं,
लम्हे गुजर रहे हैं
राहों पर धूप-छाँव है।

जनसंख्या दौड़ रही है
बच्चे उछल-कूद रहे हैं,
सदियां मिलजुल रही हैं
जिन्दगी अभी बाकी है।

मौसम बदल रहे हैं
क्रान्तियां आ-जा रही हैं,
अंधकार -उजाले में कुछ दिख रहा है,
आन्दोलनों में जीवन है,
झंडे उठते-गिरते हैं,
 जिन्दगी अभी बाकी है।

सत्य का रुझान है
प्यार का प्रकाश दिखता है,
इतनी मारधाड़ के बीच
अहिंसा की प्यास बहुत है,
एक शाश्वत सत्य है
जिन्दगी अभी बाकी है।
२.
हम जिन्दगी को ठगते हैं
और जिन्दगी हमें ठगती है,
इसी ठगने में ठग मिलते हैं
राजनैतिक ठग
देश को लूटने वाले ठग
राहों के ठग,विश्वासों के ठग,
धर्मों के ठग, ठग ही ठग
साथ- साथ एक ज्योति रहती है,
जो हर ठग को ठगती है।
हम जिन्दगी को ठगते हैं
और जिन्दगी हमें ठगती है।
३.
मैंने नदी से कहा
प्यार करोगी
वह चुप रही, अभी तक चुप है,
कल-कल बहती रही।
मैंने पहाड़ से कहा
प्यार करोगे,
वह गुमसुम रहा
अटल खड़ा, झांकता रहा, आकाश को।
मैंने खेत की फसल से कहा
प्यार करोगी,
वह लहलहाने लगी।
अपने-पराये त्योहारों से पूछा
आत्मीयता दिखाओगे,
वे जगमगाने लगे, टिमटिमाने लगे
हर घर पर ठहर कर नाचने लगे।
मैंने बरखा से कहा
प्यार करोगी
वह शरमाई, ताकती रही
सोच रही है "न जाने कौन सा षडयंत्र है ये,"
सोच रही है " नादान सा वाक्य है ये"
और लम्बी चुप्पी लेती देखती रही।
 राहों से कहा
प्यार करोगे, वे मूक बने रहे
और मुझे मीलों चलाते रहे,
इस तरह हर क्षण, प्यार एक प्रकाश देता रहा
अनन्त होती जीजिविषा को भगाता रहा।
४.
अब किसी की बातों में नहीं आता
जब तक रात नहीं होती,
दीपक नहीं बनता।

नदी-नालों में जो गाद है
वैसी खाद नहीं बनता,
अब किसी की खुली याद नहीं बनता।

पहाड़ों पर जैसी हवा-पानी है
उनकी तलाश नहीं करता,
अब किसी की तलाश नहीं बनता।

सपनों को खोला नहीं करता
राहों पर मुड़ा नहीं जाता,
अब किसी की नींद उड़ाया नहीं करता।

 सुबह बहुत दूर नहीं होती
देश को देखती मेरी आँखें,
आँखों में कभी रात नहीं होती।
५.
ईमानदारी हमारी और तुम्हारी एक सी है,
हम सूरज चुराना चाहते हैं,
तुम प्रकाश चुराना चाहते हो।
तुम पहाड़ चुराना चाहते हो
हम नदी चुराना चाहते हैं,
तुम पुल चुराना चाहते हो
हम सड़क चुराना चाहते हैं।

वह संसद चुराना चाहता है
हम मत चुराना चाहते हैं,
तुम राजधानी चुराना चाहते हो
हम देश चुराना चाहते हैं,
तुम विद्यालय चुराना चाहते हो
वह शिक्षा चुराना चाहता है,
ईमानदारी हमारी और तुम्हारी एक सी है।
७.
हिमालय की ओर जब भी गया
अपूर्व  शान्ति तैरती
नजदीक आ, आँखों से लड़ने लगी,
विश्वास ही नहीं हुआ कि शान्ति भी लड़ सकती है,
जैसे महाभारत युद्ध में कृष्ण भगवान शान्त दिखते हैं,
निशस्त्र युद्ध में होते हैं।
जब अक्षौहिणी सेनायें मर जाती हैं,
तब भी स्वच्छ और शान्त दिखते हैं।

एक पहाड़ सागर से निकल
बहुत ऊँचा हिमालय हो गया है,
हिम से जब ढका,
बहुत महान हो गया है।
हिमालय की ओर जब भी गया
अपूर्व  शान्ति तैरती, दुबकती
मेरे अहं को मारती गयी।

गंगा हिमालय से पवित्र होकर ही निकली,
फिर हिमालय की पहिचान सागर तक ले जा,
मनुष्य से बड़ी हो गयी।
८.
अब भी छूने में आनन्द आता है
कब छुआ था, तुम्हें पिछली बार,
जब मन का ईश्वर जाग गया था?

