बिटिया! बदल गई तुम VIRENDER VEER MEHTA द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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बिटिया! बदल गई तुम

बिटिया! बदल गई तुम

मेरी प्यारी बिटिया,

ढेरों प्रेम भरा स्नेह और आशीर्वाद।

जानता हूँ अपने मेल बॉक्स में मेरी मेल देखकर तुम हैरान अवश्य हो रही होगी, क्योंकि शायद ही कभी मैंने तुम्हें कोई पत्र लिखा होगा और वह भी इस आधुनिक ढंग से। दरअसल आज सुबह से ही तुमसे कुछ कहना चाहता था लेकिन फ़ोन पर कह सकूँगा या नहीं, इस बात का संशय था। फिर पत्र में लिखकर भेजने का विचार आया, लेकिन डाक में इसका जल्दी मिलना भी संभव नहीं था। और मैं अपनी बात तुम तक जितना जल्दी हो सके, पहुँचा देना चाहता था। अनायास ही मेरे मन में विचार आया, कि क्यों न मैं अपनी बात तुम्हें मेल के जरिये भेज दूँ। और फिर यही विचार फाइनल होने के बाद आखिर रात के दूसरे पहर, मैंने अपना लैपटॉप उठा लिया।

मैं ये 'पत्र' तुम्हें कभी नहीं लिखता और शायद ये सब जान भी नहीं पाता, यदि तुम्हारी माँ से हुई तुम्हारी बातों की जानकारी मुझे नहीं मिलती। मुझे पता ही नहीं लगता कि तुमने अपनी बचपन की सखी के 'एक गलत फैसले' पर न केवल उसका समर्थन किया है, बल्कि उसके फैसले में मददगार भी बनने जा रही हो।

बिटिया, कहते हैं कि घर में एक बच्चा 'गर्ल चाइल्ड' तो होना ही चाहिये। देवी का रूप होती हैं लड़कियाँ। लेकिन मेरे परिवार की तो 'चाइल्ड गर्ल' भी तुम ही थी और 'चाइल्ड बॉय भी तुम। और वैसे भी ये दैवीय रूप तो हर बच्चे में होता है, बस जरूरत है इसे दिल से महसूस करने की।

सच कहूँ तो हमारे जीवन का तो ध्येय ही तुम रही और लक्ष्य भी तुम ही रही। तुम हमारे लिए हमेशा ही एक इन्द्रधनुषी सपना रही हो जिसके रंगों में हमें तुम्हारा हंसना, बोलना, रुठना, रोना और तुम्हारा सोना-जागना, सभी कुछ नजर आता रहा है। इन्हीं इन्द्रधनुषी रंगों के आसमान में अपने रंग बिखेरते-बिखेरते तुम कब इतनी सयानी हो गई कि कब अपने प्रश्नों के उत्तर पूछते-पूछते तुम हमारे प्रश्नों के उत्तर भी देने लगी, हमें पता ही नहीं लगा।

शायद तुम्हें याद होगा, कि जब एक दिन 'लिंग-विभेद' के प्रश्न पर मैंने तुम्हे समझाना चाहा था कि 'इट्स नेचुरल बेटा; होता है ये समाज में।' तो सहज ही कितने प्रश्नों की झड़ी लगा दी थी तुमने? "नहीं पापा. . . . इट्स नॉट नेचुरल। नहीं होना चाहिए ऐसा, और आप तो कभी नहीं करते पापा। और जो करते हैं, नामसझ हैं वे, अशिक्षित हैं वे लोग, उन्हें तो अपनी बेटियों को पढ़ाना चाहिए पापा। आखिर यही तो रास्ता है इन रूढ़ियों को काटने का।"

मैं अक्सर सोचता था। अगर ऐसे प्रश्न पूछने वाली बेटियाँ, बहुएँ हमारे समाज में जाग्रत हो जाए तो कोई कारण नहीं कि हमारा समाज नारी से जुड़ी विसंगतियों पर अंधकार के माहौल में रहे। ऐसी विचारधारा से तो इन विसंगतियों का अंत होना निश्चित ही है। लेकिन . . . आज तुम्हारी बात ने मुझे अपनी बात पर फिर से सोचने पर विवश कर दिया है। मुझे लगता है कि हमारी शिक्षा में ही तो कोई कमी नहीं रह गई थी जो आज तुम वह करने जा रही हो, जिसके लिए मेरे विचार कभी तुम से सहमत हो ही नहीं सकते।
सुनो बिटिया, हमारे लिए तो तुम बेटी भी रही हो और बेटा भी। हमने हमेशा तुम्हें कहा था कि जब भी तुम्हें लगे कि बेटी होने के कारण हमने तुम्हारे साथ कोई फ़र्क़ किया है, तो चुप मत रहना; विरोध करना हमारा; लड़ जाना हमसे, लेकिन झुकना मत हमारे सामने। ये समाज भी तब ही बदलेगा, जब तुम्हारे जैसी बेटियां आक्रोश रूपी विरोध की मशाल लेकर इस समाज की वंशवादी सोच को ध्वस्त करेंगी।

