हरे रंग का खरगोश
मैं प्रभुनाथ की बगीची से पैदल पैदल वापस लौट रहा था. मैंने वहां करीब ढाई घंटे बिताये थे. यहाँ आते समय मैं जितना झुंझलाया हुआ और अपने आप पर खीझ में था, वापसी में मैं उतना ही पुलकित और प्रसन्न था.
नहीं.. प्रसन्न मेरी मनःस्थिति के लिए सही शब्द नहीं है. वहां एक मौत का प्रसंग था जिसने मेरी मनःस्थिति यकायक बदल दी थी, तो मैं प्रसन्न कैसे कहा जा सकता हूँ.. लेकिन सहज और उजास भरा तो मैं था ही.. मेरे भीतर की सारी झुंझलाहट और खीझ मिट गई थी और जो मन में बचा था उसमें शोक राग भी उतना सघन नहीं था.. जितना था वह सकारात्मक था, एक प्रकाश की किरण की तरह..
बेहद अचानक, एक बहुत शिद्दत से मनचाहा मेरे सामने आ गया था. स्कूल ने बिल्डिंग की मरम्मत के लिए एक हफ्ते की जबरन छुट्टी ऐलान कर दी थी. सर्दी की शुरुआत का बेहद खुशगवार मौसम था.. घर की छोटी सी बगिया तक फूलों की हाजिरी से भरपूर हो उठी थी. करीब डेढ़ महीने बाद बड़े दिन की छुट्टियों में परिवार और बच्चों का ननिहाल जाने के लिए आरक्षण हो चुका था. इस बीच बच्चे अपने छमाही इम्तेहान की तैयारी में लगे थे और पत्नी अपनी उस तैयारी में, जिसके दम पर वह अपने पिता के गाँव में हमेशा याद की जाती है. किसी के लिए हाथ के घर सिले कपड़े तो किसी के लिए ऊन का बुना हुआ स्वेटर.. रद्दी कपड़ों की बनाई हुई गुड़ियाँ.. और कुछ पढ़ाकू लड़के लड़कियों के लिए किताबें, जिनकी जिल्द और पन्ने सुधार कर मेरी पत्नी उन्हें नया कर देती थी. ऐसे में इस बात की गुंजायश कहाँ थी भला कि मैं इसमें कोई फेर बदल खड़ा कर सकूँ. यह मेरे लिए अच्छा ही था..जिस दिन स्कूल में यह नोटिस लगा, मैं सारा दिन यह गुनता रहा कि मैं इस समय में क्या कर सकता हूँ.. और तभी मेरे मेरे दिमाग में प्रभुनाथ की बगीची का नाम कौंध गया था.
प्रभुनाथ की बगीची रविशंकर के कस्बे में है. उसी कस्बे में प्रदीप ठाकुर और आकाश शर्मा भी हैं, जिनकी चर्चा, जब भी रविशंकर को फोन करो तो वह अकारण छेड़े बिना नहीं रहता..और फिर आधे से ज्यादा समय इनका ही प्रसंग चलता है. वहां चेतन की कवितायेँ भी हैं, जो मेरे लिए ख़ास लालच की वजह बन सकती है. लेकिन इस सब के बावजूद रविशंकर ने जो चुम्बक मेरे मन में प्रभुनाथ की बगीची के लिए बना दिया है, वह सबसे अलग है.
