Karan-Akaran Ashok Gupta द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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Karan-Akaran

कारण –अकारण

उस लड़के का नाम तो कुछ लोगों को पता भी था, लेकिन ऐसा कोई नहीं था जिसे उसके घर गाँव का व्योरा पता हो.

वह करीब बीस बाइस बरस का एक अजीब सा लड़का था, नाम छदामी, शहर के एक दूर-दराज़ के मोहल्ले में एक कमरा ले कर रह रहा था. कुंवारा था तो उसे अकेले ही रहना था, लेकिन इस माने में उसे अकेला कहना ज्यादा ठीक है क्योंकि वह यार दोस्त जैसे किसी संग साथ से भी छूंछा था. न कोई इल्म, न कोई शौक. बस एक चमचमाती हुई साईकिल से उसका रिश्ता जोड़ा जा सकता है. रोज़ सबेरे करीब सात बजे उसे घर से निकलते देखा जाता था और सूरज डूबे जब वह वापस आता था तो कमरे में घुस कर दरवाज़ा बंद कर लेता था. बस, साइकिल का बरामदे में खड़ी दिखना इस बात का इशारा होता था कि वह घर लौट चुका है. अब जब उसकी बातें खुल ही रही हैं तो बिना किसी शर्म लिहाज़ उसका काम भी बता ही दिया जाय. वैसे शर्म लिहाज़ बताने वाले को भले ही हो, उसे खुद कतई नहीं है... पर वह बताये भी किसे ? उसका कोई मेल मुलाकाती भी ज्यादा इस शहर में नहीं है. लेकिन जब बात आ ही जाय, तो बेहिचक बताता है,

" शमशान घाट में काम करता हूँ.."

"कहाँ ?" सुनने वाला औचक ज़रूर पूछता तो उसका जवाब होता,

" वो बाईपास से लगे चुंगी चौकी के सामने वाला शमशान घाट, उसके पीछे नहर बहती है न "

अक्सर फिर कोई अगला सवाल नहीं करता..

साइकिल को चमाचम रखने का उसको शौक है, वह ढाबे वाला कहता है, जहाँ छदामी अपना खाना पीना करता है, तो वहां भी छदामी का जवाब होता है,

"काहे का शौक..? जैसे मरने वाला घडी देख कर नहीं मरता, वैसे ही मेरे ठेकेदार के पास भी दिन दोपहर का कोई वहम नहीं है, वह जब कभी बुलाता है तो ताबड़तोड़ पहुंचना होता है. यह भला बिना साइकिल के हरदम तैयार रहे कैसे निभाया जा सकता है..?"

छदामी की दिनचर्या एक दम तय है. शायद ही कोई लाश उसके पहुँचने के पहले जा पहुंचती हो. जब तक कलंकी कम से कम दो मुर्दों की खुराक भर लकड़ी तौल कर तैयार करता है, तब तक छदामी की साइकिल फाटक के अन्दर आ चुकी होती है. वह साइकिल के हैण्डिल पर टंगा अपना रोटी का थैला तभी उतरता है, जब पहली लाश अपना चबूतरा तय कर चुकी होती है. फिर छदामी उस चबूतरे के पास वाले पेड़ पर ठुकी कील पर अपना थैला टांग देता है और अपने काम में जुट जाता है. काम भी छदामी का कम मेहनत का नहीं है, लेकिन छदामी तो जैसे उस मेहनत को गिनता ही नहीं.

दोपहर में छदामी पेड़ की कील से अपना रोटी का थैला उतरता है. रोटी उसे डब्बे में कटकटाती सर्दी के मौसम में भी गरम मिलती है. उसके थैले पर राख की एक हल्की पर्त जम आई होती है. ज़ाहिर है, जलती चिता की राख जब हवा के साथ उडती है तो वह न तो रोटी का थैला देखती है और न किसी का चेहरा.

