नींद Ashok Gupta द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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नींद

नींद

शहर की सड़क से मीलों दूर, खेत खेत और पगडण्डी पगडण्डी भीतर पहुंचते उस ठेठ गांव में अगर कोई जरा सी भी ढंग की जगह कही जा सकती थी तो वह थी पोस्ट मास्टर साहब की बैठक. उस गांव में पोस्ट मास्टर डाक बाबू कहलाते थे लेकिन पता नहीं किसा स्नेह मिल मुझे जो मैं उन्हें दद्दा कहनें लगा. मैं उस गांव अपनी रिसर्च के सिलसिले में आया था. मेरा परिवार शहर में था और इस नाते मैं हफ्ते के दिन गांव में काट कर शनिवार की शाम जिन्दगी का एक टुकड जुटानें घर आ जाता था.

दद्दा की बैठक एक बहुत ही खास रंगत की जगह थी.आपसी सुख दुख के बहाने दीन दुनिया के तमाम् हाल वहाँ खुलते थे. निजी सन्दर्भ, व्यक्तिगत प्रसंग और आत्मा -परमात्मा की विराट लीला, सब कहा सुन जाता था. घर की, मन्दिर की और पूरे देश की पोलिटिक्स यहाँ मथी जाती थी और यहीं मुझे यह तत्व ज्ञान प्राप्त हुआ था कि पोलिटिक्स जो है वह राजनीति से फ़र्क होती है. इस बैठक के आगे मुझे शहर विपन्न लगनें लगते थे. दद्दा की बैठक में शाम होते ही मुझ जैसे चठियाबाज लोग जमा हो जाते थे दाद्दा का एक चपरासी था, दसवीं पास और आगे प्राइवेट पढ़नें के जतन में लगा हुआ था. एक होम्योपैथिक डाक्टर का परिवार, एक महन्त बाबा जो दरअसल एक रिटायर्ड सरकारी अफसर थे और अब हरि सेवा की भावना से अपने गांव में लौट कर रह रहे थे और एक मैं जो अभी भी गांव में परदेसी जैसा ही गिना जाता था.

उस शाम महन्त जी को कोई भागवत प्रसंग सुनाना था और मैं तेजी से, अपने आलतू-फालतू चक्कर निपटा कर बैठक की ओर लपक पहुंचा था. जिस उमंग से मैं आया था वह ज़रूर वहाँ का नजारा देख कर ठण्डी हो जाती अगर दद्दा नें आगे बढ कर जमनें-बैठनें का प्रेम न दिखाया होता.हुआ दरअसल यह था कि दाद्दा के दामाद आए हुए थे और इस नाते भागवत स्थगित थी. महन्त जी को यह सूचना दोपहर को ही मिल गई थी और वह अपने घर ही रुक गए थे.. डाक्टर बाबू अकेले ही आए थे, लेकिन कुछ नये चेहरे पहुँचे थे वहाँ जो शायद जवांई बाबू से परिचित थे और उनके आकर्षण में बंधे हुए थे. बस, मैं ही था अकेला अलग थलग लेकिन मुझे तो दद्दा नें मेरे पहुंचते ही हमेशा की तरह हाथों हाथ लिया था.

जब तक मैं पहुंचा, वहाँ जवांई बाबू की महफिल जम चुकी थी. वह बीच में बैठे थे. चपल चतुराई उनके चेहरे पर सघन थी, जैसे किस्सागो होनें का सेहरा उनके सिर सटीक बंधा था. मुद्दा यह था कि गांव का आदमी आज भी शहरी बाबुओं के द्वारा या उनकी चाल पट्टियों के जरिये बादी आसनी से ठगा जा सकता है, और जवांई राम का दावा था कि उन्हें तो इस हुनर में महारत हासिल है.

एक किस्सा उन्होने शुरु कैय कि कैसे करीब सात बरस पहले, जब वह छडे हुआ करते थे, उन्होने अपने गांव के रेलवे स्टेशन पर उतरे, शहर में पढ रहे मगर गवईं जैसे नौजवान से उसके रूपये बस पन्द्रह मिनट की लफ्फाजी से झड़क लिये थे और वह नादान उनके एहसान तले दबा हुआ सा अगली ही गाडी से प्रसन्न चित्त वापस लौट गया था.

