Gafoor ka Baagicha Ratan Verma द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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Gafoor ka Baagicha

कथा संग्रह

गफूर का बगीचा

रतन वर्मा

संक्षिप्त परिचय

नाम ः रतन वर्मा

जन्म तिथि ः 06.01.1951

जन्म स्थान ः दरभंगा

प्रकाशन (पत्रिकाओं में) : हंस, धर्मयुग, इंडिया टुडे, सारिका, आजकल, समकालीन भारतीय साहित्य, नया ज्ञानोदय, पांखी, इन्द्रप्रस्थ भारती आदि पत्रिकाओं में लगभग 200 कहानियाँ एवं इनके अतिरिक्त समीक्षायें, साक्षात्कार, कविताएँ, गीत, गजलें, संस्मरण प्रकाशित।

पुस्तकें : ‘पेइंग गेस्ट', ‘दस्तक' एवं ‘नेटुआ' (कहानी संग्रह), ‘यात्रा में' (काव्य संग्रह), ‘रुक्मिणी' एवं ‘सपना' (उपन्यास), ‘श्रवण कुमार गोस्वामी एवं उनके उपन्यास' (आलोचना पुस्तक)

पुरस्कार :

— ‘गुलबिया' कहानी को वर्त्तमान साहित्य द्वारा

आयोजित कृष्ण प्रताप स्मृति पुरस्कार का प्रथम

पुरस्कार (1989)

— नाट्‌यभूमि सम्मान (1991)

— ‘सबसे कमजोर जात' कहानी आनन्द डाइजेस्ट

आंचलिक कथा प्रतियोगिता में सर्वश्रेष्ठ (1991)

— ‘नेटुआ' नाटक : साहित्य कला परिषद्‌, दिल्ली द्वारा दशक के सर्वश्रेष्ठ छहः नाटकों में शामिल (1992)

— ‘अवसर' सम्मान (1994)

— समग्र साहित्य पर ‘राधाकृष्ण पुरस्कार' (2003)

— ‘निखित भारत बंग साहित्य सम्मेलन, नई दिल्ली' द्वारा

विशिष्ट कथाकार पुरस्कार (2004)

सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन

सम्पर्क : क्वार्टर सं0 के—10, सी0टी0एस0 कॉलोनी, पुलिस लाईन के निकट, हजारीबाग—825301 (झारखण्ड)

मोबाईल न0 9430347051, 9430192436

म्उंपसरू तंजंदअमतउींं्रंतपइंह/लींववण्बवउए तंजंदअमतउींं्रंतपइंह/हउंपसण्बवउ

भूमिका

संग्रह की तीनों कहानियाँ, तीन विभिन्न सामाजिक परिस्थियों पर आधारित हैं। एक पेड़ भी पुत्र बनकर इंसान के नाम को जीवित रख सकता है, शीर्षक—कथा इसी आशय को आधार बना कर लिखी गयी है।

किसी बेवस इंसान की परिस्थियाँ कभी इतनी जठिल भी हो सकती हैं कि उसे उसी का ताबूत बना कर बेचना पड़ जाए, जिससे उसने अपनी बेटी की शादी तय कर रखी है, उसके दर्द का अंदाजा वही लगा सकता है, जो उसे भुगत रहा होता है।

संग्रह की तीसरी कहानी ‘घराना', सांमत वर्ग में भी शिक्षा का क्या महत्व हो सकता है, इसी को आधार बना कर प्रस्तुत की गई है।

गफूर का बगीचा

कौन जानता था कि एक दिन वही अमरूद का पेड़ बेटा बनकर गफूर के बुढ़ापे की लाठी बनेगा। खुद गफूर य़ा उसकी बीवी सकीना भी नहीं। वैसे भी किसी ख्वाहिश या आने वाले कल के किसी सपने के तहत उन्होंने कभी उसकी जड़ में एक बधना पानी ही डाल दिया होए ऐसा कुछ भी नहीं किया था उन्होंने । हाँए आंधी . पानी झेलते हुए वह पौधा जब कमर की उँचाई तक बड़ा हो गयाए तब सकीना ने महज समय काटने की नीयत से उसका थोड़ा ख्याल रखना शुरू किया था ।

वैसे कमी भी किस बात की थी उन्हें कि आने वाले कल के लिए कोई सपना पालते वेघ् और नहीं तो किसी आम या अमरूद के पेड़ की शक्ल में घ् पर हाँए एक सपना जरूर पाल रखा था उन्होंने। एक अदद बेटे का सपना।ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्जो लाख पीर .पैगम्बरए गंडे . ताबीजए मन्नत . इबादत के बावजूद पूरा नहीं हो पाया था उनका। मन में हर लम्हा एक ही मलाल रहता गफूर के कि उसके खानदान को आगे कौन बढ़ायेगाए कौन रखेगा उसके नाम को जिन्दा और कौन बनेगा मियाँ बीबी के बुढ़ापे की लाठी घ्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्नहीं तो बाकी सारा सुख तो था ही उन्हें। इलाके का सबसे नामी राज मिस्त्री था गफूर ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण् और दूसरे मिस्त्रियों से महंगा भी। ऊपर से ठसक ऐसी कि क्या मजाल कि लाट . गर्वनर भी उसे ष्गफूर जीष् या ष्मिस्त्री जीष्की जगह ष्ऐ गफूरष् या ष्ऐ मिस्त्रीष् कहकर पुकार ले और गफूर चला जाए उनके यहाँ काम करने। बावजूद इस ठसक केए काम की कभी कोई दिक्कत नहीं रही गफूर को। सो रोज की अच्छी खासी आमदनी और खाने के लिए सिर्फ दो प्राणी। इस प्रकार गृहस्थी की गाड़ी ठाठ से चलती रही थी दोनों की। धीरे.धीरे तो गफूर भूलता चला गया थाए उस एक अदद बेटे के सपने को जो हर लम्हा टीस बनकर सालता रहा करता था उसे।

लेकिन अपनी बीबी सकीना का क्या करता वह जो आये दिन अपने आंसुओं से उसे बेऔलाद होने का एहसास कराती ही रहती। खास तौर पर तबसे तो और भी ज्यादाए जबसे उसकी खास सहेली जानकी ने एक बेटे को जन्म दिया था । वैसेए जानकी को बेटा हुआ हैए यह जानकर खुद जानकी को क्या खुशी हुई होगीए जितनी खुशी सकीना को हुई थी। बल्कि सारी रात जानकी के दर्द के दौरान उसके घर जा. जाकर हाल.समाचार लेती रही थी वह। सहेलियाँ होने के साथ . साथ दोनों के बीच पारिवारिक रिश्ता भी जो था । इतना ही नहींए घर भी अगल . बगल ही थे दोनों के । अगर वश चलता सकीना का तो सारी रात अपनी सहेली के पास ही जमी रहती। पर जानकी की सास ने घुसने ही न दिया था उसे कोठरी में ।

