Patrika Vijnes Mahatmay Sudarshan Vashishth द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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Patrika Vijnes Mahatmay

पत्रिका विजनेस माहात्म्य

व्यंग्य

सुदर्शन वशिष्ठ

सभी लेखकों की तरह पंकज वर्मा को लिखने का शौक जाग्रत हुआ तो ‘‘परिंदा‘‘ नाम से कविता लिखना शुरू किया। जन्मजात प्रतिभा तो थी नहीं कि सात साल की उम्र में ही पहली कविता लिख मारी हो अतः आगे पीछे की पंक्तियों को जोड़ तोड़ कर कविताओं जैसी तीन कविताएं तैयार कीं और पांच अख़बारों को एक साथ भेज दीं। लाटरी की तरह एक कविता स्थानीय अख़बार में निकल गई। किसी ने ख़बर की तो पांच अख़बारें ख़रीद लाए। एक दीवानगी सी छा गई। रविवार की छुट्‌टी होते हुए भी सुबह ही नहा धो कर तैयार हो गए और शहर के एक पुराने पड़ गए लेखक के घर जा धमके जो ‘धाकड़‘ नाम से लिखते थे।

धाकड़ जी ने अख़बार उलट पलट कर देखी और कविता न पढ़ कर दूसरे आर्टिकल पढ़ने लगे। जब पंकज परिंदा ने अपना नाम पढ़ाया तो अख़बार एक ओर रख कर बोले :‘‘भईया! बड़ा कठिन है लेखन जगत में पैर जमाना। आप व्यापार में पैर जमा सकते हैं, राजनीति में घुस सकते हैं, और तो और गुंडई में शामिल हो सकते हैं; साहित्य में नहीं घुस सकते।... जब तक आप साहित्य में किसी बड़े गिरोह से नहीं जुड़ेंगे, अश्क की तरह अकेले रह जाएंगे, कोई नहीं पूछेगा। या अज्ञेय की तरह आपके इतने विरोधी हो जाएंगे कि आपके लेखन को ख़ारिज करके ही दम लेंगे। इस वर्ष इन दोनों की जन्मशती है। जो इनका नाम नहीं लेते थे, सदा विरोधी बने रहे, अब इन्हें शताब्दी का महान लेखक बता कर समारोह के अध्यक्ष बन मोटा पारिश्रमिक झाड़ रहे हैं।

पंकज परिंदा यह सब समझ नहीं पाए, विनम्रता में से बोलेः ‘‘मैं किसी ऐसे लेखक को नहीं जानता जिसकी जन्मशती हो रही हो... मैं तो बस आपको जानता हूं। आप धाकड़ रहे हैं... मुझे भी किसी गिरोह में शामिल करवाईए न। मैं उनके लिए, जो चाहेंगे, काम करूंगा।

‘‘मुझे नहीं लगता, आप जैसे शरीफ आदमी को कोई अपने गिरोह में शामिल करेगा, एक तो आप पुरूष हैं दूसरे आपकी उम्र भी तो ज्यादा हो गई है.... हां, आप ‘‘पत्रिका पत्रिका'' खेल सकते हैं। कोई लघु पत्रिका निकालिए। तब न भी लिखेंगे तो भी लेखकों में धाक बनी रहेगी। उससे पहले लघु पत्रिकाओं को जानिए, उन की नब्ज़ को पहचानिए, फिर उनमें लिखिए।‘‘

‘‘सो कैसे!‘‘ परिंदा जी चहचहाए तो धाकड़ जी ने उन्हें पचास लघु पत्रिकाओं के पते लिखा दिए।....इन में रचना भेजो और साथ ही ग्राहक बनने के लिए चंदा भी भेज दो। हो सके तो विज्ञापन भी दिलाओ... आपकी कविता चित्र सहित मुखपृष्ठ पर छप जाएगी।

भीतर गए धाकड़ जी और एक पांच किलो वजनी पत्रिका उठा लाए।

‘‘... यह बहुत स्तरीय लघु पत्रिका है मेरे मित्र पुष्करनाथसिंह निकालते हैं। नये लेखकों के तो मसीहा हैं ये। नवोदित लेखकों को फट स्थान देते हैं। इस अंक की कीमत मुझे दे दो, वार्षिक चंदा उन्हें सीधे भेज देना।‘‘ धाकड़ जी ने पत्रिका ढीले हाथों से पकड़ी थी जो एकाएक छूट कर पांव पर जा गिरी जिससे पांव जैसे टूट गया, लगा फ्रेक्चर हो गया।......यह लघु पत्रिका है तो बड़ी पत्रिका कितनी बड़ी होती होगी! ......सोचने लगा परिंदा।