छदामी हर रोज़ अपना थैला किसी जलती चिता के सामने पेड़ पर ठुकी कील पर टांगता है. इसके लिए उसने हाते में लगे पाँचों पेड़ों के तने पर एक एक कील ठोक रखी है., क्या पता, किस पेड़ की कील पर उसे रोटी का थैला टांगना पड़े. रोटी वह गरम ही खाना पसंद करता है. खाने के टाइम पर वह कील से थैला उतारता है, फूंक मार कर उस पर जमी हुई राख उड़ाता है और उधर चल पड़ता है जिधर कलंकी का लकड़ीघर है.. कलंकी को यह सुविधा है कि लकड़ीघर एक कोठरी में बना हुआ है, जिसकी दीवार में दो खूँटियाँ हैं जिन पर वह अपना थैला और कम्बल चद्दर टांगता है. अपना थैला उतार कर छदामी जब उस पर जमी राख अपने चेहरे पर छितरा लेता है, वह तब भी चेहरे पर हाथ या रूमाल नहीं फेरता. वह तो कलंकी की जिद है जो छदामी से खाने के पहले उसका हाथ मुंह धुलवा लेती है, वर्ना छदामी तो अपने शमशान के काम को इतना रच बस कर करता है, जैसे उसके ढाबे वाला गरमी सर्दी अपने तंदूर पर खड़ा हो कर रोटी निकलता है.

तंदूर वाला रोटी बनाते समय रोटी की सुगंध लेता है, यह उसने कई बार अपने ग्राहकों को बताया है. और छदामी ने उसे जवाब दिया है कि लाश के जलने की गंध भी कोई खास बुरी नहीं होती.. कई बार तो घी और लोहबान की खुश्बू उस गंध को मनभावन बना देती है.

कलंकी छदामी के इस भाव पर हैरत करता है, उसे लानत भेजता है,

" यार, पेट के लिए तो मजबूरी में कोई भी काम करना पड़ता है तो आदमी करता है, लेकिन तू तो जैसे उसका कोई भी असर अपने ऊपर नहीं लेता, न भीगता है, न कांपता थरथराता है, चाहे वह बच्चे की लाश हो, चाहे हाथ ठेले पर अकेले लाद कर लाई हुई लावारिस बूढ़े की लाश.. तू कैसा पत्थर है छदामी ?"

"पता नहीं " कह कर कह कर छदामी हँसता है. छदामी का हँसना केवल शमशान में ही होता है, या फिर यदाकदा अपने ढाबे पर. शमशान में तो छदामी मसखरी भी करता है. एक बार गाँव से एक करीब बीस बरस की औरत की लाश आई थी. वह सांप के काटने से मरी थी और अभी पिछले बरस उसका गौना हुआ था. उस लाश को फूँकने का काम ठिकाने लगा कर छदामी ने उस औरत के पति से पूछा था, " कब किये थे आखिरी बार, ? अब तो न जाने कब तक सूखा रहना पड़ेगा.” वह आदमी रो रहा था और छदामी हंस रहा था.. जब कि कलंकी का हाल यह है कि वह लकड़ीघर के बाहर, लाश फूँकने वाले हाते में भी जाने से कतराता है, और हर बार लकड़ी देने के बाद भीतर जा कर शंकर की बटिया के आगे मत्था टेकता है जो उसने अपनी कोठरी के आले में रखी हुई है .

कुल जमा अपने काम में बेझिझक रम गया था वह बीस बाइस साल का छोकरा छदामी. जब वह अपने गाँव से भाग कर पहली बार शहर आया था, तब उसकी उम्र मुश्किल से पंद्रह बरस रही होगी. एकदम खाली हाथ था. उसके माथे पर एक ताज़ा घाव था. आँखें इस बात की गवाही दे रही थीं कि वह काफी देर से लगातार रोता रहा था. अपने गाँव से रेल के उस स्टेशन तक पैदल नंगे पाँव दौड़ता हुआ आया था छदामी, जिसे हाल्ट कहा जाता था. छदामी ने किसी भी ओर जाने वाली पहली गाड़ी पकड़ी थी, बिना टिकट, करीब सात घंटे का सफ़र उसका गाडी में कटा था फिर शाम होने से पहले जब गाड़ी किसी स्टेशन के आउटर सिग्नल पर रूकी थी तो तमाम बेटिकट मुसाफिरों के साथ वह भी कूद कर उतरा था और खेत खेत भागता हुआ सड़क पर आ गया था. वहां एक ढाबे के पास रुकी बस में छदामी घुस तो गया था लेकिन बाईपास की चुंगी पर कंडक्टर नें उसे बिना टिकट पकड़ा था और एक झापड़ मार कर नीचे उतार दिया था. झापड़ खा कर वह देर तक रोया था. छदामी बहुत भूखा था और उसके बहुत से घाव एक साथ दुखने लगे थे. तभी अचानक कलंकी की नज़र उस पर पड़ी थी और वह छदामी को उसकी उंगली पकड़ कर शमशान ले आया था.