किस्से की शुरुआती तरंग नें ही मुझे बेचैन कर दिया था और धीरे धीरे एक घटना मेरे सामने शीष होने लागी थी.. मैं तब गांव से शहर आया ही था और वहीं एक कमरा के कर पढाई कर रहा था. कमरे में मेरा एक साथी भी था जो कालेज में पढ भी रहा था और कहीं पार्टटाइम काम भी कर रहा था. था वह भी किसी गांव का ही लेकिन कुछ दिन हो जाने के कारण शहर की पर्त उस पर थोडी चढ़ आई थी.मैं उसे भैया कहता था.

मुझे वह शाम बहुत अच्छी तरह याद है. भैया के इम्तेहान एकदम सिर पर थे और वह पूरी तैयारी से पढ़नें में जुटे थे. तभी भैया को अपने छोटे भाई का खत मिला था और उसमें कुछ रुपयों की तुरन्त ज़रूरत जाहिर की गई थी. छोटे भाई नें उस खत में और कुछ नहीं लिखा था. भैया परेशान हो गए थे. जल्दी का मतलब रुपया दस्ती पहुंचना चाहिए था और भैया के लिए एक घंटे के लिए भी निकलना मुश्किल था. ऐसे में मैं सामने आया था.भैया के तमाम संकोच के बावजूद मैंने सारा कुछ खोद खोद कर जाना था और तय किया था कि मैं गाँव जा कर छोटे भैया के पास रूपया पहुंचा कर आउंगा. शहर से पैसिंजर गाड़ी सीधे गाँव के स्टेशन तक जाती है, उसके बाद बस तीन मील का पैदल का रास्ता... मुश्किल क्या था ?

अगले दिन मैं भैया से रूपया लेकर चला और जब मेरी गाडी गाँव के स्टेशन पर रुकी तो एक मिनट के समय में चढ़ने वालों का जबरदस्त रेला था और उतरने वालों में मैं सिर्फ अकेला. मुझे उतार कर गाडी क्या गई स्टेशन पर मानो कर्फ्यू लग गया.बचे खुचे उत्साह पर पला तब मार गया कि जब टिकट बाबू नें बताया कि गाँव महामारी की ज़बरदस्त चपेट में है, सो आस पास का इलाका तक बदहवासी में खाली हो गया है. जिसके जहां सींग समाए वहां भाग निकला है. ऐसे में गाँव जा कर कसीस को खोजना बेकार है.तितक बाबू ने मुझे सलाह डी कि करीब ढाई घंटे बाद वापसी की एक गाडी है. मैं उसे ही पकडूं और वापस चला जाऊं.मरता क्या न करता..मैन्स्तेशन की बेंच पर पड़ा ऊंघता रहा.... असमंजस झेलता रहा कि वहां की बीमार चाय पियूं या न पियूं ... और साथ साथ महामारी को कोसता रहा. तभी एक नौजवान स्टेशन पर आता नज़र आया.उसके हाथ में कुछ चिट्ठियाँ थीं जिन्हें उसनें वहां के लेटर बाक्स में डाला और मुझे देख कर मेरी ओर बढ़ आया. मंझला कद, बढ़ी हुई सी बेतरतीब दाढ़ी, गाँव के माहौल को मुहं चिढ़ाती जींस और जाकेट. कमीज़ की ऊपर की जेब में पड़ा सिगरेट का पैकेट. पांवों में धूल से लथपथ ही सही मगर चमड़े का जूता...

ख़त डालने के बाद कुछ मिनट में ही वह लड़का मेरे साथ मेरी बेंच पर था.

"कहाँ जाना है..? बहुत आत्मीयता से पूछा था उसने..और मैंने परेशानी और घबराहट के साथ अपनी बात उसके सामने रख दी थी.

वह लड़का सुन कर ठठा कर हंस पड़ा था. भैया का पूरा नाम लिया था उसने, फिर उनके पिता का.. गाँव और कारोबार की सारी जानकारी मुझे सुना डी थी जो मैं भैया से भी लेकर आया था... और कुछ भी अटकल नहीं था उसमे.

वह लड़का पल भर चुप रहा फिर उसने खुद ही प्रस्ताव दिया, कि ... अगर मैं उस पर विश्वास कर सकूँ... तो वह ही छोटे भैया तक रुपया पहुंचा सकता है. मेरे पास अविश्वास की कोई गुंजायश नहीं थी, बल्कि मैं गदगद हो आया, इतना, कि रुपया देते समय मैंने उसका नाम तक नहीं पूछा.