‘‘इस अंक की कीमत सौ रूपये है.... देखो, लोग कितनी मेहनत कर रहे हैं। कितनी अच्छी और भारी लघु पत्रिकाएं निकाल रहे हैं। पत्रिकाएं पढ़ोगे तो कविता की धारा का पता चलेगा, नये नये अंदाज सीखोगे। अरे कविता तो तीन पत्रिकाएं पढ़ कर ही बन जाती है।‘‘ धाकड़ जी पुनः कराहते हुए बोल उठे।

परिंदा जी थोड़े डर भी गए। फिर भी उन्होंने अपने खर्चे कम कर पांच छः लघु पत्रिकाएं लगवा लीं। पत्नी ने जूतों का एक रैक धो धा कर पत्रिकाओं के लिए दे दिया जो महीने भर ही में भरने लगा।... ये महाभारत जैसे ग्रन्थ कहां से आ रहे हैं!...पत्नी चिढ़ने लगी। अरे! इतनी बड़ी लघु पत्रिकाएं कौन पढ़े, एक बार उलट पलट कर रख देते परिंदाजी। भारी भरकम लघु पत्रिकाओं से लगता, साहित्य बहुत भारी होता जा रहा है। इस का बोझ तो अब उठाए नहीं उठेगा।

एक बार धाकड ़जी एक संपादक के यहां ले गए परिंदे को। उन्होंने घर में ही ऑफिस बना रखा था। अपनी नेम प्लेट की जगह ‘‘सबद के बोल‘‘ का बोर्ड लगा था।

‘‘यह सज्जन पत्रिका विजनेस में माहिर हैं। इनके यहां कुछ दिन काम करो, विजनेस के गुर सीखो, फिर अपना काम करो। देखो, घर का सारा खर्चा पत्रिका से की निकालते हैं। इसी कमाई से अभी बेटी का विवाह किया है।‘‘

‘‘अच्छा!‘‘ परिंदाजी का मुंह ख्ुाला का खुला रह गया।

‘‘ऐसा करो, तुम एक लघु पत्रिका निकालो। फिर लेखक तो खुद ब खुद बन जाओगे।‘‘

‘‘सो कैसे! मैं तो अभी लेखक भी नहीं।‘‘ परिंदा जी सकुचाए।

‘‘भईया! संपादक बनने के लिए लेखक होना जरूरी नहीं। इस पद के लिए लेखक होना अनिवार्य योग्यता नहीं है। बाद मेें संपादक तो वैसे ही लेखक बन जाता है। लेखक बनने का सबसे पहला हक संपादक का ही है। फिर उसके सामने लेखकों की लाईन लग जाती है, थोड़े ही समय में वह लेखकों का सरदार बन जाता है।‘‘

परिंदा जी गद्‌गद्‌ हो गये। बड़े आग्रह से धाकड़ जी से लघु पत्रिका और उसके संपादक का माहात्म्य सुनाने का आग्रह करने लगे।

धाकड़ जी बोले :

‘‘परिंदा जी, ये माहात्म्य न सुनने की इच्छा रखने वालों को नहीं सुनाया जाता। आप में इसे सुनने और जानने की तीव्र इच्छा मुझे दृष्टिगोचर हो रही है। अतः ध्यान से सुनो...............पुराने युग में व्यवसायिक और लघु पत्रिकाओं में देव असुर संग्राम की भान्ति द्वंदयुद्ध चला रहता था। धर्मयुग जैसी पत्रिकाओं को व्यवसायिक पत्रिकाएं कहा जाता था जबकि सतयुग जैसी पत्रिकाओं को अव्यवसायिक। उस समय कई उत्साही एक अर्न्तदेशीय पत्र में भी लघु पत्रिका चलाते थे। अब बड़ी या व्यवसायिक कही जाने वाली पत्रिकाएं तो बंद हो गई हैं। अब लघु पत्रिकाओं का युग है। इन की संख्या सैंकड़ों तक पहुंच गई है। आकार के बारे में तो तुम ने जान लिया है। अब इन पत्रिकाओं और इनके संपादकों के प्रकार सुनो———

