जनवरी २०१८ की कविताएं
१.
मन से कितनी धूल उड़ी
वे कहते यह राजनीति है
कोहरा जैसा जहां लगा है
वे कहते यह कूटनीति है।
भूमि जहां-जहां बंजर है
वे कहते हैं सब सरकारी है
नारे जो जो उनके हैं
वे कहते हैं पावन हैं।
मन से बहुत धूल उड़ी
वे कहते हैं राह साफ है
आसमान में धुंध लगी है
वे कहते हैं घन घिरे हैं ।
२.
स्वर में अपना स्वर मिला दे
आभा समय की सस्वर कर दे,
प्राणों के निर्भय उड़ान में
अपने स्वर का लय मिला दे।
जीवन के शाश्वत लक्ष्य में
सरल शब्दों से सत्य घोल दे,
मन की उर्जा तेजोमय कर
सुख के गांव-शहर बना दे।
नव उमंग की नयी ताजगी
जिह्वा से नि:सृत कर दे,
जड़ -चेतन के शान्ति वेग को
ममतामयी स्पर्श थमा दे।
३.
बसंत लौट आया क्या
सत्तर साल पहले वाला
दो सौ साल पहले वाला
पांच सौ, हजार साल पहले वाला
दो हजार , ढ़ाई हजार साल पहले वाला
किससे पूछूँ, बसंत का पता?
बसंत लौट आया क्या भारत का
वह तक्षशिला, नालन्दा वाला,
सोने की चिड़िया वाला,
लौटेगा तो कब लौटेगा
पूछना संसद से, लोकतंत्र से।
४.
मेरी अभिव्यक्ति चलेगी
तेरी अभिव्यक्ति नहीं चलेगी,
मेरा आन्दोलन चलेगा
तेरा आन्दोलन नहीं चलेगा,
मेरी आजादी खतरे में है
तेरी आजादी बेमतलब है,
मेरा सम्पूर्ण क्रांति अच्छी है
तेरी क्रांति असंवैधानिक है,
मेरा मंदिर बनना चाहिए
तेरा मंदिर धसना चाहिए,
अन्त में जिसकी लाठी उसका भैंस?
५.
मृत्यु के आरपार:
तुमसे विदा होने का दुख है
उससे मिलने का सुख है,
तुम्हारी बातों का अमिट स्वाद है
उसकी बातें सुनने का मन है।
तुम्हारे होने का आनन्द है
उसके मिलने की जिज्ञासा है,
तेरी मुस्कानों की यादें हैं
उसकी हँसी खुलने की प्रतीक्षा है।
तुम्हारा साहचर्य अद्भुत है
उसका लावण्य मोहक है,
तुम से कहने का मन है
उसको सुनने का दिल है।
६.
एक बात कहूँ
कि हिमाचल, उत्तराखंड में बर्फ गिर रही है
उसकी ठंड दूर दिल्ली में लग रही है
अंगीठी याद में जल रही है,
दादा दादी, नाना नानी की कहानियां गटबटा रही हैं,
बरसों पुराना प्यार गरमाहट ला रहा है।
देखो, पतझड़ हर बरस आता है
मनुष्य में भी, प्रकृति में भी,
नदियां ठंडी हो चुकी हैं,
रास्तों पर कोहरा है
कुछ जनता के लिये, कुछ प्रकृति के लिए
इस ठंड में भी मन भटकता है
कभी धूप के लिये,कभी आग के लिए।
एक बात कहूँ
आवाजें सुनायी दे रही हैं
प्यार की,ममता की,दया की
त्याग की,बलिदान की,शौर्य की
स्वतंत्रता की, राजा -रानी की।
लगता तो है
कि मनुष्य अभी जिन्दा हैं
अपनी परायी आस्थाओं के साथ।
७.
