kaam wali baai Ratan Verma द्वारा नाटक में हिंदी पीडीएफ

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kaam wali baai

नाटक

काम वाली बाई

रतन वर्मा

संक्षिप्त परिचय

नाम ः रतन वर्मा

जन्म तिथि ः 06.01.1951

जन्म स्थान ः दरभंगा

प्रकाशन (पत्रिकाओं में) : हंस, धर्मयुग, इंडिया टुडे, सारिका, आजकल, समकालीन भारतीय साहित्य, नया ज्ञानोदय, पांखी, इन्द्रप्रस्थ भारती आदि पत्रिकाओं में लगभग 200 कहानियाँ एवं इनके अतिरिक्त समीक्षायें, साक्षात्कार, कविताएँ, गीत, गजलें, संस्मरण प्रकाशित।

पुस्तकें : ‘पेइंग गेस्ट', ‘दस्तक' एवं ‘नेटुआ' (कहानी संग्रह), ‘यात्रा में' (काव्य संग्रह), ‘रुक्मिणी' एवं ‘सपना' (उपन्यास), ‘श्रवण कुमार गोस्वामी एवं उनके उपन्यास' (आलोचना पुस्तक)

पुरस्कार :

— ‘गुलबिया' कहानी को वर्त्तमान साहित्य द्वारा

आयोजित कृष्ण प्रताप स्मृति पुरस्कार का प्रथम

पुरस्कार (1989)

— नाट्‌यभूमि सम्मान (1991)

— ‘सबसे कमजोर जात' कहानी आनन्द डाइजेस्ट

आंचलिक कथा प्रतियोगिता में सर्वश्रेष्ठ (1991)

— ‘नेटुआ' नाटक : साहित्य कला परिषद्‌, दिल्ली द्वारा दशक के सर्वश्रेष्ठ छहः नाटकों में शामिल (1992)

— ‘अवसर' सम्मान (1994)

— समग्र साहित्य पर ‘राधाकृष्ण पुरस्कार' (2003)

— ‘निखित भारत बंग साहित्य सम्मेलन, नई दिल्ली' द्वारा

विशिष्ट कथाकार पुरस्कार (2004)

सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन

सम्पर्क : क्वार्टर सं0 के—10, सी0टी0एस0 कॉलोनी, पुलिस लाईन के निकट, हजारीबाग—825301 (झारखण्ड)

मोबाईल न0 9430347051, 9430192436

म्उंपसरू तंजंदअमतउींं्रंतपइंह/लींववण्बवउए तंजंदअमतउींं्रंतपइंह/हउंपसण्बवउ

भूमिका

हमारे पुरूष प्रधान समाज में स्त्रियों को देखने का पुरूषों का नजरिया जो होता है, सो तो होता ही है, लेकिन अगर सही ढंग से देखा जाए तो यदि स्त्री से कोई ऊँच—नीच हो जाए, भले ही दोषी पुरूष ही क्यों न हो, लांछन स्त्रियाँ को ही झेलना पड़ता है। यहाँ तक की सच जानते हुए भी दुर्व्यवहृत स्त्री का साथ स्त्रियाँ भी नहीं देतीं। इस नाटक का मूल स्वर यही है।

मध्यवर्ग में काम वाली बाई की अनिवार्यता कितनी अहम होती है, यह किसी से छुपा नहीं है। बावजूद इसके, उस घर के पुरूष की नजर में काम वाली बाई, जैसे उनकी सम्पत्ति हो, ऐसी ही आम धारणा बनी हुई है। चूँकि ऐसी काम वालियों की सहायता उस परिवार की स्त्रियाँ भी नहीं करतीं, जिस कारण उसे कैसे—कैसे सघर्ष करने पड़ते हैं तथा कितनी पीड़ायें झेलनी पड़ती है — इस नाटक से समझा जा सकता है।

काम वाली बाई

प्रथम दृष्य

(पर्दा खुलने के साथ ही मंच पर सावित्री रोती हुई बैठी हैं। चार—पॉंच स्त्रियॉं उसे सांत्वना देती हुईं। सामने अर्थी पर लाष जैसी आकृति पड़ी है)

सवित्री का विलाप : केकरा भरोसे जिनगी कटतइ

केकरा भरोसे उमीर।

कौन दूसमनवा डीठ आग पड़लइ,

जे फूंक देलक हमर तकदीर।

मालकीन 1 : बेचारी का इसी उम्र में सब खत्म हो गया। नहीं सावित्री तू रो मत। हमलोग हैं न।

मालकीन 2 :देख ऐसे रोती रहेगी तो कैसे काम चलेगा। चल, अब जो होना था, सो हो गया। अब रोने से तेरा मर्द लौट कर तो नहीं आ जायेगा।

(लोग अर्थी उठाने के उपक्रम में हैं। सावित्री भाग कर अर्थी से लिपटती है और विलाप करने लगती है। लोग उसे अलग करने लगते हैं। स्त्रियॉं उसे अपनी ओर खीचती हैं । अर्थी उठा कर सभी आगे बढ़ते हैं। मंच पर अंधेरा। अंधेरे में कुछ देर तक सावित्री का विलाप)

दृष्य द्वितीय

(पर्दा खुलने के साथ ही मंच पर एक कोने में बर्तन मांजती हुई सावित्री। वह सुबक भी रही है और आंचल से ऑंसू भी पोछती जा रही है, मालकीन 3 का प्रवेष )

मलकीन 3 :अरे सावित्री, अब कितने दिनों तक अपने मर्द काष्शोक मनाती रहेगी? चल, जल्दी—जल्दी हाथ चला, तेरे मालिक को ऑफिस भी जाना है। कब खाना बनेगा और कब उन्हें टिफिन देकर ऑफिस भेजूंगी।

सवित्री : जी मालकीन, अभी कर देती हॅूं।

(जल्दी—जल्दी बर्तन पर हाथ घिसती हुई)

दृष्य तीन

(सावित्री फर्ष पर झाडू लगा रही है। अचानक उसे मितली—सी आती है और वह भागकर एक ओर उल्टी करने लगती है। तभी मालकीन 4 का प्रवेष। उल्टी कर रही सावित्री के पास भाग कर जाती है।

मालकीन 4 — अरे अरे सावित्री क्या हुआ? तबियत तो ठीक है तेरी ? चल इधर आ। काम छोड़, चल थोडी देर आराम कर ले। वहॉं चटाई पड़ी है, उसे बिछा कर लेट जा।

सावित्री : नहींं मालकीन मैं ठीक हॅूं। अभी आराम करूंगी तो और दो—तीन घरों में काम है, उसे कैसे निपटाऊंगी। (झाडू उठा कर फिर से बुहारने लगती है। मालकीन के चेहरे पर कातर (दुख) भाव आ जाता है। खुद में ही बड़बड़ाने लगती हैं।

मालकीन 4 :भगवान ऐसा दिन किसी को न दिखाये। अभी तो बेचारी के खेलने—खाने के दिन थे कि इसका ब्याह हो गया और अभी साल भर भी नहीं हुआ था कि पति का साया भी बेचारी के सिर से उठ गया। पता नहीं भगवान भी क्यों गरीब लोगों को ही सताते रहते है।

