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फाईल क्लोजड

फाईल क्लोजड

"देख 'कालि' ! तेरी 'मेमसाहब' ने रिपोर्ट की है थाने में, सच सच बता दे 'बड़े साहब' को, क्या चोरी करके भागा है तू शहर से?" हवलदार तेज आवाज में पूछ रहा था और ‘कालि’ अपने पराये लोगो के बीच माँ के साथ खामोश खड़ा पैर के अंगूठे से कच्चे आँगन की मिटटी कुरेद रहा था।

...आंध्र प्रदेश के छोटे से जिले का एक पिछड़ा हुआ गाँव था चिन्दनी गाँव, जिसके अधिकांश घर गरीबी के चंगुल में जकड़े हुए थे और आस पास के शहरों में छोटी मोटी नौकरी कर के अपनी गुजर बसर किया करते थे। इन्ही में से एक थी तम्या। जो अपने पति के छोड़ जाने के बाद अपने तीन बच्चों के साथ अपना जीवन गुजर रही थी। उसी का सबसे बड़ा बेटा था कालि। तेरह वर्ष की कच्ची आयु में कालि गाँव से करीब दो सौ किलोमीटर दूर एक शहर में किसी व्यवसायी के यहां घरेलु नौकर के तौर पर काम करता था लेकिन कुछ रोज पहले ही वह वहां से भाग आया था।..

आस पड़ोस के लोग, गाँव में शहर के दारोग़ा के आने से हैरान से कभी 'कालि' को तो कभी उसकी माँ को देख रहे थे जो सर झुकाये चोरो की तरह खड़े थे।

कच्चे मकान की कच्ची दीवारे, गोबर-मिट्टी से पुता आँगन, एक कोने में बने मिट्टी के चूल्हे में अधजली लकड़ी और पास में रखे बेडौल से अल्मुनियम के बर्तन। कपड़ो के नाम पर माँ बेटे के तन को बमुश्किल ढकते जोड़ लगे पुराने लिबास।..

बड़े साहब जो अभी तक इन सारे बदहाल हालात का जायजा ले रहे थे उसे गहरी नजर से देखते हुये अपनी आवाज में कोमलता लाते हए बोले। "डर नही बेटा, सच सच बता ! वहां से चोरी करके लाया था कुछ ?"

"नही साब.. कुछ नही।" बड़ी कठिनाई से कुछ शब्द उसके मुँह से निकले, डर उसकी आँखों में गहराई तक नजर आ रहा था।

"फिर अपनी मालकिन को बिना बताये, चुपचाप रात में क्यों निकल आएं?" उसकी घबराहट देखते हुए बड़े साहब ने अपनी आवाज को और अधिक नरम करने का प्रयास किया।

"साब! हम तो मेमसाहब से घर आने की छुट्टी और साल भर का मजूरी मांगत रही पर..." उसने हिम्मत कर बोलना शुरू किया। "...पर 'वो' बोलन रही, ना पैसा मिलेगा ना घर जाने दूंगी, यही रहेगा अब तू हमेसा के लिये।.. बहुत मारा साब।" उसकी आँखों में आती नमी का असर उसकी आवाज में आने लगा था। "क्या करते साब? भाग निकले रात में ही, गाँव की ओर...!

"और साथ में कितने नोट समेट लाया रे वहां से।" पास खड़े हवलदार की आवाज तंज भरी थी।

नही साब, कुछ नही ! बस मेम साहिब की सब्जी-भाजी लाने के कुछ पैसे बचे थे मेरे पास, बस उन्ही पैसों से गांव लौट आया।" कालि की आवाज में अब कुछ हिम्मत आ गयी थी।

"गाँव लौट आया !" हवलदार ने आदतन गहरा कटाक्ष किया। "अरे तुझे यहाँ कोनो काम मिल रहा था जो चला आया यहाँ।"

"साब ! बंधुआ मजूरी ही करनी है तो गाँव मे ही करेंगे ना...." कालि की डरी डरी आखों में जाने कहाँ से एक चमक सी नज़र आने लगी थी। "... भूखे पेट भी रहेंगे तो अपनी 'माई' का आंचल तो रहेगा ना सर पर।"

काफी ध्यान से उसकी बातों को सुन रहे बड़े साहब देर तक उसकी आँखो में झलकते डर, झलकती चमक और झलकती सच्चाई को देखते रहे, देखते रहे ।...

