Mansikta - ek drashtikon books and stories free download online pdf in Hindi

मानसिकता - एक दृष्टिकोण

'मानसिकता, एक दृष्टिकोण'

"क्या मैं आप को आगे कहीं छोड़ सकता हूँ?" उसने कार ठीक उसके करीब रोक कर अपनी आवाज में भरपूर मिठास घोलते हुए अपनी बात कही।

"नेकी और पूछ पूछ!" एक पल के लिए उसे देख वह हिचकिचाई लेकिन अगले ही पल मुस्कराते हुए वह कार के खुले दरवाजे से आगे की सीट पर जा विराजमान हुयी।

हाइवे नम्बर एक पर ठीक फ्लाईओवर से नीचे उतरते हुए एक ओर, वह अक्सर खड़ी अंगूठे के इशारे से लिफ्ट मांगती नजर आती थी। हालांकि उसका वास्तविक नाम कोई नहीं जानता था लेकिन उसकी, हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करती सुन्दरता और उसके नित नए आधुनिक पहनावों पर कमर तक लहराते लंबे बाल सहज ही उसमें एक परी की कल्पना को साकार करते थे, शायद इसी लिए उसका नाम ऑफिस में 'परी' पड़ गया था। ऑफिस के ही कई साथियों के अनुसार, फ्लाईओवर पर खड़े हो कर अपने लिए नित नए साथी ढूँढने का उसका ये सटीक तरीका था, हालांकि ये कहना कठिन था कि ऑफिस के कितने लोगों ने उसकी सच्चाई परखी थी लेकिन आज, सागर ने ऑफिस से निकलकर जब कार फ्लाईओवर के रास्ते पर डाली थी तभी से वह उसके बारें में सोचने लगा था।

पति-पत्नी दोनों के कामकाजी होने के कारण अक्सर ऑफिस से घर लौटते समय पत्नी के साथ होने की वजह से वह चाहते हुए भी कभी उसे लिफ्ट देने की नहीं सोच पाया था लेकिन आज इत्तेफ़ाक से पत्नी का ऑफिस 'ऑफ' होने से वह अकेला था और वह इस अवसर को खोना नहीं चाहता था।

"कहाँ तक जाएंगी आप?" उसकी और देख मुस्कुराते हुए उसने कार खाली रास्ते पर आगे बढ़ा दी। शाम का सूरज ढलती रात का आभास देने लगा था।

"अब जहां तक आप साथ दे देंगे।" अब तक अपनी हिचकिचाहट पर वह भी काबू पा चुकी थी और सहज ही मुस्करा रही थी।

"तो क्या आप कुछ घंटो के लिए मेरा साथ पसंद करेंगी। कहते हुए सागर को उसकी मुस्कराहट कुछ रहस्यमय लगी लेकिन उसके बारे में लोगों की व्यक्त राय उसे एक दम सही लगने लगी थी।

"ओह! तो आप मेरे साथ समय गुजारना चाहते हैं।" अनायास ही वह मद्धम हंसी हँसने लगी।

"अगर आपको एतराज न हो तो!"

"मुझे क्या ऐतराज हो सकता है भला!" उसकी रहस्यमयी मुस्कान पहले से अधिक गहरी हो गयी थी।

कार 'टोल' पार कर अब खुले हाईवे पर आ चुकी थी, वह चाहता तो कार की 'स्पीड' बड़ा सकता था लेकिन उसने जानबूझकर ऐसा नहीं किया और कार को धीमा ही चलाता रहा। बीच बीच में उसके हसीन चेहरे को देखना सागर को बहुत अच्छा लग रहा था और वह उसके साथ अधिक से अधिक समय बिताना चाहता था। आपस में नजर मिलते ही उसका मुस्करा देना सागर के लिए जैसे गर्मी के मौसम में भी ठंडी हवा का झोंका बनकर आ रहा था। ऐसा नहीं था कि उसका वैवाहिक जीवन सुखद नहीं था या उसकी पत्नी सुन्दरता और आधुनिकता के मामले में किसी से कम थी लेकिन न जाने क्यूँ जब से उसने परी की कहानियाँ सुनी थी और उसे एक नजर देखा था, तब से ही वह एक बार उसका साथ पा लेने के लिए व्याकुल सा हो उठा था। और आज उसके पहलु में बैठी परी मानो उसकी इच्छाओं को पूरा करने के रास्ते पर उसके साथ जा रही थी।

