Kautuhal Ashok Gupta द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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Kautuhal

कौतूहल

निरंजन नें जैसे तैसे ट्राफिक के बीच से फलांगते हुए मेन रोड पार की और उस तरफ पहुँच कर फुर्ती से एक बाई लेन में मुड़ गया.

उसके कदम तेज़ी से उठ रहे थे. कंधे पर पडा बैग बार बार फिसल कर नीचे झूल आ रहा था, लेकिन निरंजन इस से परेशान नहीं लग रहा था. आगे जा कर वह बाई लेन एक पतली पक्की सड़क से मिल गई थी जो रेलवे लाइन के साथ साथ चल रही थी. सड़क पर कोई ख़ास ट्रैफिक नहीं था. दाहिनी तरफ रेलवे की रिहायशी कालोनी थी इसीलिए बीच बीच में गुमटीनुमा दुकानों ने अपनी जगह बना ली थी. बाईं तरफ एक दीवार चल रही थी जिसके ऊपर लगे खम्भों पर काँटों दार तार बंधे हुए थे. निरंजन फुर्ती से कदम बढ़ा रहा था और बीच बीच में घड़ी भी देखता जा रहा था. उसकी चाल में जल्दबाजी जरुर थी लेकिन चहरे पर एक मौज की लहर भी थी, जैसे सड़क पर उसके बढ़ते हुए कदम उसके भीतर के कौतूहल को गहराते जा रहे हों.

आगे बढ़ कर बाईं और की दीवार एक जगह टूटी हुई थी और वहां आने जाने वालों के लिए एक दर्रे नुमा रास्ता बन गया था. उस टूटी दीवार के उस पार रेलवे लाइन की दो जोड़ा पटरियां थीं. उस दर्रे को पार करते करते निरंजन अपने कोतूहल भरे आनंद की हद पर था. उसने घड़ी देखी और कौतूहल के बीच इत्मिनान की एक रेखा वहां खिंच गई. दर्रा पार कर के निरंजन दीवार से सट कर खड़ा हो गया और दाएं बाएँ देखने लगा. तभी घड़घड़ाहट की आवाज़ दाहिनी और से आनी शुरू हुई और तेज़ होती चली गई. फिर एक मालगाड़ी का डिब्बा दाहिनी और से ढलान पर उतरती पटरी पर लुढ़कता हुआ आया और बाईं और चला गया.

वह एक शंटिंग यार्ड था.

दाहिनी ओर से मालगाड़ी के डिब्बों को धकेल कर इंजन ढलान पर छोड़ता था और फिर वह डिब्बे अकेले मनमौजी की तरह सामने से लुढ़कते हुए चले जाते थे. निरंजन ने आगे भले ही न देखा हो लेकिन उसे पता था कि यह डिब्बे आगे जाकर अलग अलग स्टेशनों के लिए अलग अलग लाइनों के जरिये किसी मालगाड़ी से जुड़ जाते हैं ओर फिर उनका मनमौजीपन बदल कर केवल माल ढोने की जिम्मेदारी भर रह जाता है. पता नहीं किस जंगल मैदान में वह बोझ से लदी मालगाड़ी सन्नाटे में खड़ी हो जाय और कितनी ही तेज़ रफ़्तार सवारी गाड़ियाँ उन्हें मुंह चिढाती हुई गुज़र जाएं. यह सब जानते हुए भी निरंजन का कौतूहल तो बस उन अकेले बे इंजन लुढ़कते जाते मनमौजी डिब्बों को देखने से बध गया था. करीब करीब हर रोज़ दफ्तर से लौटते हुए वह यहाँ रुक कर यह नज़ारा देखता था, जितनी देर मन चाहे उतनी देर... फिर उनका मनमौजीपन चित्त में भर कर आगे चल पड़ता था.

आगे शंटिंग वाली दो लाइनों को पार कर के एक मैदान था और उसके आगे मेन रेलवे लाइन थी. बाईं तरफ घूम कर रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म का एक छोर था, और सीधे जाने पर एक गलियारेनुमा रास्ता मेन रोड पर खुलता था और यहीं से निरंजन को अपनी चार्टर्ड बस मिलती थी. शाम साढ़े पांच बजे से ले कर सात बजे तक यह बसें निकलती ही रहती थीं सो निरंजन हर रोज़ सुविधापूर्वक अपना कौतूहल जी पा रहा था.