दृष्य चार

(सावित्री मंच के कोने में कपड़ा धोते हुए। अचानक उसे चक्कर सा आता है और वह वहीं बेहोष होकर लुढ़क जाती है। मालकिन — 3 मंच के दूसरे किनारे कुर्सी पर बैठ कर कोई पत्रिका पढ़ रही हैंं। उनकी नजर सावित्री पर पड़ती है। भाग कर वह सावित्री के पास पहुॅंचती हैं। उसे हिला—डुला कर देखती हैं, नब्ज टटोलती हैं )

मालकिन 3 —नब्ज तो ठीक चल रही है। पर इसे हुआ क्या है? अभी पड़ोस वाली नर्स दीदी को बुलाती हॅूं।

(तेजी से बाहर निकलती हैं। मंच पर अंधेरा, पुनः उजाला। मालकिन

3 के साथ नर्स का प्रवेष। उसकी ऑंख और नब्ज देखती है। )

नर्स —नहींं—नहींं कोई खास बात नहीं है। सब कुछ ठीक ही है। आपकी नौकरानी मॉं बनने वाली है।

मालकीन 3—क्या ? (आष्चर्य से ऑंखें फैल जाती हैं) नहींं—नहींं सिस्टर, आप ठीक से देखिये। ये मॉं कैसे बन सकती है भला? इसके पति को गुजरे तो डेढ़ साल हो चुके हैं।

नर्स —मैंने ठीक से मुआयना कर लिया है । यह सचमुव मॉं बनने वाली है। मैं इसे एक इंजेक्षन दे देती हॅूं, अभी होष आ जायेगा। (इंजेक्षन तैयार कर उसकी बॉंह में देती है, फिर बोलती है)

नर्स —आप घबराइये मत, इसे अभी होष आ जायेगा। और हॉं, इससे ज्यादा काम मत लीजियेगा। ऐसे भी यह बहुत कमजोर है और इसके खाने—पीने पर भी .....................

मालकीन 3 —हॉं—हॉं ठीक है, आप जाइये मैं समझ लूंगी।

(नर्स के जाने के बाद मालकीन सावित्री को झकझोर कर जगाती है। सावित्री उठ कर बैठती हुई पूछती है )

सावित्री —मालकीन मुझे क्या हुआ था?

मालकीन 3 —पूछती है, क्या हुआ था। अरे कुलच्छिनी, मुझे नहीं पता था कि तेरे भोले—भाले चेहरे में एक बदजात का चेहरा छुपा हुआ है। बता, बता यह किसका है।

सावित्री —क्या मालकीन, क्या किसका है ?

मालकीन 3 —अरे वही जो तेरे पेट में पल रहा है । बता, किसका पाप है यह?

सावित्री —मैं समझी नहीं मालकीन, आप क्या कह रही हैं?

मालकीन 3 — ऐ, है, है, सौ—सौ चूहे खा के बिल्ली हज को चली। अरे कमीनी बताती क्यों नहीं कि किसका पाप तेरे पेट में पल रहा है। कहीं मेरे पति को ही तो नहीं फांस लिया तूने।

(सावित्री चुप उसकी ऑंखे फैली हुईं )

फ्‌लैष बैक

(पर्दे पर स्त्री—पुरूष की छाया। एक पुरूष स्त्री के साथ जबरदस्ती कर रहा है। कुछ देर के बाद स्त्री की जोरों की चीख। मंच पर अंधेरा। फिर उजाला। सावित्री का अस्त—व्यस्त हालत में प्रवेष। धीरे—धीरे चलती हुई मंच के कोने में रखी एक खाट तक पहुॅंचती है और खाट पर धम्म से गिरती हुई जोर—जोर से रोने लगती है।)

(फ्‌लैष बैक समाप्त)

मलाकीन 3—अब मूरत बनी खड़ी क्यों है ? बोलती क्याें नहीं किसका है यह।

(सावित्री की गर्दन झुक जाती है। मालकीन उसे धक्का देते हुए घर से बाहर निकालती हुई। )

मालकीन 3 —बता, नहीं तो निकल यहॉं से और खबरदार जो कभी अपना चेहरा मुझे दिखाया। निकल जा यहॉं से।

(सावित्री को धक्का देते हुए मालकीन निकास द्वार तक ले जाती हैं, फिर जोरो का धक्का देकर उसे बाहर निकालने के बाद कुछ देर वहींं खड़ी होकर सॉंसें लेने लगती हैं। मंच पर अंधेरा)

दृष्य पॉंच

(मंच पर उजाला। चारों मालकीन आपस में बात—चीत करती हुईं )

मालकिन 1 —अरे ये सावित्री तो बड़ी घाघ निकली। मगर पता तो चले कि इसके पेट में किसका बच्चा है। सुबह से रात तक तो यह हमारी कॉलोनी में ही रहती है। फिर तो यह बच्चा हम में सेे ही किसी के पति का है।

मालकीन 2—मुझे तो लगता है कि जरूर यह कारस्तानी सरला बहन जी के पति का है। पूरी कॉलोनी में सबसे मनचले तो वे ही दिखते हैं। एक दिन जब मैं बाजार से सब्जी लेकर लौट रही थी, तब हॅंसी—हॅंसी में मुझ पर भी डोरे डालने की कोषिष कर रहे थे।

मालकीन 3 (सरला) —अरे जाइये—जाइये, खुद ही तो ऑंख मटक्का करती रहती हैं इधर—उधर और मेरे पति पर लांछन लगाती हैं।

मालकीन 2 — जबान संभाल कर सरला बहन, जो मुझ से ऐसी बात की आपने।

मालकीन 4—अरे—अरे, आप लोग तो आपस में ही झगड़ने लगीं। अरे भाई, सच क्या है, यह तो सावित्री ही बता सकती है। हॉं, इतनुश तो तय है कि उसके पेट का बच्चा कॉलोनी के ही किसी मर्द का है, सुनिये, वह आती है तो थोडी सख्ती कर के हमलोग उससे ही उगलवा लेते हैं।

मालकीन 1—हॉं बहन जी, यही ठीक रहेगा। हमारी तो तकदीर फूटी हुई है कि सावित्री जैसी कुलच्छिनी से काम लेना पड़ रहा है। आज कल दूसरी नौकरानी मिलती भी तो नहीं।

(सिर झुकाये सावित्री का प्रवेष। उसका पेट थोड़ा उभरा हुआ। औरताें के पास पहुॅंच कर सरला (मालकिन 3) से बोलती है)

सावित्री — चलिये मेम साहब, आपके घर का काम निपटा लूं।

मालकीन 3 (सरला)—(ऑंखे तरेर कर) पहले रूक तू यहीं। देख, तू सीधे—सीधे बता दे कि तेरे पेट का बच्चा किसका है। हम तुझे कुछ नहींं कहेगें।

सावित्री —(सिर झुकाये हुये) मैने कई बार कहा मालकीन कि यह मेरा है।

मालकीन 2—वो तो मैं भी समझती हॅूं, पर यह अकेले तो संभव नहींं हो सकता।

सावित्री (सरला से)— मेम साहब, चलिये। आपके घर के बाद और लोगों के घर में भी काम करना हैै। समय बर्बाद हो रहा है।

(मालकीन 1 अचानक तैष में उठ कर उसके बाल पकड कर खींचती हैं और उसके गाल पर तमाचा जड़ते हुए बोलती हैं)