“ बगीची क्या है गुरु, एक तिलिस्म है समझो..हर किस्म के जंगली विलायती फूल हैं , पचासों तरह के कैक्टस हैं, घने पेड़ों का ऐसा जमावड़ा है, जिसे वहां के लोग सौ बरस पुराना बताते हैं. पेड़ों के बीच से सूरज की किरणें जब नीचे के रास्तों पर पड़ती हैं, तो लगता ही नहीं कि किसी आबादी वाले कस्बे में घूम रहे हैं.. लेकिन बस चप्पल फटकारते हुए यहाँ के लिए मत चल पड़ना.. फूलों की दोस्ती में कांटों की भी कमी नहीं है, और घास पत्तों की यारी में कीट पतंगे भी बहुत हैं. यहाँ तुम्हें खोह जैसे बिल भी दिख सकते हैं जिन्हें तुम सांप की बाम्बी समझोगे और उसमे से खरगोश निकाल कर भागेंगे. कभी लाल नीला खरगोश देखा है ?, यहाँ देखोगे.. यहाँ बगीची में स्कूल से भाग कर आये हुए बच्चे जब इस जंगल में मस्ती करने आते हैं तो भागते खरगोशों पर कलम से स्याही छिड़क देते हैं... तुम यहाँ देखोगे लाल, नीली हरी रोशनाई से रंगे हुए खरगोश.. इसमें फिर मिल्कियात भी चलती है, लाल वाला चन्दन, का तो हरा रघुपति का.. “
रविशंकर के यह सारे व्योरे मेरे लिए चमत्कार से कम नहीं थे. ऐसा तो नहीं कि मेरे शहर के पास इनमें से कुछ भी नहीं है, लेकिन मेरे पास अपने शहर में वक्त कहाँ है..
इसी प्रभूनाथ की बगीची में एक तलैया है, बकौल रविशंकर, उसकी सीढ़ी पर बैठे हो और कोयल बोल जाये तो ज़रूर बरसों की भूली हुई प्रेमिका इतनी याद आ जाएगी, मानो वह पास आकर ही बैठ गयी हो...
“ बस आ जाओ, बाकी सब मुझ पर छोड़ दो.” रविशंकर यही कहता था हर बार. हर बार मैं मन बना ता था और मन मसोस कर रह जाता था.. कब नौ मन तेल होगा, कब राधा नाचेगी.
अब अकस्मात् मेरे आगे नौ मन तेल की लाटरी खुल गई. मेरे पास कम से कम पांच दिन थे. बीबी बच्चों का किन्तू परंतू नहीं था. रविशंकर के घर जाना इतना ज्यादा खर्चीला भी नहीं था कि माथे पर बल पड़ें.. फिर क्या था .. मैंने एक बैग में कुछ कपड़े ठूँसे, कैमरा लिया, अपनी डायरी सम्हाली और चल दिया. कुछ रकम बीबी से मिली थी, कुछ दो नंबर की मेरी टेंट में पहले से ही थी. सब चौकस था.
मैं रविशंकर के कस्बे में बस से उतरा. रिक्शा पकड़ा और रटे हुए पते पर चल पड़ा. भले ही मैं वहां पहली बार सचमुच आ रहा था, लेकिन वहां के सारे रास्ते मेरे लिए एक तरह से जाने पहचाने थे. न जाने कितनी बार मेरा कार्यक्रम बनते बनते रद्द हुआ था और रद्द होने वाले दिन की पूर्व संध्या तक रविशंकर ने मुझे रास्ते रटवाए थे,
“ बस से उतर कर भजन बीज भण्डार पूछ लेना..उसके पीछे सर्वोदय स्कूल है, वहाँ से.....”
मेरा रिक्शा सर्र सर्र रविशंकर के घर की ओर बढ़ रहा था. उस से ज्यादा तेज़ी से मेरा सोच उसके घर पहुँच कर उसे सरप्राइज़ देने का अपना करिश्मा दिखा रहा था.
" अबे, तू तो सचमुच आ गया..."
" हाँ, और क्या, मैं कहता था न कि एक दिन अचानक आ टपकूंगा .."
रिक्शा रुका. मैंने घर के बाहर लगी नेम प्लेट पढ़ी और अपना थैला कंधे पर टाँगे फुदक कर दरवाज़े पर पहुँच गया. घंटी बजाई. दरवाज़ा खुला और रविशंकर का छोटा भाई शशिशंकर सामने आया.
मैंने अपना परिचय दिया, तो वह चिहुंक गया..
"आप भैया के साथ टीचर्स ट्रेनिंग के दौरान हॉस्टेल में थे न"
मैं भी चिहुंक गया. उसने मुझे ठीक पहचाना था.
