तमाशबीन Bhagwati Prasad Dwivedi द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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तमाशबीन

तमाशबीन

अपरार्िं दो से रात्रिा नौ बजे तक टेलीपफोन आपरेटरी करने के बाद जब मैं थका—माँदा लगभग दस बजे डेरे पर लौटा तो वहाँ का दृश्य देख एकाएक मुझे काठ मार गया । निस्तब्ध् रात का घुप्प अंध्ेरा । क्या कहूँ, क्या न कहूँ ? डेढ़ बरस की इकलौती बिटिया शिखा छटपटा रही थी और उसके साथ—साथ पत्नी रमा भी बिलख रही थी ।

‘आखिर हुआ क्या ? कुछ बताओगी भी या सिपर्फ आँसू ही बहाती रहोगी ?' गुस्साकर मैंने पूछा ।

अब रमा सुबक—सुबककर लगी बताने कि दो—ढाई घंटे से शिखा को कै—दस्त हो रही है । बार—बार बच्ची के चीखने—चिल्लाने और देह ऐंठने से मैं तो मारे भय के बुरी तरह काँप उठा । मगर अंध्यिारी रात के निचाट सन्नाटे में भला क्या कुछ संभव हो सकता है ?

अचानक मेरे मस्तिष्क में अपने मकान—मालिक लाल साहब की याद कुलबुलायी । लाल साहब बिहार सरकार के एक विभाग में मुख्य अभियंता थे । साहित्य में उनकी अभिरुचि थी और मेरे साहित्यिक व्यक्तित्व से उनकी बखूबी जान—पहचान थी । जब कभी हम दोनों आमने—सामने होते, लाल साहब पत्रिाकाओं में छपी मेरी कहानियों की तारीपफ के पुल बाँध्ने लगते और मेरे मन की नदी में लहर के पानी—सा कुछ छपाछप हिलकोरे मारने लगता । चलते—चलते हर बार लाल साहब हाथ जोड़कर कहते —‘मेरे योग्य कोई सेवा हो तो निःसंकोच बताइयेगा .....लजाइयेगा मत ।' हाथ जोड़ता तथा मुस्कान बिखेरता हुआ मैं आगे बढ़ जाता था ।

मैंने सोचा, क्यों न लाल साहब की कार एकाध् घंटे के लिये माँग लूँ और शिखा को पफटापफट पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल में भरती करवाने की व्यवस्था करूँ ?

मैं लपकते हुए लाल साहब के दरवाजे के सामने जा ध्मका और हड़बड़ी में कॉलबेल कई बार दबा दी । उनका नौकर दौड़ा हुआ आया और लाल—पीला होते हुए उसने किवाड़ खोला । मगर ज्यों ही उसकी नजर मुझ पर पड़ी, वह सकपका गया ।

मैंने क्षण—भर में ही पूरी दास्तान कह सुनायी । वह हड़बड़ाकर उल्टे पाँव अंदर चला गया । मगर जब वह कापफी देर तक नहीं लौटा, तो मेरा ध्ैर्य जवाब देने लगा । मैंने पुनः दरवाजा खटखटाकर, लाल साहब को पुकारा । पर इस बार भी साहब के स्थान पर नौकर ही हाजिर हुआ । बासी पीठे जैसे उसके चेहरे को देखकर ही मैंने सब अन्दाजा लगा लिया । नौकर रुआंसा होकर बोला —‘बाबूजी, साहेब के मेम साहेब का संगे अबहिएं एगो पार्टी में जाए के बा, नाहीं त उहाँ के राउर मदत जरूर करितीं ।'

‘रात के साढ़े दस—ग्यारह बजे पार्टी में ?' मेरे अचरज की सीमा न रही । मैं नौकर से तहकीकात करने की सोच ही रहा था कि उसने ध्ड़ाक से किवाड़ बन्द किया और मैं अपना—सा मुँह लिये वापस लौटने लगा ।

डेरे में लौटते वक्त बगल के किरायेदार सुधकर बाबू से गलियारे में भेंट हो गयी । उनकी अस्पताल के एक अच्छे डॉक्टर तिवारी जी से जिगरी दोस्ती थी । बगैर जान—पहचान के कोई भी काम करवाना आजकल कितना कठिन है, यह मैं बखूबी जानता था, इसलिये सुधकर बाबू के सम्मुख अपना दुखड़ा रोकर मैं उनसे साथ चलने की चिरौरी करने लगा ।

