कहानी
बबूल
रतन वर्मा
संक्षिप्त परिचय
नाम ः रतन वर्मा
जन्म तिथि ः 06.01.1951
जन्म स्थान ः दरभंगा
प्रकाशन (पत्रिकाओं में) : हंस, धर्मयुग, इंडिया टुडे, सारिका, आजकल, समकालीन भारतीय साहित्य, नया ज्ञानोदय, पांखी, इन्द्रप्रस्थ भारती आदि पत्रिकाओं में लगभग 200 कहानियाँ एवं इनके अतिरिक्त समीक्षायें, साक्षात्कार, कविताएँ, गीत, गजलें, संस्मरण प्रकाशित।
पुस्तकें : ‘पेइंग गेस्ट', ‘दस्तक' एवं ‘नेटुआ' (कहानी संग्रह), ‘यात्रा में' (काव्य संग्रह), ‘रुक्मिणी' एवं ‘सपना' (उपन्यास), ‘श्रवण कुमार गोस्वामी एवं उनके उपन्यास' (आलोचना पुस्तक)
पुरस्कार :
— ‘गुलबिया' कहानी को वर्त्तमान साहित्य द्वारा
आयोजित कृष्ण प्रताप स्मृति पुरस्कार का प्रथम
पुरस्कार (1989)
— नाट्यभूमि सम्मान (1991)
— ‘सबसे कमजोर जात' कहानी आनन्द डाइजेस्ट
आंचलिक कथा प्रतियोगिता में सर्वश्रेष्ठ (1991)
— ‘नेटुआ' नाटक : साहित्य कला परिषद्, दिल्ली द्वारा दशक के सर्वश्रेष्ठ छहः नाटकों में शामिल (1992)
— ‘अवसर' सम्मान (1994)
— समग्र साहित्य पर ‘राधाकृष्ण पुरस्कार' (2003)
— ‘निखित भारत बंग साहित्य सम्मेलन, नई दिल्ली' द्वारा
विशिष्ट कथाकार पुरस्कार (2004)
सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन
सम्पर्क : क्वार्टर सं0 के—10, सी0टी0एस0 कॉलोनी, पुलिस लाईन के निकट, हजारीबाग—825301 (झारखण्ड)
मोबाईल न0 9430347051, 9430192436
म्उंपसरू तंजंदअमतउींं्रंतपइंह/लींववण्बवउए तंजंदअमतउींं्रंतपइंह/हउंपसण्बवउ
भूमिका
दिल्ली का ‘निर्भया कांड' जैसी घटनाएं जब नगरों और महानगरों में होती हैं, तब निर्भया के पक्ष में एक जन सैलाब सा उमड़ पड़ता है। पूरा शासन, प्रशासन—तंत्र हिलने लग जाता है। लेकिन ऐसी ही घटनाएं जब सुदूर गाँवाें में घटती हैं तो वहाँ की निर्भया, जिसे न अक्षर ज्ञान होता है और न ही शासन, प्रशासन तक पहुँच पाने का ज्ञान, अंततः उसके साथ जब परिस्थियाँ जटिल से जटिलतम हो जाती हैं, तब मजबूरन उसे ‘बबूल' बन जाना पड़ता है।
बबूल
रैना नाम चाहे जिस किसी ने भी रखा हो उसका मगर रखा बहुत ही सोच समझ कर होगा। रैना, यानी रात! बस एक ही चूक हो गयी उस नाम रखने वाले से कि नाम के पहले अमावस की भी जोड़ देता। मतलब, अमावस की रैना। लेकिन अमावस की रखता, चाहे पूर्णिमा की, इससे रैना का भाग्य तो पल्टी नहीं खा जाता। नौकरानी से महारानी तो नहीं बन जाती वह। लेकिन नौकरानी भी तरीके से कहाँ बन पायी वह? दिन—भर चौका बरतन, घर की साफ—सफाई, दरोगा जी के क्वार्टर में आने जाने वाले साहब लोगों की सेवा—टहल में देह तोड़ते रहना, और रात में अंग्रेजी दारू पीकर राक्षस बने दारोगा जी से देह तोड़वाना। सो भी साल में दो जोड़ा कपड़ा और खुद की तथा बेटी सूरजी की दोनों टैम की रोटी पर...............
वह तो कहियेेे कि सूरजी के जन्म के कुछ ही रोज बाद रैना ने डागडरनी के आगे रो—गिड़गिड़ा कर अपना ऑपरेशन करवा लिया था, नहीं तो इस दरोगवा ने तो एकदम से कौरव सेना खड़ी कर दी होती बाल बच्चों की। हरामी वैसे तो ठीक—ठाक ही रहता है दरोगवा, मगर रात में मुर्गे की टांग के साथ दू गिलास चढ़ाया नहीं कि एकदम से कसाई हो जाता है। फिर तो रैना की छाती की बत्ती टूटे कि देह पिस कर कीमा हो जाय, उसकी बला से। जैसे रैना औरत न हुई, मसाला पीसने वाली सिलौटी हो गयी कि जिसपर कितना भी लोढ़ा घिसता रहे कोई, उसपर कोई फरक पड़ने वाला ही नहीं।
वैसे ऑपरेशन भी वह थोडे़ ही करवाने वाली थी? वह तो कहिये कि ऐन सूरजी के टैम में रामलखन बाबू ने रैना से अपना पल्ला छुड़ा लिया था और उसी टैम से घर में बुरी तरह दरिद्रा भी उतर आयी थी, सो उस बखत की समस्या से उबरने का एकमात्र तरीका उसे ऑपरेशन ही नजर आया था। मतलब एक सौ बीस रूपये की नगद आमदनी, एक साड़ी और ऊपर से दबाई—बीरो फ्री......................
मगर बाप रे, वह डागडरनी थी? एकदम से लम्मर एक किचासिन — दूसरी औरत सब को तो समझा बुझा कर, खुशामद करके, रूपया साड़ी का लोभ देकर ऑपरेशन की खातिर राजी करवाती थी, पर जब रैना खुद से खुशामद करने गयी, तो एकदम से लिच्चड़ई पर उतर आयी वह — नहीं, एक बच्चा पर ऑपरेशन नहीं होगा।
लेकिन कुछ देर के गिड़गिड़ाने, हाथ—पैर पकड़ने के बाद राजी भी हुई तो इस शरत (शर्त) पर कि ऑपरेशन तो कर देगी वह, पर रूपया साड़ी कुछ नहीं देगीं।
ऐंह, रूपया—साड़ी नहीं देगी तो झुठ्ठे पेट चिरवाने से ‘फैदा' ? — मायूस होकर बोली थी वह, ”तो जाने दीजिए डागडरनी जी, कुछ मिलेगा ही नहीं तो झुठ्ठे काहे चिरवायें पेट?‘‘
पर तुरंत, क्या पता क्या बुझाया था डागडरनी को कि खींझते हुए बोल पड़ी थी, ”तुमलोगों का तो बस यही है। खैर चल कर देती हूँ ऑपरेशन।‘‘
‘‘जी। पर डागडरनी जी, रूपया—साड़ी मिलेगा न!‘‘
‘‘उफफोह....... हाँ बाबा, मिलेगा। कह तो लिख कर दे दूँ।‘‘
इस प्रकार ऑपरेशन भी हो गया था रैना का और कड़की की हालत में कुछ रूपये और साड़ी भी मिल गये थे। खैर, वह तो ठहरी कल की बात, मगर आज............. आज तो दरोगा जी चाहे कितनी भी देह की कुटाई—पिसाई कर लें, पर इन्हीं का तो जोर है कि आज पूरे इलाके में है कोई पट्ठा जो आँख उठा कर रैना या उसकी बेटी सूरजी की तरफ देखने का साहस भी कर ले। चाहे अपने देस में रही हो उस बखत तब, चाहे आज इस परदेस में। भले ही दरोगा जी की रखनी (रखैल) बनकर रह रही हो वह, मगर वह या उसकी बेटी सूरजी कितनी शान से निकलती है हाट—बाजार। या सूरजी अपने स्कूल ही। सोलह से ऊपर की हो गयी है सूरजी, मगर घूर के ताक दे किसी बड़े से बड़े दादा की ओर और डर से वह काँपने न लग जाय तो समझिये सूरजी अपने बाप की बेटी नहीं!
मगर बाप?......... कौन बाप? वही रामलखन बाबू न! हरामी बड़का बाघ बना फिरता था न पूरे इलाके में — पूरे इलाके भर का दादा! लोग रामलखन बौस कह कर बुलाते थे उसको। हुँः, बौस! ...........मगर दरोगा जी के बल्बर (रिवाल्वर) की बस एक ठाँए और फुस्स हो गया हरामी मिनट भर में ही। पर चाहे जो हो, जैसे भी मरा हो वह, मगर था रामलखन, हरामी एक ही मरद! चारों तरफ ऐसी धाक कि क्या मजाल कि दरोगा जी भी उसका कुछ बिगाड़ लेते। वह तो कहिये कि मरजेन्सी (इमरजेन्सी) क्या लगी देश में कि उसकी सारी धाक एक ही ठाँए में फुस्स होकर रह गयी.........
जब गाँव में रहा करती थी रैना, गुंडा—मवाली, दादा—बौस, पुलिस दरोगा वगैरह का कुछ होश थोड़े ही था रैना को। और अगर उसके बाबूजी पंडित रामदयाल पुरोहित का स्वर्गवास न हो गया होता, तो आज भी वह यह सब कुछ थोड़े ही समझ पाती ? उनके जीवित रहते वह तो सिर्फ यही समझती थी कि वह उस पंडीजी की बेटी है, जो घर—घर पूजा कराते हैं और इलाके के बड़े—बड़े लोग जिनके पैरों पर माथा टेकते हैं। हालांकि कभी—कभी वह यह सोचने पर मजबूर हो जाती कि जब उसके बाबू जी की इतनी इज्जत—मान थी इलाके में, तो भी उसके घर में दरिद्रा काहे ढुकी रहती है — न ठीक से खाना, न पहनना! दान में जो दाल चावल, नमक, आटा, आलू मिल गया, वही खाना और दान की ही घोती साड़ी पहनना। हाँ, कभी होली—दशहरे पर बाबूजी के हाथ पर पैसा रहा, तो सलवार—फराक सिलवा दिये, नहीं तो वही दान वाली धोती साड़ी.......
खैर, तो घर—परिवार और आस—पड़ोस की सखी—सहेली के अलावे कुछ का होश नहीं था उसे। यहाँ तक कि इस बात का भी नहीं कि सोलह की उम्र पार कर सत्रहवें में प्रवेश कर गयी है वह। कि उम्र के लिहाज से देह काठी भी कुछ अधिक ही गदरा गयी है। और सबसे बड़ी बात कि उसके जोड़ की सुन्दर लड़की तो पूरे इलाके में दिया लेकर खोजने से भी नहीं मिलने वाली। ऐसे में बिना लगाम की घोड़ी की तरह जो वह इधर—उधर छिछिआती—बौआती फिरती है, सो अब उसे ऐसा नहीं करना चाहिए। कम से कम इतना तो समझना ही चाहिए कि जब भी वह घर से निकलती है, मुहल्ले भर के सारे छोकरे उसको देखकर पगला काहे जाते हैं............
