सुधार द रिफॉर्मेंशन - National Story Competition-Jan’ VIRENDER VEER MEHTA द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

सुधार द रिफॉर्मेंशन - National Story Competition-Jan’

सुधार 'द रिफॉर्मेंशन'

वीरेन्द्र 'वीर' मेहता

ये सब क्या हैं तनु, और तुम क्या ढूंढ रही हो?" बहुत सी पुरानी फ़ोटो-एलबम्स को इधर-उधर फैलाये बीच में उदास सी बैठी बेटी को परेशान देख नीमा परेशान हो गयी।

"कहीं आज फिर कोई केस तो नहीं...?" नीमा सोचने लगी।

....पढाई पूरी करने के बाद कुछ अर्सा ही हुआ था तनु को वकालत शुरू किये हुये, और ऐसे में जब भी कोई 'असहज सा केस' उसके सामने आ जाता था तो वह परेशान हो जाती थी।

"कुछ नहीं माँ, बस ये फ़ोटो ढूंढ रही थी मैं।" कहते हुए तनु ने हाथ में पकड़ी फ़ोटो नीमा के सामने कर दी, लेकिन साथ ही अपना दुसरा हाथ उसने झट माँ की नजरों से छुपा लिया।"

नीमा उस हाथ में पकड़े 'पेपर' पर कुछ कहना ही चाहती थी कि उसकी नजर तनु की पकड़ी हुयी फ़ोटो पर चली गयी और एकाएक वह सिहर गयी। "ये फ़ोटो!.....ये फ़ोटो तुझे कहाँ मिली तनु?" लगभग बौखलाते हुए नीमा ने उससे फ़ोटो छीन ली।

वर्षो पुरानी पारिवारिक फ़ोटो जिसमें नन्ही तनु घर के पुराने नौकर विश्वा और अपने मामा के बीच खड़ी थी, हालांकि फ़ोटो बीच में से फ़टी होने के कारण वे दोनों स्पष्ट नजर नहीं आ रहे थे लेकिन तनु को उनकी बखूबी पहचान थी।

"सवाल ये नहीं हैं माँ कि फ़ोटो कहाँ मिली? सवाल ये हैं कि विश्वा अंकल कहाँ हैं?"

"कई बार बताया हमने तुझे कि उसका तेरे मामा से झगडा हुआ था और उन्हें जेल हो गयी थी। और फिर जेल से लौटने के बाद वो अपने गाँव चले गए थे, फिर कभी नहीं लौटे।" नीमा ने हमेशा कहे जाने वाले शब्दों को दोहरा दिया।

"नहीं माँ..." तनु की आवाज अपेक्षाकृत तेज हो गयी थी। "....आज झूठ नहीं माँ! आज मैं सच जानना चाहती हूँ और ये आप मुझे बताएंगी माँ।"

बेटी की पीड़ा में डूबी लेकिन तेज निर्णायक आवाज के आगे जाने क्यों आज नीमा कमजोर पड़ गयी, मानो बरसों से झूठ का बोझ उठाते-उठाते वह भी थक गयी थी। सच स्वतः ही धीमीं आवाज में उसकी जुबान पर आने लगा। "....वो सर्दियों का सर्द मौसम था तनु, जब मैं तुझे लेकर तेरे 'नाना' के घर गयी हुयी थी। कोहरे भरी उस अँधेरी शाम में, मैं और तेरी नानी रात के खाने का इंतजाम कर रही थी जब तेरा 'मामा' तुझे ले कर घर के बाहर ही बने पार्क में टहलाने ले गया था। जब काफी देर तक वह तुम्हे लेकर नहीं लौटा तो मैंने 'विश्वा' को देखने भेजा था।"

'माँ के चेहरे पर दर्द की रेखाएं उभरती देख तनु भी असहज होने लगी थी लेकिन बीच में कुछ न कहकर उसने माँ के हाथों को थाम लिया। भावनाओं के संचार से नीमा कुछ सयंत हुयी और नम हुयी आखों को पोंछतें हुए नीमा अपनी बात को आगे कहने लगी। "विश्वा के जाने के कुछ देर बाद ही उन दोनों के चीखने-चिल्लाने की आवाज आने लगी और जब मैं तेरी नानी के साथ भागते हुए वहां पहुंची तो....! तो तुम वहाँ अर्ध-बेहोशी की हालत में जख्मी पड़ी थी और विश्वा तुम्हारे मामा को बुरी तरह से मार रहा था। कुछ ही देर में वहां घर के बाकी लोग भी वहां पहुँच गए और फिर उसके बाद....।" कहते कहते नीमा का आवाज भर्रा गयी।