शहर लौट कर मैंने भैया को सारा व्योरा दिया तो भैया के मुहं से बेसाख्ता निकला.. ' बलराम होगा..'

मुस्काए भैया.. लेकिन उनके चेहरे से चिंता की लकीरें मिटी नहीं थीं. मुझे लगा था कि यह महामारी की खबर से पैदा फिकर का नतीजा है. अगले दिन छोटे भैया खुद गाँव से सही सलामत आ पहुंचे और खबर लाए कि मां बाउजी सब ठीक ठाक बुआ के गाँव पहुँच गये हैं. तब भी भैया के चेहरे पर राई रत्ती फीकापन ठहरा ही रहा. इस से मेरे माथा ठनका..मैंने कुरेदना शुरू किया और जाना कि 'रुपये तो अब गये ही समझो..'

और इसी के साथ बलराम की कहानी सामने आई.

" बाप ने दूसरी औरत रख ली और परिवार से परे हो लिया. मां इसी गम में एक एक साल में पांच पांच बरस का बुढापा ओढ़ कर खाट से जा लगी. बहन ने कस्बे के एक दवाखाने में एक नौकरी पकड़ी है और पैसे से ज्यादा झूठी सच्ची बदनामी कमाई है. बलराम तब से ही ऐसे दंड फंद का हो गया है. अब जो आदमी उलटे सीधे चक्करों में पड़ कर इंसानियत गवाने पर ऊतारू बैठा हो, वह घर परिवार की जिम्मेदारी से भला कितना सच्चा रह सकता है..? सो बस यूं ही जुटाता है और यूं ही उड़ाता है.."

' पैसे तो गये..' मैं इस बात से बेहद छटपटाता रहा. खुद को अपराधी महसूस करता रहा. काफी समय तक, जब भी गाँव से कोई आता, मैं उन पैसों के बारे में पूछता और सब मेरे उस नादान सवाल पर हंस पड़ते.

समय बीता

हम अपनी अपनी राह लगे.... पर मैं उस प्रसंग को आज यक नहीं भुला पाया था.

***

एक झटके से जब मैं उस याद से कूद कर वर्तमान में आया, तो माहौल किस्सागोई में उसी तरह डूबा हुआ था.. जमाई बाबू कोई और ही नई बतकही उठा कर रंग जमा रहे थे.

हमेशा की तरह भीतर के दरवाज़े पर सांकल बजने के इशारे से बैठक ख़त्म हुई. सब उठे और ड्योढी की ओर चल दिए.दद्दा नें मेरा हाथ दबा कर मुझे रोक लिया.. इशारा यही था कि मैं भोजन कर के जाऊं.

भोजन के दौरान मैं जमाई बाबू की ओर मुखातिब हुआ.

" भैया जी, आपकी बोली में थोड़ा रतनपुर का पुट है..क्या..? " और मेरी बात को काटते हुए दद्दा चिहुंक उठे.

" भई वाह. खूब पहचाना तुमने.. रतनपुर के ही तो हुए अपने जवाईं बाबू " और जवाई बाबू ने नज़र उठा कर पहली बार मेरा चेहरा देखा. मेरी नज़र भी उनके चेहरे पर टिक गई, सो टिक गई... फिर जवाई बाबू थाली सरका कर उठ खड़े हुए.

" अब बस..तृप्ति हो गई..."

मैं बाहर आया तो मेरे साथ वह भी बाहर आये. मैं अपने कमरे की ओर बढ़ता रहा तो वह भी मेरे साथ आते रहे. रास्ते भर हम एक दूसरे से कुछ नहीं बोले. कमरे पर पहुँच कर एक कुर्सी पर वह बैठ गये और दूसरी पर मैं.

" बलराम हैं न आप..?" मैं थोड़ा सा मुस्काया.

उन्होंने रत्ती भर सिर हिलाया लेकिन बोले कुछ नहीं.