पर इस सबसे भला रैना को क्या लेना—देना था? जिसको जो करने में खुशी बुझाता था, करता था।......... लेकिन उस मुँहझौंसा घनश्यम्मा का क्या करती वह, जो हर हमेशा उसके पीछे ही पड़ा रहता था। जैसे हरामी को इसके अलावा कोई काम ही न हो। रैना घर से पूरब दिशा में निकलती, तो वह भी उसके पीछे—पीछे पूरब, और पश्चिम, तो वह भी उधर ही। अब उससे मुँह भी तो नहीं लगा सकती थी वह। हरामी था भी तो मुहल्ले भर का ‘लम्मरी' छँटा हुआ। कभी किसी से भिड़कर मार—पीट कर लिया, तो कभी चोरी झपटी के फेर में जेल भी हो आया। अब ऐसे लंगा आदमी से भला कोई काहे मुँह लगाता। सो, रैना ने भी सोच लिया था कि पड़ा रहता है पीछे तो पड़ा रहे, वह अपनी राह और रैना अपनी राह।
पर एक रोज दुपहरिया में रैना चांपाकल पर पानी भर रही थी। लू बरसाता भरी जेठ का महीना था। आस—पास एक कुत्ता—कौआ नहीं। तभी पता नहीं किधर से निकलकर धनश्यम्मा आ गया वहाँ और खड़ा होकर एक टक निहारने लगा उसको। थोड़ी देर तक तो कल चलाती हुई नजरअंदाज करती रही वह उसको, मगर जब नहीं रहा गया, तो पूछ ही बैठी, ”तेरे को कोई और काम नहीं कि हर घड़ी मेरे पीछे—पीछे ही डोलता रहता है?‘‘
दाँत निपुर गये थे धनश्यम्मा के, बोला था ‘‘ले, काम काहे नहीं है? पर तू कुछ करने दे तभी तो।‘‘
‘‘काहे, हम काहे नहीं करने देंगे? हम तो ताकबो नहीं करते हैं तुमरी तरफ! बलिक तू ही दिन—भर बौआता रहता है हमरे पीछे!‘‘ फिर भर चुके घड़े को उठाकर अपनी कमर पर टिकाते हुए बोली थी, ‘‘अच्छा हट रास्ते से, घर जाने दे।‘‘
लेकिन सामने से हटने की बजाय और भी अड़ता हुआ बोला था वह, ”अरे चली जाना, पर जो कहने आये हैं, सो तो सुन ले कम से कम।‘‘
‘‘अच्छा कह, पर जल्दी! देखता नहीं, केतना भारी घड़ा उठाये हैं?‘‘
‘‘ देख रैना, तू भी बाभन, हम भी बाभन! .............तेरी मइया तो मानेगी नहीं, इसी खातिर तेरे से पूछ रहे हैं। बोल, बिआह करेगी हमसे?‘‘
‘‘क्या ? बिआह ? सो भी तेरे संग ? इसके बदले जान नहीं हत लेंगे हम अपनी?“
इतना सुनना था कि एकबारगी चेहरे पर हिंसक भाव उभर आया था धनश्यम्मा के। फिर तो सीधे उसकी कलाई पकड़कर एक झटके से उसे सामने की बाँसबाड़ी की ओर खींचते हुए बोला था वह, ”तो तू ऐसे नहीं मानेगी। चल अभी बताते हैं............‘‘झटका खाकर घड़ा तो रैना की कमर से छूटकर चकनाचूर हो ही गया था, मगर पता नहीं रैना में कहाँ से इतनी हिम्मत आ गयी थी कि पलक झपकने के साथ ही धनश्यम्मा की कलाई में पूरी ताकत से दाँत हला दिया था उसने।
‘‘अरे बाप रे!‘‘ धनश्यम्मा के मुँह से एक जोरों की चीख, इसके साथ ही हाथ की पकड़ ढीली क्या पड़ी रैना की कलाई पर, भागी थी वह हाथ छुड़ाकर अपने घर की ओर। भागते हुए पीछे से धनश्यम्मा की फुंकारती आवाज भी सुनायी पड़ी थी उसे, ”ठीक है.......... स्साली आज तो बच गयी, मगर देखते हैं, कल कौन बाप बचाता है तुमको। कल ऐन इसी टैम तुमको घर से न उठा लिये तो हम भी एक बाप के बेटा नहीं..........
उसकी धमकी ने होश तो जरूर उड़ा दिये थे रैना के, पर पैर बेतहाशा भागते ही गये थे। फिर तो घर में प्रवेश करने के साथ ही दरवाजा कस कर बंद कर लिया था उसने अंदर से।
रैना के बाबूजी के मरने के बाद अब पुरोहितई का धंधा तो बंद ही हो गया था घर में, सो गुजारे के लिए उसकी माँ ने अपने दरवाजे पर ही एक छोटी—सी चाय—बिस्कुट की दुकान खोल ली थी। माँ बेटी का गुजारा उसी दुकान से जैसे—तैसे चल रहा था।
खैर, तो एक तो भीषण गर्मी, वह भी जेठ की दुपहरी — दुकान में ग्राहक के नाम पर एक कुत्त्ता कौआ नहीं! ग्राहक के इंतजार में बैठी पंखा झलती रैना की माँ अलसायी—सी ऊँघ—ऊँघ कर लुढ़कने सी लग जाती, मगर तुरंत खुद को संभाल आँखे फाड़ कर चारों ओर निहारने लगती कि शायद कोई ग्राहक आ खड़ा हुआ हो।
तभी बेटी को बदहवास सी भागती हुई घर में घुसकर अंदर से दरवाजा बंद करते देखी वह तो सारी ऊंध क्षणांश में ही हवा हो गयी उसकी। एक बारगी छलांग सी लगाती हुई दरवाजे पर पहुँच कर दरवाजा पीटती हुई बोली थी ‘‘ रैना.......रैना क्या हुआ रे? किवाड़ी काहे बंद कर ली? चल खोल किवाड़ी..............‘‘
दरवाजा खोलकर सीधे माँ के सीने से चिपट कर सिसक पड़ी थी रैना।
माँ के तो होश गुम। पूछी थी, ‘‘अरे क्या हुआ, कुछ बकेगी तब न! घबरा मत, बोल क्या बात है? चल आ बैठ खटिया पर, सलहन्ती (इतमीनान) से और बता कि बात क्या है?‘‘
रो—रो कर सारा हाल कह सुनायी थी रैना।
‘‘ ओ ऽ ऽ!‘‘ सिर्फ एक शब्द बोलकर उसकी माँ कुछ सोचती हुई गंभीर हो गयी थी। एक मन हुआ था उसका कि जाकर धनश्यम्मा के बाप को सारा किस्सा सुना दे। पर तुरंत खयाल आया था कि अपने बाप के कहे में थोड़े ही है घनश्यम्मा!
तो? तो क्या, थाना में शिकायतवाद लिखवा दे?............ न्न, इससे तो और जहर हो जायेगा छौरा!............. और छौरा तो छौरा, दरोगा—पुलिस भी तो मातवर (पैसेवालों) का ही होता है। घनश्यम्मा का बाप कोई छोटा लोग तो है नहीं। यह सच है कि उसका बेटा अपने बाप के कहे में नहीं है, पर है तो वह उसका बेटा ही न घर खानदान की इज्जत की खातिर पैसा पानी जैसा बहा देगा वह।
तब? तब क्या किया जाय?
तभी अचानक बिजली की काैंध की तरह रामलखन बौस का चेहरा उसकी आँखो के आगे तैर गया था। पूरे इलाके में रामलखन बौस की ऐसी धौंस थी कि बड़ा से बड़ा बदमाश भी उसके नाम से थरथर काँपता था। बच्चा—बच्चा रामलखन झा को रामलखन बौस के नाम से जानता था। मगर बौस वह जिसकी खातिर था, उसकी खातिर, रैना के बाबूजी को तो हमेशा पैर छूकर प्रणाम किया करता था वह। उसके घर के पुरोहित जो थे रैना के बाबूजी!
इसके साथ ही रैना से बोली थी वह, ‘‘तू किबाड़ बंद कर ले। हम अभी आते हैं।‘‘ बोलकर तेजी से घर से बाहर निकल गयी थी वह। रैना को इतना भी अवसर नहीं दिया था उसने कि वह पूछ सके कि उसे अकेली छोड़कर वह जा कहाँ रही है.........
रामलखन की याद जब भी आती है रैना को, सिर से पैर तक बुरी तरह सुलग उठती है वह — ”हुँः, बौस!“ ........ अरे अपनी इतनी ही बड़ी जिन्दगी में बड़का बड़का बौस सब को देख चुकी है वह।
मगर बाद में चाहे जैसा भी बन गया हो वह, पर उस रोज तो रैना रूपी द्रोपदी की लाज बचाने खातिर भगवान किसुन ही तो बनकर आया था वह। आकर पहले रैना के मुँह से घनश्यम्मा की लोफरई का पूरा किस्सा सुना था उसने, फिर एकबारगी दहाड़ उठा था, ‘‘हरामजादा बड़का भारी बौस हो गया है न! आने दो स्साले को, चीर के दू फाँक न कर दिये तो हमारा नाम भी ......।“ इतना बोलकर बाहर निकल गया था वह और जाकर बाहर वाली चाय दुकान पर जम कर बैठ गया था।
लेकिन जितनी देर तक वह रैना के मुँह से घनश्यम्मा वाले किस्से को सुनता रहा था, सुनता तो वह कम रहा था, ऊपर से नीचे तक सिर्फ निहारता ज्यादा रहा था रैना को — जैसे सुनने के बदले कह रहा हो, ”इसमें घनश्यम्मा का कसूर थोड़े है रैना! कसूर तो सरासर तेरा ही है। तू खूबसूरत ही इतनी है कि .........
वैसे हरामी रामलखन भी था तो एक ही मरद! उसको किस्सा सुनाते हुए जितनी बार भी रैना की आँखे उसकी आँखों में समायी थी, रैना भी बुरी तरह गड़बड़ा जाती रही थी। सीना तो ऐसे धौंकनी हो उठता उसका, मानो लोहार की धौंकनी हो उठा हो............
