पगला Bhagwati Prasad Dwivedi द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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पगला

पगला

‘‘....वही आपका साथी पगला !'' गिरिजा खबर सुनाते हुए चाय का प्याला थमाकर हाथ मटकाती चली गयी । प्याला उठाया तो न जाने क्यों चाय पीने की इच्छा जाती रही । पुनः मेज पर रख दिया । पत्नी पर ही अच्छा—खासा गुस्सा उतर आया, मगर उसे भी पी जाना पड़ा । अचानक बेचैन नजरें दीवार के कोने से जा टिकीं । ‘किट—किट' करती हुई मकड़ी जाल बुनने में मशगूल थी ।

‘‘पगला ।'' न चाहते हुए भी उसका चेचक के दानों से भरा झुर्रीदार चेहरा आँखों के आगे नाचने लगा ।

‘‘बाबू, आप एम.एससी. हैं ?'' पहली मुलाकात में ही उसने पूछा था ।

‘‘तुम्हें कोई शक.....?''

प्रश्न के जवाब में एक और प्रश्न सुनकर, वह जैसे सकपका गया, पिफर बेवजह हाथ जोड़कर बोला, ‘‘न....नहीं..... ऐसे ही पूछ दिया ।''

‘‘और कुछ.....?'' पकौड़े मुँह में ध्केलते हुए मैंने उसे उसकाया । ‘‘बाबू, आप एम.एससी. करके किरानीगीरी करते हैं ?''

‘‘हाँ, तो ।'' दो घूँट पानी पीकर मैं खाँसते हुए मुस्करा दिया ।

‘‘मगर मैं पूछता हूँ..... क्यों ?'' उसकी आँखों पर लाल डोरे खिंच आये ।

‘‘समझ लो, सरकारी नौकरी.... भगवान की कृपा है.... जमाने की देन है ।'' खुद अपनी बेबसी पर मैंने ठहाका लगाना चाहा ।

‘‘भगवान की ऐसी—तैसी....। गोली मारो जमाने को । तुम्हारे जैसे हरामजादों ने ही शिक्षा का स्तर गिराकर रख दिया है । एम.एससी. डिग्री वाले किरानी और अँगूठा छाप शासक..... साला....!'' अचानक उसने अपने हाथ के बेंत से जोरदार प्रहार किया, जिससे चीनी मिट्‌टी की प्लेट टूटकर बिखर गयी और मेरी हथेली भी लहूलुहान हो गयी । मैं ‘बाप रे' चिल्लाता घर की ओर भागा ।

यह थी उससे मेरी पहली मुलाकात । उसके बाद मैंने अपना रास्ता ही बदल दिया । उस जैसे पागल का क्या भरोसा । मगर पिफर एक दिन आपफत ‘बिन बुलाये' आ ध्मकी । शाम को घर लौटा, तो देखता क्या हूँ कि वह बरामदे में बैठा न जाने क्या बड़बड़ा रहा है । भाग जाने की इच्छा हुई, पर कुछ सोचकर अन्दर दाखिल हुआ ।

‘प्रणाम साब ।' वह खड़ा हो गया तो मैंने सिर हिलाकर उसे बैठने को कहा ।

‘साब, आज एक विशेष काम से आपके यहाँ आया हूँ ।'

‘कहिये ।'

‘अच्छा.... आप लिखते भी हैं ?' मुझे वह दिन पिफर स्मरण हो आया । टालते हुए जवाब दिया, ‘नहीं तो ।'

‘देखो.... पढ़—लिखकर झूठ बोलते हो ? शर्म नहीं आती ? एक तो जीवन की सच्चाइयों को बेशर्मी की हद तक नंगा करके सबसे बँचवाते हो.... और दूसरे पफरेब भी बकते हो... ? नीच कहीं के....!' और वह बुदबुदाता हुआ बाहर चला गया ।

‘क्यों जी, क्या सोच रहे हो ? दफ्रतर नहीं जाना है क्या ?' गिरिजा ने अतीत को छीन लिया । झटपट तौलिया—ब्रश लेकर गुसलखाने में जा घुसा और नहा—धेकर लद्‌दू गध्े की भाँति पफाइल लटकाये स्लीपर घसीटता चल पड़ा ।

जगदीश की भट्‌ठी पर नजर आते ही पिफर वह मानसपटल पर जम गया । वहीं एक दिन उसे शराब पीते देखा था मैंने । कौतूहलवश दूर से ही पूछ बैठा, ‘क्यों बरखुरदार, शराब छन रही है ?'

