दिसम्बर २०१७ की कविताएं महेश रौतेला द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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दिसम्बर २०१७ की कविताएं

दिसम्बर २०१७ की कविताएं:

१.

आपको मेरी रचना पढ़ने की आवश्यकता नहीं

आप बेझिझक पढ़ सकते हैं

टिमटिमाते आकाश को,

घूमती-फिरती धरती को।

ऋतियों में घुस सकते हैं

अन्न के खेतों में पसर सकते हैं

वृक्ष को बढ़ता देख सकते हैं,

ईश्वरीय परिकल्पना कर सकते हैं।

पत्थर हाथ में ले

बहुत दूर फेंक सकते हैं,

फल -फूल चुन सकते हैं

पानी से स्वयं को सींच सकते हैं,

लोगों के बीच गीत बन सकते हैं

या उनसे संवाद कर सकते हैं।

आप मधुमक्खियों के छत्ते से हो

शहद बन टपक सकते हैं,

या बंजर को सींच सकते हैं,

तब तुम्हें कविता पढ़ने की जरूरत नहीं

न लम्बी कहानियां, न उपन्यास

न महाकाव्य, न नाटक।

तब तुम जीते जागते रचनाकार हो,

और कविता शब्दों का गुच्छा

चाबी के गुच्छे की तरह,

जिससे हृदय खुल भी सकते हैं

और बंद भी हो सकते हैं।

२.

मेरी छाया कब लम्बी हुई

और कब छोटी

पता ही नहीं चला,

जब तुम्हारे सामने चुप बैठा था

तब भी बहुत कह रहा था,

जैसे मूक वृक्ष कहते हैं

फल-फूलों के बारे में,

मूक मिट्टी कहती है

उर्वरा शक्ति के विषय में

मूक राहें कहती हैं

यात्राओं के बारे में।

३.

इसबार मैंने उससे कहा

पहाड़ जा रहे हो तो

थोड़ी सी बरफ ले आना

बरफ न ला सको तो

उसकी चमक ले आना,

नन्दा के आशीर्वाद ले लाना

शिव को प्रणाम कह देना

ग्वैल ज्यू के मंदिर में टकी चिट्ठियां पढ़ आना

कहते हैं वे न्याय के देवता हैं,

मन्नत एक-दो तुम भी रख आना

उनका इतिहास मैं नहीं जानता

हो सके तो उसे रट लाना।

हो सके तो

नैनीताल में पड़ा

प्यार ले आना।

मैं तुम्हें कहीं नहीं दिखूंगा

तो महाविद्यालय के किसी पट्टिका पर

मेरा नाम देख लेना

क्या पता अब वह मिठ चुका हो!

महाविद्यालय से कहना

"मैं उसे बहुत याद करता हूँ,"

लड़के जो ईर्ष्या में थे

लड़कियां जो हँसती नहीं थीं

दोस्त जो सपने बनाते थे

कहना याद आते हैं।

पुस्तकालय में जा

धूलभरी, मुस्कराती

मेरी किताबें पलट आना।

भाषण स्थलों पर

एक मुस्कान बिखेर आना,

आपातकाल में जहाँ पोस्टर लगाये

उस दीवार को एक नजर देख लेना।

परिवर्तन तो अब भी होते होंगे

कुछ मन में, कुछ मंदिर में

उस लड़की को याद कर देना

जो एक बार नहीं, बार -बार,

मुझे देख अद्भुत बना देती थी।

गूगल पर देखना

कौन क्या लिख रहा है

कितना उजाला कहाँ है

विश्व में लोग कहाँ हैं

और हम मंदिर-मस्जिद में खड़े

जनसंख्या में अव्वल हैं।

छोड़ो, ऊँची चोटियों की मुट्ठी भर धूप ले आना

शराब मत पीना

साथ में शराब की बोतल मत ले लाना।

हो सके तो

विद्यालय की घंटी बजा आना

शिक्षकों को प्रणाम बोल देना,

सीढ़ीनुमा खेतों पर

एक गाना गा आना,

काफल के पेड़ पर हो आना

फल नहीं, तो छाया ही ले आना।

कहीं पर लिख आना

"आपके पास यदि पैसे हैं

तो आप नाच भी सकते हैं

और नचा भी सकते हैं।"

४.