इधर दूसरी ओर 'परी' यानि कामना जो अपनी आधुनिक जीवन शैली और खुले अंदाज के कारण मॉडल, हिरोइन, लैला और परी जैसे कितने नामो से कथित पुरुष समाज में जानी जाने लगी थी, आज सामने आई इस परिस्थिति में सहज मुस्कराते हुए खुद को नार्मल रखने का हर संभव प्रयत्न कर रही थी लेकिन उसका मन उसे पीछे कहीं पुरानी यादों जबरन खींच कर ले जा रहा था। उस रोज पति के साथ हुयी बातें उसके जहन में फिर से ताजा होने लगी थी।

"हाँ मुझे ऐतराज है तुम्हारे इस आधुनिक पहनावे और गैरों से खुले व्यवहार पर!" अजय की आवाज अपेक्षाकृत उंची थी।

"लेकिन कभी मेरी यही खूबियाँ तुम्हे अच्छी भी लगती थी अजय, फिर अब ऐसा क्या हो गया जो तुम्हे ये सब बुरा लगने लगा।" वह भी पलटकर जवाव देने से नहीं चूकी थी। "कहीं ऐसा तो नहीं जिन नजरों से तुम मेरी सहेलियों को देखते हो, वही मानसिकता तुम्हे हर पुरुष की लगने लगी है।"

"कामना....!" अजय एकाएक गुस्से से चिल्ला पड़ा था। "तुम्हे कोई हक़ नहीं मुझ पर इस तरह आरोप लगाने का!"

"मैं आरोप नहीं लगा रही बल्कि तुम्हे सच का आईना दिखा रही हूँ जो मेरी सहेली भावना ने मुझे तुम्हारी आवाज की 'रिकॉर्डिंग' के साथ "व्हाट्स एप्प" किया है। चाहो तो तुम स्वयं इसे सुन सकते हो।" कहते हए उसने अजय के सामने अपना मोबाइल फेंक दिया था।

"ओह शिट, योर इडियट फ्रेंड!" अजय बतमीजी से बोला। "दो बातें तारीफ करते हए कह भी दी तो क्या गुनाह कर दिया, आखिर ये औरते मॉडर्न बनने का इतना ढोंग क्यूँ करती है जब मानसिकता उन्नीसवीं सदी की रखती है।"

"क्यूंकि तुम मर्दों की मानसिकता में अपने घर की औरत और बाहर की औरत के लिए हमेशा विरोधाभास रहता है।"

"कामना, शट-अप एंड कीप क्वाईट नाउ...."

"हाँ हो जाउंगी मैं चुप" कामना उसको जवाब दिए बिना चुप नहीं होना चाहती थी। "लेकिन अच्छा होगा तुम सुधर जाओ वर्ना...........।"

"......हेल्लो....हेल्लो...कहाँ खो गयी आप..।"

" ? ? ? "

"अरे मैं कुछ कह रहा हूँ, कहाँ खो गयी आप?" सागर के बार-बार उसको पुकारने पर वह अनायास ही वर्तमान में लौट आई।

"जी नहीं, कहीं नहीं.... बस यूँ ही कुछ सोचने लगी थी, कुछ कह रहे थे आप?"

"मैं कह रहा था कि यही पास में एक अच्छा 'रेस्टोरेंट' है, अगर आपको ऐतराज न हो तो...।" अपनी बात अधूरी ही छोड़ कर सागर मुस्कराने लगा था।

"नहीं! मुझे भला क्या एतराज हो सकता है।" जवाब देते हुए वह भी मुस्कराने लगी।

सागर ने कार रेस्टोरेंट की ओर मोड़ दी, स्टेरिंग के साथ साथ उसका दिमाग भी आगे के बारे में गोल-गोल सोचने लगा था। इधर कामना फिर अतीत की गहराइयों में जा पहुंची जहाँ अब समय समय पर अजय की बातों से समाज में कुछ न कुछ सुनाई पद ही जाता था। ऐसा नहीं था कि अजय उसके प्रति कभी लापरवाह रहा हो या उनके आपसी प्रेम में कोई कमी दिखाई देती हो लेकिन इस तरह की घटनाए अक्सर उसे विचलित कर देती थी और फिर उस दिन घर की कामवाली सोनाबाई के अजय पर सीधा 'एटेम्पट टू रेप' का आरोप लगाने के बाद तो सब कुछ ख़त्म हो गया था। पीछे शेष रह गयी थी सिर्फ आरोप-प्रत्यारोप और उसके दामन तक पहुँचने वाले छींटें। "पति ही नहीं, पत्नी भी दोषी है क्यूंकि यदि पत्नी समर्पित होती तो मतलब ही नहीं कि पति बाहर मुहं लगाने की सोचे......।