पहले तो सकीना को लगा था कि कोठरी में उसे घुसने न दिया जानाए उसके मुसलमान होने की वजह से थाए मगर जब अमीना चाची को कोठरी से निकलते देखा उसने तब उनसे पूछ ही बैठी वह ष्काहे अमीना चाचीए मैं मुसलमानिन हूँ तो आप भी तोण्ण्ण्ण्ण्ष्

ष्अरे काहे का हिन्दू . मुसलमान घ् तेरे को नहीं घुसने देने की दूसरी वजह है।ष्

ष्सो क्याष्ण्ण्ण्ण्घ्

ष्अरे तू क्या जानेण्ण्ण्ण्ण् सौ टोटके होते हैं इनके । बताऊंगी तो तेरे को श्जबूरश् लगेगा ।ष्

ष् नहीए बताइये न ।ष्

ष्तो सुनण्ण्ण्ण्ण् तू ही बड़ा लल्लो .चप्पो किये रहती है जानकी केए पर वह तुझे क्या समझती हैए जानती है घ्ष्

ष्क्या घ्ष्

ष्बाँझ समझती है बाँझए समझी घ् उसी ने मना कर रखा है अपनी सास को।ष्

ष्पर उसे भी तो यह पहला ही बच्चा है । वह भी इतने दिनों के बाद।ष् भले ही शादी के आठ वर्ष हो गये थे सकीना केए पर बच्चे की उम्मीद छोड़ी नहीं थी उसने ।

ष्ऐंह दो बच्चा इसके पहले नुकसान हुआ था सो घ् तेरी तरह सूखी तो नहीं है न।ष्

सुनकर चेहरा उतर गया था सकीना का ।

ष्अरे नहीं रे ए यह मैं नहीं कह रहीए जानकी की सास कह रही थी। वह तो यह भीण्ण्ण्ण्ण्ष्

लेकिन उसकी बात सुनने के लिए सकीना रूकी नहीं थी वहाँ . सुबकती हुई सीधे अपने घर की ओर भाग खड़ी हुई थी। फिर उस वक्त से लेकर सुबह तक सुबकती ही रही थी। सुबह चरित्तर भाई जान की आवाज पर भागती हुई दरवाजे की ओट लेकर अपने मरद और चरित्तर की बातचीत सुनने लगी थी। चरित्तर जानकी का घरवाला था और गफूर का हमपेशा तथा खास दोस्त।

ष्हाँ भाई चरित्तरए सुना खुशखबरी ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्क्या हुआ ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्बेटा या बेटीघ्ष् गफूर की आवाज।

ष्बेटा हुआ है गफूर मियाँए बेटा।ष्

ष्तो स्साले वहाँ क्यों खड़ा हैघ् आए गले लग। यार क्या तीर मारा हैघ् सीधे बेटा। अल्लाह तकदीर दे तो तेरे जैसी। चल तेरा नाम चलाने वाला आ गयाण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ष्

सुनकर सकीना को भी कम खुशी नहीं हुई थी । उस खुशखबरी ने क्षणांश में ही उसके गम को सोख करए होठों पर खुशी के फूल खिला दिये थे। फिर से सारे गिले . शिकवे भूल कर भागी थी वह जानकी के घर। मन में एक दूसरी ही बात . हो न हो अमीना चाची उसकी और जानकी की दोस्ती से जलती होंण्ण्ण्ण्ण्ण्ण् इसीलिए अनाप . सनाप कान भरती रहींण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्

लेकिन जब जानकी के पास पहुँची वहए खातिर तो उसने मुस्कुरा कर कियाए पर जब सकीना बच्चे को गोद में उठाने लगीए बगल में सो रहे बच्चे को अपने आँचल से ढ़ंक कर बोल पड़ीए ष्तू बैठ न सकीनाए बच्चा कोई भागा जा रहा है। थोड़ा बड़ा होने देए फिर जी भर कर खेलाती रहना ।ष्

यानीए एक तरह से अमीना चाची की बात को सच जैसा साबित कर ही दिया था जानकी ने भी। नहीं तो बच्चे को गोद में उठाने के लिए उसके बढ़े हाथ को यूँ बेदर्दी से रोक क्यों देती वह भला घ्

बाद में तो सकीना को यह भी पता चला था कि छठ्ठी में जो उसने बच्चे के लिए कपड़े दिये थेए वह भी जानकी ने मग्घा डोम की बहू को दे दिये थे कि उसका होने वाला बच्चा पहनेगा। और धीरे . धीरे तो जानकी पूरी तरह से सकीना को अपनी जिन्दगी से काटती चली गयी थी। अगर सकीना उससे मिलने जाती भी तो काम . वाम का बहाना बनाकर उससे कन्नी काट लेती।

हारकर सकीना ने भी उसके यहाँ जाना एकदम बन्द कर दिया था।

लेकिन चरित्तर और उसके मरद गफूर की दोस्ती पहले जैसी ही बनी रही थी ।

समय अपनी गति से आगे बढ़ता गया था। सकीना और जानकी दोनों ही एक दूसरे से पूरी तरह बेजार अपनी गृहस्थी में मस्त रहने लगी थीं। जानकी का बेटा सुखराम भी धीरे . धीरे बड़ा होता गया था। जानकी और चरित्तर के पूरे जीवन का सुख कह लीजिए या भविष्य का सपनाए सारा कुछ तो सुखराम ही था। सो उन दोनों के दामन में जितना भी प्यार थाए सारा का सारा सुखराम के लिए सुरक्षित था। लेकिन सुखराम था कि एक साथ अपने माँ . बाप का उतना सारा प्यार संभाल पाना या प्यार बचा पानाए शायद उसकी औकात से बाहर था। लाजिमी था कि जैसे .जैसे उसकी उम्र बढ़ती गई थीए घर में उसका कद भी बढ़ता गया था। इतना कि उसके कद के आगे उसके माँ . बाप भी बौने सिद्ध होते गये थे। और एक दिन तो माँ . बाप के सारे अरमानों पर का कालिख पोतते हुए पता नहीं कहाँ से उसने दो बच्चे वाली औरत को बीवी बनाकर घर में ला खड़ा किया था। काम . धाम के नाम पर लफंगागिरी और घर में माँ . बाप पर बादशाहत झाड़ते रहना . यही उसका रोजनामचा होकर रह गया था।