याद आते हैं-

घर जहाँ रहते थे

खाना जो बनाते थे,

कविता जो लिखते थे

प्यार जो करते थे।

पगडण्डियां जो टेड़ी हैं

सड़कें जो घुमावदार हैं,

विद्यालय जो खड़े हैं

पहाड़ जो अडिग हैं।

मृत्यु जो आती है

जिन्दगी जो होती है,

समय जो नाचता है

किस्से जो बनते हैं।

सदनाम जो होता है

बदनाम जो घूमता है,

सागर जो दिखता है

नदियाँ जो बहती हैं।

खट्टे जो अंगूर हैं

खट्टी जो सरकारें हैं,

खट्टी जो योजनाएं हैं

खट्टा जो इतिहास है।

आन्दोलन जो खड़े हैं

आन्दोलन जो चुक गये हैं,

जानवर जो मिले थे

इंसान जो जागे थे।

याद आता है जो सुना था

मिथिला में जनक थे,

अयोध्या में राम थे।

५.

ओ समय, मैं तुमसे छूटा जा रहा हूँ

जैसे पेड़ों से पत्तियां

मुँह से शब्द, चूल्हे से आग।

बहुत खारा हो चुका हूँ

माना,राजनीति में आ चुका हूँ।

यहाँ समुद्र मंथन नहीं

कि अमृत निकलेगा,

क्योंकि देवता हैं ही नहीं

केवल विष ही निकलेगा

और विषपान शिव करेंगे नहीं

धरती पर रख

मनुष्य ही उसे छप छपायेगा।

पीड़ा बनी रहेगी

कुछ जीने की, कुछ मरने की।

ओ समय, मैं तुमसे छूटा जा रहा हूँ

बहुत बातें करते-करते

सुस्ता रहा हूँ।

बातों को भूल रहा हूँ,

पर फिर भी गांव को गांव कहता हूँ

शहर को शहर कहता हूँ

देश को देश कहता हूँ

विदेश को विदेश कहता हूँ

राह को राह समझता हूँ

पर क्यों ओ समय, मैं सूखा जा रहा हूँ।

मनुष्य यदि हँसता नहीं,

गाता नहीं, गुनगुनाता नहीं

तो वह सूखने लगता है,

जड़ से हिलने लगता है

टूटी डाल सा लटकने लगता है

पहिचान युगों की खोने लगता है।

ओ समय, मैं तेरी बाहों से छूट रहा हूँ

गोद से बिछुड़ रहा हूँ

मैं प्रकाश के लिये उठा हुआ हूँ,

अने रिश्तों में बँधा हूँ

अनेकों से गहरे सम्बन्ध हैं,

ईश्वर जैसा भी है, जिस धर्म में है

वैकल्पिक एक सहारा है।

तू कभी रूका नहीं

तुझको सबने भोगा है,

तू ही सबको लाया है

तूने सबको झुलाया है,

तू सबका हाथ पकड़ता है

फिर झट से हाथ छोड़ता है।

६.

"आशा के हंस धीमे हो गये हैं

पर सूरज का आना रूका नहीं

नक्षत्रों का चमकना दिखता है

शब्दों की वीणा बजती है।"

अभी तो सुबह ने जोड़ा ही है

कहीं शाम का लंगर लगा हुआ है

चलो, आँखों का घूंघट पलट ही लें

शब्दों की वीणा बजने दें।

आशा के हंस धीमे चलते हैं

हँसी धीमे-धीमे सरकती है

सूखी बातें हरी हो जाती हैं

चलो, शब्दों की वीणा बनाते हैं।

७.

वह याद करती होगी

उस धूप को जो चमकाती थी

मेरी बनावट को,

उन हवाओं को जो छूती थीं

मेरी काया को,

दुख सूख चुका है

लेकिन वह याद करती होगी

चरमराते सूखे पत्तों को

जो कभी हरेभरे पेड़ पर थे,

सुख भी सूख चुका है

लेकिन वह सोचती होगी

एक सामान्य जन की तरह

कि मैं जीजिविषा हूँ।

८.

मन को थोड़ा गांव चाहिए

थोड़ा-थोड़ा शहर चाहिए

एक लम्बी राह चाहिए

एक झिलमिल प्रकाश चाहिए।

मन को सहज प्यार चाहिए

अन्दर बैठा प्रणाम चाहिए

बैठी-उठी कंथ चाहिए

फूलों की ऊँची माला चाहिए।

मन को नयी चिट्ठी चाहिए

पर्वत से उतरती नदी चाहिए

हिम से ढका हिमालय चाहिए

सत्य का जयी मुखड़ा चाहिए।

९.