मालकीन 1 —तू ऐसे नहीं मानेगी। लात का देवता कभी बात से मानता है? बताती है या ..............(तमाचे बरसाना शुरू कर देती हैं)

मालकीन 3 —आज बताना तो तुझे पडे़गा ही, नहीं तो समझ ले कि इस कॉलोनी से तेरी छुट्‌टी।

(बाकी तीनों मालकीन भी उसकी हॉं में हॉं मिलाती हैं)

तीनों मालकीन एक साथ — हॉं—हॉं बता दे, नहीं तो आज से षक्ल मत दिखाना अपनी।

(सावित्री चुपचाप मार खाती रहती है, फिर उल्टे पॉंव मंच से बाहर निकल जाती है)

मालकीन 3 —ऐ है, एक तो चोरी ऊपर से सीनाजोरी। हेठी तो देखिये इस लड़की का, क्या समझती है यह — काम नहीं करेगी तो क्या कोई काम वाली मुझे मिलेगी ही नहीं। जाती है तो जाये, हमारी बला से।

तीनों मालकीन एक साथ — ठीक ही कहती हो, ऐसी कुलच्छिनी को रखने से हमारी ही बदनामी होगी। हमलोग दूसरा इंतजाम कर लेगें।

दृष्य छः

(फॉंसी का फंदा लटका हुआ। सावित्री उसके सामने खडी है। फंदे को पकड़ कर गले में डालती है कि उसके स्वयं की आवाज)

आवाज —यह क्या कर रही है सावित्री? आत्महत्या?

सावित्री — तो क्या करूं। जमाने ने जीने लायक छोडा ही कहॉं है?

आवाज — तो जमाने से डर कर खुद को मार डालेगी? जरा सोच, तूने तो कोई गलती नहींं की? और यह तेरे पेट का बच्चा ? इसका क्या दोष है ? फिर इसे क्यों मारना चाहती है ?

सावित्री —तो क्या करू मैं ?

आवाज —तू जी ! तुुम्हे जीना पड़ेगा, इस बच्चे के लिए। अरे बेवकूफ, जानती नहीं,ं दूनिया का सबसे बड़ा सुख मॉं बनना है। और तू उसी मातृत्व का गला घोंट रही है? तू मॉं है सावित्री, मॉं। और हॉं, मॉं का काम होता है— जीवन देना, मारना नहीं। इसीलिए तो मॉं को जननी कहा गया है। जननी —जननी (इक्को)

(घंटियों की आवाज। इसके साथ ही सावित्री हाथ में पकडे फांसी के फंदे को जोर से झटक देती है।)

दृष्य सात

(मंच पर मालकीन 1 बैठ कर सूप में चावल बिन रही है साथ ही साथ बड़बड़ा भी रही है )

मालकिन 1 —जाने किस जन्म का पाप ढो रही हॅूं। उनसे कितनी बार बोली कि कहीं से एक नौकरानी खोज कर ला दीजिए। मगर वे मेरी सुनें तब तो। अब अकेले झाडू पोंछा करूं, कपड़े धोऊं, खाना बनाऊं, बच्चों को तैयार कर स्कूल भेजूं। क्या—क्या करूॅं मैं? जी तो चाहता है कि कुऍं में डूब कर जान दे दूॅं।

(मालकीन 3 का प्रवेष)

मलकीन 3—अरे बहन जी, कौन जान देने जा रहा है ?

मालकीन 1 —मैं, और कौन ? मुझ से तो घर का काम बिल्कुल नहीं सपरता। बिट्‌टू के पापा को कह—कह कर हार गयी कि एक नौकरानी ला दें। मगर वे हैंं कि उन्हें मेरी परवाह ही नहीं।

मालकीन 3 —बस इतनी सी बात, अरे बहन जी, कुऍं में डूबे आपके दुष्मन। चलिये, मिठाई खिलाइये।

मालकीन 1 —(आष्चर्य से उन्हें देखती हुई) मिठाई खिलाऊं ? कोई नौकरानी मिली क्या ?

मालकीन 3 —अरे वही खुषखबरी तो लेकर आई हॅूं । कल वह आ रही है। आप भी मेरेे घर चले आइयेगा। वहीं सब कुछ तय हो जायेगा।

(मालकीन 1 के चेहरे पर खुषी)

मलकीन 1 —बात तो सचमुच आपने मिठाई खिलाने वाली कही है। ठहरिये, मैं अभी लेकर आती हॅूं।

(सावित्री का उदास कदमों के साथ प्रवेष। वह चलती हुई दोनों मालकीन के पास आती है। )

मालकीन 1 —तू.......... ! तू फिर से आ गई। मैंने कहा था न कि अपना चेहरा मत दिखाना।

सावित्री —मैंने सोचा कि आप को दिक्कत हो रही होगी, इसीलिए चली आई। कुछ काम हो तो बताइये।

मालकीन 1 —काम ? तू जाती है यहॉं से की लगाऊं चप्पल ?

(सावित्री की ऑंखों में ऑंसू। वह बाहर निकल जाती है। मंच पर अंधेरा)

दृष्य आठ

(तीन मालकीन कुर्सियों पर बैठी हुई हैं, एक कुर्सी खाली। तभी मालकीन 3 के साथ एक दुबली मैली—कुचैली साड़ी में लिपटी बूढी सी औरत का प्रवेष। उसके बाल बेतरतीब। मालकीन तीन भी कुर्सी पर बैठ जाती हैं औार बूढ़ी खड़ी रह जाती है। वह थोड़ी—थोड़ी देर में अपने बाल खुजलाती है )

मालकीन 3 —लीजिये, आ गई। अब बातचीत कर लीजिए।

मालकीन 2 —(नाक भौं सिकुडते हुए) ये काम करेगी ? चार—चार घरों का काम इससे हो पायेगा?

बूढी —क्या बात करती हैं मालकीन, मेरी देह—काठी पर मत जाइये। अभी भी मन—डेढ़ मन वजन उठा सकती हॅूं । मगर एक बात मैं पहले साफ कर दूं। काम मैं सिर्फ एक टाइम करूंगी। बर्त्तन, झाडू—पाेंछा सब कर दूंगी। हॉं, कपड़ा साफ करना मुझ से नहीं होगा और पगार एक हजार रूपया। न एक रूपया कम, न एक रूपया ज्यादा। और हॉं, खाना—नास्ता भी।

मालकीन 1 —अरे वाह, काम सिर्फ एक टाइम और पगार हजार रूपये । ना बाबा ना और कहती है कि कपडे भी नहीं धोयेगी।

बूढ़ी —तो ठीक है मैं चलती हॅूं।

मालकीन 3 —(उठ कर उसे रोकती हुई) अरे—अरे, तू तो बस। हमलोग विचार—विमर्ष करते हैं न ! तू भागी कहॉं जा रही है ? जा कर उधर खड़ा हो, मैं तुम्हें बुला लेती हॅूं।

(बूढी एक ओर जाकर खड़ी हो जाती है। चारों मालकीन का आपसमैं मौन संवाद)

मालकीन 1 —पर यह तो ज्यादती है। सावित्री तो चार सौ लेती थी और दोनों टाइम काम करती थी। खाना भी बारी—बारी से एक ही घर में खाती थी। और इसने तो लूट मचा रखा है।

