तिलस्म टूट गया है Ashok Gupta द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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तिलस्म टूट गया है

तिलस्म टूट गया है...

सुबह अखबार आते थे तो उनमें रंग बिरंगे, छोटे बड़े पैम्फलेट्स निकलते और बच्चे उन्हें लूटने के लिये झपट पड़ते.

“इन्हें काट कर हम रुपये बनाएंगे और खूब खेलेंगे.” खुशी मानो उनके भीतर से फूटती सी पड़ती.

अखबारों को तो रोज़ रोज़ आना ही था और रंग बिरंगे पैम्फलेट्स के बगैर अखबार आते भी तो कैसे ? सो, सिलसिला चलता रहा. बच्चे लूट कर किलकते, खुश होते और बड़े होते रहे. समय बीतता गया. अब उनके यूं किलकने खेलने पर अंकुश लगने लगा,

“चलो, पढाई करो... इन कागजों के नकली रुपयों से खुश होने का क्या फायदा ? पढ़ो, बड़े हो और फिर सचमुच के रुपये कमाओ. फिर देखो असली खुशी.”

बच्चे बड़ों की बात समझ गये. वह झट से दूध पी कर बड़े होने, पढ़ने लिखने और सयाने होने में लग गये. लेकिन पैम्फलेट्स की रंग बिरंगी दुनिया उन्हें अब भी बहुत भाती. अब वह उन पैम्फलेट्स को काट कर रुपये बनाने और उनसे खेलने के लिये बड़े हो चुके थे लेकिन उन्हें पढ़ कर समझने के लिये अभी छोटे थे. सो, वह उन पैम्फलेट्स को अखबारों से गिरने के बाद और फेंके जाने के पहले समेट लेते और सम्हाल कर रखते और इससे खुश होते, मानो वह कोई कांरू का खजाना जुटा रहे हों.

पढते, पास होते, दूध पीते, बर्थ-डे मनाते वीडियो देखते और छुप छुप कर पापा, चाचा और दादा जी की कारोबारी बैठकों और पार्टियों में ताक-झाँक करते बच्चे अब इतने बड़े हो गये कि इन पैम्फलेट्स को पढ़ कर समझ सकें. वह जान गये कि इनमें व्यावसायिक विज्ञापन होते हैं. सो, वह आपस में बैठ कर पैम्फलेट्स को हाथों में लिये उन कारोबारों की बात करते जिनका ज़िक्र उन पैम्फलेट्स में होता.

उन्हें हर कारोबार को शुरू करने में फायदे की भरपूर गुंजायश नज़र आती. इन्हें लगने लगा कि सचमुच इन पैम्फलेट्स से असली रुपये कमाये जा सकते हैं. वह पुलक उठते. उनकी रंग बिरंगी तरंग में डूब कर खुद भी इन्द्रधनुषी हो जाते. उनके बड़े उन्हें ठीक रास्ते पर देख कर खुश तो होते लेकिन हिदायत भी देते,

“ अभी नहीं..अभी तो तुम सब को बहुत बहुत आगे तक पढ़ना है..स्कूल कॉलेज और अमरीका तक.. फिर तो खुशियाँ ही खुशियाँ और रुपये ही रुपये, बल्कि कहो डॉलर ही डॉलर.”

बच्चे समझ जाते. ‘डॉलर’ सुन कर और आनंदित हो जाते. लेकिन उनका पैम्फलेट्स के प्रति मोह नहीं टूटता. पैम्फलेट्स आने पर वह उन्हें उठाते, सहेजते, उन्हें पढते, कहीं कहीं बड़ों की तरह हाईलाइटर पेन से निशान लगाते और उन्हें एक जगह सम्हाल कर रख लेते. उन्हें ऐसा करने में दौलत जुटाने जैसा एहसास होता, अपने बड़ों की तरह.

दौलत... और दौलत से खुशियाँ. उन्हें पूरा भरोसा होता कि उनकी नज़र ठीक समीकरण पर पड़ी है, और वह जुट जाते कि कहीं नज़र चूक न जाय.

दिन ब दिन अखबार आते गये. कुछ एक बरसों में बच्चों के पास और भी ज्यादा पैम्फलेट्स इकठ्ठा हो गये. उन्होंने कुछ और रंगीन रास्ते अपनी जानकारी में रख लिये जिन पर चल कर लक्ष्मी को उन तक आना था. वह तो बाहें फैलाए तैयार खड़े ही थे.

फिर एक दिन एक अजीब सा पैम्फलेट्स उनके हाथ लगा.

“ आँखों का बैंक, जिगर और गुर्दे का बैंक, प्लास्टिक सर्जरी....”

कमाल की बात कि उन सब को अलग अलग, बस इसी पैम्फलेट ने सबसे ज्यादा थ्रिल किया.. और उसी पर बहस शुरू हो गयी. बेहद उत्साहित थे सब के सब.

‘हाईली प्रोफिटेबल..भरपूर कमाई देने वाला धंधा. कभी न चुकने वाला बाज़ार...जिंदा तो सभी रहना चाहते हैं, और बिना सेहत के जिंदा रहने का मज़ा क्या है..?’

उनके हाथों मानो, साक्षात धनवंतरी और कुबेर एक साथ लग गये. सब बच्चों के भीतर अपनी अपनी योजनाओं के तूफान अपने अपने तर्कों के सहारे उठ रहे थे. किसी एक की कल्पना से बात उठती और उसके कारोबारी ज्ञान से जुड कर सुनहरी हो जाती. सपने, जो अब सिर्फ सपना भर नहीं थे उनके लिये, साक्षात सामने अवतरित हो रही, कारोबारी चर्चा का अभीष्ट थे. अपनी बात, उनकी और इस उस की बात में एक पूरा संसार था उनके सामने... और इसी दौर में बात का विषय पता नहीं कैसे उनके घरों में पहुँच गया.