खैर, तो उस बखत से लेकर किरण डूबने तक वह पंडिताइन की चाय—दुकान पर ही बैठा रहा था, मगर क्या मजाल कि घनश्यम्मा की परछाई भी आस—पास कहीं नजर आयी हो उसको। शाम के धुधंलके के साथ ही उठकर खड़ा होते हुए रैना की माँ से बोला था वह, “चाची अब हम चलते हैं। लगता है, हरामजादे को मेरी भनक लग गयी है। अब वह नहीं आयेगा। वैसे हमारा आदमी दिन रात इधर चक्कर लगाता रहेगा। लेकिन आप इतना मान के चलिये कि अब वह रैना के तरफ ताकेगा भी नहीं। अच्छा तो प्रणाम! हम चलते हैं।‘‘
‘‘ऐंह, ऐसे कैसे चले जाइयेगा?‘‘ इसके साथ ही आवाज लगा उठी थी वह, रैनमा............. कुछ जलपान बना दो रामलखन बाबू की खातिर।‘‘
रैना भी कोेई घर के अंदर पड़ी थोड़े ही थी, वह तो खिड़की के पास खड़ी टकटकी साधे दुकान पर बैठे रामलखन को ही निहारती रही थी तब से। और ऐसा भी नहीं कि रामलखन ही खिड़की पर उसकी उपस्थिति से अनभिज्ञ था।
तभी पंडिताइन के आग्रह पर बोल पड़ा था वह, ”हाँ चाची, भूख तो लग रही है, पर रहने दीजिए, फिर कभी आयेंगे।‘‘
‘‘काहे? बगैर जलपान किये हम जाने देंगे, तब न! चलिए, घर में चलिए..............‘‘उसके साथ घर में आ गयी थी पंडिताइन। फिर बरामदे पर ही खटिया बिछाकर उसको बिठाने के बाद भागी थी वह रैना की तरफ कि उसको कहकर कुछ परौठा भुजिया बनवा देगी — घर में और तो कुछ होगा नहींं।
लेकिन जब चौका घर से छोलनी और कड़ाही की खटर पटर की आवाज सुनी वह, तो मन को चैन पड़ा कि जरूर रैना कुछ पका रही है। जाकर देखी तो चूड़ा भून रही थी वह।
थोड़ी ही देर में एक थाली मे भुना हुआ चूड़ा, प्याज और आचार के साथ परोस कर माँ—बेटी रामलखन के पास आ खड़ी हुई थीं।
छुई—मुई बनी रैना ने थाली बढ़ा दी थी रामलखन की ओर। रैना की शर्म से बोझल आँखें जमीन टटोलती हुर्इं।
तभी बाहर से किसी ग्राहक की आवाज आयी‘‘ चाची चाय मिलेगी कि जायें हम सब?‘‘
‘‘अभी आते हैं।‘‘ बोलकर रैना से बोली थी वह, “तू जलपान करा, हम जरा ग्राहक को देख के आते हैं। इसके साथ ही दरवाजे की ओर बढ़ गयी थी वह। मगर बाहर निकलते निकलते पुनः बोल पड़ी थी‘‘ जलपान कर लें रामलखन बाबू तो हाँक लगा देना, हम इनकी खातिर ‘पेशल' चाय बनाते हैं।
पंडिताइन बाहर निकल गयी थी और रैना हाथ की थाल रामलखन के आगे फैलाये बुत बनी खड़ी रही थी।
क्या पता वह हाड़—मांस की बनी रैना ही थी या किसी सुघड़ कलाकार के हाथों तराशी गयी संगमरमर की मूर्ति—समझ नही पा रहा था रामलखन बोला था, ”तभी तो!‘‘
‘‘ज..ज...जी!‘‘ पलकें उठी थीं रैना की और आँखे रामलखन के चेहरे पर स्थिर! जैसे आँखे अब निगलीं तब निगलीं रामलखन को — रामलखन को कुछ ऐसा ही महसूस हुआ था।
होठों पर कसकीली मुस्कान उभर आयी थी उसके, बोला था ‘‘एक बात कहें रैना........ वह तो घनश्यम्मा ही था, यदि साक्षात् भगवान भी देख लेते तुमको तो वे भी पगला जाते तुमको देख। स्साली चीज ही ऐसी है तू....................‘‘
‘‘धत्त!‘‘ अब तो पूरी तरह स्पर्शित लजौनी का पौधा बन गयी थी वह। हाथ की थाल वहीं खटिया पर रखकर भागी थी वह कमरे में।
लेकिन अब रामलखन को भी होश कहाँ। रैना के नयनवाण से बिंधकर उसका बौसपना तो पता नहीं कहाँ बिला गया था और वह भी भागा था रैना के पीछे—पीछे कमरे में। घुसने के साथ ही दरवाजा बंद करना नहीं भूला था वह।
थोड़ी ही देर बाद ग्राहकों को निपटाकर जब रैना की माँ हाथ में गरम—गरम पेशल—चाय लिये अंदर आयी तो खटिया के पास न रैना थी, न रामलखन। चूड़ा की थाल खटिया पर ज्यों की त्यों पड़ी थी।
अभी पंडिताइन कुछ समझ पाती कि तभी, एक झटके से बंद कमरे का दरवाजा खुला था और अर्राता—सा रामलखन कमरे से निकलकर बोला था, ‘‘अच्छा तो प्रणाम चाची, हम चलते हैं। अब कोई माई का लाल रैना की तरफ आँख उठा कर नहीं देखेगा। हम आते—जाते रहेंगे।‘‘ बोलकर वह बाहर निकल गया था।
रैना की माँ तो किंकर्तव्यविमूढ़ सी कभी कमरे के दरवाजे को, तो कभी उस दरवाजे को जिघर से रामलखन अभी—अभी निकला था, निहारती ही रह गयी थी। अचानक जैसे तन्द्रा टूटी हो उसकी, हाथ के चाय वाले गिलास को वहीं पटक कर भागी थी वह कमरे में। फिर तो कमरे में पहुँचकर उसे ऐसा लगा था, मानो रामलखन ने किसी तेज छूरे का पूरा का पूरा फाल ही उतार दिया हो उसके सीने में—रैना अस्त—व्यस्त हालत में चौकी से उतरकर अपनी साड़ी ठीक कर रही थी। माँ पर नजर पड़ी, तो भागकर उसके सीने से लगकर सिसक पड़ी।
‘‘हट्ट हरमजादी!‘‘ फुंकार उठी उसकी माँ, जैसे किसी जहरीले बिच्छू ने डंक चुभो दिये हों उसके सीने में। रैना को एक ओर को झटकती हुई बोली थी, ‘‘खबरदार जो हमरी देह से सटी.............‘‘
लेकिन ठहरी तो रैना भी लड़की ही न! वह भी अभी—अभी किसी बलिष्ट और दबंग बाँहों के प्रेमपाश के सुख से मुक्त होकर औरत बन चुकी लड़की! और जब समर्पण की हद तक किसी पुरुष से प्रेम कर ही बैठी थी वह, तो ऐसे में तिरिया—चरित्तर का थोड़ा बहुत गुर तो दिखलाना ही था उसको। सो, वैसे ही सुबकती हुई बोली थी, ”तो हम क्या करते माय? वह चकइठ पहलवान और हम.............‘‘ सिसकन फफक में बदल गयी थी उसकी।
‘‘चुप्प....चुप्प, न तो जबान खींच लेंगे हल्लक से। हुँः, अपने मन से उढ़र गये (किसी लड़के के साथ भागना) तो गाँव के लोग को दोष दिये कि वही सब उढ़रवा दिया। अरे बेसवा, अभी भी किसी गत्तर में लाज—शरम है तो जा, जाके डूब मर किसी कुइयाँ—उइयाँ में। ऐंह, ऐसे ही पटक दिया बिछौना पर। अरे, जब वह हाथ पकड़ा तो शोर नहीं मचा सकती थी?।
अबकी आँखें थोड़ी तन गयी थीं रैना की, बोली थी, ”हाँ—हाँ, काहे नहीं? शोर मचा के पूरे महल्ले को जुटा लेते दरबज्जा पर। तब खूब नाक रह जाती न खानदान की। हम तो बदलाम होते ही, बाप पितर के मुँह पर भी करिखा पोत देते, यही न!... और तू? तू भी तो हमको उसके आगे अकेले छोड़के चली गयी ग्राहक देखने। तुमको ग्राहक ही प्यारा था न। तुम उधर गयी और ऊ.....‘‘
फिर से सुबक पड़ी वह।
‘‘अरे तो हमको क्या पता था कि वह...........। हम तो उसको इज्जत बचाने खातिर बोलाये थे, और वह........। न, छुरी से बचाने खातिर हम तुमको बन्दूक के हवाले कर दिये।‘‘ इस बार खुद से रैना को अपनी बाँहों में भर लिया था उसने और बेटी के साथ मिलकर रोने लग गयी थी।
थोड़ी देर तक दोनों माँ—बेटी आंसू बहाती एक दूसरे का दर्द बाँटती रही थी। फिर खुद को माँ की बाँहों से अलग करती बोली थी रैना, ”माय!‘‘
अपनी भींगी आँखों से रैना की ओर देखी थी पंडिताइन!
‘‘माय, बरबाद तो वह हमको कर ही दिया...... पर..... पर कहा है कि वह हमसे परेम करता है......... और बिआह भी करेगा........
झनाक ! .......... जैसे एक झन्नाटेदार तमाचा जड़ दिया हो किसी ने उसके गाल पर — सिर बुरी तरह झनझना उठा था पंडिताइन का ‘‘क्या ? बिआह? वह दूसरा बिआह करेगा?‘‘
‘‘दूसरा बिआह ? क्या मतलब?‘‘ तिलमिला सी उठी थी रैना।
‘‘अरे उसका बिआह तो पहले ही हो चुका है। एक बच्चा का बाप भी है वह।‘‘
‘‘यह कैसे हो सकता है माय ?‘‘ एकदम से विश्वास नहीं कर पायी थी वह माँ पर, बोली थी, ”जदी यह बात होती, तो वह काहे कहता कि हमसे बिआह करेगा। बलिक वह तो यहाँ तक कह गया है कि हमारा बिआह जदी होगा तो उसी के संग, न तो किसी से नहीं होने देगा......‘‘
‘‘अरे यह मरद जात होता ही धोखेबाज है। यह बात तो पूरा गाँव जानता है कि उसका बिआह हो चुका है और एक बच्चा का बाप भी है वह। हम तुमसे झूठ काहे कहेंगे बेटी?”
उस एक सच्चाई ने क्षणांश में ही रैना को पत्थर की बुत में परिणत करके रख दिया था — सीधे सिर थामकर बैठ गयी थी वह चौकी पर। फिर तो न हिलना, न डुलना, न आँखों में आंसू न होठों पर एक शब्द — जैसे सचमुच की एक बुत। माँ ने देह पकड़ कर हिलाया डुलाया, कुछ समझाने की कोशिश की, मगर सब बेकार। जैसे प्राण ही शेष न हो उसके जिस्म में।
उस समय से लेकर पूरा दिन और सारी रात वह गुमसुम ही बनी रही। न कुछ खाना, न पीना, माँ ने कुछ टोका तो हाँ—हूँ में जबाब, फिर वही चुप्पी।
मगर वाह रे मरद जात! किसी को फुसलाना तो कोई रामलखन से सीखे....... दूसरे दिन सुबह—सुबह ही पहुँच गया वह रैना के यहाँ। आकर सीधे घर में ही घुस गया, फिर रैना के कमरे मेें।
पंडिताइन भी दुकान छोड़कर घर में आ गयी। मगर यह सोचकर कि अब जो भी फैसला फरिऔना करना है, रैना खुद ही करे, रैना के कमरे के बाहर खड़ी होकर उन दोनों की बात सुनने लगी थी —
पहले तो रैना की फुंकार, फिर रामलखन के द्वारा मान मनौअल, और फिर चुटकियों में ही समस्या का समाधान—आखिर इस तर्क पर रैना को फुसला ही लिया था उसने कि राजा दशरथ भी तो तीन—तीन पत्नियों के पति थे...... कि वह रैना को कभी कोई दुख नहीं देगा........... कि अपनी पहली घरवाली से बढ़कर मानेगा वह उसे कि .............
हालांकि फुसला वह रैना को ही सकता था, पंडिताइन को थोडे ही। सो रामलखन के जाने के बाद रैना को खूब समझायी थी वह कि उसके फुसलौअल में न आये वह। कि मरद जात लम्मरी मक्कार होता है, वगैरह—वगैरह।
पर रैना पर तो रामलखन का वह नशा सवार था कि माँ को ही दुत्कार दिया था उसने, “हम सब बूझते है माय, पर वह ऐसा नहीं है। तू क्या चाहती है कि हम उसके संग बैर मोल ले के जिनगी भर कुंमारे बैठे रहें? जब वह कहा है कि किसी दूसरे से वह हमरा बिआह नहीं होने देगा, तो तुमही कहो, होने देगा वह?