अब चरित्तर जब भी सकीना के घर आताए गफूर के आगे अपने बेटे की कारस्तानियों का ही रोना रोता रहता। सकीना सुनती तो दुख तो होता उसेए पर अपने बाँझ होने का सुकून भी मन के किसी कोने में महसूस करती कि अल्लाह ताला जो भी करते हैए बेहतरी के लिए करते हैं।

अचानक ही पिछवाड़े में लगे क्यारी से बैगन तोड़ते हुए सकीना की नजर को कमर तक के हो गये अमरूद के पौधे ने आकर्षित किया था। हालांकि ऐसा नहीं कि इसके पहले सकीना की नजर पड़ी ही नहीं थी उस पौधे परए मगर कभी उस पर तबज्जो नहीं दिया था उसने। लेकिन उस दिन पहली बार उसके मन ने कहा था कि जब यह पौधा उग ही आया है तो क्यों न थोड़ा जड़ के पास किरौनी . उरौनी कर दी जाय। फिर तो वह उसी समय से जुट गयी थी उसकी सेवा में । साल लगतेए न लगते उस पौधे ने पूरे पेड़ का रूप आख्तियार कर लिया था और अपनी शाखों पर पहले फूलए फिर फल उगाने शुरू कर दिये थे। सकीना ने उसके फल को चखा तो निहाल हो गयी . ष्अल्लाहए इतना मीठा घ्ष्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण् गफूर ने भी खाया तो वाह कर उठा ।

जैसे . जैसे अमरूद का वह पेड़ अपनी शाखा रूपी बाँहों को विस्तारित करता गयाए फलों की गदराहट बढ़ती ही गयी थी शाखों पर । इतना ही नहींए निकला भी वह पेड़ ष्बारहमसियाष्ण्ण्ण्ण्ण्ण् यानी बारहों माह फल देने वाला । अब उतने सारे फलों काए वह भी रोजानाए उपयोग कौन करेए जबकि घर में सिर्फ दो प्राणी । लाजिमी थाए रोज ही कुछ फल पककर जमीन पर गिरते रहतेए कुछ परिन्दे . गिलहरियों की भूख मिटाने के उपयोग में आतेए तो कुछ आस .पड़ोस में बंट जाते ।

तभी एक कुजड़िन ने सकीना के सामने एक दिन पेशकश रखी कि अगर सारे पके अमरूद वह उसके हाथ किलो के हिसाब से बेच दे तो वह खुद भी जिये . खायेगी और सकीना को भी कुछ आमदनी हो जायेगी।

भला सकीना को इसमें क्या उज्र होने वाला थाघ् बल्कि जब हाथ पर कुछ आमदनी आने लगीए तब वह पेड़ की देखभाल में और भी सतर्क रहने लगी। यहाँ तक कि जमीन पर गिरे फलों के बीज से जो पौधे निकलते उन्हें भी उखाड़ कर इधर उधर रोपने और उनकी देख भाल करने लगी । आमदनी के पैसों से उसने उस जमीन के टुकड़े को बाड़ से घिरवा दिया ताकि जानवरों और बच्चो से बगीचे की रक्षा हो सके ।

फिर तो कुछ ही वर्षो में जमीन के उस छोटे से टुकड़े ने अच्छे . खासे अमरूद के बाग का रूप अख्तियार कर लिया था । साथ ही एक व्यवसाय का रूप भी । आस . पास के लोग और कुंजड़ों ने बाग का नामकरण भी कर दिया था .गफूर का बगीचा । पता पूछने वाले राहगीरों को यह बताया जाने लगा कि आगे जाने पर गफूर का बगीचा मिलेगा. अमरूद का जो बगीचा हैए वही । उस बगीचे से पूरब या दक्खिन या ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्चले जाओ वहाँ से दो बाँस या पाँच बाँस या सटा हुआ ही वह घर मिल जायेगा।ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण् या गफूर के बगीचे के पास पहुँचकर किसी से पूछ लेनाण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्।

उम्र के साथ . साथ गफूर और चरित्तर दोनों के ही हाथ . पैर अशक्त होते चले गये। और एक दिन ऐसा भी आ गयाए जब दोनों को अपने काम से सन्यास लेना पड़ गया था । जहाँ तक गफूर का प्रश्न थाए तो उस पर तो सन्यास लेने का कोई असर ही नहीं पड़ा था। लेकिन चरित्तर के नकारा हो जाने नेए उसे और उसकी बीवी जानकी को बिल्कुल ही तोड़ दिया था । बेटे का सलूक ऐसा दोनों के साथ जैसे वे माँ . बाप न हों उसकेए बल्कि दरवाजे पर पड़े कुत्ते .कुत्ती हों। वह भी बीमार और सड़ांध उगलते खाज वाले कुत्ते .कुत्ती ।

रही बात गफूर कीए तो दोनों मियाँ . बीवी के बुढ़ापे का सहारा उनके अमरूद का बाग तो था ही । वह भी बारहमसिया ।ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण् जो रोज ही गुजारे लायक अच्छी आमदनी दे जाता । फिर गफूर काम करे या न करेए क्या फर्क पड़ता था दोनों को। बल्कि समय . समय पर गफूर और सकीना चरित्तर की भी मदद कर दिया करते। कभी जानकी या चरित्तर को कपड़े देकरए कभी उन्हें खाना खिलाकर तो कभी नगद रूपयों से भी ।

एक दिन यों ही वार्तालाप के क्रम में चरित्तर अन्दर से पूरी तरह टूट कर बोल ही पड़ा था गफूर से ष्नए ऐसे बेटे से तो बेहतर यही होता कि मैंने भी तुम्हारी तरह दो . चार पेड़ लगा लिए होते। बुढ़ापा आराम से कट जाता । आज जो जिल्लत उठानी पड़ रही हैए वह तो न उठानी पड़ती।ष्

ष्अरे क्या बात करता है चरित्तरष्ए बोला था गफूर ष्यह तो खुदा की रहमत है कि तू एक बेटे का बाप है । नालायक ही सहीए पर तेरे नाम को जिन्दा तो रखेगा।ष्

ष्नहीं रे गफूर । जो बेटा जीते जिन्दगी हम दोनो को मार डालने को आमादा हैए वह भला मेरे नाम को क्या जिन्दा रखेगा घ् और तुम्हारे बेजान पेड़ घ्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण् इन्होंने तो जीते जी तुम्हारे नाम को अमर कर दिया । इलाके का है कोई जो गफूर के बगीचे को जानता न हो। ष् बोलते .बोलते सुबक पड़ा था चरित्तर ।

