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बहुरुपिए

बहुरूपिये

दोनों कुलियों ने माथे पर लदे माल—असबाब उतारे और गमछे से अपने—अपने चेहरे का पसीना पोंछने लगे, ‘‘बड़ा जानलेवा उमस है, बाबू साहिब !''

बाबूजी मुझे देखते ही हड़बड़ा कर उठे और खरगोश की रफ्रतार से मेरी ओर लगभग कुलाँचते हुए लपके । जब उनके चरण—स्पर्श करने की खातिर श्र(ानत होकर उनकी तरपफ झुका, तो उन्होंने मुझे गले लगा लिया । भावातिरेक में उनकी आँखें छलछला आयीं । मेरी नजरें उनके चेहरे को पढ़ने की भरसक कोशिश करने लगीं । वाकई कितनी बूढ़ी हो गयी थीं उनकी पनीली आँखें ! पहले मैं कभी भूलकर भी बाबूजी के चेहरे की तरपफ ताकने की हिम्मत नहीं जुटा पाता था । उनका रोबीला चेहरा, बड़ी—बड़ी आँखें देख दिल में एक अजीब दहशत होने लगती थी । ‘वाह ! अभी तक साहबजादे सो रहे हैं ?' कानों में पिघले शीशे की भाँति गर्म आवाज पड़ते ही उनींदी आँखें मलते हुए हड़बड़ाकर उठ बैठता था मैं । बेरोजगारी के दरम्यान रोज—रोज की यह आम बात हो गयी थी । बेवजह डाँट—डपट और गाली—गलौज की अंधध्ुन्ध् बौछार ।

उस रोज बाबूजी की बात सुनकर मैं सचमुच ही विचलित हो गया था । एक तो अनचाहे ही असमय ब्याह रचाकर गले में पफाँसी का पफन्दा लटका दिया और अब रोजी—रोटी का बन्दोबस्त करने का सबक सिखला रहे हैं, ‘‘जिन्दगी भर का हमीं ने ठेका ले रखा है क्या ? जाकर कहीं मर—खपकर कमाओ—ध्माओ और अपने परिवार की रोटी का जुगाड़ करो.... समझे ?''

‘‘हुँह ! ठीक है, बाहर जाकर जबतक कमाने नहीं लगूँगा, तब तक इस घर में अब पाँव नहीं रखूँगा ।'' अगले दिन ही एक दृढ़—संकल्प करके बोरिया—बिस्तर बाँध्कर दपफा हो गया था मैं वहाँ से । और आज पाँच साल के बाद....।

मेरी आँखों से मोती—सदृश बड़ी—बड़ी दो बूँदें गालों पर लुढ़क आयीं । बाबूजी अपनी ही तरह शायद समझते हों कि एक लम्बे अरसे के बाद मिलने पर मैं भी भावविह्‌वल हो उठा हूँ । मगर ये खुशी के आँसू नहीं, बल्कि मेरे दिल के गुबार हैं जिनका रहस्य मैं और सिपर्फ मैं ही समझ सकता हूँ ।

‘‘बहुत दिनों से बाट जोह रहा था, बबुआ ! यात्राा में तो बड़ी दिक्कत हुई होगी.... कितने दिनों की छुट्‌टी है ? कई बरस पर तो आये हो, कुछ दिन रुककर दूध्—दही खा—पीकर सेहत बना लो । नौकरी का झमेला तो लगा रहेगा ताजिन्दगी ।'' बाबूजी के स्नेहिल मिसरी—से स्वर छन—छन कर घुस रहे हैं कानों मे ।

‘‘अच्छा बबुआ ! चलो, पहले हाथ—मुँह धेकर आराम करेा । पिफर बातें होंगी ।'' मेरे मुँह खोलने से पहले ही बाबूजी ने खुद बगल हटकर आँगन में घुसने की राह बना दी है और सामानों को एक—एक कर घर में रखवाने की व्यवस्था करने लगे हैं ।

ज्यों ही मैंने आँगन में कदम बढ़ाये, सजी—सँवरी पत्नी ने मेरे पैर छू लिए । पिफर मेरे जूते की ध्ूल से अपनी माँग भरने लगी ।

‘‘अरे....अरे.... यह क्या कर रही हो ?'' मैंने उसे उठाकर सीने से लगा लिया । पिफर माथा चूमने ही जा रहा था कि एकाएक माँ पर नजर पड़ते ही अचकचाकर सहम गया । माँ के चरण छूकर मैं चुपचाप खड़ा हो गया ।