आइये, ऊपर के कमरे में पहुँचिये, भैया भाभी तो गाँव निकले हुए हैं.. कल दोपहर तक लौटेंगे.."
अरे, कब गये..?"
चार दिन हो गये. ताऊ जी के बेटे ने ट्रेक्टर खरीदा है, उसी की पूजा थी कल.. आप ऊपर तो चलो, आपने फोन तो किया होता..तब भैया आज पहुँच सकते थे."
हूँ." मैंने हुंकार भरी लेकिन मेरा उत्साह उतर गया. पहले फोन करता तो भला सरप्राइज़ का मतलब ही क्या रह जाता..?
खैर, उस समय शाम के चार बज रहे थे और मुझे रात के अलावा करीब बारह घंटे रविशंकर की इंतज़ार में रहना था. भले ही मेरे पास समय खूब था लेकिन मेरा उस समय का जोश तो ठंढा हो गया था. मैंने बस रविशंकर के भाई से इतना कहा कि अगर रवि का फोन आये भी तब भी उसे मेरे आने की खबर मत देना. कुछ तो मज़ा रहेगा.
रात मेरी जैसी तैसी बीती. कुछ देर रविशंकर की माँ से बतियाता रहा. कुछ देर रविशंकर के कमरे में पड़ी उलटी सीधी धरम करम की किताबें उलट पलट कर देखता रहा. सुबह नींद जल्दी ही खुल गई. जब भोर का उजास देखने रविशंकर की छत पर आया, तो दूर तक खेत और मैदान का खुलापन देख कर तवियत खुश हो गयी. शशिशंकर मेरे साथ था. वह बताता जा रहा था कि किधर क्या है..तभी उसने बताया कि वह कच्ची सड़क जिस पर अभी ट्रेक्टर गया है, प्रभूनाथ की बगीची कि तरफ जाती है.
मेरे चेहरे पर एक चमक आयी.
"चलेंगे..?" उसने पूछा.
मैं असमंजस में था.
"चाहें तो चलें.. मुझे उधर ही ट्यूशन पढ़ाने जाना है..साइकिल से छोड़ दूंगा."
" ठीक है" मैंने कहा और अपना कैमरा हाथ में लेकर चल पड़ा.
अब मैं प्रभूनाथ की बगीची में था. जिस छोटी फटकिया पर शशि ने मुझे उतारा उसके सामने एक खुला मैदान था. उसने बताया कि आगे दाहिनी तरफ फूलों की वाटिका है और बायें जा कर आयुर्वेदिक बूटियों की क्यारियाँ हैं. जहाँ मन हो वहाँ घूमिये.
मैं जरा बेमन से बगीची में घुसा. आय्रुवेदिक बूटियों में मेरी दिलचस्पी तो भला क्या होती, में वाटिका की ओर घूमा. कैमरा खुल कर हाथ में आ गया. डिजिटल कैमरा था सो फिल्म को राशन की तरह खर्च करने का दबाव भी नहीं था. फुलवारी ती निश्चित रूप से मनभावन थी लेकिन मेरे पास उस समय मन जैसा मन नहीं था. मुझे फुलवारी से ज्यादा पेड़ों ने बाँधा. उन पर पक्षी बैठे थे. कुछ पेड़ ठूँठ भर थे लेकिन उनकी खुले आसमान को बांधती टहनियां अपना ही दृश्य रच रहीं थीं. मेरा कैमरा उन्हीं को समेट रहा था. घूमते घूमते मैं अनायास उस तरफ निकाल आया जिधर मैदान में लड़के ईंटों का विकेट बना कर क्रिकेट खेल रहे थे. पैरों में हवाई चप्पल, कोई तो नंगे पैर भी, लेकिन उत्साह पूरा तेंदुलकर जैसा.
तभी एक लड़का ठिठक कर खड़ा हो गया.
" ए, संत्तू, ये अपने स्कूल; का मास्टर है क्या..?"
" हट्ट, तू फील्डिंग कर, ये तो कोई बावला है, बड़ी देर से फालतू के फोटो खींच रहा है. कभी पेड़, कभी दीवार.."