आखिर पंडिताइन को भी रैना का कहा मानना ही पड़ा था। वैसे मानना क्या पड़ा था। मानना तो था ही उसे। नहीं मानती तो जाती भी कहाँ? पानी में रहकर मगर से बैर भी तो नहीं ंकर सकती थी।
फिर तो उस रोज के बाद से पंडिताइन का घर एक तरह से रामलखन का अड्डा ही हो गया था। अर्राते सांढ़ की तरह जहाँ जी में आता, जाकर चर आता, फिर रैना के खूंटे से आकर बंध जाता। अब तो उसके गुंडे मवाली साथियों का भी उसके घर दिन—रात आना जाना शुरू हो गया था। गाँव भर में पंडिताइन का घर दहशत का पर्याय बन गया था। चाय की दुकान के ग्राहक धीरे—धीरेे टूटने लग गये थे। और कुछ ही दिनों में पंडिताइन दिन भर दुकान पर बैठी—बैठी मक्खियाँ मारने लगी थी।
लेकिन रैना को इस सब की कोई परवाह नहीं। उसे तो इसी बात का संतोष था कि उसने एक ऐसे मरद का हाथ थामा है, जिसके डर से पूरा इलाका थर—थर काँपता है। अब था पूरे इलाके में कोई माई का लाल जो उसकी या उसकी माँ की तरफ भर आँख ताकने का भी साहस कर सके? तभी तो उस रोज जब वह बनिया के यहाँ से सौदा—सुलुक लेकर लौट रही थी, और रास्ते में एकांत देखकर पता नहीं कहाँ से निकलकर सामने घनश्यम्मा आ खड़ा हुआ था, उसने उसकी थोड़ी भी परवाह नहीं की थी।
हालांकि ऐसा नहीं कि भीतर से वह एकदम नहीं काँपी थी — मन में झुरझुरी तो जरूर समायी थी और यह भी मन में आया था उसके कि अकेले देखकर पता नहीं क्या बदला निकाले वह। लेकिन तब घनश्यम्मा ने ही गिड़गिड़ाकर उसका मन बढ़ा दिया था, ”तेरे को कब से ढूंढ रहे थे हम। आज मिली है जाके।‘‘
सीना धड़क उठा उसका, मगर चेहरे का भाव सामान्य, ”काहे?‘‘
‘‘तेरे से मांफी मांगने खातिर। देख, माफ कर दे। हमसे भारी गलती हो गयी रे। रामलखन बौस हमको ढूँढता फिर रहा है। तू कह दे उनको कि तू हमको माफ कर दी है। कह तो तेरे पैर भी पड़ लें।‘‘
हिम्मत आसमान छूने लगी रैना की, बोली, ‘‘क्या रे बड़का मरद बनता फिरता था न कि हमको घर से उठा लेगा। कहा था, नहीं उठाया तो एक बाप का बेटा नहीं। अब बता कि कित्ते बाप का बेटा है रे तू ?“
हकला उठा था वह, “तू जित्ते बाप का बेटा कह ले, पर रामलखन बौस से.............
फिर वही रामलखन!.... पता नही क्यों, जब भी वह एकान्त में होती है, रामलखन घुर—फिर कर उसके सिर पर सवार हो ही जाता है। और हो भी काहे नहीं, रामलखन ही तो वह पहला मरद था, जो पहले—पहल उसके मन से होता हुआ देह के रोयाँ—रोयाँ में समा गया था। जब वह उसके पास होता, तब तो होता ही, और जब नहीं होता, तब भी उससे दूर कहाँ होता— साँस लेती, तब रामलखन, आँख बंद करती तब रामलखन, आईना देखती तब रामलखन ही नजर आता, यहाँ तक कि अब माँ के पैरों की धम्मक में भी उसे रामलखन के ही पैरों की धम्मक सुनायी देती थी........
उस रामलखन का ही तो जोर था कि पूरे गाँव में कोई चौह नहीं अलगा सकता था रैना या उसकी माँ के विरूद्ध।
लेकिन रैना को भला क्या पता था कि डर और सम्मान में क्या अंतर होता है। वह तो इसी में खुश थी कि पूरे इलाके में उसकी भी धाक रामलखन जैसी ही जम गयी थी। तभी तो वह चांपाकल पर पानी भरने जाय, चाहे राशन की दुकान पर, राशन वाला बगैर कार्ड देखे चीनी, गेहूँ दे देता और चांपाकल पर खड़े औरत मर्द उसकी खातिर कल खाली कर देते।
पर पंडिताइन इस धाक को भलीभांति समझती थी। समझती थी उस धाक को, जिसने उसकी दुकानदारी चौपट करके रख दी और उस सम्मान को भी, जो कल तक उसके स्वर्गीय पति के बल पर सुरक्षित थी, मगर आज एक गुंडा मवाली के कारण मिल रहा है। बल्कि यों कहें कि बेटी के कारण। खैर, सम्मान जैसे भी मिल रहा था, मगर इस सम्मान ने धंधा तो चौपट करके रख ही दिया था। अब तो जो पूंजी पघार बची थी उसके पास, वह भी खत्म हो गयी थी और रामलखन के आसरे ही घर खर्ची चलने लगी थी।
लेकिन कब तक? कल को रामलखन जब बेटी को विदा करा के ले जायेगा तब?.......... खैर तब की तब देखी जायेगी, पहले बिआह तो करे वह रैना से। अकेली जान तो दू घर में चौका बरतन करके, चाहे भीख—भूख मांग के भी कट ही जायेगी। मगर बेचारी रैना का क्या होगा? अब तो दू महीना से ऊपर हो रहा था रामलखन को घर में घुसे, पर बिआह—उआह का तो नाम भी नहीं लेता वह। तभी एक रोज रैना ने माँ को बताया था, ‘‘माय इधर दू—चार रोज से मन हर—हमेशा ओकियाता रहता है। मिजाज सुस्त—सुस्त रहता है। मन करता है, सिरफ सोये रहे........‘‘
सुनकर सनाका मार गया था उसकी माँ को। तुरंत—फुरंत बेटी को लेकर भागी थी वह खैराती अस्पताल की तरफ। फिर तो वहाँ डागडरनी ने जो बताया, वह सुनकर प्राण हलक में आ गये थे दोनों माँ—बेटी के — बाप रे, ई तो सरासर मुँह में करिखा लगने वाली बात हो गयी।
रैना सुनी तो उसकी भी हालत, बेहाल! उस रात रो—गाकर सारा हाल कह सुनायी थी वह रामलखन से। यह भी कि अब तो पूरे खानदान की इज्जत पर बन आयी है।
लेकिन रामलखन ने इसको हल्के तौर पर ही लिया था। सुनकर ठहाका लगाते हुए बोला था‘‘ घत्तेरे की। तो तू इत्ता घबरा काहे रही है? बस बिआह ही करना है न! तो जब कह। अरे जोरू तो मान ही लिये हैं हम तुमको। ऐसा है कि इधर एक हफ्ता तक हम बिजी हैं। उसके बाद तुम जब कहो। वैसे पूरा समाज जानता नहीं है कि बच्चा किसका है, तेरे पेट में ?
‘‘हाँ जानता तो है, पर घरवाली थोड़े न मानता है हमको आपकी? रखनी (रखैल) ही तो बूझता है सब।‘‘
‘‘अरे जो बूझना है, बूझने दे। कल जब तेरी मांग में चमचम सेन्दूर चमकने लगेगा न तब सब खुद समझ जायेगा कि तू क्या लगती है हमरी।‘‘
उसके इस उत्तर ने सिर से पैर तक निहाल करके रख दिया था रैना को। फिर तो उस रात ऐसी प्यार की गंगा बहायी थी रैना ने कि सारी रात उस गंगा में डुबकी ही लगाता रह गया था रामलखन!
मगर वाह रे मरद जात। उस रात के बाद से तो कहाँ गया रामलखन और कहाँ गयी उसकी जोरू रैना! रोेज सुबह से रात और रात से सुबह, उसकी राह देखते ही गुजर जाती माँ—बेटी की, मगर वह तो जैसे रैना के दरवाजे का रास्ता ही भूल गया हो। एक दिन, दो दिन, एक सप्ताह, एक महीना, दिन दर दिन गुजरते चले गये, पर रामलखन की परछार्इं भी कहीं दिखायी नहीं दी। हारकर पता लगाने एक रोज पंडिताइन पहुँची रामलखन के घर। मगर बाहर से ही उसे यह कहकर टरका दिया गया कि वह बाहर गया हुआ है।
संतोष हुआ था माँ—बेटी को कि चूंकि वह बाहर गया हुआ है, इसीलिए नहीं आ रहा।
लेकिन यह बहाना लगातार चलने लगा था। जब भी रैना की माँ उसको खोजने उसके घर जाती, बस रटा रटाया एक जुमला सुनने को मिलता उसे कि वह तो बाहर गया है। कब लौटेगा किसी को पता नहीं।
चढ़ते—चढ़ते पूरे पाँच महीना चढ़ गया था रैना का। पेट भी कुछ—कुछ दिखने लगा था। समाज में मुँह दिखाना मुहाल। फिर पंडिताइन की चाय—दुकान भी बंद ही हो गयी थी। धीरे—धीरे घर में जो एकाध जेबर बगैरह थे, बिकते गये थे। रामलखन आता—जाता था, तो घर—खर्ची के लिए थोड़ा बहुत देता ही रहता था, पर अब तो वह भी नदारद! मतलब घर की हालत बद से बदतर होती गयी थी। अब तो पंडिताइन के पास न पूंजी थी, न दुकान खोलने का हौसला! समाज में इतनी बदनामी हो चुकी थी कि दुकान से टूटे हुए ग्राहक फिर लौट कर आयेंगे, इसका बिल्कुल भी भरोसा नहीं! हारकर दूसरे गाँव के एक महतो के घर में चौका—बरतन का काम पकड़ लिया था पंडिताइन ने। अपने गाँव के ब्राह्मणों और कायस्थों ने तो सहारा नहीं दिया था उसे और अन्य जो पिछड़ी जाति के लोग थे, उनमें सामर्थ्य ही नहीं थी सहारा देने की। महतो जी, थे तो पासी जाति के, मगर जितने संस्कारी, उतने ही सहृदय भी। खुद रेलवे में काम करते थे और उनके दो बेटे भी कहीं अच्छी जगह नौकरी में थे। पंडिताइन ने सारा हाल कह सुनाया था महतोआइन, यानी महतो जी की पत्नी से — धनश्यम्मा से लेकर रामलखन तक का सारा किस्सा!
इसपर बोली थी महतोआइन, “तो इसमें आपका, चाहे रैना का क्या दोष! सब भाग का खेला है पंडिताइन जी! पंडीजी थे तो कितना सम्मान था आपके परिवार का। जब तक जिन्दा थे, हमरे घर में पूजा पाठ कराते थे। उनका ही तो परताप है कि हमरा परिवार फल—फूल रहा है। कोई बात नहीं पंडिताइन, आप पड़े रहिये यहाँ। आप बाभन देओता हैं। मन आये तो घर का कुछ काम कर दीजिए, न तो कोई बात नहीं। आप यहीं खा लीजिएगा और बेटी की खातिर ले जाइयेगा रोज। बच्चा हो जाय तो रैनमों को ले आते रहियेगा......‘‘
“अरे क्या बच्चा महतोआइन, हम तो केतना बार कहे कि बच्चा गिरवा ले, पर क्या पता काहे उसको अभी भी भरोसा है कि रामलखन उसको धोखा नहीं देगा। कहती है, सच्चे किसी काम में पड़ गये होंगे, इसी से खोज—खबर नहीं ले रहे हैं।‘‘
रैना सुनी कि उसकी माँ महतो जी के यहाँ काम पकड़ ली है, तो फकक पड़ी माँ के सीने से लगकर, बोली, ”माय, हमरे खातिर ही न यह दिन देखना पड़ रहा है तुमको। पर माय देखना, ऊ आ जाते हैं तो सब दुख—दलिदरा मिनट भर में बिला जायेगा। सिरफ ऊ आ जायं एक बार!
