अस्तित्व
"नही आऊँगी... मैं कभी नही आऊँगी, जिस घर में मुझे और मेरे बच्चे को इज्जत नहीं मिल सकती; हक नहीं मिल सकता; वहां मैं कभी नही आऊँगी।" ससुराल से निकलते समय कहे गए अपने शब्द काम्या आज भी भूली नही थी लेकिन पति के मुन्ने सहित लौट आने के अनुरोध पत्र और हालात के मद्देनजर उसे लौटना पड़ रहा था।
मायके से ससुराल तक की यात्रा तय करने के बाद बस अड्डे पर बैठी काम्या गोद में मुन्ने को लिये पति की प्रतीक्षा कर रही थी। उसका गुजरा हुआ कल उसे बार-बार वर्तमान से खींच अतीत में ले जा रहा था।......
"हाँ! नही भूल सकती मैं उस रात को, जिसने सजा बना दिया है मेरी जिंदगी को।" रो पड़ी थी वह कहते हुए।
"तो बार-बार उस बात का जिक्र करके घर की शांति क्यों भंग कर देती हो।" पति शायद चिल्ला कर अपनी बात को सही करार देना चाहता था।
"इसलिए कि उसमें मेरा कोई दोष नही था और वह जो भी था, आपके अपनों में से ही था।" वह आक्रोशित हो उठी थी।
"….ऊ.... वां.... वां....." मुन्ना के रोने से सहसा ही वह अतीत से उभर आई। मुन्ने को बहलाने के बाद उसने घडी में समय देखा तो उसे कुछ चिंता सी होने लगी। समय अधिक हो गया था और बस- अड्डे पर आवाजाही कम होने लगी थी। एक मन हुआ कि यही से कोई ऑटो या रिक्शा करे और खुद ही घर पहुँच जाए लेकिन कई महीनो बाद पति के बिना ससुराल की दहलीज पर पैर रखना उसे एकदम से सही नही लगा। कुछ उलझन से भरी काम्या की नजरें, एक बार फिर से पति को देखने की चाह में इधर उधर घूमने लगी।
“शायद मेरी बस ही समय से पहले आ गयी थी या ये भी हो सकता है कि इन्हें (पति) ही आने में देर हो गयी हो।" अपने मन को तस्सली सी देकर वह फिर अपने अतीत को खँखालने में लग गयी।
............विवाह के कुछ ही महीने गुजरे थे जब ससुराल में एक परिवारिक समारोह में उसके साथ धोखे से बेहोशी की हालत में दुराचार हुआ था। पति सहित ससुराल के दबाब में उनके मान-सम्मान की खातिर उसे उस विष को पीना पड़ा लेकिन जब विष का प्रभाव 'मुन्ना' के रूप में सामने आया तो बहुत देर हो चुकी थी। घर के हालत ही नहीं घरवालों के मन भी बदल गए थे। समाज के लिए वह बच्चा उनकी संतान थी लेकिन पति की नजरों में वह जायज नही था। बस यही से शुरू हुआ था एक पति के विरोध का सिलसिला और माँ के मातृत्व का संघर्ष, जिसकी परिणीति उसकी मायके लौटने के रूप में हुयी थी।........
"हां, बस बहुत हुआ ये हर दिन का जलना।" इस बार वह अपना सामान बाँधे मायके लौटने को तैयार हो गयी थी। "नही रहना मुझे अब बार-बार की इस बे-इज्जती भरी जिन्दगी में जहाँ मेरा कोई अस्तित्व ही नहीं है।"
"तो लौटकर भी मत आना इस दहलीज पर अगर इतने ही मान-सम्मान की चिंता है तुम्हे !" पति के कहे शब्दों में जैसे पूरे ससुराल की आवाज सम्मलित थी उस दिन।
"हाँ नहीं आऊँगी......... " और उन्ही शब्दों पर फिर आ अटकी थी काम्या सोचते सोचते।
"क्या सोच रही हो काम्या?" सामने आ खड़े हुए पति की आवाज ने जैसे उसे एक गहरी खाई में से वापिस जमीन की सतह पर ला खड़ा किया हो।
"जी... कुछ नहीं।" उसने सामान समेटते हुए पति को जवाब दिया। ".... जेठजी के अचानक गुजर जाने का सुनकर बहुत दुःख हुआ।"
"मनुष्य के कर्म उसके आगे-आगे चलते है काम्या!" पति के स्वर में गहन गंभीरता थी। "शायद यही उनके कर्मो का फल था। चलो, घर चले।" अपनी बात पूरी करते हुए पति ने काम्या के हाथ से मुन्ना को उठा गोद में ले लिया।
इस अप्रत्याशित क्रिया से जहाँ काम्या के मन में ख़ुशी की लहर उठी वहीं वह अपनी हैरानी को भी दबा नही सकी थी। "आपने मेरे मुन्ना को गोद में उठाया !"
"हाँ काम्या..... मैंने इसके साथ बहुत अन्याय किया है लेकिन मुझे क्या पता था कि ये हमारे ही वंश की एक बेल है।" कहते हुए पति का स्वर अनायास ही कांपने लगा था। "दरअसल काम्या, बड़े भैया ने अपने आखिरी समय में ही खुद बताया कि उस रात........ "
"क्या.....?" पति की अनकही बात की तह में जाते ही उसका रोम-रोम सुलग उठा। पल भर को लगा कि उसके पाँव के नीचे से जमीन और सर के ऊपर से जैसे आसमान हटा दिया गया हो। एकाएक पत्थर हो गये कदमों ने आगे बढ़ने से इंकार कर दिया।
"रुक क्यों गई काम्या? चलो न, घर चलें।" पति ने कदम आगे बढ़ाते हुए कहा।
"घर! कौन से घर? किसके घर? सहसा एक व्यंग्य सिंची विद्रुप मुस्कान काम्या के होठों पर आ गई। ".... अपनी संतान के उस नीच पिता के घर, जिसने मेरी देह ही नहीं आत्मा को भी कलंकित किया और अब मर-खप गया या फिर सात वचनो से बंधे उस पति के घर, जिसने अपने कुल के सम्मुख सभी लिए गए वचनो को दरकिनार कर हमेशा अपनी पत्नी को एक देह मात्र ही समझा।"
"देखो काम्या! हम घर चल कर भी बात कर सकते हैं न, अभी घर में भैया के बेटे का इंतज़ार हो रहा है ताकि......." उसने काम्या को शांत करना चाहा।
भैया का बेटा, हाँ उसका बेटा... मेरा नहीं! अब मेरा है भी नहीं..." काम्या के चेहरे पर रोष झलक आया था। "अब मुझे चाहिये भी नहीं यह, हां ले जाओ इसे।" कहते हुए काम्या पीछे की ओर लौट पड़ी।
"काम्या... काम्या... " उसका पति उसे पुकार रहा था लेकिन वह वापिस पीछे लौटते हुए उसी बस में जा सवार हुयी जिससे कुछ देर पहले ही वह अपने पति के शहर लौटी थी।
बस का हार्न अपनी तेज आवाज में बस के चलने की घोषणा कर रहा था।......
विरेंदर ‘वीर’ मेहता
(स्वरचित / मौलिक / अप्रसारित /अप्रकाशित )