समय अपनी रफ्तार में खिसकता गया था । उसकी रफ्तार ने गफूरए सकीनाए चरित्तरए जानकीए उनके आगे की दो एक पीढ़ीयों को भी निगल लिया था। पर नहीं निगल पाया थाए तो गफूर के नाम कोए जिसे उस अमरूद के पेड़ और पेड़ के खानदान ने मिलकर लम्बे समय के लिए अमर कर दिया था .खुद मिटकर भी एक होनहार पुत्र की तरह पूरे इलाके में गफूर के नाम को बच्चे . बच्चे की जुबान पर चिपका दिया था . श्गफूर का बगीचाश् ।

आज गफूर के घर की जगह एक आलीशान बंगला खड़ा हैए जिसके गेट पर लगे नेम प्लेट पर लिखा है . ष्ज्योतिन्द्र सहायए एडवोकेटए गफूर का बगीचा।ष्

आज गफूर की रूह जहाँ भी होगीए उसे इस बात का बिल्कुल भी अफसोस नहीं हो रहा होगा कि वह बेऔलाद मरा या उसका नाम जिन्दा नहीं है ।

ताबूत

विन्सेन्ट के मरने से एक बात तो कम से कम हुई ही कि जोसफ की लड़की ग्रेसी की मंगनी हो गई। नहीं तो जिस जोसफ के घर में एक शाम खाने कीए तो दूसरी शाम उपवास की स्थति बनी रहती थीए इतनी धूम.धाम से मंगनी संभव हो पाती घ्ण्ण्ण्कभी नहीं! जोसफ तो इसे प्रभु येसु की ही कृपा मानता था ।

वैसे भी विन्सेन्ट को मरना ही था। सत्तर .बहत्तर की उम्र तक तो जिया ही। और कितना जीता घ्ण्ण्ण्ण्हांए मरते .मरते भी बेचाराए ग्रेसी का कल्याण कर गया। न वह मरताए न जोसफ को ताबूत बनाने का आर्डर मिलताए न उसे दो हजार रूपये मिलते और न ही ग्रेसी की मंगनी हो पाती ।

आखिर कितने दिनों तक लुइस अपने लड़के को घर में बिठाए रखता। वह तो कहिए कि इतने दिनों तक उसने दोस्ती का फर्ज निभाए रखा था। नहीं तोए कौन अपने बेटे को तीस.बत्तीस की उम्र तक बिठाए रखता है !

गाँव की दोनों पट्टी के कई घरों से रिश्ते की बात लुइस तक पहुँची थीए मगर सबों से उसने साफ कह दिया थाए ष्फ्रेड्रिक के बिआह अगर होलकए त जोसफ के छौंड़ी ग्रेसी के संगे। न तो ना। हम दोसतीस किहिस है जोसफ संगेए कोई खेला नहीं। अप्पन मुँह.भीतर के जीभ के हम काट नहीं सकिस।ष्

फ्रेड्रिक को भी अपने बाप की जुबान का पूरा ख्याल था। उस जैसा छरू फीट्टा जवान गाँव की दोनों पट्टी में दीया लेकर भी ढूंढने से नहीं मिलता। जितना ही बांकाए उतना ही होनहार! क्या मजाल कि बाप कह दे ष्नाष् और वह कह दे ष्हाँष्।

गाँव की एक से बढ़कर एक लड़कियों के मन में उसका नाम शिलालेख की तरह खुदा था। चाहताए तो बाप की मर्जी के खिलाफए ग्रेसी से लाख दर्जे अधिक सुन्दर लड़की को घर में बिठा लेता। मगर कभी उसने किसी भी लड़की की ओर आँख उठाकर देखने तक की जुर्रत नहीं की थी। गाँव के बड़े.बूढ़े अपने बेटे.पोतों को उसी का उदाहरण देकर डांटा या समझाया करते थे कि बेटा हो तो फ्रेड्रिक की तरह होनहार। बाप यदि जेठ की दोपहरी में भी कह दे कि दिन .भर धूप में खड़ा रहए तो वह इन्कार नहीं कर सकता।

सचमुच ! बत्तीस की उम्र हो गई थी तो क्याए वह तो बस इतना ही समझता था कि बेटाए बाप के लिए हमेशा बेटा ही होता हैए चाहे वह बूढ़ा ही क्यों न हो जाए!

तोए ग्रेसी की मंगनी बीसियों बोतल महुआ और मुर्गे के गोश्त के साथ सम्पन्न हो गई थी। ताबूत के एवज में मिले दो हजार रूपये में से एक छदाम भी बचाकर नहीं रखा था जोसफ ने। अब एक ही साध रह गई थी उसकी कि जीते जी किसी तरह ग्रेसी का ब्याह भी निबट जाएए फिर वह और ग्रेसी की माँ मरियाए किसी प्रकार भूखे.अधपेट भी अपनी जिन्दगी गुजार लेंगे। साथ ही उसे इस बात का भी ख्याल था कि ग्रेसी को यह महसूस न हो कि उसके बाप ने उसे बोझ की तरह कंधे से उतार फेंका और जैसे.तैसे उसे विदा कर दिया। उसने तो यहां तक सोच रखा था कि अगर पैसे के इन्तजाम में कोई दिक्कत हुई तो वह अपनी झोपड़ी तक बेच देगाए मगर ब्याह ऐसी धूम.धाम से करेगा कि दोनों पट्टी के लोग आँख पसारकर देखते ही रह जाएंगे और ग्रेसी भी ससुराल में रौब से रहेगी। उसके बाद चाहे उसे शहर जाकर मजूरी ही क्यों न करनी पड़ेए उसे फर्क नहीं पड़ेगा।

जोसफ का ऐसा विचार वैसे ही नही था। उसकी धमनियों में जो खानदानी खून दौड़ रहा थाए यह उसी की उपज थी। जब उसके बप्पा जीवित थेए तब उसके परिवार की ऐसी हालत नहीं थी। अच्छा खाता.पीता परिवार था उसका। उसके पिताए दादा और परदादा ण्ण्ण्ण् गांव की दोनो पट्टी मिलाकर एकमात्र बढ़ई थे। गांव भर में लकड़ी का कोई भी काम उसी खानदान के हाथो होता आया था। दोनों पट्टी मिलाकर जितने भी घर थे और उन घरों में जितनी चौखटेंए किबाड़ेंए खिड़कियांए चौकियां आदि थींए सभी उसके दादाए परदादा या पिता के हाथो बनाई गई थीं।