उन दिनों प्यार करने को
और कुछ था भी नहीं
तुम्हारे सिवाय,
न सिरफिरा मौसम था
न बादलों की झुकी लट थीं
न नदियों के घुमाव थे
न बर्फ से ढकी पहाड़ियां थीं,
सच कहूँ तो कुछ दिखता ही नहीं था।
इन दिनों कहने को
और कुछ है भी नहीं
एक ईश्वर है वह भी अकेला है।
८.
ओ समय, तुम इस दरवाजे से आये
उस दरवाजे से निकल गये
बहुत दिनों बाद पता लगा।
ओ प्यार, तुम इस राह से आये
उस राह से निकल गये
बहुत देर बाद महसूस हुआ।
ओ प्रकाश, तुम इस झरोखे से आये
उस झरोखे से निकल गये
बहुत वर्षों बाद समझ में आया।
ओ समय, तुम एक दरवाजे से आये
और बहुत से दरवाजे खोल गये।
९.
एक उम्र होती है
जब हम बिना भेदभाव पाठ पढ़ते हैं,
पगडण्डियों पर बेहिचक चल देते हैं
प्यार अथाह से अथाह कर लेते हैं
धर्म मनुष्य का निभाते हैं।
एक उम्र होती है
जब हम बिना भेदभाव हँस लेते हैं
झाड़ियों में काँटे नहीं देखते हैं
समभाव से चलते चले जाते हैं
बिना ऊँच-नीच सबसे मिल लेते हैं
एक सूरज, एक धूप ,एक आकाश को
बिना भेदभाव देख लेते है।
एक उम्र होती है
जब हम स्वतंत्रता को गुनगुनाते हैं
सुख-दुख को समान समझते हैं
मन को जब तब शहीद कर देते हैं।
१०.
वे पगडण्डियां टूट चुकी हैं
वे वृक्ष कट चुके हैं
रास्ते चौड़े हो गये हैं
धूप पेड़ों से छनकर नहीं
सीधे-सीधे आती है,
प्यार की लुकाछिपी नदारद है
मीठे कटाक्ष अटपटे हो चुके हैं
किसी से कोई पूछ रहा है
यह वही जगह है क्या?
११.
वृक्ष टूट जाते हैं
नदियां सूख जाती हैं
बयार तूफानी हो जाती है
मनुष्य सपना बन जाता है।
इस परिवर्तन से उस परिवर्तन तक
आस्थाएं बहुत दिखती हैं
गरीब जहाँ भी मरता है
वहाँ खाद नहीं बनती है।
दिन जब पलटते हैं
लोग बहुत दिखते हैं,
मुलाकातों में जब आते हैं
अनजानापन रख जाते हैं।
१२.
समय की गहराई में
एक सोने की चिड़िया है
जो उड़ती नहीं
मन में बैठी रहती है।
सांय-सांय करता स्वर
इधर से उधर होता है,
सोने की चिड़िया
मौन गीत गाती है।
समय की गहराई में
एक सोने की चिड़िया है
जो चहचहाती नहीं
मन ही मन रोती है।
१२.
तेरे मन से मेरे मन तक
एक राह तो आती है,
तेरे मन से मेरे मन तक
एक देश तो मिलता है
तेरे मन से मेरे मन तक
एक पताका फहरती है।
तेरे मन से मेरे मन तक
एक नदी तो बहती है,
तेरे मन से मेरे मन तक
एक प्राण तो फैला है।
तेरे मन से मेरे मन तक
एक सूर्य तो उगता है,
तेरे मन से मेरे मन तक
एक कथा तो चलती है,
तेरे मन से मेरे मन तक
एक गगन तो रहता है।
१३.
भाषा हम में जीवन भरती है
जैसे पेड़ों में पत्तियां
नदियों में जल
सांसों में हवा
संसार में यात्राएं
राष्ट्रों में संस्कृति
बिना भाषा के मनुष्य जोंक बन जाता है।
१४.