मालकीन 3 —तो सोच लीजिए, बड़ी मुष्किल से मिली है यह। यह भी हाथ से निकल गई तो पछताइयेगा। अभी रख लेते हैं, बाद में कोई दूसरी मिलेगी तो इसे हटा देंगे।

मालकीन 2 —ठीक है।

मालकीन 3 —(बूढी को आवाज देती है) चल, सुन इधर आ। ठीक है, तो कल से काम पर आ जाना। पर एक बात बता —— तू चार—चार घर का खाना अकेले कैसे खायेगी।

बूढ़ी —अरे नहींं मेम साहब। खाऊंगी तो एक ही घर में, बाकी घर का खाना घर ले जाऊंगी। बच्चा—बुतरू की खातिर।

(बात करते हुए बूढी बार—बार अपने बाल खुजलाती रहती है)

मालकीन 4 —ये तू बार—बार बाल क्यूं खुजला रही है ? नहाती—वहाती नहीं है क्या ? देख, हमारे घर में काम करना है तो साफ—सुथरा रहना होगा।

बूढ़ी —अरे एक बात तो कहना ही भूल गई। होली दषहरा में कपड़ा भी देना होगा।

मालकीन 1 —लो और सुनो, इसकी फरमाइष तो बढ़ती ही जा रही है।

मालकीन 3 —अच्छा—अच्छा तू जा।

(हाथ के इषारे से मालकीन 1 को चुप रहने को कहती है। बूढ़ी धीरे—धीरे चलने लगती है। चारों मालकीन का फिर से मौन संवाद। मंच पर धीरे—धीरे अंधेरा)

दृष्य नौ

(सावित्री का पेट पूरा निकला हुआ। अचानक पेट में दर्द महसूस करती है। चेहरे पर दर्द का भाव। अपने पेट की ओर देख कर बोलती है )

सवित्री —चल बेटा, खैराती अस्पताल चलते हैं। वहीं जा कर भरती हो जाते हैं। वहॉं कम से कम खाना तो मिलेगा।

(पेट पर हाथ फेरते हुए आह—आह करती हुई दर्द का इजहार करती है। मंच पर अंधेरा)

दृष्य दस

(मंच पर उजाला होता है। एक सोफे पर वर्मा साहब बैठकर सामने लगे टेबल पर रखे रजिस्टर में कुछ लिख रहे हैं। टेबल पर कुछ फाइलें पड़ी हैं। दूसरी ओर तनु और उसकी मॉं आपस में कुछ बातें कर रही हैं (मूक स्वर में)। तभी तनु की मॉं जोर से वर्मा जी को आवाज लगाती है )

तनु की मॉं —ऐ जी। सुनते नहीं है?

तनु की मॉं —अरे बहरे हो गये हैं क्या ? कब से आवाज लगा रही हॅूं।

वर्मा जी (अचकचाते हुए)— तू मुझ से कुछ कह रही हो क्या ?

तनु की माॅं —और नही ंतो क्या, दीवार से बात कर रही हॅूं? आप को तो सिर्फ काम — काम ही लगा रहता है। घर में क्या हो रहा है, कुछ होष ही नहीं। मैं मरूं या जिऊं, आप की बला से।

वर्मा जी —अरे भाई, बताओगी भी कि बात क्या है।

तनु की मॉं —ऐसे पूछ रहे हैं कि जैसे आप को कुछ पता ही नहीं है। अपने नौकर रमुआ ने तो काम छोड़ ही दिया। वह था तो हमें कोई दिक्कत नहीं थी। मगर अब सारा काम मेरे ही कपार पर आ गया है।

(तनु को आवाज लगाती है)

तनुु की मॉं — तनु, सुन इधर।

तनुु —यस मम्मी।

तनुु की मॉं —यस मम्मी की बच्ची। सुबह से कह रही हॅूं की जरा बिस्तर ठीक कर दे, ड्रांइग रूम में झाडू लगा दे, पर तू तो लाट साहब की बेटी है न। काम में हाथ लगायेगी, तो हाथ में मोच आ जायेगी।

तनु (पैर पटकती हुई पास आ कर) — आप भी कमाल करती हैं मम्मी। अगर झाडू—पोछा ही करवाना था तो कॉलेज में दाखिला क्यों करवाया आपने। घर में नौकरानी बना कर रखतीं।

तनुु की मॉं —बताइये तो, घर का काम कर लेगी तो नौकरानी हो जायेगी।

(वर्मा जी की ओर देख कर)

तनु की मॉं —और आप हैं कि आप को कोई होष ही नहीं कि काम कर—कर के मेरा क्या हाल है।

वर्मा जी — तो क्या करूॅं ? कह तो रखा है कई लोगों से कि नौकर नहीं तो नौकरानी ही ढूंढ दे। पर कोई मिले भी तो सही।

तनु की मॉं —और तनु महारानी है कि उनसे कोई काम कहिये कि सिर पर सौ घड़ा पानी पड़ जाता है।

तनु — ओह पापा, देखिये न मम्मी को — मैं कॉलेज करूं, टयूषन, पढू, सर का होम वर्क बनाऊं या घर में झाडू पोछा करूं। मम्मी तो कुछ समझती ही नहीं।

तनु की मॉं —और तू तो समझती है न? यही सब करते—करते किसी दिन टपक जाऊंगी तो समझती रहना तुम दोनों। ऐ जी, कान खोल कर सुन लीजिए, मुझ से नहीं होने वाला घर का इतना सारा काम। या तो नौकर तलाष कर लाइये कहीं से या फिर मुझे पटना भेज दिजिए मॉं—पापा के पास।

(तभी दरवाजे पर दस्तक होती है)

तनु की मॉं —और लीजिए, आए होंगे वर्मा साहब के कोई कलांइट। अब उनके लिए चाय बनाइये। ऐ जी, सुन लीजिए कान खोल कर, आपका कोई लगता—उगता होगा तो सीधे उसे लेकर बाजार तरफ निकल जाइयेगा। मुझ से चाय नास्ता बनाना नहीं होगा।

वर्मा जी —अरे बाबा, पहले देखो भी तो कौन है ? झूठ—झूठ बड़—बड किये जा रही हो।

तनु की मॉं —हॉं — हॉं देखती हॅूं, पर .................।

(प्रवेष द्वार के पास पहुॅंच कर दरवाजा खोलती है। प्रवेष द्वारा से गोद में बच्चा लिए सावित्री का प्रवेष। द्वार के पास ही तनु की मॉं उस पर गुस्साती है)

तनु की मॉं —तू ? तू क्यों आयी है यहॉं। षर्म नहीं आयी कालिख पुते चेहरा लेकर आने में।

(तनु भी आवाज सुन कर वहॉं पहुॅंच जाती हैं )

सावित्री —मालकीन दो दिनों से अन्न का एक दाना नहींं गया है पेट में। अकेली जान होती तो भूखे मर भी जाती। दूध भी सूख गया है। मेरे लिये नहीं, तो मेरे बच्चे के लिए थोड़ा दूध दे दीजिए।

तनु की मॉं —ऐंह, दूध दे दीजिए ! जब मॅुंह काला किया था तब नहींं पता था कि ये दिन भी देखना पड़ सकता है। चल जा, निकल यहॉं से।

(तभी तनु मॉं का हाथ खींंच कर एक ओर ले जाती है)

तनु —क्या कर रही हैं मॉं ! देखिये, उसने जो किया उसका फल तो वह भुगत ही रही है। लेकिन आपने क्या पाप किया है कि ..........