और चंद घंटो बाद ही बड़े साहब वापिस शहर की ओर लौट रहे थे। रोडवेज बस की यात्रा, दिन भर की थकावट और ठंडी हवा के झोंको से उनकी पलके बोझिल होने लगी थी। उनकी गोद में पड़ी केस फ़ाइल पर लिखे शब्द 'फाईल क्लोजड' उन्हें बार बार अपने आप से ही उलझा रहे थे।

"क्या मैंने कालि को छोड़कर सही किया?" ये प्रश्न बार उनके मन को मथ रहा था। वो समझ नहीं पा रहे थे कि उनका लिया फैसला सही है या नहीं। गाँव पीछे छूटता जा रहा था और शहर की दुरी कम होती जा रही थी। खिड़की से बाहर देखते हुये वो एक बार फिर से अपने फैसले पर सोचने लगे। अनायास ही उन्हे मुन्ना की याद आ गयी। सागर किनारे की शांत सुहानी शाम जहाँ वह अक्सर दिन भर का तनाव दूर करने के लिए चले जाते थे और सागर की शांत लहरों को के साथ अपना समय बिताया करते थे। वहीँ उन्होंने पहली बार देखा था मुन्ना को! 'मुन्ना'! तेरह वर्ष की किशोर उम्र में बाल्टी लिये 'चना दाल' बेचता मुन्ना।... वो अतीत में खोते चले गये।

"मुन्ना, ये गुब्बारे किसी को देने के लिये खरीदे है क्या?" अपनी रोजाना की दिनचर्या की तरह मुन्ना से चना दाल लेकर खाते हुये उसके हाथ में दो तीन गैस के गुब्बारे देखकर उन्होने कहा था ।

"नही साहब! ये तो मैंने खुले आसमान में छोड़ने के लिये खरीदे है।" मुन्ना मुस्करा कर बोला था।

"ओह! 15 अगस्त है आज, आजादी की खुशी में उड़ाओगे आसमान में।" जवाब में वो भी मुस्कराये थे।

"ऐसा ही मान लो साहब पर सच तो ये है कि ये सब मेरी अपनी आजादी की खुशी में है जिसे मैं आज मनाने जा रहा हूँ।" वो जवाब देते हुए हँसने लगा था ।

"अपनी आजादी! मैं कुछ समझा नही।" उन्होंने अपनी प्रश्नवाचक नज़रे मुन्ना पर डाली थी।

"हाँ साहब। एक बरस पहले तक मैं एक सेठ के यहां बंधुआ मजदूर की तरह गुलामी किया करता था।" मुन्ना किसी दार्शनिक की तरह अपनी बात कहने लगा था। "और आज ही के दिन मैने अपने जालिम सेठ की गुलामी छोड़ ये 'चना दाल' बेचना शुरू कर अपनी आजादी पायी थी।" अपनी बात पूरी करते हुए मुन्ना ने हाथ में पकडे गुब्बारे खुले आसमान में छोड़ दिये थे और देर तक उपर आसमान में देखता रहा था।...

"पों पों..." अनायास ही बस के हाॅर्न की आवाज उन्हे अतीत से वर्तमान में ले आयी। वो मुस्कराने लगे, अपने किये फैसले पर अब उन्हें कोई दुविद्धा नहीं रही थी। उनकी शंका का समाधान हो चुका था और वह प्रसन्नचित से अपनी यात्रा की ।

विरेंदर ‘वीर’ मेहता

(मौलिक व् अप्रकाशित )

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