“पापा की आँखें भी उनका साथ छोड़ने लगी है. अभी पिछले साल दो चश्मे बदलवाए उन्होंने. देर रात तक इन उन फाइलों में आँखें धंसाए रहना, उनका यही सिलसिला हो गया है. ... मम्मी का भी उनसे कुछ कहना सुनना छोड़े हुए ज़माना बीत गया. मम्मी तो अब बस वीडियो टीवी में उलझी रहती हैं, इसलिये उन्हें भी दूसरा चश्मा लगवाना पड़ा पिछले महीने...”

“मेरे पापा ने तो पी पी कर अपना लीवर ही खराब कर डाला है. महीने में बीस बीस दिन बिजनेस टूर पर रहना और होटल का खाना. ब्लड प्रेशर भी रहता है उन्हें, लेकिन कहते हैं क्या करें ? इसके बगैर धंधा थोड़ी चल पायेगा..”

“इसीलिये मेरे दोस्त की मम्मी ने भी कम्प्यूटर इंस्टीट्यूट शुरू किया है. पापा तो उसके गल्फ में हैं. बड़ा बिजनेस है उनका. सो आंटी खाली करें तो क्या करें ? देखो, पीती वह भी खूब हैं. मम्मी बताती है कि हर पार्टी में उनका जुलूस ....”

“... वो तो कोई और चक्कर है यार..अंकल को शक है कि आंटी का...लेकिन वह इतना बड़ा कारोबार छोड़ कर आ भी तो नहीं सकते.. कितना पैसा फैला हुआ है...”

“ तो क्या हुआ...” बात में सहसा उत्तेजना आ गयी.

“ इसलिये तो क्या दोनों लोग सिर्फ एक दूसरे ने नफरत करते हुए दूर दूर बने रहेंगे...? केवल इसलिये कि ‘इतना पैसा फैला हुआ है’. यह तो कोई बात नहीं हुई.“

“बात का होना ज़रूरी होता है क्या...?” उन लोगों की, एक अजीब से पैम्फलेट से शुरू हुई बात इस थम पर आ गयी.

“ बात तो यह भी कुछ नहीं हुई दोस्त कि पहले बैंक में रूपया भरने के चक्कर में आँखें खराब कर डालो, लीवर फूंक डालो, चेहरे को समय से पहले झुर्रियों से भर लो, सारे रिश्तों के बीच एक ठहरी हुई सी नफरत को बर्फ की तरह जम जाने दो, और फिर आखों के लिये, लीवर के लिये, गुर्दे के लिये,प्लास्टिक सर्जरी के लिये और धोखे भरे सुकून के लिये बैंक खाली करने लगो...

व्हाट अ बैड इकोनोमिक्स... एक सड़ा सा अर्थशास्त्र... हुंह. पैसा भी गया, सुख चैन और खुशी भी गयी...”

उन सबके हाथ से वह पैम्फलेट छूट कर गिर गया. हर एक के भीतर बहुत कुछ था जो बाहर आना चाहता था, लेकिन सब एक चकरघिन्नी बन कर रह गया, और वह सारे बच्चे अवाक् हो गये.

अचानक सब एक दूसरे को देख कर मुस्कुराए, और फिर उनकी मुस्कान एक खिलखिलाहट में बदल गयी. वैसी ही खिलखिलाहट, जैसी पैम्फलेट काट कर रुपये बनाने के दिनों में हुआ करती थी. वह सब एक साथ उठे और एकसाथ उस कमरे की ओर चल पड़े जहाँ उन्होंने बरसों से रंगीन पैम्फलेट जमा कर के रखे थे. सबके हाथ में रंग बिरंगे कागज़ थे और वह उन्हें लिये उछालते कूदते, पुलक भरते छत की ओर बढ़ रहे थे. उन्होंने सारे पैम्फलेट्स ऊपर उछाल कर छत पर बेतरतीब बिखेर दिये. एक ने उन्हें मोड़ कर कागज़ का ग्लाइडर बनने की कोशिश की तो छत पर जहाज़ ही जहाज़ उड़ने लगे. कोई अपना जहाज़ हवा में फेंकता तो सारे उस जहाज़ को लूटने उसके पीछे झपटते. किलकते कूदते वह उन कागजी खिलौनों के पीछे ऐसे लपकते जैसे बच्चे गली में कटी पतंग लूटने के लिये भागते हैं.

उन पैम्फलेट्स से नावें बनी. आँख नाक की जगह छेद कर के मुखोटे बनाए गये, और पता नहीं किस किस ढंग से मिल जुल कर वह एक ‘बैड इकोनोमिक्स’ की ऐसी तैसी करते हुए खुशियाँ मानते रहे. ऐसी खुशियाँ, जिनके लिये आदमी कभी ओवर एज नहीं होता, लेकिन ऐसे ढंग से, जिसके लिये वह शायद बड़े हो चुके थे.

नीचे मदर्स वीडियो देख रहीं थीं और फादर्स अपने मेडिकल या लीगल कंसल्टेंट्स से बात कर रहे थे. सब अकेले, अपनी अपनी जगह व्यस्त थे, इस बात से बेखबर कि ऊपर उनके बच्चे एक तिलस्म की कैद से छूट कर आज़ादी का जश्न माना रहे हैं.

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