"चल लग जा, तेरी नौकरी पक्की, कल सुबह मैं ठेकेदार से बात कर लूँगा.."

कलंकी के साथ रोटी खा कर जो भर नींद सोया छदामी तो फिर अगली सुबह दिन चढ़े ही उठा. उसे जब पता चला कि वह शमशान में है, तब भी उसे घबराहट नहीं हुई. ठेकेदार नें जब उसकी पगार सौ रुपया महीना तय कर दी तो वह बीते दिन का सारा रोना भूल गया. बाद में कलंकी नें उसे यह भी बताया कि वह बड़ी आसानी से दस पांच रूपया फी मुर्दा उसके रिश्तेदारों से खींच सकता है. कलंकी की बात गलत नहीं साबित हुई.उसके बाद छदामी दिनों दिन शमशान और मुर्दों के बीच मौत के एहसास से आज़ाद होता चला गया. वह शमशान में ही कलंकी के साथ उसी की कोठरी में रहता था और उसके बदले में लकड़ी चीरने और ठेला आने पर उसे खाली करवाने में कलंकी का हाथ बांटता था. यह सिलसिला करीब दो बरस चला. इसमें बदलाव तब आया जब एक दिन छदामी को बाज़ार में उसके गाँव के एक लड़के नें पहचान कर रोक लिया. वह लड़का गाँव में आठवीं तक स्कूल में छदामी के साथ पढता था. आठवीं के बाद छदामी का पढना बंद हुआ और उस लड़के नें दसवां पास कर के शहर की ओर रुख किया. वह एक मेहनती और समझदार लड़का था और कुछ बनने इस अनजान शहर आया था. एकदम अकेले से दो हो जाना उसे अच्छा लगा था. इसके अलावा, गाँव में कच्ची पक्की से आठवीं तक दोनो लोग गहरे दोस्त रहे थे और दोनों नें आपस में बहुत सा अपना दुःख सुख साझा किया था. तब छदामी दुःख में भीगता था और सुख में किलक उठता था. जब उस लड़के को पता चला कि छदामी शमशान में मुर्दे निपटाने की नौकरी करता है और वहीँ रहता है, तो उसे सबसे ज्यादा हैरत इस बात पर हुई थी कि वहां छदामी रात को सो कैसे पता होगा...? वह तो क्लास में किसी दूसरे बच्चे को बेंत पड़ते देख कर भी रो पड़ता था. उस लड़के की इस हैरत पर ठठा कर छदामी नें एक रात उस लड़के को भी शमशान में रखा. वह लड़का कलंकी की कोठरी में सोया और छदामी उस चबूतरे पर जहाँ शाम ढले एक लाश फूँकी गयी थी और चबूतरा अभी तक गुनगुना था.

फिर, दोनों दोस्तों नें शहर में एक कमरा साझा किया. छदामी तब तक पगार के अलावा हर मुर्दे से बीस से पचास रुपये तक घसीट पाने का हुनर सीख चुका था. ठेकेदार नें उसकी पगार भी बढ़ा दी थी. कलंकी की कोठरी छोड़ने के बाद भी छदामी उसके लकड़ी चीरने और ठेला खाली करवाने के काम में पहले की तरह हाथ बांटता रहा. कुल मिला कर, वहां तीन जनों का एक गुट बन गया. वह लड़का, छदामी और कलंकी, लेकिन छदामी सारी दुनियादारी के बावजूद न तो कलंकी का दोस्त बन कर गहराया न उस लड़के का. हाँ, कलंकी और वह लड़का ज़रूर आपस में दोस्त बन गए. फिर इसी दौर में कलंकी को छदामी के घर गाँव और उसकी गुज़री ज़िन्दगी के बारे में पता चला. वैसे तो पता चलने तो बहुत ज्यादा कुछ नहीं था लेकिन उस थोड़े को भी उस लड़के नें गहराई से महसूस किया था और फिर इस गहराई में कलंकी भी जुड़ गया था.