(तनु की मॉं बेटी की ओर देखती है)

तनु —हमारी समस्या का समाधान खुद चल कर दरवाजे पर आया है और आप उसे ठुकरा रही हैं।

तनु की मॉं —क्या मतलब ?

तनु — देख नहींं रहीं, घर में इतने सारे काम पड़े हैं। यह आ ही गयी है, तो दो रोटी देकर घर का काम करवा लीजिए।

तनु की मॉं —हॉं, यह ठीक रहेगा।

(सावित्री के पास जा कर)

तनु की मॉं —अच्छा सुन, तुझे भी खाना देती हॅूं और तुम्हारे बच्चे को दूध भी। ऊपर से दस रूपये भी दूंगी, पर तुझे भी मेरा एक काम करना होगा।

सावित्री —(उत्साह से) जी मालकीन, जो कहिये।

तनु की मॉं —अरे कुछ ज्यादा नहीं, थोड़े जूठे बर्तन पड़े हैं, वह साफ कर दे, घर में थोडा झाडू पोछा लगा दे और हो सके तो जरा बिस्तर ठीक कर दे।

सावित्री —हॉं मालकीन, क्यों नहीं ? अभी कर देती हॅूं। बताइए किधर है बर्तन।

तनु की मॉं —अरे ठहर—ठहर, पहले कुछ खा ले। दूध देती हॅूं, बच्चे को दूध पिला दे, तब कुछ काम करना।

(मंच पर अंधेरा, फिर उजाला। बच्चा फर्ष पर लेटा हुआ। एक कोने में सावित्री जल्दी—जल्दी बर्तन मांजती हुई। तनु और उसकी मॉं एक तरफ सावित्री को देख रही हैं। दोनों मूक स्वर में बात करती हुईं। सावित्री को देख भी रही हैं। दोनों के हाव—भाव से लगता है कि वे सावित्री की ही चर्चा कर रही हैं। नेपथ्य से वर्मा जी की आवाज)

आवाज —अरे सुनती हो, एक कप चाय लाना तो।

तनु की मॉं —(तनु से) जा, चाय बना के पापा को दे आ।

(तनु तेजी से चलती हुई बाहर निकल जाती है। मंच पर धीरे—धीरे अंधेरा, फिर उजाला। सावित्री फर्ष पर झाडू लगा रही है। तनु की मॉं वहीं खड़ी है। झाडू लगा कर सावित्री झाडू एक ओर रखती है, फिर मालकीन से बोलती है)

सावित्री —लीजिए मालकीन, सब साफ—सफाई हो गई। कहिये तो खाना भी बना दूूॅं?

तनु की मॉं —तू, खाना भी बना लेती है?

सावित्री —बना तो लेती हॅूं, पर पता नहीं मेरे हाथ का बना खाना आपको पसंद आये या नहींं।

तनु की मॉं —अच्छा तू रहने ही दे।

(मुठ्‌ठी में दबे दस के नोट को उसकी ओर बढ़ाती हुई कहती है)

तनु की मॉं —ले पकड़।

(सावित्री रूपये ले लेती है। तनु द्वार के पास खड़ी यह सब देख रही है। वह तेजी से चलती हुई आती है और मॉं की बाॅंह पकड़ कर एक किनारे पर ले जाती हुई सावित्री से बोलती है)

तनु —तू अभी ठहर, जाना मत।

(किनारे ले जाकर मॉं से बोलती है)

तनु —मॉं, उससे बात क्यों नहीं कर लेतीं ?

तनु की मॉं —कौन सी बात ?

तनु —आप भी न मम्मी? हमे नौकरानी की जरूरत है कि नहीं।

तनु की मॉं —है तो, पर इसे ?

तनु —तो क्या हुआ, घर का काम ही तो करेगी। और फिर मैं या आप इसे अकेले थोडे़ ही छोडेंगें।

तनु की मॉं —ये तो ठीक है, पर कॉलोनी की औरतें ? तरह—तरह की बात बनायेंगी।

तनु —उनकी बात बनाने से क्या ? परेषानी हमें है, तो सोल्भ भी हम हीं करेगें न। आप जाकर उससे बात कर लीजिए।

(तनु की मॉं कुछ देर खड़ी—खड़ी कुछ सोचती है, फिर सावित्री के पास जा कर बोलती है)

तनु की मॉं — देख सावित्री, तूने जो पाप किया है, उसकी तो कोई माफी नहीं है। पर तेरे बच्चे को देख कर दया आ रही है। इसीलिए सोच रही हॅूं कि तुझे काम पर रख ही लूं। बोल करेगी काम?

(सावित्री की ऑंखों में ऑंसू आ जाते हैं। वह तनु की मॉं के पैरों में गिरकर सिसकने लगती है, फिर बोलती है)

सावित्री —आपका यह उपकार मैं मरते दम तक नहीं भूलूंगी मालकीन। आप तो देवी हैं। हम दोनेां आपको हमेषा दुआ देंगे।

तनु की मॉं —अच्छा—अच्छा, चल उठ और कान खोल कर सुन ले। तेरे मालिक घर से ही अपना कारोबार करते हैं। मेरे घर में जरा भी इधर उधर नहींं, समझ गई न।

(सावित्री उठकर सिर झुकाये खड़ी रह जाती है)ै

तनु की मॉं —मैं तुझे, महीने के 300रू0 दूंगी। खाना नास्ता दूंगी ही और बच्चे को दूध भी, समझ गई न।

सावित्री —जी मालकीन।

तनु की मॉं —ठीक है। तो जा, मगर दोपहर चार बजे समय से आ जाना। और हॉं, सुबह 6 बजे भी एकदम समय से।

सावित्री — जी मालकीन

(सावित्री की ऑंखों में फिर से ऑंसू आ जाते हैं। वह झुक कर फिर से तनु के मॉं के पैर छूती है। फिर ऑंखें पोछती हुई उठ कर फर्ष पर सो रहे बच्चे को गोद में लेकर बाहर निकल जाती है। मंच पर अंधेरा )

दृष्य ग्यारह

(वर्मा साहब मंच पर लगे सोफे पर बैठ कर कुछ पढ रहे हैं। और एक ओर सावित्री फर्ष पर पोछा लगा रही है। तभी तनु प्रवेष द्वारा से अंदर आती है। प्रवेष द्वार के पास खड़ी होकर देखती है, फिर लौट जाती है। तुरन्त ही अपनी मॉं को पकड़ कर खींचती हुई पुनः प्रवेष करती है और प्रवेष द्वार के पास से ही पापा की ओर इषारा कर मॉं से बोलती है)

तनु —देखिये तो पापा को ? सावित्री पोछा लगा रही है और पापा यहीं बैठे हैं। सावित्री को तो आप जानती ही हैं। कहीं पापा पर भी..............

तनु की मॉं —ऐ जी, देख नहीं रहे, सावित्री पोछा लगा रही है।

वर्मा जी —हॉं, तो ?