".... और फिर उसके बाद शायद घर की मान-मर्यादा के लिए आप लोगों ने उनके झगड़े को ही आपसी झगड़ा बताकर, विश्वा अंकल को जेल भिजवा दिया।" माँ की कही बातों की कड़ी को आगे जोड़ते हुयी तनु ने बोलना शुरू कर दिया। "आप लोगों ने उस 'शैतान' को तो बख्श दिया जिसे सजा मिलनी चाहिए थी और विश्वा अंकल जिन्होंने मुझे बचाया उसे...।" अपनी बात अधूरी ही छोड़ तनु ने अपनी नजरें माँ पर टिका दी।

"और क्या करते बेटी? आखिर समाज को भी तो देखना था।"

"और वह, भाई जो एक बहन का मान होता है। उसने अपनी ही भांजी के साथ..., छि: राक्षस!" कहते हुये तनु ने थूक दिया।

"हाँ! राक्षस ही निकला वह, जिसने मेरी ही बेटी को खा जाना चाहा था। छोड़ दिया हमने उस घर, उस गाँव को हमेशा के लिये। बस उसके बाद मैं कभी लौटकर मायके नहीं गयी।" नीमा की नजरें सहज ही झुक हुयी थी।

"छोड़ दिया उसे!"

"तो क्या करते आखिर? सत्रह बरस की नादान उम्र थी उसकी और फिर तेरे नाना-नानी का भी तो सोचना था।" नीमा की आखें अभी भी झुकी हुयी थी।

"नहीं जानती क्या करते आप?" तनु कुछ खोई-खोई सी बोलने लगी। "लेकिन आज मैं वह सब जरुर करुँगी, जो मुझे करना चाहिए।"

"क्या? ….क्या करने जा रही हो तुम?" नीमा का स्वर कांप गया।

"सुधार माँ! एक सुधार जो आप को उस दिन करना चाहिए था। 'उसे' उस जानवर को जिसे आप लोगों ने खुला छोड़ दिया, सजा दिलवानी चाहिए थी और विश्वा अंकल को तो दिल से 'थैंक्स' करना चाहिए था। असल में भाई का हक तो उन्होंने ही निभाया न माँ!" तनु के चेहरे पर सच का वो उजाला चमक रहा था जिसे नीमा अपने जीवन में चाह कर भी नहीं अपना सकी थी।

"विश्वा का तो हमें पता भी नहीं, कि कहां है वो लेकिन मैं उसे ढूँढ कर आज भी माफ़ी मांगना चाहती हूँ उससे! और रही बात 'उसकी', उसे तो अपाहिज बनाकर स्वयं भगवान ने ही सजा दे दी है बेटी।" पर आखिर अब बरसों बाद करना क्या चाहती है तू!" नीमा के चेहरे पर एक सवाल उभरा हुआ था।

"कुछ नहीं माँ। शायद आप ठीक कहती है, भगवान् ने उसे सजा देकर हमारे हिस्से का कार्य कर दिया है लेकिन हमें भी तो कुछ करना चाहिए न!"

"??? ...." नीमा तनु की ओर प्रश्नवाचक बनी देखने लगी।

"माँ, फिर किसी 'राक्षस' ने किसी मासूम से खेलना चाहा हैं और फिर एक 'विश्वा' को सजा होने जा रही है।......" तनु बोल रही थी और नीमा का ध्यान अनायास ही फिर उसके हाथ में छिपाए 'पेपर' पर चला गया। अब वह समझ गयी थी कि तनु की उदासी के पीछे यही यही 'पेपर' था। "....लेकिन माँ, इस बार मैं किसी निर्दोष को सजा नही होने दूंगी। मैं आज 'विश्वा' का साथ देने जा रहीं हूँ, शायद अतीत में हुयी गल्ती को सुधारा जा सके।" कहते हुये तनु ने हाथ में छिपाया हुआ अखबार माँ के सामने रख दिया जिसमें पिछले दिनों एक 'मासूम' के साथ हुए दुर्व्यवहार और अपराधी के साफ़ बचने के साथ मासूम की रक्षा करने वाले शख्स की ही गिरफ्तारी की खबर छपी हुयी थी।

(मौलिक स्वरचित व् अप्रकाशित)