पहले संपादक वे हैं जो अपने ज़माने के मशूहर साहित्यकार रहे। जब लिखना छोड़ दिया या छोड़ना पड़ा या सीधे शब्दों में जब चुक गये तो जिंदा रहने के लिए पत्रिका निकालना आरम्भ किया। विज्ञापन तो जुटाए ही, अपने पीछे नये लेखकों की एक फौज इकट्‌ठा कर ली। कविता, कहानी प्रतियोगिताओं के नाम पर सैंकड़ों ग्राहक बनाए। कईयों को उठाया, कईयों को गिराया। समारोहों में उन्हें हवाई जहाज का खर्चा दे कर अध्यक्षता के लिए सादर आमन्त्रित किया जाने लगा। अब धन और यश दोनों इनके साथ हैं।

दूसरे वे, जो संपादक होने पर ही लेखक बने। इन्होंने और नहीं तो अपने संपादकीय ही पुस्तकाकार में छपवा दिए। कहानी, कविता, विचोरोतेजक लेखों के संपादित संग्रह निकाल दिए। यदा कदा कहानीकार के ‘रूप‘ में या कवि के ‘रूप‘ मेें इनकी रचनाएं सहयोगी पत्रिकाओं में छपने लग जाती हैं। जैसे रचनाकार न हो कर बहूरूपिए हाें।

अब तीसरे संपादक के विषय में जानें। वे पत्रिका तो लगभग एक किलो की निकालते हैं। जम कर विज्ञापन लेते हैं। सरकार में पैठ है। इस पत्रिका का ग्राहक कोई नहीं है। सौ, डेढ़ सौ प्रतियां छाप कर विज्ञापनदाताओं और सहयोगी लेखकों में बांट देते हैं। पत्रिका उनके शहर में भी पूरी नहीं जाती। क्या करें लघु जो है।

एक सज्जन साल में एक ही अंक निकालते हैं। यह अंक पांच किलो से कम नहीं होता। डाक से तो यह भेजा ही नहीं जा सकता। अतः सौ प्रतियां किसी तरह चंद लोगों तक पहुंचाते हैं। दो तीन पत्रिकाओं में फोटो सहित चर्चा करवा देते हैं।

एक संपादक महोदय ऐसे है जिन्होंने लेखकों को अपने साथ जोड़ा है। उनके एजेंट भी लेखक हैं। पत्रिका के प्राप्ति स्थान में किसी बुक सेलर का नाम नहीं बल्कि उस शहर के लेखक का नाम जाता है। ये लेखक ही उनके प्रसारक और प्रचारक हैं और नये लेखकों को पत्रिका मढ़ देते हैं।

कुछ विजनेसमाईंडेड ऐसे भी है जिन्होंने एक स्थापित पत्रिका में साल दो साल काम किया। फिर ध्यान आया कि क्यों न वे अपनी, खुद की पत्रिका निकालें। जैसे एक रेडीमेड गारमेंट्‌स की दूकान में सेल्स मेन विजनेस के गुर सीख कर खुद की दुकान खोल देता है। पत्रिका के लिए अब किसी बड़े उद्योगपति के वरद हस्त की जरूरत भी नहीं रही।

क्योंकि अब छपाई के उत्तम साधन आसानी से उपलब्ध हैं, अतः सभी पत्रिकाओं के आवरण बहुत ही आकर्षक और रंगीन रहते हैं। भीतर लगभग एक सा गेट अप, एक सी सैटिंग, एक से लेखक और एक सी रचनाएं रहती हैं। हां, कुछेक अपनी बेशुमार अशुद्धियों के कारण अलग से जानी जाती हैं।....... अब आप और क्या क्या सुनेंगे...!‘‘

‘‘बस, बस महाराज! बस कीजिए। आपसे पत्रिका विजनेस माहात्म्य सुन कर मैं धन्य हुआ। आपने मेरी आंखें खोल दीं। मेरा अंधकाररूपी अज्ञान जाता रहा। अब मैं संशयरहित हूं, मेरा अज्ञान मिट गया, मेरा लेखक बनने का मोह भी नष्ट हुआ। अतः आपकी आज्ञा का पालन करूंगा।‘‘

परिंदा जी लघु पत्रिका निकालने के लिए फड़फड़ाने लगे।

(094180—85595)

सुदर्शन वशिष्ठ

जन्म : 24 सितम्बर, 1949. पालमपुर हिमाचल प्रदेश (सरकारी रिकॉर्ड में 26 अगस्त 1949)।