तनु की मॉं — तो आप यहॉं बैठ कर क्या कर रहें हैं। थोड़ी देर के लिए दूसरे कमरे में नहीं जा सकते ? चलिये, उठिेए यहॉं से।

(वर्मा जी का हाथ पकड़ कर उठाती है और प्रवेष द्वार की ओर बढ़ती है। प्रवेष द्वार के पास पहुॅंच कर वर्मा जी झटके से अपना हाथ छुडा कर बोलते हैं)

वर्मा जी —यह क्या बतमीजी है ? मुझे क्यों वहॉं से उठा लाई।

तनु की मॉं —(थोडी सहमती हुई) देख नहीं रहे, वह पोंछा लगा रही है।

वर्मा जी —हॉं, तो ? वह अपना काम कर रही है, मैं अपना काम कर रहा हॅूं।

तनु की मॉं —ओफ—हो, उस का लक्षण तो आप जानते ही हैं। कितनी खेली— खायी औरत है? इसी से कहती हूॅं कि उससे थोड़ा दूर रहा कीजिए।

वर्मा जी —चुप ! क्या बकबकाये जा रही हैं आप? मैं भी आप को ऐसा ही लगता हॅूं ?

तनु की मॉं —आप क्या जानिये ऐसी औरतों को? इस तरह की औरतें जादू—टोना जानती हैं। पराये मर्द को चुटकियों में फंसा लेती हैं। देखिये जी, साफ कह देती हॅूं, आप इससे दूरी ही बना कर रखिये।

(वर्मा जी गुस्से से अपनी पत्नी की ओर देखते हैं और तेजी से बाहर निकल जाते हैं। उनके पीछे—पीछे तनु की मॉं भी। मंच पर अंधेरा)

दृश्य बारह

(तनु की मॉं खाट पर लेटी है, तभी सावित्री का प्रवेष। तनु भी खाट पर मॉं के साथ बैठी हुई है। तभी घबराई हुई सावित्री प्रवेष करती है। मालकीन के पास जा कर बोलती है)

सावित्री — मालकीन, मुझे तीन दिनों की छुट्‌टी चाहिये। गॉंव में मॉं बहुत बीमार है। जाकर देख आती।

(खटिया पर उठकर बैठती हुई तनु की मॉं बोलती है)

तनु की मॉं —बस, ष्शुरू हो गई तेरी नौटंकी ? महीने भर में ही चर्बी चढ़ गई न। हुुंः ......... छुट्‌टी चाहिए। कोई छुट्‌्‌टी नहीं मिलेगी, जा जाकर काम कर।

(सावित्री सिर झुकाये खड़ी ही रह जाती है। तभी तनु मॉं से कहती है)

तनु —मम्मी, जरा उस कमरे मेें चलिए न। मेरी सफेद वाली फ्रॉक नहींं मिल रही है।

तनु की मॉं —तू भी न ! फ्रॉक इधर फेंकेगी, पर्स उधर, लडकी जात है संभाल कर नहीं रख सकती।

तनु —ओह मॉं, चलिए न। जरा ढूंढ दीजिए।

तनु की मॉं —(सावित्री से) तू बैठ, मैं अभी आती हूॅं।

(तनु के साथ एक ओर बढ़ती है। तनु उसे रोक कर कहती है)

तनु —उसे छुट्‌टी दे दीजिए न मम्मी। नाना जी कब से हमसब को पटना बुला रहे हैं। सावित्री के कारण हीं हम सब कहीं आ जा नहींं सकते। यह नहीं रहेगी, तो पटना घूम आयेगें।

तनु की मॉं —(सिर पर हथेली मारकर) धत्त, यह बात मेरे भेजे में क्यों नहीं आयी। ठीक है, चल।

(सावित्री के पास पहुॅंच कर बोलती है)

तनु की मॉं —तो तुझे मॉं को देखने गॉंव जाना है? ठीक है, जा। आज वृहस्पतिवार है, अगले बृहस्पतिवार को लौट आना।

सावित्री —नहींं मालकीन, मैं तो दो—तीन दिन के लिए ...........।

तनु की मॉं —दो—तीन दिन के लिए सिर्फ चेहरा दिखाने जायेगी। जा ही रही है, तो सप्ताह भर रह कर मॉं की सेवा कर।

सावित्री —पर आप को दिक्कत हो जायेगी मालकीन।

तनु की मॉं —कोई दिक्कत नहीं होगी। मैं खुद तुझे भेज रही हॅूं न। और पैसे की जरूरत है तो बोल।

सावित्री —200 रू0 देतीं।

तनु की मॉं —तनु जा, जाकर मेरा पर्स ले आ।

(तनु प्रवेष द्वार की ओर बढ़ती है, मंच पर धीरे—धीरे अंधेरा)

दृश्य तेरह

(वर्मा जी कुछ सोचते हुए मंच पर टहल रहे हैं। तभी तनु और उसकी मॉं का प्रवेष)

तनु की मॉं — सुनिये जी, ड्राइवर से कह दीजिए कि तैयार होकर आ जायेगा। कल सुबह हम लोग पटना जा रहे हैं।

वर्मा जी —पटना ? अचानक यह पटना का भूत कहॉं से सवार हो गया तुम्हारे सिर पर।

तनु की मॉं —वेा क्या है, कि सावित्री की मॉं गॉंव में बीमार है। उसे एक सप्ताह की छुट्‌टी चाहिए थी। तो सप्ताह भर के लिए वह गॉंव जा रही है, इस बीच हमलोग भी पटना घूम आते।

वर्मा जी—हमलोग माने ?

तनु की मॉं —मतलब हम सभी, जाइये जल्दी से आप भी सामान तैयार कर लीजिए।

वर्मा जी —तुमलोगों को जहॉं जाना है, जाओ। मैं तो यहॉं से टसक भी नहीं सकता। मुझे एक बड़ा टेन्डर डालना है। मुझे तो एक पल की छुट्‌टी नहीं है।

तनु की मॉं —यह कैसे होगा? आप नहीं गये तो पापा बुरा मान जायेंगे।

वर्मा जी —तो क्या मैं अपना काम धंधा छोड दूं ? तुम दोनों को जाना है, तो जाओ।

तनु की मॉं —ठीक है, ठीक है, तो गुस्सा क्यों होते हैं। हम दोनों ही चले जायेंगे। जरा ड्राइवर को बुला कर समझा दीजिए।

(वर्मा साहब मोबाइल का बटन दबाने लगते है और मॉं बेटी का वहॉं से प्रस्थान। मंच पर अंधेरा)

दृश्य चौदह

(फर्ष पर बैठ कर सावित्री एक कपड़े के टुकड़े में कुछ कपड़े वगैरह डाल कर गठरी बनाती है। फिर एक हाथ में गठरी और दूसरे हाथ में बच्चा लेकर प्रस्थान की मुद्रा में बाहर निकलती है। मंच पर अंधेरा। नेपथ्य से ट्रेन की सीटी की आवाज)

दृश्य पंद्रह

(वर्मा जी सोफे पर बैठ कर सामने लगे टेबल पर कुछ लिख रहे हैं। टेबल पर कुछ फाइल पड़ी है। अचानक उन्हें जोरों की खांसी आती है। कुछ देर तक वे खांसते रहते हैं। खांसते हुए ही उठ कर एक कोने में जाकर ग्लास में बोतल से पानी डालते हैं और पीते हैं। पानी पीने के बाद फिर से खांसी उठती है उन्हें और लगातार खांसते चले जाते हैं। लड़खड़ाते कदमों से चलते हुए वे सोफे तक पहुॅंचते हैं ओर खांसते—खांसते वहीं पर लुढक जाते हैं। धीरे—धीरे मंच पर अंधेरा)

