न जानें क्यों VIRENDER VEER MEHTA द्वारा यात्रा विशेष में हिंदी पीडीएफ

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न जानें क्यों

न जानें क्यों

"प्रा जी अगर कोई प्रोब्लम न होवे तां, तुस्सी विंडो वाली सीट मैनूं दे सकदे हो।" उस स्मार्ट से सिख नौजवान ने पंजाबियत की जानी पहचानी खुशबू लिए भाषा में कहा तो बहुत प्रेम से था लेकिन फिर भी अनचाहे ही मैं अनमना सा हो गया।

. . . . बात बहुत पुरानी है। करीब 25 वर्ष हो गए, लेकिन आज भी मैं वो वाक्या भूला नहीं हूँ। विवाह के बाद ये पहली बार था जब मैं पत्नी को लेकर बर्फीली वादियों में घूमने जा रहा था और उस दौर में नई–नई चली ‘डीलक्स वीडियो कोच बस’ जो आज की ‘वॉल्वो’ से कहीं कम नहीं थी, में मिली आख़िरी खिड़की वाली सीट पर बैठने के अहसास के बीच रोमांस भरी यात्रा के बारें में सोचकर ही मैं रोमांचित हो रहा था तो जाहिर है ऐसे में उस युवक के ‘प्रपोजल’ से मेरा मूड अपसेट होना स्वाभाविक ही था।

मेरी ओर से कोई जवाब न मिलता देख और चेहरे पर आई दुविधा को भांप उस युवक ने इस बार अपनी बात दोहराते हुए कारण भी बता दिया। "देखिये, दरअसल मैं सिगरेट पीता हूँ और मेरी वजह से आप को कोई ‘प्रोब्लम’ न हो इस लिए मैंने आप से 'विंडो सीट' के लिए कहा है।"

अब बात मेरे सोचने की थी क्योंकि एक तो पत्नी को सिगरेट के धुएं से दिक्कत होती थी और फिर दुसरे, इस मुद्दे पर किसी तरह का कोई अधिक वार्तालाप करके हम सफर का मजा भी खराब नही करना चाहते थे लिहाज़ा हमने खिड़की वाली सीट का मोह त्याग, उस युवक को सीट देने का फैसला कर लिया।. . . .

तय समय के कुछ समय बाद आखिर यात्रा शुरू हो गयी और दिल्ली शहर की भीड़-भाड़ को पीछे छोड़ते के बाद, जल्दी ही बस ने दिल्ली सीमा को पार कर लिया और दिल्ली से बाहर निकलने के साथ ही बस ने भी 'गति' पकड ली। हम पति-पत्नी भी अब उसकी मौजूदगी पर अधिक ध्यान न देकर अपने रोमांस में खो गए। वह युवक लगभग हम उम्र होने के साथ अच्छे परिवार का भी लग रहा था, सो बीच-बीच में उस से भी हलकी-फुलकी बातों का दौर चल निकला। जल्दी ही बस ने ‘सोनीपत’ पार कर लिया था। पहले से अपनी फिक्स की गई जगह के हिसाब से बस वाले ने एक ढाबे पर रात के भोजन के लिए बस रोक दी। भोजन के बाद जल्दी ही हमारा अच्छा परिचय उस सिख युवक से हो गया और हमारे बीच अजनबीपन की दीवार भी गिर गई।

. . . यात्रा आगे शुरू हो गई थी, उस युवक से बीच-बीच में होने वाली बातों के दौर के बीच उसकी कही एक बात ने हमारी बातों का रुख कहीं और ही मोड़ दिया।

"प्रा जी मैनू सिगरेट पींदे देख तुवानु हैरानी तां बड़ी होयी होवेगी (भाई जी आप को मुझे सिगरेट पीते देख हैरानी तो काफी हुयी होगी)"

ये सच भी था की एक सिख को सिगरेट पीते देख हम दोनों स्वाभाविक तौर पर हैरान भी थे क्योंकि इससे पहले कभी हमने ऐसा देखा नही था, लिहाजा हमने मुस्कराते हुए उसकी बात पर सहमति जता दी।

