कथाकार Bhagwati Prasad Dwivedi द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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कथाकार

कथाकार

माघ का सर्द महीना । ठंड और ओस में निर्वसन नहाती भोर की बेला । बपर्फीली हवाओं के साथ उफध्म मचाती हुई जानलेवा सर्दी । सभी घरों के दरवाजे व खिड़कियाँ पूरी तरह बन्द थीं । सुविध—सम्पन्न लोग बेशकीमती रजाई—कम्बल ओढ़े हुए जाड़े की रात का भरपूर आनन्द ले रहे थे । पूरा शहर जैसे अलसाया हुआ था । रोटी की तलाश में अखबारों के हॉकर समाचार—पत्राों के माध्यम से मानो सोये हुए लोगों को जगा रहे थे । यहाँ शहरी लोग मुर्गे की बाँग सुनकर नहीं, बल्कि इन हॉकरों की आवाज अथवा पदचाप सुनकर ही तो जगते हैं ।

घर से बाहर निकलकर वह सड़क पर आ गया था और अब नीली सड़क की छाती को रौंदता हुआ बिलकुल अकेला टहल रहा था । वह एक मशहूर कथाकार था । कहानी विध में उसने अपनी जगह बना ली थी । यह बात दीगर है कि स्थान बनाने के लिए उसे कई तिकड़मों का सहारा लेना पड़ा था । कई दपफा उसे नाम बदलने पड़े, चापलूसी—दर—चापलूसी करनी पड़ी । मगर आज उसे अच्छी—खासी प्रतिष्ठा मिल चुकी थी और एक प्रतिष्ठित पत्रिाका के संपादक ने एक ‘वाद' के तहत ‘कहानी विशेषांक' हेतु पत्रा द्वारा उससे एक सशक्त कहानी की पफरमाइश की थी । उसे एक कहानी के ‘प्लाट' की तलाश थी और इस तलाश में पूरी रात करवटें बदलते हुए आँखों में ही गुजर गयी थी । अंततः उसने पहले पाँव से चोटी तक अगणित बेशकीमती उफनी वस्त्राों में अपने बदन को छुपाया था और पिफर एक झटके के साथ घर से बाहर हो गया था । उसके

कंध्े से लटके सर्वोदयी झोले में लाल इमली का एक खूबसूरत कम्बल भी झाँक रहा था, पर उसे अभी उसकी आवश्यकता महसूस नहीं हो रही थी ।

कथाकार की बेचैन नजरें सड़क के इर्द—गिर्द पुफटपाथों पर रेंग रही थीं । इन पुफटपाथों पर ही तो चलते—चलते अक्सर कहानियों के प्लॉट मिल जाया करते हैं । पुफटपाथ पर जगह—जगह कूड़ा—करकट अथवा साइकिल—रिक्शे के बेकार टायरों को जलाकर मजदूर किस्म के लोग आग सेंक रहे थे । आग तापते हुए कुछ लोग अपनी समझ के मुताबिक देश और राजनीति की चर्चाएँ चला रहे थे । कुछ लोग अपना और परिवार का दुखड़ा रो रहे थे तो कुछेक ‘जाहि विध्ि राखे राम, ताहि विध्ि रहिये' की तर्ज पर भजन की पंक्तियाँ रट्‌टू तोते की तरह गुनगुना रहे थे । औरतें और कुछ बूढ़े सड़क के किनारे बैठकर दिशा—मैदान हो रहे थे । सुबह होते ही पुलिस के डंडों की मार जो पड़ने लगती है ।

