Aastha ke rang books and stories free download online pdf in Hindi

आस्था के रंग

आस्था के रंग

विश्वास ही जीवन का मूल आधार है। विश्वास यानि आस्था। और वस्तुतः आस्था किसी भी परिघटना को, किसी प्रमाणिक तथ्य के बिना ही सत्य मान लेने का विश्वास है। लेकिन कभी-कभी आस्था जीवन के सभी अन्य मूल्यों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण और सर्वोपरी हो जाती है। कभी धर्म, कभी अंधविश्वास, कभी आडम्बर, कभी परोपकार और कभी विश्व-कल्याण जैसे कई रूपों में अक्सर नजर आने वाली आस्था के न जाने कितने रंग दिखाई देते हैं हमें जिन्दगी में, ऐसे ही कुछ रंगों को समेटा हैं मैंने अपनी कुछ लघुकथाओं में। प्रस्तुत हैं पाठकों के सम्मुख इन्हीं रंगों की एक झलक, इस आशा के साथ कि चाहे-अनचाहे ये रंग किसी के जीवन में उजाला बनकर बिखर जाएँ तो मेरे शब्दों को भी सार्थकता मिल जाए......... सादर।

/वीर/

01 देवी >>> “मात्र परम्पराओं का पालन और इश्वेरीय पूजा ही तो आस्था नहीं !“

परिवार में सब उत्साहित थे क्योंकि इस बार नवरात्रों में दुर्गा माँ की स्थापना के लिये शिवा स्वयं माँ की प्रतिमा बना रहा था। आखिरकार जब दुर्गा माँ की प्रतिमा तैयार हो गयी थी और अपने सधे हुये हाथों से शिवा प्रतिमा को अन्तिम 'टच' देने मे लगा हुआ था, तभी उसकी पत्नी उमा ने उसे 'जो' कहा उसे सुनकर ही वह काठ हो गया था। और अब, जब प्रतिमा स्थापना की पूजा के लिये उसका पुत्र उसे बुलाने आया।

"पिताजी, पूजा प्रारम्भ हो रही हैं और आप अभी तक तैयार......।"

उसकी बात बीच में ही काटते हुये शिवा बोल उठा। "बेटा, हम पति-पत्नी तो पूजा में नहीं आ पायेंगें।" बेटे सहित पुरे परिवार के प्रश्नचिन्ह बने चेहरों की ओर देखता हुआ शिवा दु:खद स्वर में अपनी बात कहता चला गया। "बेटा, पंडाल में जिस 'देवी' की पूजा होने जा रही हैं वह तो मेरी बनायी मात्र मिट्टी की प्रतिमा हैं। लेकिन... हमारे परिवार मेँ खुशियाँ लेकर जो जीती जागती 'देवी’ आने वाली थी, उस देवी माँ को तो 'तुम दोनो' (पुत्र और पुत्रवधु) ने पूजा से पहले ही 'विसर्जित' कर दिया हैं।

02 शंका >>> “यदि आस्था मात्र औपचारिकता और दिखावट ही है, तो क्या लाभ?”

"अमर! गाडी पंडितजी के घर के आगे लगाकर जरा उन्हे तनिक बाहर बुला लाओ।" सेठ जी ने अपने ड्राईवर को आज्ञा दी।

कुछ ही क्षण बाद अमर के पीछे पंडितजी बाहर आते नजर आये। "सेठजी राधे राधे। मैं गीता पाठ कर रहा था बस आप के आने की बात सुन पाठ छोड़ चला आया, कहिये कैसे याद किया आपने?"

"राधे राधे पंडितजी।" सेठजी मुस्कराने लगे। "कुछ खास नही, आप के लिये कुछ वस्त्र लिये थे सोचा गुजरते हुये दे जाऊं।"

पंडितजी से 'आयुष्मान भव:' का आशीर्वाद पा सेठजी की गाडी आगे चल पड़ी। अमर 'बैक मिरर' में सेठजी को देखते हुये हैरान हो पूछने लगा। "सेठजी आप तो पंडितजी को सत्यनारायण की पूजा के लिये कहने वाले थे न !"