मगर वाह रे रैना का भरोसा और रामलखन का प्रेम — अभी महतो जी के यहाँ काम पकड़े पंडिताइन को तीन चार रोज ही हुआ था कि एक रात ताड़ी—दारू पीकर रालमखन घर में ढुक आया। गुस्से से उसकी लाल—भभूका आँखें बाहर को निकलती हुर्इं। आते ही पंडिताइन पर दहाड़ उठा था वह, “हरामजादी, हम मर गये थे क्या कि तू पासी—तासी के घर में काम करने गयी........‘‘
अभी पंडिताइन कुछ बोलती ही कि आवाज सुनकर रैना कमरे से बाहर निकलकर बोल पड़ी‘‘ दइया आप ? माय को गरिया काहे रहे हैं? अच्छा चलिये बैठिये, जो कहना है शांति से कहिये।‘‘
अबकी रैना पर भी दहाड़ उठा था वह, ‘‘शांति........शांति से रहने देगी यह बुढ़िया तब न! जीना हराम करके रख दी है यह। रोज खोज—खबर लेने घर पर पहुँच जायेगी। इसके बाप की टीकी (चुंदी) गड़ी है न हमरी डीह पर। और नहीं तो पासी—तासी के यहाँ चौका बरतन करने लगी।‘‘
इस बार रैना से भी नहीं रहा गया था। रामलखन जैसे ही तेवर में बोल पड़ी थी, “तो क्या करते हम दोनों गला में फँसरी लगा के जान दे देते? कहके गये थे कि हफ्ता भर में आके बिआह कर लेंगे हमसे, क्या हुआ आपके वचन का? हमको बरबाद करके रख दिये और .........‘‘
“कुछ नहीं! कान खोलके सुन लो — तुम दोनों! कल से बुढ़िया उस पसीबा के यहाँ नहीं जायेगी। और हम जैसे रखेंगे तुम दोनों को, वैसे ही रहना पड़ेगा।‘‘
‘‘ओ ऽ ऽ! माने रखनी बना के!...... तो आप भी सुन लीजिए कान खोलके, आइंदा हमरी देह को हाथ लगा के देख लीजिएगा! जो न सो करके रख देंगे हम भी!‘‘
‘‘क्या? तुमरी यह मजाल? ले, कर जो करना हो!‘‘ बोलकर धसीटते हुए ले गया था वह रैना को कमरे में और दरवाजा अंदर से बंद कर लिया था।
बेचारी पंडिताइन! अपने बेवस हाथों से दरवाजा पीटती ही रह गयी थी। उस दिन के बाद से तो पूरी तरह ढीठ सांढ़ बन गया था रामलखन! जब जी में आता, घर में घुसकर रैना के संग जोर—जबरदस्ती कर लेता और विजयी शेर की तरह बाहर निकल जाता। और जिस रोज भी वह ऐसा करता, रैना का अंतस फुंकारती नागन तो जरूर बन जाता, मगर काश उसके पास नागन जितना जहर और विषदंत भी होते! अब तो हर क्षण उसके मन में एक ही बात रहती कि काश कोई ऐसा शिकारी मिल जाता उसे, जो रामलखन जैसे शेर का शिकार कर पाता।
धीरे—धीरे समय बीतता गया था। रामलखन के आतंक के साये में ही रैना ने सूरजी को जन्म भी दिया था और अपना ऑपरेशन भी करवा लिया था।
बाप रे, सूरजी जब जन्म ली थी, कैसा तो सूरज की तरह दपदपाता हुआ उसका मुँह था। गोरी इतनी कि जो भी देख ले उसको, आँख चुंधिया जाय उसकी। बेटी को देखकर सोची थी रैना कि चाहे कितना बड़का कसाई हो इसका बाप, मगर ऐसी चमचमाती बेटी को देखकर तो जरूर उसका मन पसीजेगा। पर कसाई तो ठहरा कसाई ही न! उसको भला इससे क्या लेना—देना कि मुर्गी खूबसूरत है, कि मुर्गी का बच्चा! उसको तो सिर्फ मुर्गी के गोश्त से मतलब होता है। मन हुआ, मुर्गी को हलाल कर दिया, मन हुआ मुर्गी के बच्चा को।
पहले तो बच्चा होने के टैम से ही ऐसा गायब हुआ वह कि अनदिना (बेमोसम) का बादल बरसा और आसमान साफ! फिर पता नहीं कब दिखाई दे वह! रैना को बच्चा भी हो गया, ऑपरेशन भी करवा लिया उसने, मगर एक महीना, दो महीना, तीन महीना, रैना राह ही देखती रही उसकी कि वह आ जाय और सूरजी को उसकी गोदी में रखकर कहे वह ”लीजिए, अब सम्हारिये अपनी बेटी को, आपकी सम्पत है, आपके हवाले।“ मगर क्या मजाल कि क्षण—भर की खातिर भी रैना के सपने तक में आया हो वह।
फिर भी उस जैसे ढीठ मरद के न आने का तो सवाल ही नहीं उठता था। एक रात फिर से भूंकप की तरह दारू पीकर धमक पड़ा घर में।
अभी सूरजी को उसकी गोद में डालने का मन ही बना रही थी रैना कि उसे बाँहो में दबोचकर बिछावन पर पटक दिया था उसने। फिर उसकी देह को कीमा बनाते हुए सोंसियाती आवाज में बोला था वह ‘‘बाप रे, बच्चा जनने के बाद तो तू और भी सुथ्थर हो गयी है रे रैना.........‘‘
और क्या—क्या बकता रहा था वह, इससे बेखबर रैना का ध्यान तो बगल में पड़ी गला फाड़ कर रो रही अपनी बच्ची की ओर चला गया था, जिसकी नींद बिस्तर पर आये भूचाल से उचट गयी थी। उस रात तो शैतान कुछ इस तरह सवार था रामलखन के माथा पर कि कमरे का दरवाजा तक बंद करना भूल गया था वह।
बच्चे के रोने की आवाज सुनकर अपने कमरे में लेटी पंडिताइन भी भागी थी रैना के कमरे की ओर, मगर अंदर का दृश्य देखकर दरवाजे पर से ही लौट आना पड़ा था उसे। चेहरा घिन से विकृत और होठों पर बुदबुदाहट, ”हे भगवान इससे अच्छा तो उठा लेते हमको इस धरती से।“
थोड़ी ही देर बाद रैना लाख गिड़गिडाती, उसके पैर पकड़ती रह गयी थी, मगर रामलखन नहीं तो नहीं ही रुका था। बल्कि रैना के यह कहने पर भी कि कम से कम अपनी बेटी का मुँह तो देखते जाइये, बोला था वह, ”ऐंह बेटी! ऐसी—ऐसी बेटी तो रामलखन केतना जनमा के छोड़ दिया है.......“ और धकियात हुए रैना को बिछावन पर गिरा कर बाहर निकल गया था वह।
फिर तो उस रोज के बाद से यह सब झंझट झमेला आये दिन का किस्सा होकर रह गया था रैना के घर के लिए। धीरे—धीरे रैना भी तनती गयी थी रामलखन के आगे। अब तो हाथा—पायी पर भी उतर आती वह। लेकिन कहाँ वह राक्षस और कहाँ रैना जैसी कमसिन बिलाई — बिल्ली चाहे कितना भी हाथ पैर मार ले, मगर कुत्ते के पंजों से खुद को थोड़े ही बचा सकती है ?
समय बीतता गया था। देखते ही देखते रैना की बेटी सूरजी पाँच बरस का लम्बा अंतराल फलांग गयी थी। लेकिन रामलखन की हरकतों में कोई बदलाव नहीं — न बेटी से कोई प्रेम और न ही रैना के प्रति कोई सम्मान भाव! बस रैना की देह धुनने से मतलब और सिर्फ अपनी फिरंटी! अब तो उसने यह तक पूछना बंद कर दिया था कि रैना, तेरी घर खर्ची कैसे चलती है रे.......
वह तो कहिये कि महतोआइन का घर पकड़ा गया था दोनों माँ—बेटी को कि जिन्दगी जैसे—तैसे कट रही थी तीनों की, नहीं तो यदि रामलखन के भरोसे रहती तो कब का राम—नाम सत हो गया होता पूरे परिवार का।....... सचमुच अगर वश में होता रैना के तो कब का अपने हाथ से उस कंस का संहार कर दी होती ......
समय बीतते देर थोड़े न लगती है। और समय के समुद्र में इंसान का पल क्षण कैसे डूबता चला जाता है, आदमी को कुछ पता ही नहीं चलता। हाँ यदा—कदा मन का पर्वत समय के समुद्र का मंथन करके, न चाहते हुए भी अतीत का बहुत कुछ बाहर निकाल लेने को विवश हो जाता है।
सच पूछे कोई रैना से तो अब तो सूरजी भी पन्द्रह—सोलह की हो गयी थी, मगर जिस रोज से दरोगा जी के संग वह इस शहर में आयी है, सपने में भी रामलखन की याद को अपने पास फटकने दी हो वह, उसे याद नहीं। वह तो कहिये कि महतोआइन का संवदिया बंशी अगर आज नहीं आया होता तो आज भी उस घिनौने और हाड़ कँपा देने वाले अतीत का भूत उसके मगज को आस्थिर नहीं करता। उसकी पुश्तैनी डीह (घर) को खरीदने की बात करने की खातिर भेजी थी महतोआइन बंशी को।
उस बंशी ने ही एक युग के बाद उसे अपने उस घर की याद दिला दी थी, जिसे रैना कब का भूल चुकी थी। बाल्कि वह तो खुद को भी अपनी उस पुश्तैनी डीह में दफना आयी थी, दरोगा जी के साथ घर छोड़ते बखत। और अब रैना अपनी इस जिन्दगी को नया जन्म मानने लगी थी।
बंशी से महतोआइन का हाल समाचार वगैरह पूछने के बाद बोली थी रैना, ”अच्छा आप खा—पी के आराम कीजिए! दरोगा जी आ जाते हैं तो पूछते हैं कि डीह बेचना है कि नहीं।‘‘
मन में एक ही बात रैना के — आखिर ठहरी तो वह पुश्तैनी डीह ही न! बाप—पुरखा की एकमात्र निशानी! अब उसे बेचे कि नहीं! ........ मगर खाक निशानी? अरे घर हो, चाहे औरत की साड़ी, जदी वह इज्जत न झाँप सके तो वह रहे, चाहे नहीं, क्या फरक पड़ता है? उस घर में तो जब तक रही रैना, अपने नाम को सार्थक करती काली अंधेरी रात ही तो बनी रही। साड़ी में भी चौबीसों घंटे उघाड़!........... उसके जीवन में उजियारा भरने की खातिर रामलखन भी आया तो श्मशान की जलती लुकाठी बनकर ही........
मगर वाह रे दरोगा जी! भगवान मरद बनायें इस जग में तो दरोगा जैसा ही! भले ही रखनी (रखैल) बना के रखा वह रैना को, मगर रखा पूरे मान—सम्मान के साथ। इतना सम्मान तो भला कोई अपनी घरवाली को भी क्या देगा। सूरजी को तो अपनी बेटी जैसा मानता है। इतना दुलार, इतना दुलार कि कभी—कभी तो रैना को लगता है कि कहीं उसकी बेटी के प्रति दरोगा की नीयत तो गड़बड़ा नहीं रही है............ कि जवान बेटी को कहीं कोई ऐसे चुम्मा—चाटी करता है? लेकिन तब तुरंत घिक्कार उठती वह खुद को — छीः, छीः, कितना मैला है हमरा मन भी! दरोगा जैसे देओता पर ऐसा अक्लंक ?— और सूरजी भी तो जब न तब जाकर उससे अंकिल अंकिल कहके लटपटा जाती है।........ इतना ही नहीं, जबसे रैना को अपने संग रखने लगा है वह, अपनी घरवाली को भी कभी लाया है वह अपने पास? कहता है, वह साथ रहेगी तो गाँव का खेत—पथार कौन देखेगा?..... सो, छठे—छमासे कभी वह आयी भी, तो दू—एक रोज रखने के बाद विदा कर देता है। पता नहीं दरोगा जी ने क्या पट्टी पढ़ा रखी है अपनी घरवाली को कि रैना, चाहे सूरजी के प्रति जरा भी मन फरक नहीं करती हैं वह। काम भले ही नौकरानी जैसा करवाती हैं, मगर व्यवहार बहिनपा (सहेली) जैसा ही रखती हैं। सूरजी का नाम भी इसकूल में वह खुद ही जाकर लिखवायी थीं। उनकी ही तो दी हुई विद्या है कि सूरजी आज मैटरिक में है।.......... बस एक ही खराबी है दरोगा जी में कि राम में मुरगी और दारू हल्लक से उतरी नहीं कि ...........