वह छूना पहाड़ छूने से अलग था,
तीर्थ की पवित्रता लिए था,
छूना,आकाश को छूने जैसा लगा था,
शून्य में भी बहुत कुछ होता है,
ऐसा बहुत समय तक महसूस हुआ था।

 छूना,नदी को छूने से अलग लगा था
उतना ठंडा नहीं था,
मन को हिला कर वह एक रिश्ता बना दिया था।

ईश्वर को छूना भी एक छूना है,
जो मिट्टी, राहों, खेतों,घरों को छूने के बाद होता है,
जो मन को आराम देता है।
९.
मैं उस पहाड़ से निकला हूँ
जो गगन तक उठता है,
मातृभूमि के साथ लिपट
मस्तक नहीं झुकाता है।

मन ने कितने लेख लिखे
उस पहाड़ के सीने पर,
कदमों ने अथाह ऊँचाई ली
उस पहाड़ के शिखरों पर।

जब विद्यालय में झंडा फहरा
उस पहाड़ की हवा वहाँ थी,
जब पहाड़ को लांघ रहा था
उसकी ऊर्जा खिली वहाँ थी।
१०.
हमने कितने लोगों को
उतपात मचाते देखा है,
जीते जी अपना स्वर्ग छोड़
नरक चुनते देखा है।

कितने लोगों को, मानव धर्म छोड़ते देखा है,
बहुतों का यहीं खड़े, मनुष्य परिभाषित होते देखा है,
वे मनुज नहीं पातक हैं, जो नरक का युद्ध यहीं लड़ लेते हैं,
ईश्वर के दिव्य आँखों को, आँसू से भर देते हैं।

रह जायेंगे खड़े पड़े,अश्वत्थामा से घूमेंगे,
अपनी मौत पर सोचेंगे, मन ही मन घबरायेंगे,
क्यों मनुज रूप में आये ये, जब पशुवत ही लड़ना था,
ईश्वर के वरदानों को, व्यर्थ उतपातों में खोना था।
११.
मैंने यादों से बुद्ध निकलते देखा है,
घायल पक्षी को प्यार- दुलार पाते
 पाया है।

मैंने यादों में एक संन्यासी प्यारा
 देखा है,
जिन्हें बुढ़ापे,रोग और मौत से, ज्ञान तक पहुंचते पाया है।

इतिहास में एक संन्यासी कहता है,
सदा मोक्ष की सीढ़ियां स्वयं चढ़ना है।

मैंने मन से बुद्ध निकलते देखा है,
असीम दया को प्राणों के साथ बैठा देखा है।
१२.
मैंने सुबह की तबियत पूछी
जो जोर जोर से खाँस रही थी,
मैंने दोपहर की तबियत पूछी
जिसे बहुत तेज बुखार था,
मैंने रात की तबियत पूछी
जो जोर जोर से नाच रही थी।

मैं गाने को था पर गा नहीं पा रहा था,
जाने को था  पर जा नहीं पा रहा था,
सुनने को था पर सुन नहीं पा रहा था,
देखने को था पर देख नहीं पा रहा था।

ऐसा नहीं था कि हर क्षण ठंडा था
किसी के चेहरे पर मुँहासे थे
तो किसी का चेहरा साफ था।

इतिहास का चेहरा देखा तो
एक ओर खून से लथपथ था,
तो दूसरी ओर शान्त भाव से भरा था।

आगे चला तो देखा सूरज निकल रहा था,
दिन की तबियत सुधर चुकी थी,
गुनगुनी धूप बाहर से भीतर आ रही थी।
१३.
पहाड़ का गाँव शहर जा चुका है
पलायन का दानव उधर चल रहा है,
पहाड़ की ऊँचाई पर सन्नाटा घूमता है
 गाँव का पलायन घर-घर पसर रहा है।

घराटों  की घर्र- घर्र चुप हो गयी है
गाँव का जंगल अकेला हो रहा है,
डाकिये का आना बंद हो गया है
पलायन का दानव गाँव निगल रहा है।

 गाँव की नदी सूनी लग रही है
घसियारियों के धाल धरी रह गयी है,
गाँव का देवता अकेला हो गया है
पूजा की थाल खाली हो गयी है।

कहानियां गाँव की अद्भुत लग रही हैं
पलायन का दानव उन्हें कह रहा है,
जब पहाड़ के गाँव से बादल निकल रहा है
बंजर खेतों पर खूब रो रहा है।
१४.
शुभ्र मन, शुभ्र तन, शुभ्र हिमालय मेरा पता,
शुभ्र गाँव, शुभ्र शहर,शुभ्र भारत मेरा पता,
शुभ्र मिट्टी, शुभ्र नदी, शुभ्र वृक्ष मेरा पता,
शुभ्र राह, शुभ्र जीवन, शुभ्र प्यार मेरा पता।