बड़ा होकर जोसफ ने भी अपने खानदानी पेशे को अपना लिया था।

जोसफ खानदानी ईसाई भी नहीं था। उसके पूर्वजए पता नहीं कौन से धर्म को मानते थे। शायद हिन्दू ही थे। वैसे प्रारंभ से ही वे आदिवासी नाम से जाने जाते रहे हैं। आज भी वे आदिवासी ही हैं। मगर आदिवासी ईसाई।

उसके परदादा हीए पता नहीं कैसे ईसाई हो गए थे। तभी से उसके खानदान में जन्मे लोगों के नाम बदलने लगे थे। उसके परदादा का नाम डोमन लकड़ा से डैमियन लकड़ा हो गया था। फिर उसके दादा का नाम विक्टर लकड़ाए उसके पिता का नाम अगस्तिन लकड़ा और उसका नाम जोसफ लकड़ा पड़ता गया था।

ईसाई सिर्फ जोसफ का खानदान नहीं बना थाए बल्कि पूरा गांव ही ईसाई हो गया था।

उसके दादा के जमाने के कई बूढ़े आज तक जीवित थे। अक्सर बातों.बातों में वे बताया करते थे कि एक साल उनके गांव में बड़ा भारी अकाल पड़ा था। गांव के बच्चेए बूढ़ेए जवानए सभी दाने.दाने को तरसने लगे थे। मवेशी तक चारे के अभाव में दम तोड़ने लगे थे। ऐसे कठिन समय में किसी देवता के अवतार की तरह सिर से पैर तक उजले कपड़ों में ढके कुछ गोरे लोगों का गांव में आना हुआ था। बाद में पता चला कि वे अंग्रेज थे। उस समय पूरे देश पर अंग्रेजों का शासन था। मगर उस गांव के लोग इतने पिछड़े थे कि शहर को देखना तो दूरए शहरों का नाम तक नहीं जानते थे। फिर उन्हें क्या पता था कि देश गुलाम था या आजाद। उनका देश तो वह गांव थाए जहां के राजा वे स्वयं थे और प्रजा भी स्वयं।

सो अंग्रेज नामधारी किसी जीव से उनका पहला साक्षात्कार हुआ था उस दिन। लम्बा.तड़ंगाए सुनहरे बालए दूध से भी ज्यादा गोरेए नीली आँखों वाले अंग्रेजों को देखकर बच्चे डरकर झोपड़ी में दुबक गए थे और बड़े .बूढ़े भी उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व को देखकर सहम गए थे।

उन अंग्रेजों ने पहले अपनी चिकनी.चुपड़ी बातों से उन्हें भयमुक्त किया था। फिर उस घोर संकट की घड़ी में उनके बीच गेहूँए तेल और पता नहीं क्या.क्या बांटा था। कई महीनों तक वे लगातार गांव में आते रहे थे। लोगों को एक जगह इकट्ठा कर.करके कुछ समझाते.बतलाते रहे थे। उसी समय से उस गांव के लोगों का येसु नामक किसी गुमनाम भगवान से परिचय हुआ था। सभी येसु का गुणगान करने लगे थे। तभी से गांव के लोगों के नाम भी बदलने लगे थे। देसी नाम की जगह नए. नए खूबसूरत अंग्रेजी नाम.विक्टरए पास्कलए डैमियनए नेस्तौर और लड़कियों के सालेनए सेलिनए बेरोनिकाए जूलियाण्ण्ण्आदि।

वह गाँव चारों तरफ से घने जंगलों से घिरा था। जंगल के बीच.बीच में जानवरों का शिकार ही एकमात्र उनके गुजारे का साधन था।

मगर समय के साथ.साथ उनकी आवश्यकताऍ भी बढ़ती गई थीं। गांव में धीरे.धीरे बढ़ईए लोहारए बनियाए नाई आदि भी होने लगे थे। प्रारम्भ में तो वे ष्बाटीष् ;बार्टर सिस्टमद्धके द्वारा अपना काम चलाते थेए मगर धीरे.धीरे उनका सम्पर्क शहर से भी हुआ था। इसके साथ ही उनका सारा लेन.देन पैसे से होने लग गया था। हां शहरों से उनका सम्पर्क अंग्रेजों के मेल.जोल के बाद ही हुआ था।

समय बीतने के साथ.साथ एक जंगल विभाग का दफ्तर भी उस गांव के करीब आ गया था. अनेक हथियारबन्द फारेस्ट गार्डों के साथ। उन्होंने गांव वालों की खेती वाली जमीन जंगल की सम्पत्ति के नाम पर इनसे छीननी शुरू कर दी थी। जंगल की लकड़ी काटने और जानवरों के शिकार पर भी प्रतिबंध लगा दिया था।

गांव में थोड़े बहुत चालाक लोग थेए जो किसी तरह कुछ ले.देकर अपनी जमीन बचा गए थेए पर अधिकतर लोगों की जमीनें चली गई थीं। जोसफ के पिता भी अपनी जमीन नहीं बचा पाए थे। तब गांव के लोग शहरों और कोलियरियों की ओर भागे थे. रोजी.रोटी के चक्कर में।

पर जोसफ के बप्पा कहीं नही गए थे। जाते भी क्योंए उनकी बढ़ईगिरी तो ठीक ही चल रही थी। जंगल विभाग का दफ्तर बना थाए और उसमें जितना भी लकड़ी का काम हुआ थाए उसने ही किया था। उनके जमाने तक तो बढ़ईगिरी के धंधे से खाने.पीने भर की आय हो ही जाती थी।

मगर जोसफ के समय तक यह धंधा धीरे.धीरे मंदा पड़ता गया था। जंगल में लकड़ी काटने पर प्रतिबंध के कारण लकड़ी के लिए भी शहर पर निर्भर करना पड़ता था। दूसरेए गांव के जो लोग शहर जा बसे थेए उन्हें नए.नए डिजाइनों के फर्नीचर गांव से कम कीमत पर शहर में ही उपलब्ध हो जाते थेए जिसे वे गांव ले आया करते थे। फिर जोसफ के हाथो से बनाए गए ष्बाबा आदमष् के जमाने वाले डिजाइन के फर्नीचर पर भला वे क्यों निर्भर करतेघ् हांए ताबूत और घर के छोटे.मोटे कामों के लिए गांव वालों को जोसफ पर ही निर्भर करना पड़ता था।