"हाँ बेटा, लेकिन जिस व्याक्ति की अपनी पूजा में ही सम्पूर्ण श्रद्धा नजर नही आ रही उससे पूजा करवाना......!" कहते कहते सेठजी चुप हो गये।

03 नास्तिकता-एन आउटलुक >>> “ये जरुरी तो नहीं कि हमेशा एक आस्तिक की आस्था सच्ची, और नास्तिक की झूठी होती हो!”

एक ही पेशा था हम दोनों का, और अक्सर किसी बड़े काम में दोनों साथ मिलकर काम को अंजाम दिया करते थे। इस बार भी ऐसा काम हाथ में आया तो पूरे योजनाबद्ध तरीके से हमने उसे अंजाम दिया और मंदिर से दूर निकल आये। हमेशा की तरह चोरी किये माल की गठरी के दो हिस्से करने के साथ मैं सामान की कीमत का आंकलन कर रहा था जब उसने कहा, "मुझे लगता हैं कि हमें यह सब नहीं करना चाहिए था।“

"तुम पीछे किसी सबूत छूट जाने के बारें में सोच रहे हो क्या?” मुझे लगा कि शायद ऑपरेशन में कोई गलती कर दी है हमनें।

‘..........’

“शायद तुम वहां लगे ‘सी.सी.टी.वी.’ की सोच रहे हो, उसकी टेंशन मत लो क्यूंकि मैं पहले ही सारे तार काट चुका था।"

"नहीं, मैं इस बारें में नहीं सोच रहा, तुमने वहां दिवार पर बनी तस्वीरें देखी थी?” उसके मन में शायद कुछ और था।“

“तस्वीरें! सहसा मेरे जहन में दिवार पर बनी ‘स्वर्ग-नरक’ से जुडी कई तस्वीरे उभर आई, मैं मुस्करा दिया। “ओह! तुम भी यार, मैं दो टाइम आरती करने वाला भी धंधे के बीच ये सब नहीं सोचता और तुम जो भगवान् पर पूरी तरह विश्वास भी नहीं करते, एक नास्तिक हो कर उन तस्वीरों का खौफ़ ले बैठे।"

"नहीं दोस्त डर उन तस्वीरों का नहीं हैं, जिन पर विश्वास ही नहीं उनका कैसा डर?" वह गंभीर था।

"फिर!"

"दोस्त, मेरी आखें तो अभी तक उन शब्दों पर गड़ी है, जिन्हें मैं अपनी भूख और लालसा की अँधेरी गलियों में भूला बैठा था।

"....भूख-प्यास सिर्फ तुम्हारे शरीर को जला सकती हैं, लेकिन भूख के लिए किया गया अपराध तुम्हारे समस्त जीवन मूल्यों को जला देता हैं" मंदिर की भीतरी दिवार पर लिखे शब्दों की याद आते ही मैं खिलखिला उठा। "वाह दोस्त एक नास्तिक हो कर धर्म की किताबों में लिखे शब्दों से डरने लगे।“

“मैं नास्तिक सही दोस्त, लेकिन इन शब्दों को मैं नकार नहीं सकता क्यूंकि ये शब्द मेरे भगवान् ने अपने आख़िरी समय में कहे थे।“ उसके चेहरे पर दर्द उभर आया।
“भगवान्.....!”
“हाँ मुझे जन्म देने वाले भगवान, मेरे पिता!” कहते हुए वह अपने हिस्से की गठरी छोड़, मेरी ओर से भी मुंह मोड़ चुका था।

04 श्राद्ध - एक परम्परा >>> “परम्पराएं आस्था का प्रतीक अवश्य होती हैं लेकिन ये जरुरी नहीं कि उन्हें निभाने के लिए एक ही ढर्रा अपनाया जाए।“