मनुष्य इस अंधकार में क्या कर रहा

है

क्या वह प्रकाश ला रहा है

कि भ्रष्टाचार मिटा रहा है

वृक्ष उगा रहा है

पर्यावरण स्वच्छ कर रहा है

हिंसा मिटा रहा है

या बहती गंगा में हाथ धो रहा है।

१०.

दूध सी मेरी बातें

अब भी तुम्हें पकड़ती होंगी,

आँखों में जब नाचती होंगी

आँखें तुम मूंद लेते होगे।

दूध सी मेरी बातें

तुम्हारे हाथ थामती होंगी,

मुखड़े पर एहसास ला

तारों की तरह टिमटिमाती होंगी।

दूध सी मेरी बातें

तुम्हारी राहों की तह लगाती होंगी,

मन को आहट दे

सैकड़ों बार खोलती होंगी।

११.

मैं तो अबतक मौन रहा हूँ

बीती कथा को फिर कहता हूँ,

गिनती में हूँ

पर अनगिनत नहीं हूँ।

जैसा- जैसा अर्थ लिया हूँ

उसको व्यापक कर देता हूँ,

जो शब्द मेरे खो जाते हैं

तुझमें ढ़ूंढने आ जाता हूँ,

जो पहिचान अपनी पा जाता हूँ

उसे बाँटकर, मौन होता हूँ।

१२.

चाही थी थोड़ी सी राह

चाही थी थोड़ी सी यात्रा,

चाहे थे थोड़े से शब्द

चाहा था थोड़ा सा साथ।

चाहा था थोड़ा सा प्यार

चाही थी थोड़ी सी दोस्ती

चाहा था थोड़ा सा विश्वास

चाहा था थोड़ा सा अपनापन।

१३.

मैं झील के किनारे घूमता रहा

मुझे पता नहीं था

क्योंकि तब तक प्यार की खोज हुई नहीं थी,

कहने के लिये उचित शब्द नहीं थे

सादी बातें थीं

जैसे कहाँ थे, कब आये

क्या पढ़ा, परीक्षा कब है

पाठ्यक्रम में क्या-क्या है

कौन सी नदी लम्बी है

कौन सा पहाड़ ऊँचा है

किस युग में राम थे

किस युग में कृष्ण थे

राधा कौन थी

राजनीति कैसे शुद्ध होगी!

ठंड रहती थी

कपड़ों से बदन ढके रहते थे,

केवल दो आँखें थीं

जो खोज में लगी रहती थीं।

वर्षों साथ-साथ चलते-चलते

थोड़ा सा कहा

जो शायद समझ से परे था,

हमें पता नहीं था

प्यार क्या होता है

सोचकर होता है

या बिना सोचे मिलता है !

धीरे-धीरे पता लगा

जब तारों में चमक दिखी

चाँद मोहक हो गया

धूप में गुनगुनापन आ गया

हवा शीतल हो गयी,

सपने आने लगे

फूल ने मन मोहा

खालीपन से रूबरू हुए,

तो लगा प्यार तो अन्दर ही बैठा है

एक खोये बच्चे की तरह।

१४.

बहुत देर तक अंधेरा मिला

जब सबेरा हुआ तो अकेले खड़ा था।

हाथ दोनों फूलों से भरे थे

पर फूलों की तब चाहत नहीं थी,

कहने को बहुत संशय पड़े थे

लेकिन उजाले में वे दिखते नहीं थे।

बहुत देर तक अंधेरा मिला

जब प्यार दिखा तो अकेले खड़ा था,

संसार की कथा रक्तरंजित हुयी थी

लेकिन स्नेह की प्यास कम नहीं थी।

बहुत देर तक भीड़ में चला था,

जब स्वयं को देखा तो अकेले खड़ा था।

१५.

हमें प्यार की दुआ चाहिए है

पर राह पर कितनी अड़चने खड़ी हैं,

उधर देखो युद्ध की आहटें हैं

इधर देखो तुच्छ झगड़े बड़े हैं।

तुम्हें लिखी चिट्ठी उधर खो गयी है

मेरा पता इधर-उधर बदल गया है,

आकाश से गिर जमीन पर पड़े हैं

शरीर पर लम्बे काँटे चुभे हैं।

हमें स्नेह का सिलसिला दिखा है

किसी की आँख में आँसू नहीं है,

सड़क की कहानी सड़क पर छूटी

पर हमें प्यार की दुआएं चाहिए हैं।

१६.