125 से अधिक पुस्तकों का संपादन/लेखन।

नौ कहानी संग्रह : (अन्तरालों में घटता समय, सेमल के फूल, पिंजरा, हरे हरे पत्तों का घर, संता पुराण, कतरनें, वसीयत, नेत्र दान तथा लघु कथा संग्रह : पहाड़ पर कटहल)।

चुनींदा कहानियों के चार संग्रह : (गेट संस्कृति, विशिष्ट कहानियां, माणस गन्ध, इकतीस कहानियां)।

दो लघु उपन्यास : (आतंक, सुबह की नींद)। दो नाटक : ( अर्द्ध रात्रि का सूर्य, नदी और रेत)।

एक व्यंग्य संग्रह : संत होने से पहले।

चार काव्य संकलन : युग परिवर्तन, अनकहा, जो देख रहा हूं, सिंदूरी सांझ और खामोश आदमी।

संस्कृति शोध तथा यात्रा पुस्तकें : ब्राह्‌मणत्वःएक उपाधिःजाति नहीं, व्यास की धरा, कैलास पर चांदनी, पर्वत से पर्वत तक, रंग बदलते पर्वत, पर्वत मन्थन, पुराण गाथा, हिमाचल, हिमालय में देव संस्कृति, स्वाधीनता संग्राम और हिमाचल, कथा और कथा, हिमाचल की लोक कथाएं, हिमाचली लोक कथा, लाहौल स्पिति के मठ मंदिर, हिमाचल प्रदेश के दर्शनीय स्थल, पहाड़ी चित्रकला एवं वास्तुकला, हिमाचल प्रदेश की सांस्कृतिक संपदा।

हिमाचल की संस्कृति पर छः खण्डों में ‘‘हिमालय गाथा‘‘ श्रृंखला :देव परम्परा, पर्व उत्सव, जनजाति संस्कृति, समाज—संस्कृति, लोक वार्ता तथा इतिहास।

सम्पादन : दो काव्य संकलन : (विपाशा, समय के तेवर) ; पांच कहानी संग्रह : (खुलते अमलतास, घाटियों की गन्ध, दो उंगलियां और दुष्चक्र, काले हाथ और लपटें, पहाड़ गाथा)।

हिमाचल अकादमी तथा भाषा संस्कृति विभाग हिमाचल प्रदेश में सेवा के दौरान लगभग सत्तर पुस्तकों का सम्पादन प्रकाशन। तीन सरकारी पत्रिकाओं का संपादन।

सम्मान : जम्मू अकादमी तथा हिमाचल अकादमी से ‘आतंक‘ उपन्यास पुरस्कृत;

साहित्य कला परिषद्‌ दिल्ली से ‘नदी और रेत‘‘ नाटक पुरस्कृत। हाल ही में ‘‘जो देख रहा हूं'' काव्य संकलन हिमाल अकादमी से पुरस्कृत। कई स्वैच्छिक संस्थाओं से साहित्य सेवा के लिए सम्मानित।

देश की विगत तथा वर्तमान पत्र पत्रिकाओं : धर्मयुग, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान से ले कर वागर्थ, हंस, साक्षात्कार, गगनांचल, संस्कृति, आउटलुक, नया ज्ञानोदय, समकालीन भारतीय साहित्य आदि से रचनाएं निरंतर प्रकाशित। राष्ट्रीय स्तर पर निकले कई कथा संकलनों में कहानियां संग्रहित।

कई रचनाओं के भारतीय तथा विदेशी भाषाओं मेें अनुवाद। कहानी तथा समग्र साहित्य पर कई विश्वविद्‌यालयों से एम0फिल0 तथा पी0एचडी0.।

पूर्व सचिव/उपाध्यक्ष हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी ; उपनिदेशक/निदेशक भाषा संस्कृति विभाग हि0प्र0।

पूर्व सदस्य : साहित्य अकादेमी दिल्ली, दुष्यंत कुमार पांडुलिपि संग्रहालय भोपाल।

वर्तमान सदस्य : सलाहकार समिति आकाशवाणी; हिमाचल राज्य संग्रहालय सोसाइटी शिमला, विद्याश्री न्यास भोपाल।

पूर्व फैलो : राष्ट्रीय इतिहास अनुसंधान परिषद्‌ भारत सरकार

सीनियर फैलो : संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार।

संपर्क : ‘‘अभिनंदन‘‘ कृष्ण निवास लोअर पंथा घाटी शिमला—171009.हि0प्र0

फोन : 094180—85595 (मो0) 0177—2620858 (आ0)

ई—मेल : vashishthasudarshan@yahoo.com