एक लम्बे समय तक छदामी के बाप की एक दूसरी औरत से आशनाई चलती रही थी जिसे छदामी की मां छाती पर रखी सिल की तरह झेलती रही, और एक दिन मर गई. तब गाँव की एक सयानी औरत नें छदामी और उस लड़के के सामने, सबके बीच कहा था,

" जीना तो इस अभागी औरत नें न जाने कब से बंद कर दिया था.. "

उस समय दोनों लड़के यह बात समझने के लिए बहुत छोटे थे. फिर, वह उसके बाप की माशूका औरत छदामी की नई मां बन कर घर में आ गयी. उसी नई मां के दिन रात के टंटे से हार कर छदामी गाँव से भागा था. यह बातें उस लड़के नें कलंकी को तब बताईं जब छदामी किसी मोटे मुर्दे के वारिस को हल्का करनें में जुटा था .

दो साल बाद इंटर पास कर के वह लड़का कमरा खाली कर के आगे पढने दूसरे शहर चला गया. कमरा अब छदामी के पास आ गया. अपनी साइकिल वह लड़का साथ ले गया तो अगले ही हफ्ते छदामी नें एक नई साइकिल खरीद ली, जो इस धरती पर छदामी की इकलौती दोस्त कहलाती है. वह लड़का दो साल छदामी के शहर में रहा. इस बीच वह लड़का चार पांच बार गाँव गया और यह जाना बहुत काफी था जो गाँव में छदामी के शमशान में नौकरी करने की खबर जंगल की आग की तरह फ़ैल गयी. इस खबर को गाँव वालों और रिश्तेदारों नें अलग अलग ढंग से, अलग अलग स्वाद के साथ चुभलाया और धीरे धीरे भूल गए. उस लड़के नें यह भी सबको बताया कि अब छदामी फुसुर फुसुर रोने वाला डरपोंक लड़का नहीं रहा. वह भले ही शहर की हवा से अछूता है लेकिन खूब नोट पीट रहा है.

उस लड़के को गए भी दो बरस बीतने को आये. एक बार गाँव के बाहर पांव रखने के बाद छदामी ने फिर कभी गाँव जाने का विचार तक नहीं किया. उस लड़के के साथ रहते हुए भी छदामी नें गाँव के प्रसंग सुने जरूर लेकिन उस से छदामी के भीतर गाँव के लिए कोई मोंह नहीं जागा. ऐसे में यह गुंजायश कहाँ बनती कि वह लड़का कभी छदामी से गाँव चलने की बात उठाता . वैसे भी छदामी के गाँव जाये बगैर छदामी समेत किसकी ज़िन्दगी फीकी हुई जा रही थी..?

कुदरत भी किसी न किसी बहाने नामुमकिन की चट्टान में मुमकिन की इबारत तराशती है, और एक दिन ऐसा ही हुआ. उस लड़के को, जो, छदामी के साथ उसके शहर, शमशान में रहा था और कलंकी का पक्का दोस्त बन गया था, उसको अपने गाँव के स्कूल में पक्की नौकरी मिल गयी थी और इसी मौके को ताक कर लड़के की मां ने उसकी मंगनी भी कर दी थी. शादी भले पांच महीने दूर थी लेकिन जोश में उस लड़के नें भर उजास उत्सव रच डाला था.. और उत्सव बिना यारों के सजता है कहीं..?

उत्सव के उछाव में उस लड़के का निमंत्रण दोस्त कलंकी और संगी छदामी के पास जा पहुंचा. कलंकी के जोश के आगे यह कहाँ संभव था कि छदामी इसमें कोई ढील बरत पाता. तय यही हुआ कि दोनों लोग जायेंगें. तीन दिन के लिए ठेकेदार जिसे चाहे लगा ले या कलंकी अपने भांजे को ही पास के गाँव से बुला लेगा जो गाहे-ब-गाहे कलंकी के काम आता रहता है.