कार शहर को पीछे छोड़ अब बाहरी रास्ते पर दौड़ रही थी। सुबह हुयी बेटे से बहस के बाद उनकी हिम्मत नही हो रही थी कि बेटे से पूछे कि वह उन्हें कहाँ लेकर जा रहा हैं? सुबह की बातें एक बार फिर उनके कानों में गूंजने लगी थी।

"ओह बाऊजी, आप समझ क्यों नही रहें हैं? ये फ़ॉरेन हैं, यहाँ श्राद्ध जैसे ढकोसले करने का लोगों के पास समय नही हैं।" बेटा झुंझलाहट में था।

"लेकिन बेटा अपने पितरों की मुक्ति के लिए ये जरूरी हैं।"

"आप भी वर्षों से कैसे आडंबरों को ढोये चले जा रहे हैं बाऊजी, अब यहां के लोग ये सब नही करते तो क्या उनके पूर्वज़ो की मुक्ति नही होती?"

"पर बेटा, ये सब हमारी आस्था और परम्परा...."

“बस बाऊजी!" बेटे ने उनकी बात बीच में ही काट दी थी। "रहने दीजिये सुबह-सुबह ये बहस,मुझे और भी कई जरूरी काम हैं।"

............

"बाऊजी, बाहर आईये।" कार किसी वृद्धाश्रम जैसी इमारत के बाहर खड़ी थी और बेटा उन्हें बाहर बुला रहा था।

उनकी आँखों में एक क्षण में बेटे से जुड़े जीवन के सारे लम्हें गुजर गए। सुबह हुयी बहस के बाद बहु का बेटे को अंदर बुलाकर बहुत कुछ समझाने का रहस्य अब उनकी समझ में आ गया था, उनकी आँखें नम होने लगी थी।

"लगता हैं आप अभी तक नाराज हैं।" बेटा कह रहा था और वह विचारमग्न थे। "अरे बाऊजी ये देखिये इस इमारत की ओर, ये हैं 'पैराळायसिस होम'। और इस बार हम अपने पूर्वजों का श्राद्ध यहां रहने वाले लाचार लोगों की सेवा करके ही मनाएंगे बाऊजी! आपकी बहु का कहना हैं कि जरूरतमंदों और बीमारों की सेवा करना भी तो एक तरह का धर्म और पुण्य.....।" बेटा अपनी बात कहे जा रहा था और बाऊजी की नम आँखों में कुछ देर पहले अपनी बहु को गलत समझ बैठने के प्रायच्छित स्वरूप कुछ आंसू आशीर्वाद के ढलक आये थे।

05 अपोस्टटाइज़–एक पहचान >>> “क्या ईश्वर के प्रति आस्था केवल भौतिक चिन्हों की मोहताज हैं?”

"कहीं ये सब सपना तो नहीं!" ढलती शाम के साये में आँखें बंद किये वह स्वयं से ही बुदबुदा रहा था। "एक ही दिन में इतना पैसा, कच्ची छत की जगह पक्की छत का मकान और सुंदर कपड़ो सहित कई उपहार। ये सब तो शायद वर्षों तक नहीं बना पाता मैं।"

"हाँ नहीं बना सकता था तू लेकिन..." अचानक ही उसके अंतर्मन से आवाज आई। "इतना सब पाने के लिये जो तूने अपना सर्वस्व दांव पर लगा दिया, उसका क्या?"