"प्रा जी मेरा नाम जसमीत है, ते मैं जम्मु दा रहन वालां वां... ओह सॉरी मैं अपनी कहानी हिंदी में बताता हूँ, ज्यादा अच्छा रहेगा।" हालांकि हम पंजाबी बखूबी समझ रहे थे लेकिन शायद उसने हमारी हल्की मुस्कराहट के मद्देनजर अपनी बात हिंदी में कहने का विचार किया। "प्रा जी मैंने कुछ साल पहले देश सेवा के लिए आर्मी ज्वाइन की थी, वैसे आजकल मैं राज्यस्थान सीमा पर तैनात हूँ लेकिन ट्रेनिंग के बाद मेरी पहली पोस्टिंग में ही मुझे "शान्ति सेना" (श्रीलंकायी संघर्ष में) का हिस्सा बनकर, देश की सेवा करने का मौका मिला था। उस दौरान न तो मैं आर्मी के सख्त जीवन के बारें में अधिक जानता था और न ही मुझे किसी तरह का अनुभव था। लिहाजा कई बार घने जंगलो में संघर्ष के बीच हम आर्मी वालों को कुछ ऐसे हालातों का सामना करना पड़ जाता था कि उस दौरान मेरे अन्दर की देश भक्ति और मेरी हिम्मत मुझे अक्सर धिक्कारने लगती थी।"

अब हम दोनों पति-पत्नी बड़े ध्यान से उसकी बात सुनने लगे थे, रोमांस भरी यात्रा के बीच रोमांचक कहानी की यात्रा भी शुरू हो गयी थी। लेकिन जसमीत के चेहरे पर एक अजीब से झलकते दर्द से हमें कुछ उलझन भी होने लगी थीं।

"प्रा जी सच कहूं उस समय तक मैंने कभी सिगरेट को हाथ भी नहीं लगाया था।" उसने हाथ में पकड़ी सिगरेट का एक गहरा कश लिया और अपनी बात कहना जारी रखा। "लेकिन ऐसे ही कई बार हुए संघर्षों के दौरान जब हमें हथियारों के साथ उन श्रीलंकाई लोगों से सामना करने पर 'फायर' का आदेश दिया जाता और उसके बाद हमारे निशाने पर जो भी सामने आता, हमें उनमें सिर्फ और सिर्फ एक ही रंग दिखाई देता। वह रंग था लाल रंग यानी खून का रंग। ये लाल रंग कभी जवान, कभी किसी उम्रदराज और कभी-कभी महिलाओं और बच्चों की शक्ल में सामने होता था। और यही लाल रंग का खेल खेलकर, जब हम अपने 'कैम्पस' में लौटते तो अक्सर हमारी रातों को ये लाल रंग इतना खौफनाक बना देता था कि हम सोने के लिए अपनी आँखें तक बंद नहीं कर पाते थे।. . .”

कहते हुए जसमीत सिर्फ एक क्षण के लिए रुका, लेकिन हमें वह एक क्षण ही शायद बहुत लंबा अंतराल लगने लगा था। “. . . बस प्रा जी ऐसे ही किसी समय में मन के सकून के लिए मेरे एक साथी ने मुझे ये सिगरेट हाथ में थमा दी थी और शायद तब यह सिगरेट मेरा कितना बड़ा सहारा बनी थी, मैं ही जानता हूँ। वह दौर तो गुजर गया लेकिन ये सिगरेट हमेशा के लिए मेरी साथी बन गई।" कहते-कहते जसमीत चुप हो, एक नई सिगरेट सुलगाने लगा था और हमारे बीच अनायास ही एक ख़ामोशी छा गयी थी।
“. . . .हाँ ये जरुर है प्रा जी कि अब ये मेरी आदत बन गयी है जिसे मैं चाहकर भी नहीं छोड़ पा रहा हूँ।" कहते हुए जसमीत ने सुलगाई हुयी सिगरेट का एक लंबा कश लिया और हमारी ओर देख मुस्कराने लगा।

लेकिन हम दोनों पति-पत्नी अब चाह कर भी नहीं मुस्करा पा रहे थे। हमारी रोमांस भरी यात्रा, जाने कहाँ उस 'लाल रंग' की उदासियों में खो गयी थी जहां ‘शांति’ के नाम पर जाने कितनी अशांति का माहोल बना दिया जाता है। और फिर बाकी यात्रा में हम सिर्फ सोचते ही रहे, सिर्फ सोचते ही रहे . . . . न जाने क्यों ?

विरेंदर ‘वीर’ मेहता

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