कितनें दिनों बाद छदामी उसी रास्ते पर जाने के लिए फिर रेल गाड़ी मैं बैठा था जो उसे और कलंकी को उस हाल्ट पर पहुंचाएगी जहाँ से छदामी ने रोते रोते अपना गाँव छोड़ा था. इस बार न सिर्फ उसके पास टिकट था बल्कि बाकायदा रिजर्वेशन वाली सीट थी. छदामी पूरी तैयारी से निकला था. उसके बैग में एक जोड़ा नया शर्ट पैंट था, धोबी का धुला कलफ लगा सफ़ेद कुरता पैजामा था. लड़के के लिए खरीदी गयी एक घड़ी थी और लड़के की मां के लिए एक गर्म शाल भी छदामी नें खरीदा था. बाकी किसी को छदामी नें गाँव में किसी भी नाते याद नहीं किया था. रेलगाड़ी में सारे रास्ते कलंकी और छदामी बोलते बात करते रहे थे. उन्हें एकदम पहली बार एक साथ बोलने बात करने मौका मिला था. वहां न तो कटकटाती सर्दी में खुले शमशान शीत लहर का माहौल था, न आग की लपटें उगलता चिता का ताप. उनके बीच वहां कोई शोकाकुल विलाप भी नहीं था, हालांकि ऐसे विलाप को दोनों जन नें जीवन राग की तरह आत्मसात कर लिया था. उस दौरान छदामी मुखर था और अपनी अब तक की स्थापित छवि के खिलाफ, किलक रहा था, बोल रहा था और जोश में था, जैसे उसके भीतर बरसों से बंद कोई खिड़की अचानक खुल गई हो. छदामी की बात के सिलसिले में उसका बरसों का छूटा हुआ गाँव था, और विगत हुआ जीवन था... कैसे वह स्कूल में आठवीं तक तेज़ बच्चों में गिना जाता था.. कैसे उसका बाप उसकी मां को कमरे में सोता छोड़ कर हौले से उठता था और फिर बाहर से सांकल लगा कर निकल जाता था. तब खटोले पर सोया छदामी उठ कर मां के पास आ जाता था और मां उसे अपनें सीने से चिपटा कर रात पार कर लेती थी. सुबह उन्हें दरवाज़े की सांकल खुली मिलती थी, पिता आँगन में दातौन करते दिखते थे, और किसी के पास दूसरे के लिए कोई सवाल नहीं होता था. फिर मां गई और बाप महीने भर के अन्दर इमरती को ले आया. इमरती उस औरत का नाम था जिसके साथ छदामी के बाप का टांका बरसों से चल रहा था. इमरती छदामी की बुआ का भी नाम था इसलिए छदामी के बाप नें अपनी रखैल का नाम मिठ्ठन रख दिया था. सारा गाँव उसे इमरती कहता था, और छदामी उसे नई कहता था. छदामी के बाप नें इमरती को छदामी से नई मां कह कर मिलवाया था लेकिन नई के बाद मां कहते हुए उसकी जुबान जकड़ गई थी. बस, नई कहना ही काफी हो गया था..

नई के पास छदामी पर अत्याचार की रोज़ नई नई तरकीबें थीं, और नए नए चश्मे थे जिन्हें वह छदामी के बाप की आंख पर चढ़ाती ही थी. हाल्ट आने के पहले छदामी नें अपनी बात यहाँ पूरी की कि नई की नज़र जैसे चौबीस घंटे उसी की फिकर में रहती थी कि वह कैसे अपना वार करे और उसका निशाना अचूक बैठे. एक सुबह उठते ही उसने छदामी के बाप को ललकार कर कहा था कि वह कान खोल कर सुन ले,

" पैर तो मैं अपने तब ही भारी करूंगी जब उस मरी कलमुहीं के जने का पैर इस घर से हमेशा के लिए बाहर हो जाएगा.."

छदामी उस समय कुँए से खींच कर पानी की बाल्टी ला रहा था. नई की बात सुन कर उसका पैर लडखडाया और वह ज़मीन पर गिर गया. उसका माथा बाल्टी के लोहे से टकराया था. फिर वह उठा और पलट कर नंगे पांव खाली हाथ बाहर भागा था. उसकी रुलाई भी तभी फूटी थी जब वह गाँव की सरहद के बाहर आ गया था.