" ...जाने किस मजबूरी में आप वह पैसा सही ठिकाने पर नहीं पहुंचा पाए... बस चार सौ ही तो था. इतने से क्या होता है इस जमाने में.. "

मैंने बात उसी रंग में शुरू की जिसमे छोटे बड़े भैया मेरे पछतावे को कम करने के लिए मुझसे करते थे. बलराम ने कोई जवाब नहीं दिया लेकिन उसका चेहरा तरल हो आया.

" मां कैसी है अब..?"

".. और, बहन गौरी ?"

बलराम ने चौंक कर मेरी ओर देखा. उसका चेहरा कुछ और पनीला हो आया शायद, जो मैं अँधेरे के कारण ठीक से देख नहीं पाया.

कुछ देर ठहर कर मैंने बात फिर आगे बढ़ाई.

" पिताजी का रुख कुछ सुधारा या वैसे ही.." … और बलराम अचानक फफक कर रो पड़े. अपने चेहरे को हथेलियों से ढका भी नहीं उन्होंने. कुर्सी के हत्थों को दोनों हाथों से जकड लिया और उनकी ऑंखें निर्बाध बहती रहीं.

बलराम का यूं फूट पड़ना मुझे कुछ अप्रत्याशित सा लगा.मैं अपनी कुर्सी से उठा और तुरत ही फिर बैठ गया. उसके चेहरे पर एक बहुत ही गहरी पीड़ा सघन हो रही थी और मुझे उसके बहाव में नितांत बाहरी और अनावश्यक व्यतिक्रम बनने का कोई औचित्य समझ में नहीं आया.

कुछ देर बलराम उसी तरह समुद्र की लहरों सा उद्दाम अपने चेहरे पर उड़ेलते रहे. मैं देखता रहा उन्हें. उनके चरित्र के वह बिंब नज़रों के सामने लाकर उन्हें नए सिरे से टटोलता रहा, जो मैंने बड़े छोटे भैया के व्योरों से अपने भीतर जुटाए थे. स्टेशन पर हुए उनके पहले साक्षात्कार को याद करता रहा... और याद करता रहा वह वह जवाई बाबू बना बलराम जो अपने ठग होने का गर्व बतरस बना कर दद्दा की बैठक में बाँट रहा था. हर पहलू में मैंने एक सच्चा बलराम पाया था लेकिन सबसे सच्चा बलराम इस पल मेरे सामने था, कुर्सी के हत्थों पर हाथ जकडे जो ऐसे रो रहा था जैसे रो कर भीतर के दबाव से मुक्त कर देने जैसा भाव संकेत उसे इतने बरस की वय यात्रा के बाद पहली बार मिला हो.

मैंने उसे इस सार्थक पल के आयाम में भरपूर एक होने का पूरा मौक़ा दिया.

कुछ देर बाद बलराम के रुदन का उत्कर्ष हिचकी हिचकी टूट कर मंद पड़ने लगा. तब मैं पानी का गिलास ले कर फिर जुड़ा उस से...

" सम्हालो बलराम, खुद को सम्हालो..."

बलराम ने पानी का गिलास हाथ में थामा और उठ कर पीछे दालान के पास चला गया. उसने पानी पिया, पास पड़े गगरे से और पानी लेकर मुंह धोया और कुछ सहज हो कर अपनी जगह लौटा.

इस बीच मेरे भीतर का जिज्ञासु प्रबल हो उठा था, जिसे बलराम को, स्पष्ट उजागर पंक्तियों के बीच लिखी इबारत को पकड़ कर पढ़ना था. मुझे मालुम था कि अभी मेरे स्पर्श से उसके उदगार का केवल भावना पक्ष ही बह कर बाहर निकाला है और उन सच्चाइयों को मुझे उसके भीतर अभी झांकना बाकी है जिन्होंने तिल तिल इतनी तकलीफ भरी विकृतियाँ उसके अंतस में कील कि तरह ठोंक दीं हैं.

" यह तुम्हें क्या हो गया था बलराम ?" मैंने सामीप्य के सूत्र को उससे फिर जोड़ा. " कैसे भर गया है इतना दुःख तुम्हारे भीतर ? घर की क्या मजबूरी..."

अब बलराम का मौन टूटा.