"नहीं, मैंने कुछ गलत नहीं किया। मेरे लिए सबसे बढ़कर हैं मेरा परिवार, जिसके लिये मैं सब कुछ कर सकता हूँ।"

"क्या मेरा त्याग भी....?" सहसा कहीं से एक स्वर गूंजा।

"हाँ...हाँ...।" वह चिल्ला उठा। अनायास ही तीव्र प्रकाश से उसकी आँखें खुल गई और साक्षात् ईश्वर को सामने अनुभव कर उसका सर्वांग कांप गया। सर्वशक्तिमान की अवधारणा भय बनकर उसके मन-मस्तिष्क पर इस कदर छाई कि वह डर से काँपने लगा। "क्षमा प्रभु, क्षमा, .. . मेरे अपराध के लिये मुझे क्षमा करना प्रभु! मैं अपने दुःखों से हार गया था बस इसलिए अपनी पहचान भी.....।"

"नहीं पुत्र तुमने कोई अपराध नहीं किया हैं।" सामने खड़े प्रभु मुस्करा रहे थे। "तुमने मेरा त्याग कब किया पुत्र? तुमने तो केवल मेरे कुछ चिन्हों और प्रतीकों का अपने जीवन में स्थान परिवर्तन कर लिया हैं। पुत्र मुझे पाने के लिए इन सब की तो आवश्यकता ही नहीं हैं। मैं तो सदा ही तुम्हारें अंदर हूँ इसलिए मुझे पाने के लिए तो केवल तुम्हें स्वयं को ही पाना हैं पुत्र।"

दूर कहीं सूरज बादलों में ढलने लगा था लेकिन उसके भीतर एक नया सूरज उदय होने लगा था। "हाँ, मैं तो वस्तुतः एक मनुष्य हूँ, मुझे और किसी पहचान की आवश्यकता कहाँ?" कहते हुये वह अनायास ही अपनी बाहरी पहचान के चिन्हों से मुक्त होने लगा था।

06 सम्पूर्ण आस्था >>> “आस्था का अर्थ ही सम्पूर्ण समर्पण होता है, वहां शक की गुंजाइश तो हो ही नहीं सकती।“

पुलिस जिसकी तलाश में आई थी वह नहीं मिला, लिहाजा जरूरी कार्यवाही के बाद पुलिस वापस लौट गयी। आश्रम के बाहर भक्तों में शिकायत करने वाले के प्रति आक्रोश तो था लेकिन 'कलीन चिट' मिलने की संतुष्टि भी थी। अंदर, आश्रम के निजि कक्ष में आचार्य के सामने वह अपराधी बना खड़ा था।

"ये तुमने अच्छा नहीं किया कृष्णा।"

"मैं जानता हूँ आचार्य कि मैंने आपसे बात किए बिना पुलिस को खबर करके सही नहीं किया लेकिन....." उसकी नजरें आचार्य की ओर प्रश्नमुद्रा में उठी हुयी थी। ".......क्या ये सच नहीं कि आपने उस हत्यारे को यहां आश्रय दिया। हां, यह बात अलग है कि पुलिस कार्यवाही में वह नहीं मिला।"

"ये सही है कृष्णा कि हमने उसे यहां आश्रय दिया। वह घायल था और मानव धर्म के नाते उसकी मदद करना हमारा कर्तव्य था।"

"अर्थात आपने न केवल एक हत्यारे के लिये झूठ बोल कर कानूनन अपराध किया, बल्कि बाहर उपस्थित श्रदालुओं की आस्था से भी खेला।" कृष्णा के चेहरे पर व्यंग्य भरी मुस्कान थी।“

"नहीं ऐसा नहीं हैं, हमने केवल सच को छुपाया।" आचार्य सहज ही गंभीर हो गए। "आस्था एक पवित्र जल की तरह होती है कृष्णा, यदि इसमें विषरूपी अविश्वास की एक बूंद भी पड़ जाए तो वह संपूर्ण जल को नष्ट कर देती है। बस, यही हम नहीं चाहते थे क्यूंकि इस आश्रम से न केवल अनगिनित लोगों का विश्वास बल्कि मेरे पूर्ववर्ती गुरुओं की आस्था भी जुड़ी हुयी है।"

"लेकिन आपने उस अपराधी को बचाकर मेरा बरसों का जो विश्वास भंग किया है, उसका क्या आचार्य....?"