शनिवार का दिन निरंजन के लिए ख़ास होता था. उस दिन निरंजन मैदान पार कर के स्टेशन की और रूख करता था. प्लेटफार्म पर करीब छः बजे अर्चना भी पहुंचती थी, निरंजन की मंगेतर, जिस से उसका रिश्ता करीब महीना भर पहले तय हुआ था. ऐसा केवल शनिवार को होता था. सप्ताह के बाकी दिन तो अर्चना अपने भाई के साथ उसके स्कूटर पर जाती थी. उसके भाई का दफ्तर भी पास में ही था लेकिन शनिवार उसकी छुट्टी होती थी इसलिए शनिवार निरंजन के लिए मानो बोनस लेकर आता था. स्टेशन पर अर्चना से भेंट.. साथ साथ चाय कॉफी.. सपनों भरी गपशप फिर किसी चार्टर्ड बस से वापसी या ऑटो रिक्शा. अर्चना और निरंजन दोनों के घरवालों को इनका यह कार्यक्रम बिना किसी आपत्ति के पता था, इसलिए दोनों में बेफिक्री भी थी.

हर शनिवार जब भी निरंजन अर्चना से मिलता उसकी आँखों में मनमौजीपन लिए मालगाडी के अकेले भागते डिब्बे भी जगह बनाए रहते. अक्सर वह सोचता भी कि आने वाले समय में उसकी गति भी माल लादे गाड़ी सी हो जाने वाली है लेकिन माल शब्द मन में आते ही उसके कान सनसना आते और उसके सामने अर्चना का चेहरा तैर आता.. अपने स्कूल के दिनों से ही माल शब्द का एक ही अर्थ उसके कोश में था जिसके अनुभव से वह अभी तक एकदम छूंछा था. निरंजन के मन में इस अनुभव का भी एक कौतूहल था, और यह गर्व भी कि वह आजकल के शोहदों जैसा लड़का नहीं है.

उस दिन भी शनिवार था. निरंजन टूटी दीवार पारकर के शंटिंग यार्ड में अपनी जगह खडा हो चुका था. एक डिब्बा अपनी तरंग छेड़ता हुआ जा चुका था कि तभी एक अजूबा दृश्य निरंजन के सामने आया. मालगाड़ी का जो डिब्बा अब लुढ़कता हुआ आ रहा था उसके आगे की तरफ, बिना छत वाले डिब्बे की पीठ से अपनी पीठ चिपकाए और दोनों तरफ के कुंडों को मजबूती से पकड़े एक लड़का खड़ा था और उस मनमौजी डिब्बे की सवारी ले रहा था. उस लड़के की उम्र करीब बीस बाईस बरस की रही होगी. उसके बदन पर एक बादामी रंग की टी शर्ट थी और गहरे नीले रंग की पैंट.. उसके चेहरे पर एक अजीब सा थ्रिल था जो निरंजन के इस भय से पूरी तरह बेखबर था कि लुढ़कता हुआ यह डिब्बा जब अपनी जुड़ने वाली मालगाड़ी से टकराएगा तो खतरा भी हो सकता है. इस दृश्य ने निरंजन को घबराहट से भर दिया था. उसका कौतूहल गहरा हो गया था और उसका रंग बदल गया था. उस डिब्बे के आँखों से ओझल होते ही निरंजन वहां से चल पड़ा. उसे सीधे प्लेटफार्म पर आना था और वह आया भी.

अर्चना अभी तक वहां नहीं पहुंची थी. निरंजन चुपचाप आ कर स्टाल पर बैठ गया. उसके भीतर उसके कौतूहल का आशंका भरा द्वन्द चल रहा था. स्टाल वाले को पता था कि चाय कॉफी का आर्डर कोई अकेला नहीं देगा. वह दोनों से जान पहचान बना चुका था. प्लेटफार्म पर एकदम सन्नाटा था. सात बजे के पहले किसी लोकल या फास्ट ट्रेन के आने का समय नहीं था. केवल उस पार शंटिंग लाइन से गुज़रते डिब्बों की आवाज़ वहां तक पहुँच रही थी, जिसके वहां के लोग आदी हो चुके थे. लेकिन वही आवाज़ बार बार निरंजन को चौंका दे रही थी.