दो.चार ताबूत की पटरियां वह हमेशा काट.छांटकर रन्दा.उन्दा मारकर तैयार रखा करता था कि अगर वह शहर .उहर गया हो और गांव में किसी की मृत्यु हो जाएए तो मारिया या ग्रेसी भी कील वगैरह ठोककर ताबूत तैयार कर सके। ताबूत की कीमत में भी वह कोई मोल.बट्टा नहीं करता था। अपनी सामर्थ्य के अनुसार लोग जितना भी थमा देतेए वह संतुष्ट रहता।

वैसे अब गांव में मरने वालों की संख्या में भी कमी आ गई थी। गांव के अधिकांश लोग तो बाहर ही बसे थे। अब उनमें से जिन्हें मरना होताए वे उधर ही मर.खप जातेए फिर जोसफ को ताबूत बनाने का आर्डर कहां से मिलता भलाघ्ण्ण्ण्रही बातए घरों में छोटे.मोटे मरम्मत के काम मिलने कीए तो यह कोई रोज.रोज मिलने वाला तो था नहीं। अब तो यह हालत थी कि दोनों वक्त के खाने तक पर आफत थी। महीने में कुछ शामों का उपवास तो निश्चित ही था। अपने परिवार के साथ किसी.किसी तरह वह अपना दिन खेप रहा था।

शहर या कोलियरियों में काम कर रहे उसके कुछ मित्रों ने उसे सलाह भी दी थी कि बेकार ही वह गांव में पड़ा था। गांव से बाहर निकलने पर कोई न कोई काम तो उसे मिल ही जाएगा। और नहीं कुछ तो मजूरी वगैरह करके गुजारे के लायक तो कमा ही लेगा।

मगर जोसफ ने किसी की एक न सुनी थी। साफ.साफ कह दिया था सबसेएष्गांव छोड़ के जाए के बात त हम सोचिए ना सकिस। जौन बप्पा.ददा ईहे गांव के सेवा खातिर जनम के मोराय गेलकए ऊहे गांव के हम कइसे छोड़ सकिसघ्ण्ण्ण्तोंय जा! रहिस ऊहे ठाम। हमरा तीनों ष्जनष् खातिर गांवये ठीक हइस। ई गांव त ऊ हे बखत छुटतउए जखन छुच्छे ठठरी बाच रहिस।ष्

वैसे यह सब जोसफ के सिर्फ कहने की बात थी। ग्रेसी की शादी में यदि उसे अपनी झोंपड़ी बेचनी पड़ीए फिर वह रहेगा कहांघ् शहर तो जाना ही पड़ेगा उसे। मन ही मन उसने भी तो यही तय कर रखा था।

फ्रेड्रिक का बप्पा भी गांव में ही जमा रहा था। जाता भी क्योंघ् उसने तो जैसे.तैसे करके जंगल विभाग के हाथ से अपनी कुछ जमीन बचा ली थी। उसके परिवार का गुजारा उस जमीन से ठीक चल रहा था। एक ही लड़का था उसका . फ्रेड्रिक! . फ्रेड्रिक को भी उसने कहीं नहीं जाने दिया था। उसका कहना था की गांव छोड़कर वही जाएए जिसका पेट गांव में न भरता हो। वह क्यों जाएघ्

हांए फ्रेड्रिक की शादी की चिन्ता अवश्य उसके सिर पर सवार थी।

कई बार तो उसने जोसफ से कहा भी थाए ष्ऐ जोसफ तोंय हम्मर लड़िकाहा के सहिया ;दोस्तद्ध हिकिस कि नाघ्ण्ण्ण् छोड़ न भोज .महुआ के बात! चलए चलके ग्रेसी आ फेडरिक के बिआह हजारीबाग के गिरजा में कर देइस।ष्

मगर हर बार टालता गया था जोसफए ष्ई कौन किसिम के बात करत हइस लुइस! ग्रेसी के मंगनी भोज.महुआ के संगे करले रही कि नाघ् अब बिआहो होयत त भोज.महुआ के संगे होयत।ण्ण्ण्ण्बस्सए दुई.चार महीना आउर। हमरा कोई जल्दी ना हइसघ्ष्

मगर लाख सिर पटकने के बावजूद जोसफ का ष्दुई.चार महीनाष् खिंचता ही गया था। फ्रेड्रिक का बत्तीसवां और ग्रेसी का अट्ठाईसवां भी आगे खिसकता गया था।

मंगनी को बीते कोई सालभर हो चुका था। इस बीच चार.छरू बार ही जोसफ की लुइस से मुलाकात हो पाई थी. वह भी चलते.फिरते। मंगनी के बाद से उसने खुद ही लुइस से मिलना.जुलना कम कर दिया था।एक तो उसके मन में था कि होने वाले रिश्तेदार से कम ही मिलना.जुलना चाहिए.अगर मौके.कुमौके घर.परिवार की कुछ अन्दरूनी बातें मुंह से निकल गई तो बेवजह रिश्तेदारी में हंसाई होगी। दूसरेए वह लुइस के सामने होने से इसलिए भी कतराता था कि कहीं उसने ब्याह की जल्दी कीए तो वह क्या जवाब देगा घ्ण्ण्ण्ण् पर सही अर्थों में उसकी दूसरी बात ही ठीक थी।

डेढ़.दो महीने से तो उसकी लुइस से एक बार भी मुलाकात नहीं हुई थी। वैसे भी परिवार के पेट की सुलगती भट्ठी को ही बुझाने के चक्कर में वह इस तरह जुता था कि दिन.दुनिया की उसे कोई खबर नहीं थी।

इधर मंगनी के बाद से तो उसके घर का खर्चा पानीए खींच.खांचकर ठीक ही चल रहा था। कभी इस घर सेए तो कभी उस घर सेए कोई न कोई मरम्मत वगैरह का छोटा.मोटा काम मिलता ही रहा थाए जिससे गुजर बसर हो रहा था। मगर सप्ताह.डेढ़ सप्ताह से वह बिल्कुल बेकार था। उधर की कमाई के बचे.खुचे पैसों से बैठारी के दिनों की गाड़ी खिंचती रही थी। लेकिन कब तकघ् कहावत है कि बैठे.बैठारी में तो कुबेर का खजाना भी खाली होते देर नहीं लगती। देखते ही देखते फाके की नौबत आ गई थी। और एक दिन तो किसी.किसी प्रकार दिन के भोजन का उपाय हो पाया था। फिर रात और दूसरे दिन सुबह की फाकामस्ती झेलते हुए वह पूरा गाँव घूम आया थाए पर कोई काम नहीं मिला था। मन हुआ था कि गाँव की दूसरी पट्टी भी घूम आए वहए जिधर लुइस रहता थाए पर उधर जाने से हिम्मत ने जवाब दे दिया था.पता नहींए यदि लुइस को मालूम हो गया कि वह काम की तलाश में इधर.उधर मुँह मारता फिर रहा हैए तो क्या सोचे उसके बारे में।