मगर चाहे जो हो, यही तो मरद है, जिसकी किरपा से उस नरक से जान छूटी रैना की —
कहावत है कि गड़ा हुआ काँटा जब निकलता है, तो दरद बहुत देता है। मगर उसके बाद आराम ही आराम.......... यही हुआ था रैना के साथ भी उस रोज — उसकी माँ मरी तो मरी, मगर कुछ दिनों की तकलीफ देकर जिन्दगी भर की खातिर रैना को आराम दे गयी —
उस रोज, अभी—अभी तो रैना आयी थी महतोआइन के घर से, दिन का काम निपटा कर। वैसे तो रोज अपनी माँ और पाँच वर्ष की बेटी के संग, जो वह भोर में निकलती थी काम पर, सो रात का काम खतम करके ही लौटती थी तीनों महतोआइन के घर से। मगर इधर कुछ रोज से रैना की माँ बीमार चल रही थी, सो अकेले ही जाना पड़ रहा था रैना को। बेटी को माँ की देख—भाल की खातिर छोड़कर निकलती, फिर दोपहर में आकर माँ और सूरजी को महतोआइन के यहाँ से लाया खाना खिलाकर, फिर से काम पर निकल जाती।
खैर तो अभी उन दोनों को खाना—ऊना खिलाकर काम पर लौटने को ही थी वह कि नशा में बौराया हुआ रामलखन घुस आया घर मेंं। फिर तो वह हड़कम्प घर में कि पूछिये मत।
मगर उस रोज रैना भी तन ही गयी थी अपनी औकात से बढ़कर, ”ऐंह, औडर तो ऐसे चला रहे हैं, जइसे जोरू बना के रखे हैं हमको। जाइये, जो मन करे, कर लीजिए, हमको काम पर जाना है। चलिए, हटिये रस्ता से।‘‘
‘‘तो तू नहीं चलेगी कमरा में?‘‘ नशे में सोंसियाती आवाज रामलखन की।
‘‘कह दिये, नहीं नहीं नहीं, चलिए हटिये अब।‘‘
‘‘अरे हटिये की ऐसी की तैसी! हरमजादी चलती है कि ........ ‘‘इसके साथ ही बालों से पकड़ कर कमरे की ओर घसीटने लगा था वह उसे।
तभी रैना भी दोनों हाथों में उसके बालों को भरकर लटक गयी थी एकदम से। दर्द से चीखते हुए रामलखन ने जमीन पर पटक दिया था उसे और लगा था बेतहाशा उसपर लात—घूसे बरसाने।
वह तो कहिये कि अगर खटिया से उठकर रैना की माँ रैना की देह पर लेट नहीं गयी होती, तो उस रोज निश्चित ही रैना का राम—नाम—सत्त करके छोड़ता वह।
मगर काल का निमंत्रण तो रैना की माँ की खातिर आया था, उस रोज। पंडिताइन को देखकर तो और भी भड़क उठा था रामलखन, ”हरमजादी...... बुढ़िया, साली पूरे फसाद की जड़ तू ही है। तू ही न ले गयी थी रैनमा को महतोवा के घर। ले, तू भी ले......‘‘
फिर तो रैना को छोड़कर अपना पूरा गुस्सा पंडिताइन पर ही उतारने लग गया था वह।
अब बुढ़िया तो ठहरी उमर से ही अशक्त, ऊपर से बीमार भी, सो दो चार घूंसे में ही टें बोल गयी थी वह।
रैना छाती पीट पीटकर रोती ही रह गयी थी कि कसइया रे कसइया....... जान ले लिया रे माय का। रे जेतना मारना है, हमको मार ले.... इस बुढ़िया को मार के क्या मिलेगा रे.... रे बाप रे बाप ...... अरे कोई तो बचाओ माय को इस कसाई से .........‘‘
वैसे तो हल्ला—गुल्ला सुनकर मुहल्ला के कई लोग जुट आये थे वहाँ, मगर किसकी मइया बाघ बिआनी, जो मुँह लगाने जाय रामलखन से। हाँ इतना जरूर कर दिया था किसी ने कि हाट के पास वाले एकमात्र टेलीफोन बूथ से थाना में फोन कर दिया था।
थाना पास ही था, सो रामलखन बुढ़िया का किस्सा खत्म करके वहाँ से निकले—निकले कि दारोगा जी हवलादार के साथ प्रकट हो गये थे वहाँ और पकड़ के ठूंस दिया था उन्होंने रामलखन को जेल में। जदी पहले वाला दरोगा रहता तो क्या पता रैना को ही फैसा—उँसा के रख देता। रैना जानती नहीं थी क्या कि पहले वाला दरोगा रामलखन का कितना बड़का भगत था। कितनी बार तो उससे मिलने खातिर उसके घर भी आया था। खूब हँस—हँस के बतिआता था उससे......... जैसे वह लफंगा और वह दरोगा दोनों भाई हाें सहोदर.........
अभी अतीत के घटाटोप में ही उलझी थी रैना कि अचानक स्कूल से लौटकर सूरजी ने चौंका दिया था उसे ‘‘ले तू इधर बैेठी है? चल जल्दी से कुछ खाने को दे। बड़ी भूख लगी है। और माँ, वहाँ बैठक में कौन लेटा है?
‘‘आँ, कौन वह ? ... तेरा मामा लगता है। कुछ काम से आये हैं यहाँ।‘‘
‘‘क्या? मामा ? तू तो कहती थी तेरा कोई भाई ही नहीं है। ‘‘
‘‘अरे टोले मुहल्ले का है। अच्छा जा, निकाल के खा ले। भात—दाल भी है और बिस्कुट— उस्कुट भी, जो मन करे, खा जाके।‘‘
सूरजी चली गयी थी। जाते हुए पीछे से उसको कुछ देर देखती ही रह गयी थी रैना—कोई कहेगा कि छोरी सिरफ पनरह—सोलह की है? बीस—एकइस से कम की तो नहीं ही लगती है।
तभी सीना बुरी तरह धड़क उठा था उसका — यही तो उमर थी उसकी भी कि पूरे मुहल्ले में हड़कम्प मच गया था। इस, उमर की ही तो देन है कि बाप रे, कितना बरस तक नरक भोगना पड़ा उसको। और नरक से निकली भी तो क्या बनके? दरोगा जी की रखनी ही न!
मगर नहीं, दरोगा जी ने तो तर दिया उसको। आज छुट्टा गाय जैसा घूमती—फिरती रहती है उसकी सूरजी, मगर है किसी की मजाल जो आँख उठा के देख भी ले उसकी तरफ! ..... न्न, दरोगा जी तो देओता है, देओता।
उस रोज रामलखन को पकड़ के ले जाते बखत बोले थे दरोगा जी रैना से, ”तू थाने पर आ जा। बयान लेना है तुमसे।‘‘
थाने पर गयी थी रैना। बयान में घनश्यम्मा वाला किस्सा से लेकर माँ की हत्या तक की एक—एक बात सिलसिलेवार ढंग से लिखवाने के बाद गिड़गिड़ा उठी थी वह, ”मगर हजूर, इस हतियारा को छोड़ियेगा मत सरकार! न तो जेहल से निकल के जिन्दा जला देगा यह हमको।‘‘ बोलते—बोलते रैना की आँखें दरोगा जी पर टिक गयी थीं, जो नख शिख उसे निहारते ही जा रहे थे।
रैना अब इतनी भी नसमझ तो नहीं ही रही थी कि पुरुषों की आँखों की भाषा न समझती हो। दरोगा के मन में क्या है, एक नजर में ही समझ गयी थी वह। मगर तत्काल तो वह सिर्फ इतना चाहती थी कि पिंजड़े में बंद बाघ आजाद न हो, बोली थी,‘‘ हुजूर आप नहीं जानते हैं इसको। जिन्दगी नरक बना के रख दिया हमरा। हमरी माया को भी खा गया हतियारा। जेहल से निकलेगा तो ..........‘‘ बोलते—बोलते फकक पड़ी थी वह।
‘‘अच्छा अब रोना बंद कर। तू यही चाहती है न कि रामलखन हमेशा के लिए तेरी जिन्दगी से दूर हो जाये........... तो सुन, कल वह जिन्दा नहीं बचेगा। उस पर और भी कई केस हैं। अब तक पैरवी पर बचा रहा, पर अब नहीं बचेगा। इमरजेन्सी लागू हो गयी है। मैं चाहूँ तो उसको एक ही गोली में ऊपर पहुँचा सकता हूँ..........‘‘
‘‘जी सरकार, मार दीजिए उसको। बलाय कटे सरकार! बाप रे, हमरी माय को भी मार दिया हतियारा...........‘‘
बीच में ही उसको टोककर बोले थे दारोगा जी, “वह तो ठीक है, चल समझ ले कि मैंने रामलखन को मार दिया। मगर उसके बाद? कल को घनश्याम है, या फिर शहर में दूसरा गुण्डा पैदा ले लेगा। किस—किस को मरवाती फिरेगी तू? कुछ वर्ष बाद तेरी बेटी भी जवान हो जायेगी। तुझे तो रामलखन जैसे गुण्डे की रखैल ही समझते हैं न सभी तो, तेरी बेटी को नाजायज औलाद ही समझेंगे न। फिर तेरी बेटी का क्या हाल होगा, सोच ले..........‘‘
दारोगा ने तो जैसे आईना ही दिखा दिया था रैना को। एक ऐसा आईना, जिसमें अपनी सूरत की जगह सूरजी का चेहरा नजर आने लगा था उसे—रोता, कलपता, भयभीत हिरणी जैसी आँखों वाला चेहरा, जिसने क्षणांश में ही अंदर से बाहर तक हिलाकर रख दिया था रैना को, बोली थी, ”तो हम क्या कर सकते हैं हजूर ! जो भाग में होगा, भोगना तो पड़ेगा ही। मगर हजूर, हम साफ कह देते हैं, हमरे साथ जो हुआ, सो हुआ, पर सूरजी के तरफ कोई आँख उठा के भी देखा तो..... तो हम........ ‘‘आँखों में गजब का हिंस्र भाव उभर आया था रैना की।
“तो? तो क्या कर लेगी तू ? तेरे साथ इतना कुछ होता रहा, तेरी माँ ने क्या कर लिया? अपनी जान तक गंवा दी, पर कर पायी कुछ ?‘‘
‘‘तो हम क्या करें दरोगा जी? अपना परान हत लें कि सूरजी को मार दें?“ बोलकर सुबक पड़ी वह।
‘‘तू चाहे तो मै तेरी मदद कर सकता हूँ। मुझे एक काम करने वाली की जरूरत है। अगर मेेरे पास काम करना शुरू कर दे, तो किसकी मजाल है जो तेरी तरफ आँख भरकर देखने का भी साहस कर ले।‘‘
रैना ने पुनः दारोगा जी की ओर देखा था। दारोगा की आँखो में ठीक रामलखन की आँखों का उस रोज वाला भाव नजर आया था उसको, जब पहले—पहल रामलखन घनश्यम्मा से उसकी रक्षा करने आया था।
एक मन तो हुआ था उसका कि साफ मना कर दे। कह दे कि जहाँ महतोआइन के यहाँ काम करती है वह, महतोआइन छोेडेंगी थोड़े ही। मगर तुरंत यह भी ध्यान आ गया था उसे कि ठहरा तो दरोगा रामलखन का भी बाप ही, मना करने पर कहीं गुस्सा—उस्सा हो गया तो क्या पता कहीं रामलखन से भी बड़का राक्षस न बन जाय — अब भगवान जो गत लिखे हों, दरोगा की बात मान लेने में ही भलाई है.........