‘‘जीते रहो, बेटे.... जुग—जुग जिओ !'' माँ के गले से भर्राई—सी आवाज आयी और वह मेरी पीठ थपथपाने लगीं ।

आँगन में पड़ी हुई बँसखट पर मैं बैठ गया । ‘‘आओ, बैठो माँ !'' मैंने माँ का हाथ पकड़कर खाट के सिरहाने बैठा दिया ।

रूपा एक थाल में पानी भरकर ले आयी और स्वयं अपने हाथों मेरे जूते—मोजे खोल, थाल में पैर रखकर धेने लगी ।

‘‘यह क्या करने लगी, पगली ? थाली में खाना खाया जाता है और उसी में तुम.....?'' मैंने पत्नी को मीठी झिड़की दी ।

‘‘अजी, आपसे बढ़कर यह थाली ही है क्या ?'' रूपा की बात सुन, मैं अचम्भित होकर उसकी तरपफ टुकुर—टुकुर ताकने लगा । सचमुच, आज इन लोगों ने मेरी कितनी कीमत बढ़ा दी है !

रूपा के चेहरे पर पुते सस्ते मेकअप को देखकर मन—ही—मन मुझे हँसी आ रही है । अटैची मँगाकर मैंने ढेर—सारे कीमती मेकअप और सौन्दर्य—प्रसाध्न की सामग्रियों के अम्बार लगा दिये हैं । बाबूजी और माँ के लिए लाये नये कुरते—धेती और महँगी साड़ियों को निहारकर माँ का दिल बाग—बाग हो उठा है । खुशी से विह्‌वल होकर वह कभी आँसू पोंछने लगती है ? तो कभी मुझे ढेरों दुआएँ देने लगती हैं ।

‘‘तुम्हारी दुआ से ही तो बगैर सोर्स—पैरवी और घूस—रिश्वत के ही ऐसी जगह पर पहुँचा हूँ, माँ !' मैं माँ को आश्वस्त करना चाहता हूँ ।

‘‘तुम और तरक्की करोगे बेटा ! ईश्वर तुम्हें सब से उफँचे ओहदे पर पहुँचायेगा ।'' माँ के आशीषने का सिलसिला अब भी जारी है ।

रूपा मन में हुलास और उछाह भरकर मेकअप की बेशकीमती सामग्रियों और कपड़ों को सहेजने में मशगूल हो गयी है । उसकी आँखें बार—बार चौंध्यिा रही हैं । एकाएक उसे ऐसा विश्वास ही नहीं हो रहा है कि इतनी सारी चीजें उसी की खातिर लायी हैं मैंने ।

मुझे आज भी याद है, पत्नी शादी के बाद मेरे साथ रहकर कतई खुश नहीं थी । तब वह बार—बार अपने मायकेवालों को ही कोसा करती थी कि मुझ जैसे बेकार और जाहिल मरद के साथ ब्याह कर माँ—बाप ने जैसे उसे कुएँ में ही ध्केल दिया था । जब भी मैं प्यार जताने का प्रयत्न करता, वह मेरा हाथ क्रूरता से झटक दिया करती थी और अपनी लाल—पीली आँखें मेरे चेहरे से यूँ हटा लेती थी, मानो मेरी घिनौनी सूरत देखकर उसका मन बजबजा उठा हो । पिफर अगर मैं उसकी तरपफ बढ़ता तो खूंखार नागिन—सी पुफपफकारने लगती थी वह ‘हुँह ! बड़ा कमाध्माकर रख दिया है न, जो चले हो....!' और मैं करवट बदलकर अपनी बेबसी पर रुँआँसा हो आँखें मूँद लेता था ।

‘‘चलिये, नाश्ता कर लीजिये ना !'' पत्नी की सुरीली आवाज ने माहौल को मध्ुर बना दिया है । ‘‘हाँ उठो बबुआ !'' माँ ने भी बहू की बात का समर्थन किया । पिफर प्लेट में पकौड़े सजाते हुए सोल्लास कहा, ‘‘देखो, मैंने तेरे लिए ये पकौड़े अपने हाथों से तले हैं । तुम्हें बहुत पसन्द है न !'' माँ ने एक पकौड़ा मेरे मुँह से लगा ही दिया ।

‘‘माँ, तू कितनी प्यारी है ।'' मैं मन—ही—मन बुदबुदाया, पिफर पकौड़े की तारीपफ करने लगा ।