कलंकी छदामी की बात को गौर से सुन रहा था और देख रहा था कि दुःख, विलाप और आघात की बातें छदामी उमंग और उत्साह से कह बता रहा है.कलंकी के लिए यह एक अचरज था, इसके बावजूद कलंकी छदामी के चेहरे पर उजास उल्लास देख कर खुश था.

गाँव पहुँच कर दोनों को उत्सव जैसा माहौल भरपूर फैला हुआ मिला था. इसका एक कारण यह था कि कि इनके लिए गाँव का मतलब केवल उस लड़के का घर था, जहाँ इन दोनों की पहचान बरसों पहले शमशान वालों की तरह पहुँच कर हवा हो चुकी थी और इस से जुड़ा कोई असमंजस वहां बचा नहीं रह गया था. लड़के के तिलक वालों को तीसरे पहर, चार गाँव पार कर के पहुँचना था. छदामी लड़के की मां से बरसों बाद मिल रहा था, हालांकि वह उन्हें भूला नहीं था. लड़के की मां भी मेहमानों की देखभाल और तैयारी में इतना फंसी हुई थी कि उसके पास भी किसी इतिहास पुराण को खोल कर बैठने का मौका नहीं था.

तयशुदा वक्त पर पाहुन आये, तिलक चढ़ा, नाश्ता पानी हुआ, प्रयोजन पूरा किया गया. किसी नें लड़के की बहन को उसकी होने वाली भाभी की तस्वीर चुपके से थमा दी, जिसे लड़के नें भारी घूस दे कर हथियाई. फिर वह फोटो कलंकी और छदामी नें भी देखी. उस नज़ारे का अपना लुत्फ़ रहा.छदामी नें कहा कि छोटी तो है लेकिन गंभीर चेहरा है, एकदम सटीक मास्टरनी लगेगी...कलंकी का भी उत्साह कम नहीं था, वह बोला," ब्याह के बाद इसे लेकर अपने पुराने शहर आना.." अपने जोश में छदामी नें टुकड़ा जोड़ा..मिजाज़ उसका कुत्ते की पूंछ...वह बेलौस कह भी गया, " ठहरना अपने पुराने कमरे में ही, जहाँ से अब भी तुम्हारी छोड़ी हुई किताबें और अख़बार की कतरनें नहीं हटाई गई है. लेकिन उसे अपना असली अड्डा भी ज़रूर दिखाना जहाँ तुम्हें दिन की रौनक भी उतनी ही भयानक लगती है जितना रात का सन्नाटा... छदामी अपने वाक्य की बुनावट में शमशान शब्द नहीं जोड़ पाया वर्ना वह भी कहने में उसे कोई परहेज़ नहीं महसूस होता.

छदामी की इस बात से भी एक ठहाका फूटा था, और साथ ही, लड़के के चेहरे पर गाम्भीर्य की एक लहर दौड़ गई थी. कोई ठीक ठाक पढ़ा लिखा दोस्त वहां होता तो वह लड़का मन में तत्काल उपजी टी एस ईलियट की स्मृति ज़रूर साझा करता. उस लड़के नें अंग्रेजी साहित्य में टी एस ईलियट को ड़ूब कर पढ़ा था.

पाहुन के वापस लौटने के बाद रात फुर्सत के साथ पसर गई. लड़के के कुछ रिश्तेदार वापस भी चले गए. कुछ लोग घर के भीतरी हिस्सों में, ठिकाना खोज कर लमलेट हो लिए. बस, कलंकी, छदामी और वह लड़का उस कमरे में रह गए जिसमें रात की चर्चा का एजेंडा कलंकी नें तय कर रखा था... वह था, शादी और शादी के बाद सुहागरात का हुनर. ज़ाहिर है, उन तीनों में केवल वही शादीशुदा इंसान था, भले ही उसका परिवार गाँव में था और वह उनके पास हफ्ता दस दिन में ही पहुँच पाता था.

अगला दिन एक विस्फोट लेकर आया...