और उस दिन काम पर क्या लगी रैना दरोगा जी के पास, उसी शाम दारू पीकर अपनी मरदानगी दिखा दी उसने रैना को। हाँ, रैना के पूछने पर साफ—साफ कहा उसने, ”नहीं, घरवाली तो नहीं बनाऊंगा, मगर जीवन भर घरवाली की ही तरह रखूंगा। तेरी बेटी को भी पढ़ा—लिखा कर किसी लायक बना दूंगा...........‘‘
एक सत, दू सत, तीन सत! और जो सत (वचन) किया था दरोगा ने, वह सचमुच निभा दिया उसने। आज रैना को जरा भी मलाल नहीं कि वह रखनी बनके रह रही थी दारोगा के घर कि जोरू बनके........।
साल—दो—साल बाद ही तो दरोगा की बदली भी हो गयी थी। चाहते, तो रैना को उसके भाग्य भरोसे छोड़के जा भी सकते थे। मगर नहीं, बोले, ”मैं तो कहूँगा, तू भी वहीं चल मेरे साथ। यहाँ रहेगी तो..........‘‘
यही तो चाहती थी रैना भी। दरोगा ने भले ही उसको रखनी बना कर रखा हो, मगर रैना ने तो उसे अपना देवता मान ही लिया था। सो बंजारा जिधर—जिधर, उसका ऊँट भी उधर ही उधर।
अब रात के खाने की तैयारी की जाय, सोचकर कमरे से निकली थी रैना। सामने डाइनिंग टेबुल पर टोस्ट पर मक्खन लगा रही सूरजी पर नजर पड़ी थी उसकी—देह इतनी गदरा गयी थी उसकी, जैसे वह सूरजी नहीं, बल्कि जवानी वाली रैना ही बैठी हो वहाँ—वही रूप रंग, वही आँख—ठोर! सबकुछ वैसा ही।
सोचने लगी थी वह, ”टैम से उसका घर बसा जाता तो हम भी उऋण हो जाते।.......... बंशी भी बडा टैम से आ गया है। डीह का ठीक—ठाक दाम मिल जाता तो उसी रूपया से कोई लड़का देखके सूरजी को निबाह देते। दरोगा जी भी मानते ही हैं उसको। उसका घर बसाने में कोई ढील नहीं करेंगे.........
यही सब सोचती चौकाघर में चली गयी थी वह।
”डीह बेचेगी ? मगर क्यों ? यहाँ कोई कमी है तुम्हें?“ घर बेचने की बात सुनकर भड़क उठे थे दारोगा जी।
उनको समझाती हुई बोली थी रैना‘‘ तो गुसियाते काहे हैं? नहीं कहियेगा, तो नहीं बेचेंगे। .......... मगर उसको रख के भी क्या करेंगे? कौन है भोगने वाला? सोचते हैं, उसको बेच के उसी से सूरजी का बिआह कर देंगे। बिआह जोग तो हो भी गयी है वह!“
‘‘दिमाग खराब हो गया है तेरा? अभी तो उसके खाने—खेलने के दिन हैं और अभी ही शादी? नहीं पहले बी०ए० पास कर लेने दे उसे।‘‘
‘‘ठीक है, आप जब कहियेगा, तभी। मगर डीह बेचके रूपया रख लेने में क्या हरज है? महतोआइन का बड़ा अहसान है हमपर। मना कर देंगे तो दुख होगा उनको। और घर तो उजड़ ही गया है। अगल—बगल वाला सबकी आँख भी लगी है उसपर। झुट्ठे सम्पत को बिलटाने से क्या फैदा?‘‘
कुछ क्षण कुछ सोचते रहे थे दारोगा जी, फिर बोले थे ‘‘कह तो तू ठीक ही रही है। पर दाम ठीक मिले, तभी बेचना।..........कब जायेगी?‘‘
‘‘काहे, आप नहीं चलियेगा? आप चलते तो भर (हौसला) रहता।‘‘
‘‘नहीं, मुझे इतनी फुर्सत कहाँ कि.........। कह तो कोई सिपाही लगा दूं साथ?‘‘
‘‘काहे? बंशी तो है ही संग।........ जदी आप कहिये तो सूरजी को भी संग ले जायें? नाना का डीह देख आयेगी?‘‘
अभी दारोगा जी कुछ उत्तर देते ही कि सूरजी वहाँ पहुँचकर माँ से पूछी थी, ‘‘माँ वह आसमानी फ्रॉक नहीं मिल रहा। तुमने तो नहीं रख दिया कहीं?‘‘
”बस, तुमरा तो यही है, खुद ही फेंक देगी इधर—उधर और .......। जा, अलमारी के ऊपर वाला खंदा में देख ले। शाइत वहीं हो।‘‘ बोलकर पल्टी थी वह दारोगा जी की ओर, ”तो क्या कहते हैं........
‘‘मगर दारोगा जी को आँखें तो सूरजी से चिपकी थी। पता नहीं रैना की बात सुनी भी थी उन्होंने या नहीं।
दारोगा जी द्वारा सूरजी को घूरने का तरीका कुछ ठीक नहीं लगा था रैना को शायद। उनकी आँखों में कुछ ऐसा प्रतीत हुआ था, जैसा थाने में पहली भेंट के समय रैना ने अपने लिए महसूस किया था। झिड़क दिया था उसने सूरजी को, ‘‘तू अभी तक यहीं खड़ी है? जाके ढूंढती काहे नहीं फ्राक?‘‘
तभी दरोगा जी ने भी रैना को झिड़क दिया था,‘‘ तो डाँट क्यों रही है इसे?“ फिर सूरजी पर स्नेह छिड़कते हुए बोले थे जा, ”बेटी जाके ढूंढ। तेरी माँ तो वैसे ही......... ‘‘दारोगा जी का ऐसा अंदाज कि क्षणांश में ही मन का मैल धुल गया रैना के। छीः, बेटी कहते हैं ये और हमरे मन में ऐसा मैल? बोली थी‘‘ नहीं वैसे ही। इसका तो आदते है कि फ्राक इधर उतार के फेंकेगी, सलवार उधर और ओढ़नी कहीं। दिन भर संभाल के रखते—रखते मन तंग हो जाता है। ..............अच्छा तू जा सूरजी, हमको कुछ बात करना है तेरे अंकिल से।‘‘
सूरजी कमरे से बाहर निकल गयी।
‘‘हाँ तो क्या कहते है? ले जायें छोरी को अपने संग?‘‘
‘‘अब चाहती है तो ले जा, पर मैं तो कहूँगा कि छोड़ ही जाती तो ठीक रहता। उसकी परीक्षा भी सर पर है और ......‘‘
‘‘सो तो ठीक कहते हैं, पर हमरा मन था कि ...........‘‘
बीच में ही उसकी बात काट कर बोले थे दारोगा जी‘‘ और यह रहेगी तो मुझे भी खाने पीने की दिक्कत नहीं होगी।‘‘
‘‘ओ.......... तो ठीक है, हम अकेले ही चले जाते हैं। छौरी को ले जायेंगे तो सच्चे आपको भी दिग्गत होगी।‘‘
दूसरे ही दिन रैना बंशी के साथ चली गयी थी।
पूरे चार दिनोें बाद लौटी थी रैना अपनी पुश्तैनी डीह बेचकर। मन ऐसा गदगद कि पूछिये मत। पूरे एक लाख में बिका था डीह।
एक लाख—इतने रूपये एक साथ तो कभी सपने में भी नहीं देखी थी वह। वही क्या, उसके सात पुश्तों में किसी ने भी देखा होगा, यह उसकी सोच से बाहर की बात थी। लौटते हुए रास्ते भर ट्रेन में सिर्फ एक बात रैना के मन में — यह एक लाख अपने दरोगा जी के हाथ पर धरके कहेगी उनसे हे, यह पकडिये पूरा एक लाख रूपया है। न एक अदधी कम न जास्ती। अब जल्दी से सूरजी के जोग का कोई लड़का देख के बिआह करा दीजिए उसका । जीते जिनगी गंगा पर उतर जाना चाहते है हम।‘‘
इसपर जरूर कहेंगे दरोगा जी तो रूपया क्या दिखा रही है? सूरजी जैसे तंरी बेटी वैसे ही हमरी भी। हम इतने कंगले है कि अपनी बेटी का बिआह भी नही करा सकते?
‘‘सो तो ठीक कहते है दरोगा जी, पर बेटी खातिर हमरा भी तो कोेई फरज है कि नहीं। और जदी यह रूपया नही मिलता तो क्या उसको कुमारे बिठाये रखते आप ? बेटी जैसा मानते हैं आप उसको.........‘‘
‘‘बेटी जैसा? जैसा क्या होता है।? वह तो बेटी है हमरी.........‘‘जरूर गुस्सा के रूपया फेंक देंगे वह।
मगर रैना फिर से रूपया चुनकर उनको थमाती हुई बोलेगी, ‘‘अच्छा, धरिये यह रूपया! मन आये सूरजी के बिआह में खरचा करियेगा, न तो रखे रहियेगा। हम कहाँ रखेंगे इत्ता रूपया.......
यही सब सोचती घर पहुँच गयी थी रैना। दरोगा जी काम पर गये हुए थे। दरवाजा सूरजी ने ही खोला था। मगर यह क्या, इन चार दिनों में ही सूरजी तो सूखकर एकदम से कांटा हो गयी थी। जैसे बरसों से बीमार चल रही हो।
पूछी थी रैना, ”क्या रे सूरजी, यह क्या हो गया है तुमको? बोखार—उखार था क्या ?‘‘
‘‘नही माँ, वैसे ही......... कुछ खास नहीं। चलो हाथ—मुँह धो लो, मैं खाना निकालती हूँ।“
‘‘क्या कुछ खास नहीं ? तो मुँह सूखा काहे है तुमरा ? बता न क्या बात है?‘‘
‘‘कहा न, कुछ नहीं, तुम चलकर हाथ—मुँह धोओ, मै खाना निकालती हूँ।‘‘
‘‘अच्छा, चल आ कमरे में, जरा देह हाथ सीधा कर लें। और खाना—ऊना छोड़, हम रस्ते मेें ही खा लिये हैं।‘‘
कमरे में आकर पलंग पर पसरती हुई बोली थी रैना‘‘ भगवान की बड़ी किरपा रही बेटी! जानती है, डीह कितना में बिका? पूरा एक लाख में। बाप रे, हम तो कभी सोचे भी नहीं थे कि महतोआइन इत्ता दाम दे देंगी एकदम से।........ मगर सूरजी, अब हम एकदम से निश्िंचत हो गये। वैसे दरोगा जी हैं तो बहुत अच्छा लोग, पर क्या पता तेरे बिआह खातिर क्या करेंगे। पर अब कोई फिकिर नहीं। देखना हम अपनी बेटी का बिआह कितना धूम—धाम से करते हैं। आज ही दरोगा जी से कहते हैं कि जल्दी से तेरी खातिर कोई जोग लड़का खोज दें। अब जेतना जल्दी........‘‘
अभी बाकी के शब्द रैना के मुँह में ही थे कि अचानक ही सूरजी फफकती हुई माँ से लिपट गयी थी।
रैना तो पूरी तरह हतप्रभ! सूरजी को झकझोरती हुई पूछी थी, ”अरे सूरजी यह क्या ? तू रोने काहे लगी रे?“
लेकिन सूरजी की फफक हिचकियों में बदलती गयी थी।
‘‘अरे कुछ कहेगी भी कि सिरक रोती रहेगी? देख, हमरा मन बैठ रहा है। बता, हमरे पीछे दरोगा जी कुछ कहे हैं क्या? तुमको हमरी किरिया, बता क्या बात है?‘‘
‘‘नहीं माँ ...... कुछ नहीं!‘‘ हिचकियों के बीच ही बोली थी सूरजी।
‘‘अरे कैसे कुछ नहीं? हमको बुड़बक बूझती है? अरे हम माय हैं तुमरी, हमको नहीं बतायेगी तो.........‘‘
‘‘नहीं माँ ..... यदि मैंने.... तुमसे कुछ कहा........ तो अंकल तुमको..... जान से मार डालेंगे।“
‘‘अरे तेरे अंकिल की तो ऐसी की तैसी। तू बता तो!‘‘
‘‘नहीं पहले तुम कसम खाओ कि अंकल को कुछ नहीं कहोगी....‘‘
‘‘ले तुमरी किरिया! अब बता, क्या बात है?‘‘
और जो बताया था सूरजी ने, उससे तो रैना को लगा था, जैसे किसी ने एक झटके के साथ किसी तेज भाले का पूरा फाल ही उतार दिया हो उसके सीने में। सूरजी बोलती गयी थी,‘‘...... उसके बाद तो रोज रात में अंकल दारू पीके .........‘‘ बोलते—बोलते फुक्का फाड़ कर रो पड़ी थी वह।
रैना को तो काटो तो खून नहीं! जैसे शरीर का पूरा का पूरा खून जम सा गया हो उसके। आँखों की पुतालियाँ सामने की ओर स्थिर और पूरा जिस्म प्रस्तर प्रतिमा में तब्दील!