"कृष्णा! मेरे प्रति तुम्हारी सम्पूर्ण आस्था तो शायद पहले भी नहीं थी वरना एक बार तुम मुझसे वास्तविक स्थिति अवश्य जान लेना चाहते।" आचार्य के मुख पर एक अर्थमिश्रित मुस्कान आ गयी। "बरहाल जिस अपराधी की तुम बात कर रहे हो पुत्र; कभी वह मिले तो उससे आस्था के मायने अवश्य पूछना, क्यूंकि फिलहाल तो वह पुलिस के यहां पहुँचने से पहले ही जा चुका है और अब तक तो वह स्वेच्छा से आत्मसमर्पण भी कर चुका होगा।"

07 पाठ >>> “आस्था जब मन से पैदा होती है तो अक्सर अपने वास्तविक अर्थ मानवता में भी ढूँढ लेती है।“

"आ गए साहबजादे!" माँ के चुप रहने के इशारे के बाद भी शाम ढ़ले घर में घुसते ही, उसके पिता का बड़बड़ाना शुरू हो गया। "जाने कहाँ आवारागर्दी करता फिरता है ये लड़का सारा दिन।"

"कुछ गलत न करे है मेरा बेटा, अब किताबों में भी कितनी मगजमारी करे, कुछ देर दोस्तों में गुजार आवे है तो हर्ज ही क्या है?" माँ ने उसकी तरफदारी की कोशिश की।

"तो वही जाहिल लोग रह गए है दोस्ती के लिए।" पिता ने माँ को भी अपनी डांट की लपेट में ले लिया।

"पिताजी, अब ऐसे भी जाहिल न हैं वे लोग।" वह भी चुप न रह पाया।

"तो उस 'स्लम बस्ती' के 'नौनिहालों' के साथ मिलकर वहां कौन सा परम ज्ञान बांटते हो तुम! जरा हमें भी तो पता लगे।" पिताजी की आवाज थोड़ी तेज हो गयी।

"पिताजी आप अपनी आस्था में ईश्वर-भक्ति के साथ दान-पुण्य और कई तरह का पूजा पाठ करते है न...!" उत्तर की जगह बेटे के प्रश्न से पिता के चेहरे पर लकीरे खिंच गयी। "तो....?"

"......बस मैं और मेरे जाहिल दोस्त भी थोड़ी सी भक्ति की कोशिश कर लेते है। हमने वहां एक छोटा सा रक्त दान शिविर शुरू किया है जो ब्लड बैंक के साथ तालमेल करके उन गरीबों के लिये निशुल्क रक्त का इंतजाम करता है जो बेचारे हर तरफ से लाचार है।"

"ओह! तो अब उन अछूतों के बीच तुम्हें धर्म और संस्कार के मायने भी भी भूल गए।" पिता के चेहरे पर व्यंग झलक आया।

"नही पिताजी, ये संस्कार और आस्थाएं ही तो हैं जो मुझे प्रेरणा दे रहीं हैं और धर्म........! धर्म तो सदा कर्मो के पीछे-पीछे चलता है।" बेटे की आँखें अनायास ही पिता की आँखों से जा मिली थी। "यही पाठ तो पढ़ाया था आपने वर्षों पहले, जब इसी स्लम बस्ती के एक अछूत ने अपना खून देकर माँ का जीवन बचाया था।

08 आठवां फेरा >>> “क्या आस्था सिर्फ परम्परायें निभाने के लिए होती हैं? नहीं! समाज को दिशा देने के लिए इन्हें बदला भी जा सकता हैं, बस दृढ़ निश्चय होना चाहिए।“

"सातवां फेरा सम्पन्न हुआ, माता पिता वर-वधू को को आशीर्वाद देने के लिये आगे आये।" पंडितजी की आवाज पर बधाई गान के साथ-साथ लोग भी बधाई के लिये अग्रसर होने लगे।