‘हुँह !' उसने बोतल खाली करके मुस्कराने की कोशिश—भर की थी । ‘मैं अपनी गमे—जिन्दगी को बिसराने के लिए महज शराब ही पी पाता हूँ.... अमीरों की तरह गरीबों का खून तो नहीं पीता ।' उसकी बात पर मुझे तरस आ रहा था, बोला ‘तुम जैसे पागलों ने ही पूरे देश को तबाह करके रख दिया है । बोलेंगे कुछ और.... करेंगे कुछ और ।'

‘क्या बकते हो बाबू ? हम तो पागल हैं ही, तुम भी पागल हो, सारी दुनिया पागल है । हम गरीब भिखमंगे लोग रोटी के लिए, तोंद पर हाथ पेफरने वाले दौलत के लिए, नेता कुर्सी के लिए.... सब पागल हैं....सब....।'

‘बकवास बन्द करो ।' न जाने मुझ पर भी उस दिन कौन—सा भूत सवार हो गया था । उसकी कमीज का कॉलर पकड़कर खींचा, जिससे वह चर्र से जा पफटी, ‘मैं पूछता हूँ, कौन—सा गम है तुम्हारी जिन्दगी में.... बोलो ?' मैंने उसे दो चपत लगा दी ।

‘तुम नहीं सुन पाओगे बाबू ।'

‘तुम सुनाओ तो सही ।'

‘सुनना ही चाहते हो तो सुनो । होश संभाला ही था कि माँ, शराबी बाप को छोड़कर कहीं चली गयी और एक रात बाप भी ठंढ से सिकुड़कर लकड़ी हो गया मिला । बच गयी एक बहन, जिसके चलते तुझ जैसे ही एक मनचले बाबू का खून किया, जेल की सजा भोगी और अब....।'

अचानक उसकी पारदर्शी आँखों में पानी भर आया । मगर मैं पिफर बरस पड़ा, ‘तो क्या इस शराब के पीने से ही तुम्हारा गम मिट जायेगा ? बोल, आज से तू इस नशा को छोड़ता है या....?'

‘जरूर छोड़ दूँगा.... जरुर....' और उसने बोतल को उसी वक्त कूड़े में पेंफक दिया ।

सचिवालय की घड़ी ने अतीत से वर्तमान में दे पटका । पूरे दस बज चुके थे । तेज कदमों से मैं दफ्रतर की तरपफ भागा, तभी जा रही अरथी ने मेरा ध्यान चुम्बक—सा खींच लिया ।

‘राम नाम सत है' —कानों में गूँजते ही मुझे गिरिजा द्वारा सुनायी गयी खबर हू—ब—हू स्मरण हो आयी —‘अजी, सुनते हैं ? पगला मर गया.... वही आपका साथी पगला ।' और मैं उस वक्त मृत्यु से ज्यादा ‘साथी' शब्द पर झुँझलाया था । पत्नी पर गुस्सा भी आया था । मगर अब सोचता हूँ, जरूर वह मेरा साथी था, वह पागल नहीं था.... और अगर था तो सचमुच सारी दुनिया पागल है.... हम

सब....।

‘बाबू जरा चलने का तो शउफर सीखिये ।' रिक्शावाला न जाने कब से घंटी टनटनाता मुझे सबक सिखाता हुआ पास से गुजर गया ।

टेबिल पर पफाइल पटकते ही मेरे मुँह से अचानक पूफटा, ‘पगला मर

गया.... पगला ।'

और मेरे बगल के ईश्वरी बाबू अपना ऐनक उतार कर रखते हुए पूछ बैठे ‘कौन—सा पगला ?'