मैं हंस दिया. मैंने दीवार के एक ताख में रंगे हुए एक पत्थर के टुकड़े की फोटो खींची थी, जो वहाँ भगवान् बन कर बैठा था. कुछ देर घूम कर मैं एक बेंच पर बैठ गया और बच्चों को खेलता देखता रहा. यह तो सच है कि मैं एक स्कूल मास्टर हूँ और बच्चों को इस तरह खेलते रोज़ देखता हूँ, लेकिन उस दिन उनका खेल देखते हुए मुझे लग रहा था जैसे मैं कोई बहुत रोमांचक दृश्य देख रहा हूँ.
न जाने कितनी देर मैं वहां बैठा उनका खेल देखता रहा. मेरे मन में प्रभूनाथ की बगीची अकेले देखने का कोई भाव नहीं बन पा रहा था. बस, गुनगुनी धूप में इंतज़ार भरा समय मुझे काटना था.
तभी बल्लेबाज़ की मारी हुई एक शॉट से गेंद मेरे पास आ गिरी और उसके पीछे भागता हुआ एक लड़का भी मेरे सामने आ गया.
उसने मुझे देखा. मेरे हाथ में कैमरा था.
" क्या फोटो लिए..?" उसने उत्सुकतावश मुझसे पूछा, हालांकि शरारत उसके चेहरे पर छिप नहीं रही थी.
" बहुत से.. देखोगे..?"
" अभी दिख जाएंगे..?"
"हाँ " मैंने कहा और उसे स्क्रीन पर वह फोटो दिखाने लगा जिसमे पेड़, बादल और एक चिड़िया का नज़ारा कैद था.
" कैसा है.?"
" ठीक है." उसने जवाब दिया और साथ ही दूसरा सवाल भी मेरे सामने रख दिया.
" इसका क्या करोगे.. इसे बेचोगे.?"
"नहीं"
" तो फिर ?"
" बस, जब कभी मन उदास होगा, कोई दुःख की बात तंग कर रही होगी, तो इन्हें फिर देखूंगा.. हो सकता है इन्हें देख कर मन उतना ही खुश हो जाए जितना अब है."
वह लड़का चुप रहा. उसके पीछे एक और लड़का भागता हुआ आया और चीखने लगा..
" कहाँ रह गया बावले के पास... जल्दी से गेंद लेकर आ.."
और वह दोनों लड़के फिर मैदान की ओर भाग गये.
मैं उन्हें भागता देखता रहा. यह बावला शब्द मेरे मन में घुलने लगा था. मैंने अपने आप को खुद एक बार कहा, ....बावला, और हंस पड़ा.
कुछ देर में खेल ख़त्म हो गया. लड़के पलट कर जाने लगे थे कि सब लड़कों ने उस लड़के को घेर लिया जो मुझसे बात कर रहा था. फिर वह लड़का हमारी बातचीत का व्योरा उन सब को देने लगा. एक बार उन सबने गर्दन घुमा कर मेरी ओर देखा. यह इस बात का संकेत था कि बात मेरे बारे में ही चल रही है. उसके बाद लड़के अपने अपने बस्ते उठा कर चल दिए. मैं उनको जाते हुए देखता रहा. फटकिया पार करते ही वह मेरी नज़रों से ओझल हो गये.
मैं अभी भी वहीँ बैठा था और अपने खींचे हुए फोटो देख रहा था. मेरा पूरा ध्यान कैमरे के स्क्रीन पर था. तभी एक आहट हुई और मैंने देखा कि एक करीब दस ग्यारह साल का लड़का मेरे पास धीरे धीरे बढ़ता चला आ रहा है. मैं उसकी हरी कमीज़ से पहचान गया कि अभी वह मैदान में सबके साथ खेल रहा था. उसकी चाल में एक अजीब सा असमंजस था. और वह उस असमंजस को जीतता हुआ बढ़ भी रहा था.
सर्दी की शुरुआत के बावजूद उसके बदन पर केवल आधे बाजू की कमीज़ थी. उसके पैर में रबर के जूते थे जो एड़ी से फट भी रहे थे.