दृश्य सोलह

(रात का दृष्य। स्पॉट लाइट में वर्मा जी बीमार की तरह खटिया पर लेटे हुए हैं। बीच—बीच में वे खॉंस भी रहे हैं। उठकर पानी लेने को बढ़ते हैं पर लड़खड़ा कर गिर जाते हैं। फिर जैसे—तैसे घिसटते हुए खटिया तक पहुॅंचते हैं और धम्म से खटिया पर लुढक जाते है। मंच पर अंधेरा)

दृश्य सतरह

(सुबह का दृष्य। वर्मा साहब खाट पर पड़े हुए हैं। तभी दरवाजे पर दस्तक होती है। वर्मा साहब खांसते हुए खाट से उठकर लड़खड़ाते कदमों से प्रवेष द्वार तक जाते हैं। दरवाजा खोलने का उपक्रम करते हैंं सावित्री का प्रवेष। वर्मा साहब की टूटी हुई आवाज)

वर्मा जी — सावित्री, तू ? तू तो बृहस्पतिवार को आने वाली थी ?

सावित्री —जी मालिक! गॉंव पहुॅंची तो देखी कि मॉं ठीक हो गयी है। मन में आया कि मॉं जब ठीक ही है तो लौट ही चलूं। मालकीन को दिक्कत हो रही होगी। इसीलिए रात भर रूक कर चली आयी।

वर्मा जी —पर तेरी मालकीन और तनु तो पटना चले गये हैं।

(वर्मा जी को जोरों की खांसी उठती है। खांसते—खांसते ही वे खटिया की ओर बढ़ते हैं और खटिया पर लुढ़क जाते है)

सावित्री —मालिक..........। मालिक, क्या हुआ आप को ? तबीयत तो ठीक है न।

वर्मा जी —ठीक ही है। जरा एक ग्लास पानी.........

सावित्री —जी मालिक, अभी लाई।

(एक ओर रखे बोतल से ग्लास में पानी ढालती है और जा कर वर्मा जी को थमाती है। इसी क्रम में वर्मा जी का हाथ सावित्री के हाथ से स्पर्ष कर जाता है। सावित्री चौंकती है)

सवित्री —आपको तो बहुत तेज बुखार है मालिक। कुछ दवाई—सूई लिये कि नहीं?

वर्मा जी —कौन ला कर देगा? कोई है भी तो नहीं।

सावित्री —आप बताइये न, कौन दवाई लाना है? मैं ला देती हॅूं।

(वर्मा जी इषारे से टेबल पर रखे कागज—कलम को लाने को कहते है। सावित्री कागज—कलम ला कर उन्हें देती है। वे कागज पर कुछ लिखकर सावित्री को थमाते हैं, फिर बोलते हैं)

वर्मा जी —पैसा कमरे में टंगे पैंट की जेब में है।

सावित्री —नहीं मालिक, पैसा है मेरे पास, बाद में दे दीजिएगा।

(तेजी से प्रवेश द्वार से बाहर निकल जाती है, मंच पर अंधेरा, फिर मंच पर उजाला। वर्मा जी खाट पर लेटे हुए कराह रहे हैं। सावित्री उनके सिर पर पानी में भिंगा कपड़ा डाल रही है)

वर्मा जी —तू क्यों परेषान हो रही है सावित्री? तू जा, मैं ठीक हो जाऊंगा।

सावित्री —ऐसे कैसे चली जाऊं मालिक? आप को इस हाल में छोड़ कर ? आप ठीक हो जाइये, फिर चली जाऊंगी।

वर्मा जी —आह ...........।

सावित्री —क्या हुआ मालिक ?

वर्मा जी —कुछ नहीं। अब षाम हो रही है, तू घर जा।

सावित्री —ठीक है, चली जाऊंगी। पहले आप कुछ खा लीजिए। उसके बाद दवा दे देती हॅूं, तब चली जाऊंगी?

(सावित्री एक कोने में जाकर थाली में बे्रड निकालती है ग्लास में दूध लेकर वर्मा जी के आगे रखती है फिर उन्हें सहारा देकर बैठाती है वर्मा जी ब्रेड तोडकर गलस में डूबा कर मूॅंह की ओर ले आते है। मंच पर धीरे—धीरे अंधेरा)

दृश्य अठारह

(वर्मा जी सोफा पर बैठे अखबार पढ़ रहे हैं। दरवाजे पर दस्तक। वर्मा जी उठ कर दरवाजा खोलते हैं । सावित्री का प्रवेष)

सावित्री — आज तो आप ठीक लग रहे हैं मालिक, कैसी तबीयत है?

वर्मा जी —देख ही रही है, अब बिल्कुल ठीक हॅूं। वह तो कह कि भगवान ने तुझे भेज दिया, नहीं तो पता नहींं मैंं बच भी पाता या नहींं।

सावित्री —ऐसी अषुभ बात नहींं करते मालिक। आप ठीक हो गये, भगवान की कृपा है। अच्छा मालिक, मैं जाती हॅूं। मालकीन तो वृहस्पतिवार को आयेंगी न! मैं उसी दिन आ जाऊंगी। कोई दिक्कत तो नहींं?

वर्मा जी —नहीं — नहीं तू जा, अब मैं बिल्कुल ठीक हॅूं।

(सावित्री चलती हुई बाहर निकल जाती है। मंच पर अंधेरा)

दृश्य उन्नीस

(मंच पर वर्मा जी सोफे पर बैठ कर कुछ काम कर रहें हैं। तभी तनु की मॉं और तनु का प्रवेष। तनु एक ट्राली बैग लुढ़काती हुई वर्मा जी के पास पहुॅंचती है। वर्मा जी के चेहरे को देखकर तनु की मॉं आष्चर्य से पूछती है)

तनु की मॉं — क्या हाल बना रखा है अपना।

वर्मा जी —क्या बताऊं तनु की मॉं, जिस दिन तुम गई, दूसरे ही दिन सुबह से सर्दी, खॉंसी, बुखार ने जकड़ लिया। वह तो कहो कि भगवान ने सावित्री को भेज दिया। उसी की सेवा से आज मैं तुम्हारे सामने जिंदा बैठा हॅॅूं। नहीं तो .............।

तनु की मॉं —क्या? सावित्री आई थी ? पर वह तो मॉं के पास गई थी?

वर्मा जी —हॉं, पर षायद उसकी मॉं ठीक हो गई थी, सो उसी दिन लौट आई। खैर, तुम बताओ, तुम्हारा सफर कैसा रहा? मम्मी पापा ठीक हैं न।

तनु की मॉं —हॉं, सभी ठीक हैं। आ बेटी, कमरे में चलते है।

(चेहरा बुरी तरह बना कर वे दोनों दूसरे कमरे की ओर बढ़ जाती हैं। धीरे—धीरे मंच पर अंधेरा)

दृश्य बीस

(सुबह का समय। तनु सोफे पर बैठकर पढ़ाई कर रही है और उसकी मॉं वहीं पास में चहलकदमी कर रही है। तभी दस्तक की आवाज। तनु की मॉं तेजी से जाकर दरवाजा खाोलने का उपक्रम करती है। सावित्री का प्रवेष)

तनु की मॉं —आइये महारानी। तो कब आई मॉं के घर से ?