खो गया यहीं कहीं तो ढूंढ लेना मेरा पता,
साफ-साफ दिखे नहीं तो  माँग लेना पावन पता,
आत्मा के पार  पहुंचा शुभ्र द्वार ही मेरा पता,
शुभ्र गीत, शुभ्र संगीत, शुभ्र लय ही मेरा पता।

निकल कर जो बहा वही है मेरा पता,
दुख में जो मिटा नहीं वही है मेरा पता,
हँसते-रोते जो लिखा गया  वही है मेरा पता,
शुभ्र शब्द, शुभ्र नाम,शुभ्र काम मेरा पता।
१५.
अभी अभी तो शब्द उड़ कर
किसी मन में बैठ गये थे,
कोहरा जो घिरा हुआ था
उससे आगे निकल रहे थे।

लोगों की कुशल पूछ ताछ कर
देश काल में फैल रहे थे,
कितने आन्दोलन में आगे थे
कितने शान्ति में बैठे थे।

कुछ सत्य के साथ-साथ थे
कुछ झूठ के पीछे थे,
कुछ गुणों में घुलेमिले थे
कुछ अवगुणों में सने हुए थे।

कुछ छिना झपट्टी करते थे
कुछ दानशील लगते थे,
 जय, जय ,जय कहते कहते
अजेय हुआ करते थे।
१६.
मैंने कभी पूछा नहीं 
पहाड़ कैसे होते हैं?
मैदान कितने बड़े होते हैं?
आकाश कितना विशाल होता है?

न धरती का परिचय पूछा
न उसकी भलाई जाँची,
तीर्थों के बारे में प्रश्न नहीं किया,
मनुष्य के बारे में पूछताछ नहीं की।

मैंने कभी नहीं पूछा
सुबह क्यों होती है,
शाम क्यों आती है?

इतने अधिक अभावों
और इतने अधिक एश्वर्य के बीच,
कभी मेरे प्रश्न बहुत बेचैन हुआ करते थे,
पर इस बीच कभी नहीं पूछा,
जन्म क्यों होता है, मृत्यु क्यों आती है?
१७.
मेरी बात भी सुन लो
कहीं प्यार निथर कर आ रहा हो,
राहें नयी निकल रही हों।

देश की बातें झिलमिला रही हों
महाभारत के संदर्भ आ रहे हों
रामायण की बातें कही जा रही हों।

जीवन के कुछ निर्देश हों
गांव की कहावतें  हों
घर - घर की दास्तान हो।

आवो, मेरी बातें सुन लो
कहीं जीवन- मृत्यु की आहट हो
तूफान की दिशा तय हो रही हो

कहीं घटनाएं निकल रही हों
कहीं घटनाएं चुक रही हों
कहीं उदय की बात हो।
१८.
मनुष्य पहली किताब है
जिसे हम पढ़ते हैं,
प्यार से लबालब हो
आवश्यक नहीं,
अहिंसा में सराबोर हो
आवश्यक नहीं,
सत्य कहता हो
आवश्यक नहीं,
उसकी सभी शक्तियां परोपकारी हों, 
आवश्यक नहीं।
लेकिन मनुष्य पहली किताब है,
जिसे हम पढ़ते हैं, पढ़ाते हैं,
जैसा भी हो
फटा-पुराना या नया,
अनुरोधी हो या विरोधी।
मनुष्य ही पहली किताब है,
जिसे हम गुनगुनाते हैं।
१९.
सालों से धरती मेरी है,
जहाँ से सूरज दिखता है,
जिस पर आकाश झुका लगता है,
जहाँ पक्षियां उड़ा करती हैं
परिच्छाइयां बनती-बिगड़ती हैं।

धरती के जिस छोर पर खड़ा हूँ,
वहाँ उजाला होता है,
और अँधेरा भी छाता है।

मैं इसी जन्म की बात बता रहा हूँ
सूरज जहाँ से निकलता है,
वहाँ से छिपता नहीं है,
सत्य हर जगह नहीं होता है,
 सैकड़ों बार सत्य के लिए मरना पड़ता है।

सालों से धरती मेरी है,
जिसे मैं पूरा नहीं समझता हूँ,
उसके रास्तों को काटता-छाँटता
सुख भी लेता हूँ,दुख भी पाता हूँ।
धरती मेरा सपना है,
जहाँ मैं सुख-दुख, रोग-शोक छिपाता हूँ।
२०.
मैं अपनी महानता के साथ पड़ा था,
 तुम अपनी महानता के साथ पड़े थे,
यह तीसरा कौन है?
जो हमारी महानता पर दिया जला,
अपना उल्लू सीधा करना चाहता है।