मुझें बहुत शर्म आती है ये कहते हुए कि कभी हमारे इस 'महान देश' में हजारों बेटियों को जन्म लेते ही मार दिया जाता था। समय बदला, लोग पहले से अधिक शिक्षित हो गए। लगा अब ऐसा नहीं होगा। लेकिन नहीं, हालात नहीं बदले। हाँ, सच में हालात नहीं बदले। हाँ तकनीक जरूर बदल गई, तरीके बदल गए हैं। अब बेटी को जन्म लेने की प्रतीक्षा नही करनी पड़ती। अब कोख में ही पहचान करने की तकनीक एक 'कँटीला वरदान' जो बन गई है, कुछ हृदयहीन मानव रूपी दैत्यों के लिये। दरअसल उन्हें सच में नहीं पता कि बेटियाँ क्या होती हैं? जिन लोगों ने स्वर्ग देखा ही नहीं, उन्हें उसके सुख का अनुभव हो भी नहीं सकता।. . .

बस बिटिया! अगर समझ सको तो यही सब बताना है तुमने, इस गूंगे और बहरे समाज को। उस समाज को जो न सच बोलना चाहता है और न सच सुनना चाहता है। हाँ ये हो सकता है, तुम्हें भी लगा हो कि पितृसत्ता में वंश का बहुत महत्च होता है। क्योंकि ये बात युगों-युगों से भारतीय सभ्यता के मन में कूट-कूट कर भर दी गई है। इसी कारण पुत्र की कामना हर भारतीय परिवार में की जाती है। लेकिन ध्यान रखना बेटी, इन्सान अपने कर्मों से अपनी पहचान बनाता है। वंश और परम्पराएं, ये सब तो एक छलावा है जो हर युग में इंसान को छलती आई हैं।

बिटिया, तुम्हारा जन्म बेशक एक नारी रूप में हुआ है, लेकिन सिर्फ इसी से तुम्हारा महत्व कम नहीं हो जाता। सृष्टि के लिए जितनी जरूरत पुरूष की है उससे कहीं अधिक स्त्री की है। यही बात समझानी है तुम्हें अपनी सखी को। हो सकता है कि वह भी किसी दवाब में ही ऐसा निर्णय ले रही हो या हो कता है वह तुमसे नाराज हो जाए, तुम्हारे इस असहमति और असहयोग भरे उत्तर से। लेकिन
दोनों ही स्थितियों में तुम्हें अपने निर्णय पर डटे रहना होगा। अपने निर्णय से अपनी सखी को ही नहीं, उसके परिवार को भी सहमत करने का प्रयास करना होगा। अपने निर्णय का औचित्य बताना होगा सबको। जानता हूँ कि बहुत कठिन है यह सब, लेकिन यदि तुमने एक परिवार को भी इस नेक कार्य के लिए सहमत कर लिया तो ये एक बहुत उपकार का कार्य होगा बेटी। बस यह मान लो कि अपनी सखी के आसपास छाए दवाब और असमंजस के बादलों का छांटना ही तुम्हारी प्राथमिकता होनी चाहिए।. . .

और क्या कहूँ बिटिया, बस एक बात हमेशा याद रखना कि हमने तुम्हें स्त्री रूप में ही एक सम्मानित जीवन देने का पूरा प्रयास किया है और हम हमेशा चाहेंगे कि तुम भी किसी आने वाली 'स्त्री शक्ति' के जन्म का विरोध करने वाली न बनों, बल्कि उसके लिए स्वयं एक शक्ति बनकर सामने खड़ी हो जाओ। बहुत कुछ कह चुका हूँ अपना अधिकार समझकर, एक बार सोचना जरूर।
मेरा कर्तव्य था तुम्हें ये सब याद दिलाना। अब आगे क्या करना है, यह निर्णय तुम्हारा है, आख़िर तुम स्वयं बहुत समझदार हो।

अनगिनित उम्मीदों के साथ. . .
सस्नेह सहित और असीम आशीर्वाद के साथ
तुम्हारा पिता।

विरेंदर 'वीर' मेहता