रोते—रोते सूरजी की नजर पड़ी थी माँ पर। फिर तो क्षणांश में ही कहाँ गया उसका रोना—सुबकना, माँ को बाँहों से पकड़कर झकझोर उठी थी, ”माँ......माँ, अब तुम्हें क्या हो गया ? माँ, होश में आओ..........‘‘
अचानक जैसे तन्द्रा टूटी हो रैना की, बेटी को सीने से लगा कर फकक पड़ी थी वह भी। देर तक दोनों माँ बेटी एक दूसरे की बाँहों में लिपटी रोती रही थी। रैना के मुँह से सिर्फ एक वाक्य,‘‘ बाप रे, इतना बड़का पाप? जोरू और बेटी में कोई फरक ही नहीं।‘‘
लेकिन दरोगा जी के लौटते—लौटते तक दोनों माँ बेटी ने खुद को सहज कर लिया था। दरोगा जी को थोड़ा भी पता नहीं लगने दिया था दोनों ने कि रैना को कुछ पता है।
रात को, खाने के समय पर ही लौटे थे दरोगा जी। तब तक सूरजी खा—पीकर अपने कमरे में समा चुकी थी। रैना उनको खिलाते और दारू पिलाते हुए डीह के बिकने का सारा किस्सा सुना गयी थी। यह भी बोली थी वह कि अब जल्दी से सूरजी की खातिर कोई सुघड़ लड़का ढूंढ दें वे, ताकि उसको विदा करके गंगा नहा ले वह।
खाने—पीने के बाद दोनों कमरे में समा गये थे।
रात का सन्नाटा और कमरे का एकांत! सन्नाटे को दरोगा जी की बजती नाक की आवाज ही भंग कर रही थी। लेकिन रैना की आँखों में नींद का कतरा नहीं।
तभी उसकी आँखों के आगे उस दिन का दृश्य साकार हो आया था, जिस रोज दरोगा जी ने रामलखन को एनकाउन्टर मेें स्वर्ग धाम पहुँचाया था।
उस रात दारू पीकर रैना को रिवॉल्वर दिखाते हुए बड़े गर्व से बोले थे वे, “यह घोड़ा देखती है न, बस यही दबाया हमने और साले रामलखना का राम नाम सत्य हो गया। अब रसाला कभी तंग नहीं करेगा तुम्हें।‘‘
‘‘अच्छा, सिरफ यह घोड़ा दबाने से आदमी मर जाता है? बाप रे!‘‘
हाँ मगर इसमें गोली होनी चाहिए। बिना गोली के तो समझो यह खिलौना है सिर्फ।‘‘
‘‘ओ ऽ ऽ! अच्छा अभी गोली है इसमें ? तनी देखें तो!“ बोलकर रिवॉल्वर छीनने लगी थी रैना उनके हाथ से।
‘‘अरे—अरे, जरा ध्यान से! कहीं दब गया न घोड़ा, तो समझ ले, मैं भी रामलखन के पास पहुँच गया। अच्छा ठहर, दिखाता हूँ कि गोलियाँ हैं या नहीं।‘‘ इसके साथ ही बट पर दारोगा जी का दबाव, एक खट की आवाज और रिवॉल्वर के छः के छः खानें गोलियों से भरे हुए। पुनः दारोगा जी की गर्व में भींगी आवाज‘‘ देख लिया न ! मेरा रिवॉल्वर कभी खाली नहीं रहता।‘‘
अचानक सीना धौंकनी हो उठा था रैना का। इसके साथ ही एक झटके से बिस्तर पर उठकर बैठती हुई अतीत से वर्तमान में लौट आयी थी वह। एक नजर गौर से बगल में निश्िंचत सो रहे दरोगा जी पर डाली थी उसने। मगर यह क्या, नाइट—बल्ब की मद्धम रोशनी में वहाँ दरोगा की जगह तो कोई और ही सो रहा था। पर कौन? अरे ..... अरे यह तो रामलखन है। तो क्या रामलखन फिर से जिन्दा हो गया?
पुनः आँखे फाड़कर निहारी थी वह — नहीं—नहीं यह तो दरोगा ही है।...... मगर फिर दरोगा, रामलखन और रामलखन दरोगा नजर आने लगा था उसे। यानी दरोगा और रामलखन में कोई फरक ही नहीं। लेकिन फरक काहे नही?..... दरोगा तो बेटी के संग भी.....।
इसके साथ ही बिस्तर से उतर कर एक तरफ बढ़ गयी थी वह।
टठाँय......ट्ठाँय........ट्ठाँय.....।
लगातार गोलियों की आवाज सुनकर अपने कमरे में सोयी सूरजी की नींद एक हड़बड़ाहट के साथ टूट गयी थी। आवाज की दिशा के एहसास के साथ ही वह उठकर भागी थी माँ के कमरे की ओर। दरवाजा सिर्फ भिड़का हुआ था। धड़ाम से दरवाजा खोलकर अंदर घुस गयी थी वह। फिर तो वहाँ का दृश्य जो देखा उसने, सो हत्प्रभ खड़ी खड़ी कभी दुर्गा—स्वरूपा हाथ में रिवॉल्वर लिये माँ को, तो कभी बिस्तर पर खून से लथपथ अपने अंकल की प्राणविहीन देह को निहारती जड़ सी हो गयी थी।
दारोगा जी का निवास चूंकि थाना परिसर में ही था, इसलिए थाने के हवलदार सिपाहियों को भी यह समझते देर नहीं लगी थी कि गोली चलने की आवाज दारोगा जी के घर से ही आयी थी।
अभी सूरजी के मुँह से सिर्फ एक पंक्ति फूटी थी, ”माँ.....माँ यह क्या किया तुमने?“ कि बाहरी दरवाजे पर एक साथ कई सारे हाथों के दस्तक पड़ने लगे थे, “सर..... सर दरवाजा खोलिए......... हुजूर, जल्दी से खोलिये दरवाजा.......‘‘
‘‘माँ.......माँ तुमने यह ठीक नहीं किया। अब अब क्या होगा माँ ? माँ मेरा क्या होगा? तुम तो..........‘‘ पागालों की तरह माँ को झकझोर कर पूछने लगी थी सूरजी।‘‘
अंदर से कोई जबाब न पाकर बाहर के लोग जोर—जोर से दरवाजे पर धक्का देने लगे थे। बिल्कुल दरवाजा तोड़ने के अंदाज में।
रैना को तो लगा था कि बाहर दरवाजे को तोड़ने वाले हाथ किसी और के नहीं, बाल्कि अनगिनत रामलखनों और दारोगों के हैं, जो अभी—अभी दरवाजा तोड़कर अंदर घुस आयेंगे और दोनों माँ बेटी की बोटी—बोटी नोच डालेंगे। अचानक सूरजी को ढकेलकर खुद से अलग करती हुई विक्षिप्तनुमा चीख—सी पड़ी थी वह ‘‘हाँ....हाँ बेटी, तू ठीक कहती है....... इस मरद जात के बीच तेरा क्या होगा रे ? जहाँ बाप चाचा का भी कोई भरोसा नहीं! हरामी सारा मरद राक्षस होता है रे। इस राक्षस सब के बीच तू क्या करेगी जी के। देख—देख राक्षस सब दरवाजा तोड़ रहा है। अभी आके सब हमको और तुमको नोच—नोच के खा जायेगा।.......‘‘बोलते—बोलते आँखें बुरी तरह बाहर की ओर निकल आयी थीं रैना की। स्वरूप ऐसा डरावना कि एकांत अंधेरे में कोई देख ले उसे तो निश्चित ही हृदयगति रूक जाय उसकी। इसी के साथ टठाँय....ट्ठाँय.......ट्ठाँय की आवाजें और सूरजी तड़पती हुई फर्श पर।
तभी बाहर का दरवाजा घड़ाम की आवाज के साथ टूट गया था और एक साथ कई धड़धड़ाते कदम दारोगा जी के बेडरूम में घुस आये थे। इसके साथ ही लोगो की समवेत आवाज ‘‘बाप रे, दारोगा जी को मार डाला इसने.......... और अपनी बेटी को भी............. हरामजादी पागल हो गयी है। साली...........‘‘
लेकिन रैना पर तो उनकी टिप्पणियों का कोई असर ही नहीं उल्टे उनकी तरफ रिवॉल्वर तानकर दनादन घोड़ा दबाने लगी थी वह। साथ ही बकबकाती भी गयी थी‘‘ हाँ, हम पागल हो गये हैं। हरामी तुम सब को भी मार देंगे। एक्को मरद को नहीं छोडेंगे..........‘‘
अगर रिवॉल्वर में गोलियाँ शेष होतीं तो पता नहीं कितनी लाशें बिछा दी होती उसने।
रैना गिरफ्तार हो गयी थी। लेकिन उसकी मानसिक हालत को देखते हुए उसे पागलखाने पहुँचा दिया गया था। पागलखाने में भी जब वह पुरुष वार्ड—व्वाय या चिकित्सकों को देखती तो जब बुरी तरह आक्रामक हो उठती। उनकी हत्या कर डालने की हद तक। पता नहीं कितने वार्ड — ब्वायज को दाँत से काट खाया था उसने, कितनों के कपड़े फाड़ डाले थे। अब तो हाल यह था कि चाहे वे पुरूष चिकित्सक हों या वार्ड—ब्वायज, सभी उसके करीब जाने से डरने लगे थे। सिर्फ पागल औरतें, महिला वार्डेन, नर्सेज या लेडी—डाक्टरों से उसे कोेई परहेज नहीं था। फिर भी एहतियात के तौर पर उसे एक अलग वार्ड में रखा गया था।
बावजूद इसके वार्ड की सलाखों से अगर उसे कोई पुरूष पागल, वार्ड ब्वाय अथवा पुरूष चिकित्सक नजर आ जाता तो जैसे कोई प्रेत सा सवार हो जाता उसके सिर पर। फिर तो वहीं से गाली—गलौज शुरू कर देती वह, ”आओ आओ हरामी मादर, फिर कभी सलाखों को पकड़कर पूरी शाक्ति से झकझोरते हुए दरवाजे को तोड़ने लग जाती, तो कभी हथेलियों को रिवॉल्वर की शक्ल में बनाते हुए उनपर गोलियाँ बरसाने लगती.............
अगर रैना के वश में होता तो शायद पूरे पुरुष समाज को गोलिया से भून डालती वह। पूरी तरह पुरुष—विहीन धरती।
ऐसे में चाहे कोई कुछ भी कहे, मगर रैना पागल तो बिल्कुल भी नहीं हुई थी। कतई कदापि नहीं। वह तो बबूल हो गयी थी। सर से पाँव तक काँटो से आच्छादित बबूल। अब अगर वह उन्हीं को लहूलुहान करने पर उतारू थी, जिन्होंने उसे रोपा था, तो भला पागल कैसे हो गयी वह?