लड़का छदामी और कलंकी को अपना वह स्कूल दिखानें ले गया जहाँ उसने मास्टरी शुरू की थी. स्कूल में उन तीनों को वह सारे मास्टर मिले जो कल लड़के के तिलक में आये थे. स्कूल अच्छा था. वहां बगीची थी, एक खेल का मैदान था, बिल्डिंग में बिजली की फिटिंग हो चुकी थी बस करंट आना बाकी था. वहीँ चर्चा चली तो तिगड्डा वह स्कूल देखने निकल पड़ा जहां छदामी और वह लड़का आठवीं तक साथ साथ पढ़े थे और जहां से उस लड़के नें दसवीं पास की थी. उन्हें क्या पाता था कि भूकंप का केंद्र उसी स्कूल में स्थित है और एक बड़े रेक्टर का भूकंप वहां छिपा हुआ है. उस स्कूल में कुछ लड़के ऐसे भी मिल गए जो छदामी के साथ पढ़े थे और अब वहां मास्टर लग गए थे. छदामी का उनसे आमना सामना हुआ. जरा देर से ही सही, सबने छदामी को पहचाना और जल्दी ही उनके बीच पुराना दोस्ताना लौट आया...गपशप शुरू हो गयी. गपशप और क्या होनी थी भला..बस, उन्हीं दिनों की चर्चा राह बनाती चली गयी जब छदामी स्कूल छोड़ कर भागा था. कितने बरस बीत गए थे इस बीच... और इन बरसों का वृतांत केवल उन लड़कों के पास था. छदामी के पास अपने वृतांत जैसा क्या था ? न घटनाएं, न कोई भावनात्मक ज्वार भाटा , सिवाय इस के कि वह एक शमशान घाट का आदमी बन गया था, और यह बात गाँव भर जान कर लगभग हजम कर चुका था.इस नाते बोलने की भूमिका में छदामी के पुराने साथी ही निभा रहे थे. छदामी मुख्य श्रोता था, कलंकी सहयोगी और वह लड़का केवल साक्षी बन गया था. इसी वृतांत धारा में, किसी नें, यूं ही, किसी उप सन्दर्भ में बताया कि पिछले बरस ठीक दशहरे वाले दिन छदामी की नई गुज़र गई थी.

"क्या..?"

छदामी भरपूर चीख उठा था और अचकचा कर दौड़ पड़ा था. उसके सब साथी एकदम भौचक थे. सब छदामी के पीछे पीछे चल पड़े. छदामी ठीक गाँव के शमशान में जा खड़ा हुआ. उसकी आँख से लगातार आंसू बह रहे थे. मसान के बीच पहुँच कर उसने जोर से गुहार लगी,

" तुम कहाँ हो नई..ई ई.."

एक दोस्त नें उंगली उठा कर वह चबूतरा दिखाया जहाँ नई को फूंका गया था. उस दिन गाँव के सिर्फ गिने चुने लोग थे छदामी के बाप के साथ. छदामी नई की चिता वाले चबूतरे पर बैठ गया और फूट फूट कर रोने लगा...वह कुछ कुछ बोल रहा था, अपना सिर धुन रहा था..और भूल गया था कि वह यहाँ अकेला नहीं आया है... कलंकी नें उसके दोस्तों को इशारे से चले जाने को कहा और वह सब चले गए. कुछ देर बाद कलंकी नें उस लड़के को भी चले जाने की राय दी, घर पर कुछ मेहमानों को बिदा होना था.

कलंकी देर तक, छदामी को नई के चबूतरे पर एकांत सौंप कर, शमशान में बैठा रहा. फिर छदामी का रोना थमा, कुछ देर बाद सिसकियाँ भी थम गईं. उसके बाद वह अपनी जगह से उठा और वहां जा कर खड़ा हो गया जहां कलंकी बैठा कुछ सोच रहा था.

कलंकी ने सिर उठा कर छदामी का हाथ पकड़ा और उठ कर चल दिया. दोनों चुपचाप चलते रहे जैसे तय था कि उनके बीच कोई संवाद नहीं होना है. बीच में कलंकी नें एक पोखर से पानी लेकर छदामी का मुहं धुलवाया और उस से बस इतना अब कहा,

" अब ठीक रहना". छदामी नें सिर हिला कर हामी भरी. कलंकी और छदामी जब उस लड़के के घर पहुंचे तब तक छदामी सहज हो चुका था.