आखिर किसी सपने की तरह उसे बर्नट का ख्याल आया था। एक दिन अपने पड़ोसी बर्नट के साथ महुआ पीते हुए बातों.बातों में ही उसने जिक्र छेड़ दिया था . यदि शादी के लिए पैसे की जुगाड़ न हो पाया तो वह अपनी झोपड़ी बेचकर भी ग्रेसी का ब्याह कर देगा।

इस पर बर्नट नेए जो गांव से दस.बारह मील की दूरी पर के शहर हजारीबाग में किसी हार्ड .कोक की भट्ठी में काम करता थाए कहा थाए ष्जोसफ तोंय आपन झोपड़ी बेचलिस तो हम किनबो। बोलए तो अखनई कचिया ;पैसाद्ध गिन देइस।ष्

इस ख्याल नेए जैसे उसकी दो समस्याओं का हल एक साथ ही निकाल दिया था। एक तो यह कि यदि झोपड़ी बिक गईए तो अबकी के क्रिसमस के समय वह उन पैसों से ग्रेसी का ब्याह भी कर देगा और दूसरी समस्या तत्काल की थी।

परिवार में सिर्फ इतना कह कर कि शहर जा रहा है और शाम तक वापस आ जाएगाए वह शहर की ओर रवाना हो गया था . पैदल ही ।

बर्नट ने उसकी खूब आव.भगत की थी। भोजन तो सिकार ;मांसद्ध के साथ कराया ही थाए रात को रुकने का भी आग्रह किया था कि दारू.सिकार का इंतजाम कर सके। पर जोसफ ने मना कर दिया था। दारू.सिकार की फिक्र थोड़े ही थी उसेघ् उसके सिर पर तो परिवार की चिन्ता दैत्य की तरह सवार थी। जल्दी से जल्दी वह घर नहीं पहुँचाए तो पता नहीं माँ.बेटी का क्या हाल हो। सो उसने बिना किसी भूमिका के मतलब की बात शुरू कर दी थी।

बर्नट तो कब से इसी मौके की तलाश में थाए सो झटपट बात तय हो गई थी .पूरे तीस हजार में। दो हजार रूपये बतौर पेशगी भी उसने जोसफ के हाथ पर धर दिए थे।

लपकते कदमों से वह बस.स्टैंड की ओर रवाना हुआ था। इस बार वह पैदल गाँव नहीं गया था। बस पकड़ ली थी उसने। बस से सिलवार .पहाड़ तक पहुँचते.पहुंचते वातावरण पर सांझ का धुंधलका उतर आया था। वहाँ से उसका गाँव एकपैरिया ;पगडंडीद्ध होकर कोई दो.ढ़ाई मील की दूरी पर था।

बस से उतरते ही वह गाँव की ओर लगभग दौड़ पड़ा था। घर पहुँचते.पहुँचते वह थक कर चूर हो गया था।

उस एक कमरे की झोपड़ी को बीच में तख्ते से घेरकर दो कमरों का रूम दे दिया गया था। अंदर के कमरे में ग्रेसीए अपनी माँ के साथ सोती थी और बाहर के कमरे में ही किचनए जोसफ का बेडरूमए बैठक आदि था।

थका हुआ तो था ही जोसफए सो घर पहुँचते ही सीधा जाकर खटिये पर ष्लम्बलेटष् हो गया था। उसका ध्यान किचनए यानी चूल्हे की ओरए जहां भात डभक रहा थाए नहीं गया था। आँखें मूंदे वह अपने पैरों को अकड़ा.अकड़ाकर थकान उतारने लगा था। दिन भर की थकान के बाद खटिया पर लेटना उसे काफी राहत दे रहा था।

आँखें मूंदे.मूंदे ही उसने ग्रेसी की माँ को आवाज देनी चाही थीए मगर इससे पहले ग्रेसी की आवाज सुनकर उसने आँखें खोल दी थीए ष्चाह लेइसएबप्पा!ष्

ष्चाहष् का नाम सुनकर उसे काफी सुकून मिला था। सचमुच इस समय उसे चाय की बेहद तलब लग रही थी।

खटिया पर उठकर बैठते हुए उसने अलमुनियम वाला चाय का गिलास थाम लिया था। एक चुस्की लेने के बाद उसका ध्यान इस ओर गया था कि घर में चीनीए चाय की पत्तीए कुछ भी तो नहीं थीए फिर यह चायघ् तुरंत ही उसकी गर्दन चूल्हे की ओर घूम गयी थी। चूल्हे पर चढ़ी हुई भात की डेगची को देखकर वह हैरत में पड़ गया था। उसकी प्रश्नवाचक दृष्टि सामने खड़ी ग्रेसी पर टिक गई थी।

ष्आइज उल्टी.पहर एगो ताबूत बिकिस हय बप्पा!ष्

ग्रेसी की बात सुनकर वह प्रसन्न हो गया था। मन ही मन उसने प्रभु येसु को बहुत धन्यवाद दिया था। फिर चाय की चुस्की लेता हुआ पूछ बैठा थाए ष्के मोरिस रे!ष्

ष्मोके नय बतालस। मइया पूछलिस त कहलएं जे जोसफ आतस त खुद्दे मालूम चइल जाइस।ष्

ष्फेरो ;फिर भीद्धए गांव के जनी.मेहरी से नए पूछलस तोर मइया।ष्

ष्कचवा मिलतिये संग मइया चाउर ;चावलद्धलाइन भाइत निढ़ए लागलिस।ष्

जोसफ ने फिर कुछ नहीं पूछा था। चुपचाप चाय सुरकने लगा था। उसके चेहरे पर इतमिनान का .सा भाव तिर आया था।

ष्जोसफण्ण्ण्ण् ऐ जोसफ! सुनत नए हइस रे!ष्

बाहर से अपना नाम पुकारा जाता सुनकर खटिया पर बैठे.बैठे ही उसने आवाज दी थीए ष्के हइस रेए हिनहे आबए नए भीतरे।ष्

आगन्तुक भीतर ही आ गया था।जोसफ को इतमिनान से खटिया पर बैठकर चाय पीते देखकर हैरान होता हुआ वह बोला थाए ष्आय जोसफए अखनहुं बइठल हिकिस! हुंआ लाश उठेक बेरा होइ गेलक। तोंय माटी देबे बास्ते नय जाबे काघ्ष्