"ट्रिन...न...न...न...न...न...$...$...$...$......" की तेज आवाज से वह एक बार फिर अतीत छोड़ वर्तमान में आ गयी। कार रेस्टोरेंट के पास खड़ी थी और सागर उसे नीचे उतरने लिए कहना चाह रहा था।

एक क्षण के लिए वह जड़ हो गयी लेकिन जल्दी ही उसने खुद को संभाल लिया। "हां हमें उतरना चाहिए, पर क्या मैं इससे पहले आप के फ़ोन से एक कॉल कर सकती हूँ।"

"हाँ जरूर! क्यों नहीं....?" कहते हुए सागर ने आखों में असमंजस का भाव लिए अपना 'आई फ़ोन' उसे थमा दिया।

"~ ~ ट्रिंग ~ ~ ट्रिंग ~ ~ ट्रिंग ~ ~"

"..... सखी, इस नंबर को देखकर तुम ये तो समझ ही गयी होगी कि मैं इस समय किसके साथ हूँ।" कुछ क्षण बाद ही दूसरी और मिलाये गए नंबर पर जवाब मिलाते ही वह बात शुरू कर चुकी थी। "न ज्यादा हैरान मत होना सखी, बस कुछ देर बात करना चाहती हूँ तुमसे!"

अनायास ही सागर को आभास होने लगा था कि आज वह एक बड़ी गलती कर बैठा है, परी उसे बखूबी जानती है और दूसरी ओर फोन पर अवश्य ही उसकी कोई जानकार है जिससे वह इस समय बात कर रही है।

"तुम्हे याद है न सखी!" वह अपना वार्तालाप जारी रखे हुए थी और अनायास ही उसने फ़ोन को स्पीकर मोड पर कर दिया था। "तुमने मुझसे कहा था

कि यदि पत्नी समर्पित और सच्चरित्र हो तो कोई कारण नहीं कि पति के कदम भटक जाएँ। और मैं तुम्हारी इस बात का कोई जवाब नहीं दे पाई थी क्योंकि मैं खुद भी नही समझ पायी थी कि मेरा पति क्या वास्तव में भटका हुआ था या सिर्फ मेरी 'कामवाली' का उस पर लगाया गया आरोप महज एक हादसा था।"

"पहले मुझे ये बताओं कि सागर कहां है?" स्पीकर पर पत्नी का आवाज सुन एक क्षण के लिए वह सिहर गया। इस बदलते घटनाक्रम को देखकर वह कार को रास्ते के एक ओर रोककर पूरा माजरा समझने का प्रयास करने लगा। फोन पर पत्नी की मनोस्थिति महसूस कर वह अब वह खुद को निष्क्रिय सा महसूस करने लगा था।

"चिंता मत करो भावना! तुम्हारा पति मेरे साथ है और हाँ...., मैं ऐसा कुछ नही करने जा रही जैसा कि लोग मेरे बारें में सोचते है।" उसके शब्द जैसे सागर का उपहास उड़ा रहे थे जो अपने कई कथित साथियों की तरह उसके बारें में एक गलत राय बना बैठे थे। "........ और हाँ न ही मैं तुम्हारी निष्ठा और समर्पण पर कोई सवाल उठा रही हूँ। बस मैं तो....." अपनी बात कहते हुए उसने एक जलती नजर पास बैठे सागर पर गड़ा दी थी। "मैं तो उस सवाल के बारें में सोच रही हूँ जिसका उत्तर मुझे उस दिन भी नहीं मिला था और आज भी नहीं मिला है। यदि पत्नी हर तरह से समर्पित है और उसके बाद भी पति के कदम भटकते है तो ये महज उनकी कामनाओं की दुर्बलता है या सदियों से नारी को भोग्या मान लेने की नर-मानसिकता।"

कामना बात पूरी कर, कार का दरवाजा खोल जा चुकी थी और सागर पत्थर बना फोन की ओर देख रहा था जिस पर अभी भी पत्नी की 'हेलो-हेलो' गूंज रही थी। दूर कहीं शाम का ढलता सूरज रात में बदल चुका था।

विरेंदर ‘वीर’ मेहता

(मौलिक व् स्वरचित)

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