" घर की मजबूरी में मैं कहाँ हिस्सेदार हुआ भाई...कहाँ हुआ. मां तिल तिल मरती रही. बहन अनाथ होते होते निरंकुश हो गई. मैं इस उस से रूपया धेला ऐंठ कर अपनी शेखी में चौड़ा होता रहता था उन दिनों...और घर-परिवार की एक एक ईंट गिरती जाती थी. मां ने ऐसे ही एक दिन अकेले में खांसते खांसते दम तोड़ दिया. बहन उम्र की तीसी में एक बदचलन आदमी की रखैल बन कर बैठ गयी. पिता ने दूसरी के साथ रहने के कुछ ही दिनों बाद पीना शुरू कर दिया, फिर उनका पता नहीं क्या हुआ.. कभी सुनते थे कि उसे भी छोड़ कर अब हरिद्वार में हैं, कभी कुछ और.."

अब भी दर्द की लकीरों से घिरे ही थे बलराम, लेकिन संयत थे.

" यह सब कैसे हो गया, शुरू से..."

" क्या कहूँ, मैंने जबसे होश सम्हाला घर को क्लेश और संताप से भरा ही पाया. ऐसा नहीं था कि पैसे की बहुत तंगी थी हमें लेकिन खुशहाली की तंगी घर में ज़रूर थी. पिता एक ठेकेदार के पास लगे हुए थे और ज़रूरत भर कमा ही लाते थे.. घर पुश्तैनी था और गाँव से थोड़ा बहुत अनाज पानी का भी सहारा था. मां जरा पैसे वाले घर से थी. बहुत जिद्दी , बहुत स्वाभिमानी . व्रत, उपवास और आचार विचार का उनका बहुत कठोर अनुशासन था. पिता सरल प्रकृति के थे, मनमौजी... और इस तरह मां और पिताजी के बीच बहुत बहुत छोटी छोटी बातों पर क्लेश का अखंड चक्कर चलता रहता था. मां का युद्ध शिल्प था उनका रुदन विलाप. रोती थीं तो अपना सिर पीटती थीं, माथा दीवार से टकराती थीं, अपने बाल नोचती थीं, और हमें कोसती थीं..पिता अपने तनाव में सन्न हो जाते. बोलना छोड़ देते, खाना छोड़ देते, फिर घर आना छोड़ने लगे. उस हालत मं मां अपनी झुंझलाहट हम पर उतारतीं, हमें पीटतीं, फिर हमें रोते रोते सीने से लगा लेतीं... कभी अचानक कह उठातीं कि वह अपने बच्चों सहित तेल छिड़क कर जल मरेंगीं. मैं और गौरी हर हाल में एक आतंक से भर जाते. पड़ोसियों के आ कर कहने बताने से शर्मिंदा महसूस करते.... और यहीं से मेरे भीतर घर के प्रति एक डर, एक दुराव पैदा हुआ. यह चलन कि सब कुछ, कैसे भी, घर जाए बगैर जुटा लिया जाय, फिर उसमें किसी का हिस्सा न हो. कुछ दिनों तक गौरी इस तटस्थता का अपवाद रही लेकिन फिर हमारे बीच कुछ ऐसे बहुत अनुभव जुट आई जिन्हें हम आपस में कह बाँट नहीं सकते थे, और इस तरह गौरी भी अपनी अलग राह पर हो गई..."

बोलते बोलते अचानक चुप हुआ बलराम, तो चुप ही हो गया. कितनी ही देर बस एक सन्नाटा ही पसरा रहा हमारे बीच. वह कुर्सी पर बैठा छत ताकता रहा. मैं तख़्त उसके लिए छोड़ कर आराम कुर्सी पर पसर गया.

तेल ख़त्म हो जाने पर ढिबरी बुझ गई. फिर मुझे नींद की लहरों ने अपने में खींच लिया. पता नहीं कितनी देर वैसे ही बैठा रहा बलराम....

सुबह अपने नियम से उठाने के बाद, स्नान ध्यान से फारिग होने के बाद और सैर से लौटने तक मैं बहुत सारी धूप साथ ले आया था, लेकिन बलराम फिर भी तख़्त पर सोया पड़ा था. क्लेश, संताप और दर्द का कोई भी चिन्ह उसके चेहरे पर उस समय नहीं था और एक ख़ास तरह की निर्मलता उस पर छाई हुई थी.

कमरे में आ कर मैं उसे जगाने को हुआ लेकिन रुक गया यकायक.

' सोने दो उसे.. आज शायद बहुत दिन बाद वह ऎसी निश्छल नींद सो रहा है..."