अगला दिन उनकी वापसी के लिए तय था. सुबह की रेलगाड़ी में उन दोनों का रिजर्वेशन था, जिसमें करीब सात घंटे की यात्रा उन्हें दिन में करनी थी. गाँव में सबसे विदा लेकर जब दोनों जन रेल में बैठ गए और गाड़ी नें दौड़ कर दो स्टेशन पार कर लिए तब कलंकी नें अपनी बात कही,

" क्या हो गया था तुझे उस दिन ? तू तो बैरागी था... शमशान में कभी दहला नहीं, कभी कांपा थर्राया नहीं, तो फिर अपनी दुश्मन, अपनी सौतेली मां के लिए..."

छदामी मुस्काया. उसकी मुस्कान ठीक वैसी ही थी जैसी कलंकी बरसों से देखता आया है. कुछ ठहर कर छदामी नें बात शुरू की,

" दोस्त, मौत एक नियम है. जो जन्मा है वह मरेगा और अपने पीछे बहुतों को छोड़ जाएगा. कुछ लोग मरनेवाले के साथ मोह ममता से जुड़े होंगे, कुछ स्वार्थ से. सब रोएंगे, भले ही सबको मौत का नियम मालुम है, फिर भी आघात लगता है.. मैं अपने बेगाने शमशान में किसकी मौत को रोता, ख़ास तौर पर तब, जब ज्यादातर रोनेवालों में दुनियादारी बहती दिखती हो.

कलंकी, मेरी अब तक की कुल उम्र में सिर्फ नई वह अकेली जीव रही जिसने मेरे घर रहते तक मुझे निरंतर अपनी नज़र में बनाये रखा. उसकी रोज़ की जिंदगी का आधे से ज्यादा काम तो मुझे सोच कर होता था. बाप के सामने मेरे बस्ते में खाने का डिब्बा रखती थी और उसके जाने के बाद मेरे सामने ही उसे निकल लेती थी. अक्सर स्कूल में मुझे अपनी किताब कापियां फाड़ी हुई मिलती थीं. एक बार परीक्षा वाले दिन, ठीक घर से निकलते समय उसने मेरे कपड़ों पर चतुराई से दाल गिरा दी थी. तब तो मेरा बाप सामने ही बैठा था. बहुत बहुत प्रसंग हैं दोस्त जो इस बात का सबूत हैं कि उसने, मेरे घर रहते, मुझे कभी अपने चित्त से ओझल नहीं होने दिया. इतना याद मुझे मेरी जिंदगी में किसने किया भला..? मेरी मां तो, जैसा उस औरत नें बताया था, न जाने कब से जीना बंद कर चुकी थी..ऐसी मां के चित्त में बने रहने से भी जिंदगी कहाँ संवरती भला..? नहीं तो वह मरने के दिन तक जिंदा रहती और मुझे भी जिंदा रखती अपने साथ....

क्या क्या बताऊँ कलंकी, भरपूर सर्दी में, मेरे बाप से लिपट कर सोते सोते भी, उठ कर मेरे खटोले तक आती थी नई, और मेरा कम्बल मेरी देह से खींच कर नीचे गिरा देती थी. सुबह क्लेश करती थी कि मैं रात को लात मार कर कम्बल गिरा देता हूँ, फिर कुछ दिन मुझे कम्बल मिलना बंद हो जाता था... और उन दिनों भी वह आधी रात को उठ कर देखने आती थी कि कहीं मैंने भंडरिया से कम्बल निकाल तो नहीं लिया है.

बस, …इसीलिए, ….इसी जुड़ाव के लिए....."

छदामी नें बोलना बंद कर दिया.

रेलगाड़ी उनके शहर में पहुँच गयी. कलंकी अपने ठीहे शमशान में आ गया और छदामी अपने कमरे में. अगले दिन ठीक समय पर छदामी अपनी चमाचम साईकिल पर शमशान पहुँच गया. जब तक कलंकी आहट सुन कर बाहर आता, छदामी एक कायदे का पेड़ चुन कर उसकी कील पर अपना रोटी का थैला टांग चुका था... यानी, शमशान में ज़िन्दगी अपने मामूल में लौट आयी थी.