" आओ " मैंने उसके असमंजस को तोड़ते हुए उसका हौसला बढाया. वह आ कर खड़ा हो गया.
" बोलो "
" फोटो " वह इतना ही कह पाया.
मैंने उसे अपने पास बैठाया और फोटो दिखाने लगा.
" यह वो वाला पेड़ है.. यह देखो, आले में रखे हुए तुम्हारे भगवान् जी.."
उस लड़के में फोटो के लिए मुझे कोई रूचि नहीं नज़र आई, लेकिन वह तो इन्हीं के लिए इतनी दूर मुझ तक चल कर आया था. यह बात मुझे एक पहेली की तरह लगी.
" फोटो अच्छे नहीं लगे क्या..?" मैंने बहुत मुलायमियत से सवाल किया.
" अंकिल , क्या सचमुच यह फोटो देखने से किसी का मन खुस हो जाएगा..?"
मैं हंस पड़ा.
नहीं अंकिल, सच बताइये..इन फोटो से दुःख दूर होता है क्या..? कोई मंतर है इनमें ..?"
अब मैं जरा गंभीर हुआ. वह लड़का तो शुरू से ही गंभीर था. उसके चेहरे पर एकाग्रता ठहरी हुई थी. उस तेवर से बेहद फर्क, जिसके साथ वह अभी क्रिकेट खेल रहा था.
" यह क्यों पूछ रहे हो.. क्या नाम है तुम्हारा..?
" मदन.. "
" हाँ तो बताओ, यह बात तुम्हारे मन में कैसे आई ?"
" यह फोटो मैं अपनी माँ को दिखाऊंगा. बहुत दुखी है वह.."
" क्यों..? " मुझे उसकी बात पर हैरत हुई.
वह लड़का पहले चुप रहा... फिर उसका चेहरा जैसे भीग आया.
" अंकिल, मेरे पिताजी मर गये .."
" अरे, कब.."
" पिछले महीने.. आज इक्कीस दिन हुए."
" बीमार थे क्या.."
" बिजली की वायरिंग का काम करते थे.. करंट खा गये."
" उफ़.. यह तो बहुत बुरा हुआ.."
" नहीं अंकिल, मेरा बाप बहुत बुरा आदमी था. मेरी माँ को मारता था.. दारू पीता था. घर में पैसा नहीं देता था."
" नहीं बेटा, ऐसा नहीं कहते. "
मदन पर मेरी इस बात का कोई असर नहीं पड़ा. उसने अपनी बात जारी रखी.
".. मेरी माँ बहुत दुखी है. वह कपड़े धोने और प्रेस करने का काम कर के हमें पाल रही है. मेरा बड़ा भाई इसी किचकिच के चलते दो बरस हुए घर से पता नहीं कहाँ भाग गया... "
" तुम क्या करते हो.. स्कूल छोड़ कर यहाँ खेलकूद करते हो..?" मेरास्कूल मास्टर जाग गया.
" नहीं अंकिल, स्कूल में मन नहीं लगता. घर में माँ या तो चुप रहती है, या रोती सिसकती है. घर में डर लगता है. "
मैं भी यकायक निरुत्तर हो गया.
' अंकिल, यह फोटो लेकर मेरे घर चलो .. मेरी माँ को दिखाओ..वह इस बगीची में कई बार मेरे साथ आई है. उसे यहाँ अच्छा लगता है. "
उस लड़के के मेरे हाथ पर अपना हाथ रख दिया, कि मैं उठूं और चल पडूं.
मैं क्या करता..फिर भी मैंने शब्द जुटा कर कहना शुरू किया.
" तुम माँ से बात क्यों नहीं करते..? बात करो तो उसकी चुप्पी टूटे."
" मैं क्या बात करूँ..?"
" कुछ भी. क्या तुमने बताया है उसे कि तुम उसके चुप रहने से, रोते रहने से तकलीफ महसूस करते हो.. ? तुम्हें उसका दुखी चेहरा देख कर डर लगता है..?"
" नहीं " उसने जवाब दिया.