प्राण थे, प्राण हैं, प्राण रहेंगे
फिर झट से प्राण उड़ जायेंगे,
गिनतियां गिनी जायेंगी
आसमान तक देखा जायेगा,
भूरि-भूरि की गयी प्रशंसा
सुरि सुरि हवा हो जायेगी।
समय का तैराक ,तैरता रहेगा,
मछलियां पाली जायेंगी फिर
पेट के खातिर मारी जायेंगी।
युद्ध भी होंगे, शान्ति भी बिछेगी
प्राण थे, प्राण हैं, प्राण रहेंगे
फिर झट से प्राण उड़ जायेंगे।
१५.
अब पलायन करने लगा है दुख
पक्षियों की तरह उड़
डाल पर बैठ
फिर घोंसला बनाने लगा है,
बिना पूछताछ के
उसे पता मिल जाता है,
बिना राह के
वह कहीं भी पहुंच जाता है।
१६.
उसदिन लगा
समुद्र लहरा रहा है बिना मतलब का
हवा चल रही बिना अर्थ के
सूरज निकल रहा है बिना चमक के
नदी बह रही है बिना प्रयोजन के
प्यार किया जा रहा है बिना लक्ष्य के
धूप आ रही है बिना उद्देश्य के
पानी बह रहा बिना हितों के
शान्ति है बिना तात्पर्य के
आशा है बिना संभावना के।
उस दिन लगा
इतनी बर्फ क्यों गिर रही है
बिना मतलब के,
इतनी कपकपाती ठंड क्यों पड़ रही है
बिना जरूरत के,
पेड़ों पर पतझड़ क्यों आया है
बिना सिद्धांत के,
मृत्यु क्यों हो रही हैं
बिना कारण के,
इतना संघर्ष क्यों है
बिना अन्त के।
१७.
एक दिन मैं लोकतंत्र बन गया
अचानक, सूरज दिखने लगा
चंद्रमा, चमकने लगा
नक्षत्र टिमटिमाने लगे
धरती हरीभरी हो गयी
देश साफ-साफ दिखने लगा
गंगा पवित्र दिखने लगी
नदियों में प्रवाह आ गया
राहें सशक्त होने लगीं
हिमालय ऊँचे से और ऊँचा हो गया
"सत्यमेव जयते" का होश हो आया।
जनता से निर्णय मांगने लगा
उसकी भाषा कहने लगा,
अचानक, लोकतंत्र लोकप्रिय हो गया
मैंने उसे कसकर गले लगाया
जोर से कहा -लोकतंत्र, लोकतंत्र, लोकतंत्र।
१८.
मैं कण के तरंग या कण के व्यवहार के बारे में पढ़ रहा था,
गुरुत्वाकर्षण के बारे में सोच रहा था
चुम्बकीय प्रभाव को देख रहा था
और वह गाय- भैंसों की बात कर रहा था
कितने में खरीदे, कितने में बेचे
कितना दूध देती हैं
घराट पर गेहूँ पिसने का संदर्भ ला रहा है
दोनों की प्राथमिकता अलग-अलग है
मेरे लिये गुरुत्वाकर्षण और चुम्बकीय सूत्र
जितने सरल हैं
उसके लिये काली भैंस और घराट
उससे अधिक स्वाभाविक हैं,
क्योंकि दूध और आटा उनसे जुड़े हैं
जो पेट के लिये आवश्यक हैं
पेट भरने के बाद ही तो
ज्ञान आता है, प्यार होता है
राजनैतिक सुगबुगाहट होती है।
१९.
अब आदमी को मरना नहीं चाहिए
क्या पता
पूछताछ होने लगे
जाँच की मांग उठे।
इस पक्षपातपूर्ण माहौल में
भला, निष्पक्ष कौन रह सकता है।
यदि आदमी को मरना ही हो
तो सत्ता से दूर
हिमालय में चला जाय,
जहाँ सत्ता के षडयंत्र न हों।
या फिर शान्ति का शिष्य बन
वृक्ष की तरह खड़ा होकर
फल-फूल देने लगे।
***
महेश रौतेला