"नही पंडितजी। अभी एक फेरा बाकी है, आठवां फेरा।" प्रधानजी की आवाज ने सब के चेहरे प्रश्नवाचक बना दिये लेकिन प्रश्न करने की चेष्टा कोई नही कर पाया कयोंकि कस्बे के सम्मानित प्रधानजी का अनादर करने की तो कोई सोच भी नही सकता था। कुछ देर के मौन के बाद आखिर पड़ितजी ने ही प्रश्न किया। "ये क्या कह रहे है आप? सभी जानते है कि हमारे शास्त्ररो मे भी सात फेरो का ही प्रावधान है।"

"जी पंडितजी। मैं भी ये भली भांति जानता हूँ लेकिन क्षमा चाहूँगा।" प्रधान जी ने विश्वासी आवाज में अपनी बात कहनी शुरू की। "शास्त्ररो ने मानव को नही गढा है बल्कि शास्त्र ही मानव द्वारा रचे गये है और समय-समय पर इन्हे कुछ बदला भी जा सकता है। सही कहा ना मैंने बेटा।" अपनी बात पूरी करते करते प्रधान जी अपने बेटे यानि 'वर' की ओर देखने लगे।

"जी पिताजी!" क्षण भर के लिये बेटे की नजरें पिता पर टिकी और फिर सभी को एक नज़र देखते हुये कहने लगा। "आज हमारे समाज में भ्रूण हत्या एक गम्भीर समस्या बनती जा रही है विशेषतः कन्या को तो अक्सर आने से पहले ही जीवन-मुक्त कर दिया जाता है और इस घोर परिस्थिति में यदि कोई परिवर्तन लाने के लिये पहल कर सकता है तो वह है युवा वर्ग यानि "हम"! और आज मेरे आदरणीय पिताजी इस विवाह समारोह में मुझसे यही पहल करवाना चाहते है।"

पंडाल में उपस्थित सभी लोगो के चेहरे पर असमंजस की स्थिति देख प्रधान जी ने बात को स्पष्ट किया।

"यहाँ सभी उपस्थित परिचितो और अथितिगणो! देखिये, मैं चाहता हूँ कि मेरा बेटा और उसकी होने वाली पत्नि, आज सात फेरो के सातों वचनों के साथ एक और वचन, अपने आंगन में भ्रूण हत्या के घोर अपराध को न करने का ले। बस यही है इनका आठवां फेरा।"

"लेकिन महोदय अतीत में ऐसा कभी नही हुआ।".....

"देवताओ के विवाह, यहाँ तक कि प्रभु राम का विवाह भी सात फेरो से ही सम्पन्न हुआ।"..... कुछ असहमति के स्वर मंडप में उभरे।

"लेकिन चाचा उस युग में 'देवी' को आने से पहले ही जीवन मुक्त भी नही किया जाता था" भरे पडांल में दूल्हन की आत्मविश्वासी आवाज ने लोगो को एक पल के लिये कुछ न कह पाने की स्थिति मे ला दिया।

"लेकिन प्रधान जी एक आप के ऐसा करने से तो समाज नही बदल रहा ना।" एक शंका भरी आवाज फिर उभर कर आयी।

"जानता हूँ सदियों की परम्परा एक दम से नही टूटेगी।" प्रधानजी मुस्कराकर बोले। "लेकिन आज मैं, कल तुम और परसो फिर कोई और। इस तरह मेरे आंगन से एक नई शुरूआत तो हो सकती है ना।"

"तो अब देर किस बात की है प्रधानजी। शुभ मूहर्त निकला जा रहा है आइये करते हैं नयी शुरूआत।" पडितजी ने सहमति की अलख जगायी और वर-वधु के आठवें फेरे के लिये आगे बढने के साथ ही मंडप में फिर से बधाई गान शुरू हो गया।

सभी रचनाएं मौलिक व स्वरचित

विरेंदर ‘वीर’ मेहता

अन्य रसप्रद विकल्प

शेयर करे

NEW REALESED