कथाकार के कदम एकाएक रुक गये । उसकी निगाहें पुफटपाथ पर बुरी तरह खाँसते और कराहते हुए एक पफटेहाल बूढ़े पर जा टिकीं । उस लावारिस को देखते ही, न जाने क्यों, उसे अपना अल्सेशियन कुत्ते डॉगी का स्मरण हो आया, जिसके बदन पर घर से बाहर निकलते वक्त वह रजाई पेंफकना नहीं भूला था । कपड़े के नाम पर बूढ़े की देह से लिपटी एक चीकट गुदड़ी थी । उसकी नाक और आँखों से पानी बह रहा था । खाँसते—खाँसते उसका गला अवरु(—सा हो जाता था । पिफर कपफ के कुल्ले नाले में पेंफककर हपफर—हपफर हाँपफने लगता था । पीपल के पत्ते की भाँति उसकी मरियल देह थर—थर काँप रही थी ।

कथाकार नाक पर रूमाल रख कर बूढ़े के करीब जाकर चुपचाप खड़ा हो गया । हडि्‌डयों के ढाँचे—सी उसकी देह और कोटर में ध्ँसी मिचमिची आँखें देखकर वह मन—ही—मन डर गया । यह आदमी है या.....?

तभी बूढ़े की याचना भरी निरीह आँखें उसकी ओर उठीं । सहानुभूति जताते हुए वह बोला, ‘‘तुम्हें क्या कष्ट है, बाबा ?''

बूढ़े को लगा, जैसे उसके सम्मुख ईश्वर का भेजा हुआ कोई देवदूत खड़ा हो । उसके लकड़ी—से हाथ यंत्रावत जुड़ गये, ‘‘बेटा, चार जून से रोटी का एक टुकड़ा तक नसीब नहीं हुआ । देह पर बस एक यही चिथड़ा है और यह गजब की शीतलहरी.... हे भगवान !'' बूढ़ा पुनः खाँसने लगा । पिफर उसने खँखारकर बलगम पेंफका.... आक्थू ! उसके मुँह से निकले कपफ में उसे रक्त के थक्के भी दिखाई पड़े ।

बगैर पूछे ही बूढ़ा पागल—सा अपनी जिन्दगी की दास्तान सुनाने लगा । उसकी जोरू बुढ़ापे में उसे दगा देकर किसी गैर मर्द के साथ चली गई थी । जवानी की सीढ़ियाँ दनादन पफलाँगती अविवाहिता बिटिया पर अक्सर अनेक मर्दों की नजरें निब( हो जाया करती थीं और एक रोज किसी मनचले बाबू की वासना का शिकार हो वह रेल की पटरी पर सो गयी थी । आवारा बेटा अपनी बीवी को साथ लेकर अलग ही मौज उड़ा रहा था ।

‘‘और कुछ..... बाबा ?'' उसने एक और सवाल ठोंका ।

‘‘बेटा, बस एक प्याला चाय पिला दो... मुझे एक कम्बल से ढाँप दो.... बस.... बाप रे....!'' पुनः उसकी खाँसी उभरी और खंखारते हुए उसे लगा कि अब वह गश खाकर गिर पड़ेगा ।

‘‘अभी सब कुछ लेकर आया, बाबा.... बस, अभी....'' कथाकार हिरन—सा कुलाँचता हुआ घर की तरपफ बढ़ा । बूढ़े की व्यथा—कथा उसके दिमाग में भागदौड़ मचा रही थी । तभी मन के किसी कोने से आवाज आई ‘‘क्यों न बूढ़े को कुछ खाने—पीने की चीजें और एक उफनी कम्बल देकर उसे कुछ राहत दिलाई जाये ? मगर उसके ‘कथाकार' ने मन की बात काट दी । यह काम तो समाज—सुधरकों और राजनेताओं का है । मैं एक साहित्यकार हूँ, कोई समाज—सुधरक नहीं । मेरा दायित्व उसे रोटी—कपड़ा देना नहीं, बल्कि उसकी यथार्थपरक विसंगतियों से पाठकों को परिचित कराना है ।

घर में दाखिल होते ही सर्वप्रथम कथाकार का ध्यान अपने अल्सेशियन कुत्ते की ओर गया, यह सोचकर कि कहीं उसने रजाई को बदन से परे तो नहीं खिसका दिया है ? मगर उसे गहरी नींद सोया हुआ देखकर वह आश्वस्त हुआ ।