मैं अपनी कमियों के साथ पड़ा था,
 तुम अपनी कमियों के साथ पड़े थे,
यह तीसरा कौन है?
जो हमारी कमियों को उजागर कर,
अपना उल्लू सीधा करना चाहता है।
२१.
नैनीताल

ओ झील, मेरी ओर झांको,
मेरा प्यार तुम्हें पुकार रहा है,
तुम्हारे पास शायद समय न हो
पर मेरे पास समय ही समय है।

तुम वैसे ही छलकती हो
हवाओं को लपेटती हो,
ओ झील, मेरी ओर देखो,
मैं अतीत को दोहराने आया हूँ।

तुम जागे रहना, सोना नहीं,
क्योंकि मैं सोया नहीं हूँ अभी,
मेरे काँपते हाथ, 
अभी भी दोहरा सकते हैं प्यार।

नावें जो चल रही हैं,
कोई गरीब चला रहा उन्हें,
तुम देखना आमदनी कम न हो किसी की,
क्योंकि मेरे प्यार जैसा उनका प्यार भी है मजबूत।
२२.
हे कृष्ण, वह चढ़ाई चढ़ लूँ
जो अभी तक चढ़ा नहीं,
उस जगह हो लूँ
जहाँ अभी तक पहुंचा नहीं,
उस नदी पर नहा लूँ
जो अभी तक पवित्र है,
उस पुल को पार कर लूँ
जो अभी तक छूटा है।
२३.
आज सुबह उठा तो लगा जिन्दा हूँ
अभी चल सकता हूँ
प्यार कर सकता हूँ
फिर सौंदर्य पर दृष्टि गड़ाता हूँ।

फिर सुनता हूँ,  जिसे यहाँ स्वर्ग कहते हैं,
वहाँ पत्थर बरसते हैं,
सुना था स्वर्ग में देवता रहते हैं,
पर यहाँ पत्थरबाज घुसआये हैं।

जिसे देवभूमि कहते हैं
वहाँ पलायन की खबर है,
लोग देवताओं को छोड़
मनुष्यों के साथ चले गये हैं।
२४.
हाँ, प्यार करने को बहुत कुछ है-
एक कुत्ता है जो बहुत बफादार है,
एक गाय है जो दूध देती है,
एक भैंस है जो घास खाती है,
एक जोड़ी बैल हैं जो खेत जोतने के काम आते हैं,
एक घर है जो सोने-जागने के लिए है,
एक किताब है जिसकी विद्या की कसम खाते हैं,
टूटी-फूटी पगडण्डियां हैं जिनसे दूरियां तय करते हैं,
एक नदी है जो पानी लाती-ले जाती है,
वृक्ष हैं जो फल-फूल देते हैं,
गाँव  है जो पंचायत करता है,
शहर है जो बदल रहा है,
देश है जो अपनी भाषा लिख नहीं पाता है,
संसार है जो उन्नति कर रहा है।
हर कमी, हर गुण के साथ,
हाँ, प्यार करने को बहुत कुछ है।
२५.
हाँ, मेरी बातें अब भी सुनी जाती हैं,
उन पहाड़ों द्वारा जो खण्ड-विखंडन हो रहे हैं,
उन नदियों द्वारा जो रो रही हैं,
उन लोगों द्वारा जो बिछुड़ गये हैं,
उस प्यार द्वारा जो जीवनभर जागता है।

एक महक सी आती है बर्षों बाद अपनी ही बातों से,
कान लगा के सुनते रहो साल दर साल,
क्या पता निकल आय कोई मनपसंद आवृत्ति सालों बाद भी,
और धूप बिछी दिख जाय  पुरानी आदतों पर।

सारे लोग इकट्ठा मिलें किसी जगह पर,
सब पढ़ रहे हों अपने-अपने संघर्ष-विमर्ष,
क्या पता प्यार लगे भूल-भुलैया?
और अपनी यात्रावों से निकले अद्भुत उत्साह।
२६.
कितनी देर कोई किसी के साथ बैठा जा सकता है,
गुनगुनी धूप में कौन कितने समय किसी के साथ रूक सकता है?

कितने दिन अपनों- परायों को याद रख सकते हैं,
कितने साल तक मुलाकातें पढ़ी जा सकती हैं?

कितने दशक अपने विद्यालयों के ज्ञान को दोहराया जा सकता है,
कितनी मधुरता से देश को गुनगुनाया जा सकता है?

कितने समय तक अपनी संस्कृति को जिया जा सकता है,
कितने साल गुलामी से समझौता हो सकता है?

कितने समय ठंड़ी हवा में घूमा जा सकता है,
कितनी बातों में विश्वास किया जा सकता है?

किस सत्य से मिला जा सकता है,
किस शान्ति को चेतना तक पहुँचाया जा सकता है?

****** महेश रौतेला