सावित्री —मैं तो दूसरे ही दिन आ गई थी मालकीन। वहॉं गई, तो मॉं ठीक हो चुकी थी। तब मैंने सोचा की लौट ही चलूं। आप को यहॉं दिक्कत हो रही होगी।

तनु की मॉं — चुप बदजात। यह क्यों नहीं कहती कि मौके की तलाष में थी कि कब तुम्हें मौका मिले और मेरे पति पर डोरे डाल सके।

सावित्री —यह क्या कह रही हैं मालकीन ? मैं तो ..........

तनु की मॉं —ओर नहीं तो क्या? जब तू जान गई थी कि मैं और तनु घर में नहीं हैं, तो तुझे क्या जरूरत थी वर्मा जी से अकेले में मिलने की। आखिर अपनी जात दिखा दी न!

सावित्री —मालकीन, मालिक बहुत बीमार थे। खांसी, सर्दी उतनी ही, बुखार से देह तप रही थी। दो कदम चल भी नहीं पा रहे थे। ऐसे में उन्हें छोड़कर जा भी तो नहीं सकती थी। अगर उन्हें कुछ हो जाता तो ?

तनु की मॉं — हो जाता, तो हो जाता। तू तो ऐसे बात कर रही है, जैसे तू ही उनकी घरवाली है। न, तुझ जैसी औरत पर भरोसा कर मैंने बहुत बड़ी गलती की। वे मेरे पति हैं। कुछ हो जाता, तो मैं समझती।

(सावित्री का तेवर भी कड़ा हो जाता है)

सावित्री —बस मालकीन बस, बहुत बोल दिया आपने। अगर कुछ हो गया होता, तो क्या कर लेतीं आप। अरे, पति का मरम क्या होता है, ये मुझ से पूछिये। आज मैं दर—दर की ठोकर खा रही हॅूं, किस लिए। इसीलिए न कि मेरी मॉंग में सिंदूर नहीं है। आज अगर मेरा घरवाला जिंदा होता और तब किसी गैर का भी बच्चा मेरे पेट में आ गया हेाता तो भी क्या आप या कोई मुझ पर लांछन लगाता? आज जो मैं दर—दर की ठोकर खा रहीं हॅूं, सो आप क्या समझेगी इस दर्द को? आप के माथे पर तो चमचम सिंदूर की लाली चमक रही है। मालकीन, कुछ देर के लिए मैंने भी सोचा था कि मैं लौट ही जाऊं, पर आपका ही ख्याल आ गया। मैं मानती हॅूं कि एक बार मुझसे पाप हुआ और जिसकी सजा आज तक भेाग रही हॅूं मैं। पर वह गलती भी मेरी नहीं थी। हम औरत तो कमजोर जात होती हीं हैं। आप ही बताइये मालकीन, यदि किसी भी औरत की इज्जत कोई गैर मरद जबरदस्ती लूट ले, तो वह मरद कुल्टा हुआ कि औरत? पर नहीं, हमारे समाज में गलत सिर्फ औरत होती है। मरद सब तो जो औरत को समझते हैं, सो समझते ही हैं, औरत भी औरत के मरम को नहीं समझतीं। खैर, गल्ती—सल्ती माफ मालकीन! मैं समझ गयी कि आपके यहॉं से भी मेरा दाना—पानी उठ गया। पर मालकीन, ऊपर वाला सब देखता है। मैने अपना धरम निभाया है, अब ऊपर वाला जो सजाय दे। ठीक है, अब जाती हॅूं। मैं जानती हॅूं मालकीन कि अब मेरा दाना—पानी यहॉं से भी उठ गया। लेकिन मेरा भगवान जानता है कि न मैंने पहले कोई पाप किया था, न आज आप के पति की सेवा करके किया है। मेरे मन में क्या है, ये तो मैं जानती हॅूं, लेकिन आपके मन की मैल को मैं तो साफ नहीं कर सकती। ठीक है मालकीन, गल्ती—सल्ती माफ कीजिएगा मैं जाती हॅूं।

(सावित्री बाहर निकलने के लिए कदम बढ़ाती है। मालकीन थोडी नर्म)

तनु की मॉं — तो ऐसे तेवर क्या दिखा रही है? तुमने जो किया है, उसी से तो मेरे मन में षक पैदा हुआ। चल, ठीक है, पर यह तो बता सकती है कि किसने तेरे साथ बदतमीजी की? तेरा जो यह बच्चा है, वह है किसका ?

सावित्री —अच्छा मालकीन, अगर मैं बता दूं कि यह किसका बच्चा है तो क्या मेरे माथे पर लगा कलंक धुल जायेगा ? ठीक है, चलिये बता ही देती हॅूं कि यह बच्चा आप ही के पति का है

(तनु की मॉं जोर से चीखती है)

तनु की मॉं —सावित्री ...................

सावित्री —बहुत बुरा लगा न मालकीन? इतना ही बुरा उन्हें भी लगता, जिनके पति ने मेरा यह हाल किया। चलिये मान लेती हॅूं कि वह मेरा विष्वास भी कर लेती, तब क्या होता ? यही न कि पहले मुझे धक्के मार कर घर से निकालतीं। फिर अपने पति से दो चार दिनों तक लड़ाई करतीं, मुॅंह फुलाती रहतीं, उसके बाद वो दोनों तो एक ही हो जाते। सजा तो हर तरफ से मुझे ही भुगतनी पड़ती।

तनु की मॉं—तेा तुम्हें पुलिस से रपट लिखानी चाहिए थी।

सावित्री —हॉं मालकीन, यह भी सोचा था मैंने, लेकिन तभी मेरी ऑंखों के आगे मेरी गॉंव की सहेली फुलवा का चेहरा आ गया था। गॉंव के सरपंच के बेटे ने उसके साथ वही सब किया था, जो मेरे साथ हुआ। लोगों के बहकावे में आकर वह गई थी थाने रपट लिखवाने। पर मिला क्या उसे? सारी रात उसे ही थाने में बंद रखा गया और ................

(सावित्री सिसकने लगती है, फिर हथेली से ऑंसू पोंछ कर बोलती है)

सावित्री —जानती हैं मालकीन, सुबह थाने से निकल कर उसने कुॅंए में कूद कर अपनी जान दे दी। जान तो मैं भी दे सकती थी। पर मालकीन, मेरे इस बच्चे का क्या दोष है? बताइये ..... बताइये ! मैं आपसे पूछती हॅॅूं। (दर्षकों की ओर देखकर) आप सबसे पूछती हॅूं। मेरा या मेरे बच्चे का क्या दोष है ? बोलिए ..... बताइये ....

(सावित्री फूट—फूट कर रोने लगती है मालकीन टकटकी साधे सावित्री को देखती रहती हैं। तनु भी उठ कर वहॉं आ जाती है और अंदर से निकल कर वर्मा साहब भी आ जाते हैं। सभी के चेहरे पर करूणा का भाव। दृष्य फ्रीज हो जाता है)

समाप्त