अर्चना आई. स्टाल पर दुकानदार के अलावा दो से तीन जन हो गए. वहां एक और आदमी पहले से बैठा हुआ था. वह आदमी भी एकदम चुप था और उसके हाथ में भी चाय का कप नहीं था. अर्चना के आने पर दोनों के हाथ में कॉफी का कप आ गया. अर्चना नें निरंजन को बीच में बाकी रह गए सत्रह दिन याद दिलाये और इस प्रसंग की कोई तरंग वहां न देख कर निरंजन से पूछा,

' कुछ परेशान हो..? '

निरंजन चुप रहा. कॉफी चलती रही. अर्चना अपने दफ्तर में अपनी सहेलियों के बीच उसकी शादी से जुड़े ठट्ठे बताने लगी कि तभी प्लेटफार्म के दूसरे छोर से बादामी टी शर्ट वाली एक आकृति की एक झलक नज़र आई. उस आकृति का नज़र आना और स्टाल पर बैठे गुमसुम आदमी का उठ खड़े होना एक साथ हुआ. इस दृश्य को निरंजन नें भी देखा. एक एक कदम वह आकृति स्टाल की और बढी आने लगी... एक एक पल निरंजन का कौतूहल भी बांध तोड्नें लगा. वह अजनबी आदमी खड़ा हो कर फिर बैठ गया और उसके चेहरे पर उपसंहार की एक पर्त नज़र साफ़ होने लगी.

वह बादामी टी शर्ट वाला लड़का उसी स्टाल पर आ कर रुका. उसकी समूची देह पर थकान और हताशा के निशान शोर कर रहे थे. उस अजनबी आदमी ने उस लड़के से सवाल किया,

' क्या हुआ, वह मिला नहीं क्या..?'

कुछ संयत हो कर उस लड़के ने मुंह खोला,

' मैं गलती से, बिना जाने जिस डिब्बे में लद गया था वह किसी दूसरी लाइन का था. मेरे देखते देखते मेरी लाइन को परे छोड़ते वह डिब्बा आगे बढ़ गया. मैंने अपनी लाइन के डिब्बों को वहां खड़ा देखा भी, लेकिन मेरा डिब्बा तो बहुत दूर आगे जा कर रूका. चन्दन बाबू ने हद से हद छः बजे का टाइम दिया था, जब कि सवा छः मुझे उसी डिब्बे से उतरते समय हो रहे थे. क्या करता, पटरी पटरी पैदल चलता आ रहा हूँ. अब फिर कल का प्रोग्राम बनाऊंगा और जल्दी निकलूँगा. उनसे मिलना तो ज़रूर है, दिहाड़ी का सवाल है...

वह बादामी टी शत वाला लड़का पस्त हाल उस स्टाल पर बैठ गया. स्टाल वाले नें दोनों को एक एक कप चाय पकड़ा दी. निरंजन और अर्चना अपने अपने कॉफी के कप खाली कर रहे थे. निरंजन को उस लड़के को सही सलामत देख कर चैन आया था. अर्चना के पास बहुत सी बातों का भण्डार था. सहेलियों की चर्चा, नये बन रहे कपड़ों की खुशी, और न जाने और क्या क्या ...

निरंजन के सामने इस लड़के के चेहरे का वह थ्रिल जो उसे पहली झलक में मिला था और फिर यह क्लान्ति और हताशा, एक पूरे वर्णक्रम की तरह फ़ैल आई थी. उन मनमौजी लुढ़कते डिब्बों का कौतूहल अब निरंजन के मन में नई नई पर्तें खोल रहा था. पता नहीं क्या क्या संभावनाएं निरंजन की अपनी यात्रा में भी में छिपी हो सकती हैं. उस मालगाड़ी के डिब्बे से पीठ चिपकाए वह बादामी टी शर्ट वाला लड़का क्या यह जानता था कि वह डिब्बा किस पटरी की ओर जाने वाला है..? क्या अभी इस समय निरंजन जानता है की जो डिब्बा उसके सामने है उसे इंजन ने किस पटरी पर जाने के लिए धकेला है ?

आखिर यह बेवकूफ लड़का क्यों चढ़ गया बिना कुछ जाने बूझे उस मालगाड़ी के डिब्बे पर .. ? क्या सिर्फ मौज लेने के लिए ? पर दिहाड़ी का ज़रूरी मसला भी तो उसके सामने था..

सोचते सोचते निरंजन ठहर गया..

कुछ ज़रूरी, निजी मसले तो उसके सामने भी हैं, जो सिर्फ मौज लेने से ज्यादा बड़े हैं और उनका पता अर्चना को तो क्या खुद उसके अपने मां-बाप को भी नहीं है..

निरंजन के कौतूहल में अब आशंकाओं ने घर करना शुरू कर दिया था. पर क्या करेगा निरंजन ? अर्चना के साथ बातचीत की नई खिड़की खोलेगा ? अभी सत्रह दिन तो हैं न.....