अपने कमरे में दाखिल होकर उसने सिटकनी चढ़ाई । सोपेफ पर बैठते ही उसके हाथ की विलायती कलम सादे कागज पर पफर्राटे—से दौड़ने लगी । बूढ़े की अभावग्रस्त नंगी सच्चाई को उजागर करते हुए उसने उसके बेटे द्वारा ही उसकी हत्या करवा दी, जिसे पढ़ाने—लिखाने की खातिर ही उसे कंगाल बनना पड़ा था ।

बूढ़े के जीवन से सम्ब( कहानी ‘हत्यारा' को टंकित करा कर वह खुद अपने हाथों पत्रा—पेटी में छोड़ने की गरज से पिफर सड़क पर आ गया । आसमान से ध्रती तक बस कुहासा—ही—कुहासा छाया हुआ था । कापफी दिन निकल जाने के बावजूद ध्ूप के दर्शन नहीं हो रहे थे । पिफर भी सड़क पर नर—नारियों और वाहनों की आवा—जाही शुरू हो गई थी ।

कथाकार की नजरें पुफटपाथ की ओर गयीं । उसने चोर निगाहों से उस स्थान की ओर देखा, जहाँ बूढ़ा पड़ा—पड़ा कराहता हुआ उसे मिला था । उसके कदम पिफर रुक गये । तमाशबीनों की भीड़ बूढ़े को चारों तरपफ से घेरे खड़ी थी । क्या माजरा है ? सोचता हुआ वह तेज कदमों से उसके बिलकुल समीप चला गया । मगर बूढ़े पर नजर पड़ते ही उसे काठ मार गया । वह सूखकर लकड़ी—सा हो गया था और बदन बपर्फ की मानिन्द ठंडा होकर निष्चेष्ट पड़ा था ।

एकाएक कथाकार की आँखों में खुशी तैर गयी । उसने स्वयं को यह सोचकर दाद देनी चाही कि जिस बूढ़े की हत्या उसने कहानी में करवाई थी, वह सचमुच ही मर गया था । किसी ने सच ही कहा है, लेखक भविष्यवक्ता होता है । विशेषांक में कथाकार की तस्वीर के साथ कहानी छपेगी । पारिश्रमिक की अच्छी—खासी राशि प्राप्त होगी । कहानी की मार्मिकता और सामाजिक विसंगति पर पाठक आँसू बहाएँगे और बधइयों व प्रशंसा—पत्राों के ढेर लग जायेंगे । अपनी सपफलता पर वह स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर रहा था ।

कथाकार के होंठों पर मुस्कान थिरक उठी और वह तेज कदमों से डाकघर की ओर बढ़ने लगा । तभी उसे लगा, जैसे बहुत से लोग समवेत स्वर में उसे पुकार रहे हों । वह पीछे मुड़कर देखना ही चाह रहा था कि उसके कानों में आवाज गूँजी— ‘‘उस बूढ़े का हत्यारा उसका बेटा नहीं, बल्कि तुम हो । अगर तुम चाहते तो उसकी जान बच सकती थी, मगर तुमने ही तो उसकी हत्या की है— एक कप चाय तक न पिलाकर.... उसे दगा देकर...।''

‘‘नहीं.... हरगिज नहीं !'' कथाकार तिलमिला उठा । उसने पिफर पीछे मुड़कर देखा । लगा, जैसे ढेर—सारे लोग हथियारों से लैस हो, उसका पीछे कर रहे हों । घबराहट में उसकी साँस पूफलने लगी, घिग्घी बँध्ने लगी और वह तेजी से दौड़ने लगा । तभी कानों में पिफर समवेत स्वर गूँज उठे ‘पकड़ो.... मारो....हत्यारा.... कथाकार..... !'