" क्यों.. क्यों नहीं बताया.. ?"
वह चुप रहा फिर ठहर कर बोला, " उस से क्या होगा ?"
" तुम्हारी माँ को पता लगेगा कि तुम बड़े हो गये हो, उसकी फिकर करते हो.. तुम उसका सहारा हो, जैसे तुम्हारा बाप था अब तक. "
उस लड़के ने चौंक कर सिर उठाया,
" तुम्हारी माँ अकेली हो गई है मदन. वह किस से कहे अपने मन का दुःख.. तुमने अभी खुद को उसकी नज़र में छोटा ही बना रखा है. वह तुम्हें पहले की ही तरह खेलते स्कूल जाते देखती है. उसे क्या पता कि तुम उसकी फिकर में परेशान हो..तुमने तो ऐसा कुछ कभी किया नहीं, उसे कभी कुछ बताया नहीं जो उसे तुम पर भरोसा हो सके.., उसे लगे कि वह अकेली नहीं है.."
वह लड़का कुछ सचेत हुआ.
" तुम भी तो अकेले हो गये हो.. हैं न..? क्या इन संगी साथियों से अकेलापन टूटता है तुम्हारा..?"
"नहीं " वह लड़का करीब करीब चीख उठा.
" .. तो फिर, तुम माँ बेटे मिल कर एक दूसरे का अकेलापन क्यों नहीं ख़त्म कर लेते.? माँ से बात करो. तुम उस से बोलोगे तो वह भी बोलेगी ही..अपनी बात कहेगी फिर देखना तुम दोनों की जिंदगी कितनी बदल जायेगी. तब तुम्हें भी क्रिकेट के खेल में मज़ा आने लगेगा."
मुझे उस लड़के के चेहरे पर गहरे बदलाव के चिन्ह नज़र आये, लेकिन एक उतावलापन अभी भी वहां ठहरा हुआ था,
और यह फोटो ?"
ज़रूर.. यह फोटो मैं ज़रूर तुम्हारी माँ को दिखाऊंगा, लेकिन आज नहीं.. आज तो तुम..."
पता नहीं यकायक इस बात का क्या असर हुआ कि वह लड़का खरगोश की तरह उछला और तेज़ी से दौड़ गया. वह फटकिया से नहीं गया बल्कि उसने एक छलांग लगा कर बगीची की रेलिंग को पार किया और आनन फानन में मेरी नज़रों से ओझल हो गया.
हरे रंग का खरगोश.. मेरे मुंह से निकला और मैं हंस पड़ा.
मेरे फालतू के फोटो देखो कहाँ काम आये..प्रभूनाथ की बगीची में सचमुच तिलस्म था. मैं पैदल पैदल रविशंकर के घर चला जा रहा था. मेरे मन में बहुत कुछ एक साथ चल रहा था. आदमी आखिर साथ साथ रह कर भी दूसरे के लिए क्या कर रहा है. जब सुख दुःख हर एक की जिंदगी में आता हैं तो हम एक दूसरे को उन्हें सहने का तरीका तो सिखा सकते हैं. बाप के मरने के बाद इस लड़के ने इक्कीस दिन यूं ही बर्बाद कर दिए. वह इस बीच खुद कितना टूटा और कितना टूटी इसकी माँ.. किसी ने भी इन्हें दुःख सहने की रीत सिखाने का जतन नहीं किया.. दुनियादारी भले ही कितनों ने निभाई हो.. उफ़.. चलो अकस्मात् ही सही मुझसे कुछ तो हुआ, और शायद ठीक ही हुआ... और मैं मुदित होनेलगा.
रविशंकर अपने घर पहुँच चुका होगा. उसे सरप्राइज़ देने का एक और मौका मैंने गँवा दिया, मैं फिर भी मुदित हूँ. मुझे पता है कि कल जब मैं रविशंकर के साथ फिर कैमरा ले कर इस बगीची में आऊंगा, यह हरे रंग का खरगोश मुझे नहीं मिलेगा.
इस से अच्छी बात भला मेरे लिए और क्या हो सकती है...!