गले में जब पकौड़ा अटकने को हुआ तो माँ ने पानी का गिलास होंठों से लगा दिया । पानी गटकने के साथ ही मैं अतीत के जंगल में भटक गया... ।

‘‘अरे रमरुपवा ! बैठे—बैठे क्या अंट—शंट लिखता रहता है रे तू ? जब देखो तब कविताई ! क्या तेरी कविताई पेट भर सकती है ? इतना पढ़—लिखकर क्या किया तूने—खाक ! सुरेशवा तेरे साथ ही न पढ़ता था ? इण्टर पास करके ही ठेकेदारी में उतर गया और आज लाखों से खेल रहा है.... और एक तू है कि

एम.ए. पास करने के बाद घर का ही आटा गीला किये जा रहा है । कभी लौंडों के साथ गाँव की सड़क बनवाने निकल पड़ेगा, कभी बहुरिया के साथ घर में घुसर जायेगा, तो कभी बैठे—बैठे कविताई पर कलम घिसता रहेगा । मुँहचोर कहीं का ! अरे नासपीटे ! अब भी तो चेत ! काहे बाप—महतारी की इज्जत खाक में मिलाये जा रहा है ?'' माँ नित्य ही डाँटने—पफटकारने की कोई—न—कोई वजह निकाल ही लेती थीं और मैं उफहापोह की स्थिति में पड़ा, कुछ भी निर्णय नहीं ले पाता था कि मैं आखिर करूँ भी तो क्या ?

‘‘और खाओ न बेटा !'' मेरे प्लेट खिसकाते ही माँ आग्रह कर रही हैं ।

‘‘नहीं माँ, अब नहीं चल पायेगा ।'' मैं रूमाल से हाथ—मुँह पोंछता हुआ उठ खड़ा हेाता हूँ ।

‘‘बबुआ, देखो कौन आया है दुआर पर ?'' बाबूजी की पुकार सुनकर मैं तत्काल ओसारे में दाखिल हो जाता हूँ ।

‘‘अरे बबुआ रामसरूप ! कब आये ?'' दसर्इं चाचा उठकर मेरी तरपफ हतप्रभ—से देखने लगे हैं ।

‘‘बस, थोड़ी ही देर पहले, चाचाजी !'' मैं हाथ जोड़कर सादर जवाब देता हूँ । औपचारिक बातों से जब उफबने लगता हूँ तो घर में जाकर लेट जाता हूँ ।

बातों—ही—बातों में मैं कब नींद के आगोश में चला गया, मुझे पता ही न चला । थोड़ी देर बाद ही मैं सपने की इन्द्रध्नुषी दुनिया में खो गया । बाबूजी की स्नेहसिक्त आँखें, प्यार भरी बातें.... माँ का प्यार—दुलार....पत्नी का सेवाभाव और समर्पण..... गाँव के लोगों के प्रशंसाभरे स्वर....पिफर अपने—अपने बेरोजगार बेटों के लिए आरजू—मिन्नतें.... मेरे सम्मान में आयोजित गोष्ठियाँ.... पूफल—मालाओं से लदी मेरी गर्दन !

‘‘नहीं—नहीं, मैं इस काबिल नहीं, जो मेरा इतना सम्मान किया जाये ! मुझे सी.ओ. साहब नहीं, आर.एस. सिंह नहीं, रामसरूपवा कहो, आवारागर्द

कहो.... मुझे दुत्कारो, गाली दो, डाँटो—पफटकारो....!'' पिफर मैं बड़बड़ाने लगता हूँ— ‘‘नहीं, तुम सभी पत्थरदिल हो, कमीने हो ! गिरगिट—सा रंग बदलने वाले ! तुम मेरे व्यक्तित्व की नहीं, मेरे पद—प्रतिष्ठा और कमाई की तारीपफ कर रहे हो । स्वार्थी कहीं के ! माँ.... बाबूजी..... रूपा....! तुम सभी सिपर्फ मेरी कमाई से प्यार करते हो, मुझ से नहीं....कतई नहीं । कैसा प्यार ? कैसे रिश्ते ? यह सब नाटक है । बहुरूपिये हो तुम लोग..... बहुरूपिये ।''

‘‘अजी, उठिये न ! सपना रहे हैं क्या ?'' पत्नी झकझोर कर मेरी तन्द्रा भंग करती है ।

मैं अचानक आँखें खोलता हूँ । पत्नी ताबड़तोड़ ताड़ का पंखा झल रही है और मैं पसीने से सराबोर होकर सोचे जा रहा हूँ.... अब भी कुछ सोचे जा रहा हूँ ।

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