उसने जोर से कहा

गरीबी हटाओ,

बहुत लोग चिल्लाये

गरीबी हटाओ,

उसने जोर से कहा घोटाला

बहुत लोग चिल्लाये घोटाला

उसने जोर से कहा विकास

बहुत लोग चिल्लाये विकास

और सरकारें बदल गयीं

पर न गरीबी हटी, न घोटाले मिले,

न जरूरी विकास हुआ।

१७.

सुबह ने शाम को पुकारा

पतझड़ ने पत्तों को पुकारा

यही सिलसिला जिन्दगी का रहा

घनी धूप में छाँव को पुकारा।

मैंने प्यार के इशारों को सुना

मन में सोचा वचन गुनगुनाया

यही सिलसिला जिन्दगी का बना

प्यार के स्पर्श में स्वयं को भुलाया।

सुबह हो गयी सूरज ने बताया

शाम हो गयी सूरज ने बताया

यही सिलसिला जिन्दगी का हुआ

प्यार हो गया स्वयं को बताया।

१८.

जीवन रे तुझे क्या कहूँ

रिश्तेदार कहूँ या

दोस्त कहूँ

जीवन्त मानूँ या निर्जीव कह दूँ

अजनबी मानूँ या

थोड़ा जाना- पहिचाना कहूँ।

जिन्दगी तुझे क्या समझूँ

जीती या जीताने वाली

हारी या हराने वाली

प्यार या प्यार सी लिखी-पढ़ी

दौड़ या दौड़ की आकांक्षा

पहेली या पहेली की खोज

घुप अंधेरा या अंधेरे का दीप।

१८.

हर आदमी में एक कहानी होती है

जो मरती नहीं,

वसंत आय तो खिलने लगती है

पतझड़ हो तो सूखने लगती है

आनंद हो तो नाचने लगती है

आन्दोलन हो तो उत्तेजित होने लगती है,

देश की बात हो तो एकत्र हो जाती है

नदी की बात हो तो पवित्र होने लगती है

पहाड़ की बात हो तो शिखर बन जाती है

घर की बात हो तो गृहस्थ हो जाती है।

हर मनुष्य में एक कहानी होती है

जो मरती नहीं,

वह बच्चे की तरह अबूझ होती है

यौवन की तरह दौड़ती रहती है

बुढ़ापे की सोच में गुथी रहती

है

सूर्योदय की भाँति निकलती है

सूर्यास्त की तरह छिपती है

अँधेरी रात में दिया जलाती है

नक्षत्रों की तरह टिमटिमाती है

साधु की तरह सत्य खोजती है।

मनुष्य की एक दूसरी कहानी होती है

जो मरने लगती है

क्षण-क्षण ढहने लगती है

सड़क की तरह टूट जाती है

रोग की तरह खाँसती, छींकती

समय पर जाँच में नहीं आती है,

वह मरती है, मिट्टी में मिलती है,

अजर, अमर आत्मा के लिये

गहरी नींद ढ़ूंढ़ लाती है।

मरने में भी एक सुख होता है

जैसे काम करते-करते मर गये,

टूटने में भी एक संगीत निकलता है

हर मनुष्य कहानी कहते जीता-मरता है।

१९.

पिछली बार कब मैं तुम्हारी बातों में आया

सही सही याद करना

जब चुनाव हो रहे थे

और मतदान हो रहा था,

या गरीबी की चर्चा थी,

विकास सहमा हुआ था

किसान आन्दोलन कर रहे थे

आरक्षण के संदेश लम्बे हो रहे थे

पद पर कलियुग बैठा था।

गंगा सफाई का अभियान था

पर्यावरण असहज था,

आसमान साफ नहीं था

तूफान आ रहा था,

कहीं कहानी बता रहा था

फिर कथा समाप्त कर रहा था।

त्योहार मना रहा था

या घर में सो रहा था,

प्यार से बोल रहा था

या झकझोर रहा था,

विद्यालय जा रहा था

या महाविद्यालय से लौट रहा था।

महापुरुषों को दोहरा रहा था

या जीवन-मृत्यु से लड़ रहा था,

देश के लिये लड़ रहा था

या प्रदेश पर ही लटका था,

तिरंगा पर लिपट रहा था

या तिरंगा उठा रहा था।

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**महेश रौतेला,