अनमने भाव से मेरी बात सुनकर सुधकर बाबू ने कुछ सोचते हुए जवाब दिया —‘लेकिन डॉ. तिवारी तो आजकल छुट्‌टी में अपने गाँव गये हुए हैं । पिफर मेरा वहाँ जाना किस काम का ! खैर, आप चले जाइये । वहाँ कोई—न—कोई डॉक्टर तो होगा ही ।'

बोझिल कदमों से जब मैं डेरे पर वापिस आया, तो शिखा की हालत और भी बदतर देखकर बदहवास—सा हो गया । बगैर आगा—पीछा सोचे मैं उसे गोद में उठाकर बेतहाशा सड़क की ओर दौड़ा । पीछे—पीछे रमा भी हाँपफती हुई भागी आ रही थी । सड़क पर वाहन की प्रतीक्षा में देर तक खड़े रहना पड़ा । कभी मैं लपककर आगे बढ़ता तो कभी पीछे, मगर किसी खाली गाड़ी का जुगाड़ नहीं हो पा रहा था । आखिरकार जब एक खाली रिक्शे पर एकाएक नजर पड़ी, तो हम उसी पर जा बैठे । कै—दस्त से चादर, तौलिया और मेरे कपड़े सराबोर हो गये थे । रास्ते—भर रमा भगवान और तमाम देवी—देवताओं को गोहारती जा रही थी और मैं आहत मृगशावक—सा मन—ही—मन अपनी लाचारी और नसीब को कोस रहा था ।

अस्पताल में डॉ. तिवारी को ही ड्‌यूटी पर देखकर, मेरे कलेजे में एक और तीर—सा बिंध् गया । ऐसा लगा जैसे गश खाकर मैं वहीं गिर पड़ूँगा, मगर बहुत कोशिश के बाद मैंने अपने—आपको संभाल लिया ।

डॉ. तिवारी ने शिखा की हालत देखकर गहरी चिन्ता व्यक्त की —‘बेबी तो लास्ट स्टेज में ही चल रही है । अगर आध घंटा पहले भी आप लाये होते तो.... खैर, तीन—चार बोतल ग्लूकोज का पानी चढ़ाना होगा, तब कहीं....'

अभी ताम—झाम चल ही रहा था कि शिखा को जोरों से हिचकी आयी और उसकी देह ऐंठकर लकड़ी—सी हो गयी । रमा दहाड़ें मार—मार रो पड़ी । मगर मेरी आँखें पथरा गयी थीं । पत्नी को संभालते हुए, शिखा का शव लिये मैं डेरे पर लौटा । पूरी राह पत्नी की पीठ पर हाथ रखकर सहलाता रहा, उसे समझाता—बुझाता रहा, गुस्साकर डाँट—डपट भी करता रहा, मगर उसे मेरी बात सुनने की सुध् ही नहीं थी । वह तो मानो पागल हो गयी थी ।

अबकी बार का रोना—पीटना सुनकर मोहल्ले के लोग—बाग एक—एक कर जुटने लगे । मेरे मकान—मालिक लाल साहब सपत्नीक आ ध्मके और रुआँसी सूरत बनाकर सहानुभूति दर्शाते हुए बोले —‘भाई, होनी को भला कौन टाल सकता है । अपने वश की बात ही क्या है । खैर, मेरे लायक कोई सेवा हो तो निःसंकोच बताइयेगा ।'

‘हाँ भाई साहब, आप इतने नर्वस क्यों हो रहे हैं ? हम लोग आखिर किस दिन के लिये हैं ।' अब सुधकर बाबू की बारी थी —‘मगर भाई साहब, आपको तो खुशी होनी चाहिये कि आप लड़के वालों के घर के चक्कर लगाने और दहेज की मोटी रकम खर्च करने से सापफ बच निकले ।' लगा जैसे एक ही साथ कई कसाई मिलकर किसी मिमियाते मेमने की गरदन रेते जा रहे हों । मन—ही—मन असह्‌य पीड़ा से मैं बिलबिला उठा । तभी एकाएक मेरा रोआँ—रोआँ विद्रोह कर उठा, दाँत किटकिटाने लगे और मुटि्‌ठयाँ अपने आप भिंचने लगीं । मैंने आँखें तरेरकर चारों ओर एक नजर देखा और डपटकर रमा को तुरंत भीतर जाने को कहा । ज्यों ही वह घर के अंदर दाखिल हुई, सभी तमाशबीनों को बाहर छोड़कर मैंने खटाक—से अंदर से दरवाजा बन्द कर लिया ।

अब मैं अकेला, चुपचाप शिखा के शव को बाँसघाट ले जाने की तैयारियाँ कर रहा था ।