ष्के मोइर गेलस रे पीटराघ्ष्

ष्आंयए तोंय नय जानिस लाघ्ष् ताबूत त तोंहे न बनालि।ष्

ष्मोय तो अक्खने आय रहिस शहर बटे ;सेद्ध। हमें का खबरघ् ताबूत तो ग्रेसी आउर ओकर मइयाए कांटी ठोइक .पीट के दय देलिस। हमके बताओ नए के मोइरलकघ् केक्कर घर केघ् अक्खन चाह पीई के मोय निकलत रहिस मालूम करे बास्ते।ष्

ष्ग्रेसी के मइया तोके कुच्छो नय बतैलसघ्ष्

ष्मोय मालूम रहे से मोय नय बतातलिस काघ् कंटिया ठोइकहिक घड़ी कतना पूछलों। कहलिस कि जोसफ आतौं तो ओकरा खुद्दई मालूम चइल जातिस।ष् चूल्हे के पास बैठी.बैठी ही मारिया बोली थी।

ष्ओण्ण्ण्ण् अक्खन बुझालिस। कोन जोगर कहतलिस ऊ मन ;वह आदमीद्धए ग्रेसी के मइया केघ्ण्ण्ण्ण् अनरथ होई गेलस रे जोसफ। सुइन के तोरो जिया दुखतिस। ग्रेसी के होवय वाला आदमीए फेडरिक मोइर गेलस रे।ष्

ष्आंएण्ण् फेडरिकष्बस इतना ही निकल पाया था जोसफ के मुंह से। भौंचक उसकी आँखे पीटर के चेहरे पर टिक गई थीं।ष्

ष्आइज बिहाने ;सुबह हीद्ध से उक्कर पेट खराब रहिस। का जानेए कोन बट्टेए का खाय रहिस ऊ. मन ;वहद्धआर संझिया के पहिलीं ही ई देखिस न।ष्

पर ष्फेडरिक के आगे वह कुछ नहीं सुन पाया था। उसके हाथ में थमा चाय का अलमुनियम वाला गिलासए उसकी हथेली के बीच जोरों से कसता गया थाए जिससे गिलास बिल्कुल ही पिचक गया था। उसकी आँखें डबडबा गई थीं। लुटा हुआ .सा वह देर तक आर्द्र दृष्टि से एकटक पीटर को देखता ही रह गया था। उसके चेहरे से लग रहा थाए जैसे पीटर के कमरे में प्रवेश होने के पश्चात एक बहुत बड़ा तूफान उठा था और पल.भर में ही उस तूफान ने उसके हंसते.मुस्कराते संसार को उजाड़कर मलबे के ढ़ेर में बदल दिया था।

ग्रेसी की माँए जोर से चीख मारती हुई चूल्हे के पास ही पछाड़ खाकर गिरी थी और ग्रेसीए फिर नहीं रूक पाई थी वहाँ। तेजी से भाग कर वह खटिया के पीछे वाले पार्टीशन के अंदर वाली खटिया पर धड़ाम से मुंह के बल गिरी थी।

जोसफ की आँखें अब पीटर के चेहरे से हटकर चूल्हे की डेगची पर जा टिकी थीं। भाप के दबाव से उठता.गिरता ढक्कन अब वातावरण में अजीब कलेजा फाड़ देने वाली ध्वनि उत्पन्न करने लगा था। डेगची में से फेन निकल.निकलकरए डेगची की सतह पर से फिसलता हुआ चूल्हे में गिरकर छनाक.छनाक की आवाज पैदा कर रहा था. जैसेए जोसफ के तमाम अरमान तिल.तिल कर अग्नि को समर्पित हो रहे हों।

अचानक डेगची की ओर मुंह किए ही जोसफए अपनी दोनों हथेलियों से चेहरा ढांपकर फूट.फूटकर रो पड़ा था।

घराना

यद्यपि लोक—लाज, शर्म—हया, औरतों का गहना होता ही है। पर कहावत यह भी है कि आफत—विपत्ति के समय घर में संजो कर रखे गए गहने ही तो काम में आते हैं। और फिर वैसे घरानों के लिए तो औरतें और भी लॉकर में सजा कर रखने वाली वस्तु बन जाती हैं, जो सिर्फ सामाजिक मान—प्रतिष्ठा को अपने रजाई—बिस्तर से लेकर खाना—पीना, उठना—बैठना, सब कुछ समझते हैं। ...और वैसे ही एक घराने में बहू बनकर आई थी ज्योत्सना।

घराना क्या था वह, जैसे घराने की एक—एक पीढ़ी एक—एक सितारा बनकर टंका हुआ हो आकाश में, और जिसकी टिमटिमाहट चकाचौंध बनकर समाज की आंखों को आज तक चौंधियाती आ रही हो।

वैसे समाज की आंखें चौंधिया रही थीं या नहीं, यह तो समाज के लोग ही जानें, मगर भ्रम तो यही पाल रखा था समरेश सिंह के पिता ने। यह जानते—समझते हुए भी कि सितारों की शक्ल में जितनी पीढ़ियों को टंकना था, वह तो टंक ही चुकी थीं। पर आज पीढ़ी—दर—पीढ़ी घराने की रईसी और ऐय्याशी ने राहु—केतु—शनि बनकर ऐसे ग्रसना शुरू कर दिया था घराने को कि अब तो जैसे—जैसे सर छुपाने के लिए खंडहर बन चुकी महज नाम की एक हवेली, पांच—सात बीघे जमीन और सर पर कुछ कर्ज के अलावा कुछ भी शेष नहीं बचा था। और उसी राहु, केतु, शनि के होने वाले उत्तराधिकारी थे बाबू समरेश सिंह, जिनके साथ ज्योत्सना ब्याह कर आई थी हवेली में।

वैसे ज्योत्सना भी किसी ऐसे— गैरे घराने से ताल्लुक नहीं रखती थी। जिस गांव की थी वह, उस गांव तक ही नहीं, बल्कि दूर—दराज के इलाकों तक तूती बोला करती थी उसके घराने की। हालांकि, जमींदारी उन्मूलन तो नहीं हुआ था, पर इसकी सुगबुगाहट शुरू हो चुकी थी, इसलिए आने वाले समय की नब्ज को ज्योत्सना के दादा ने समय आने के पूर्व ही भली—भाँति टटोल लिया था और नब्ज की क्रमशः धीमी होती जा रही गति के अनुकूल वे उपचार में भी जुट गए थे। जिसका पारितोषिक उन्हें यह मिला था कि उनका इकलौता लड़का, यानी ज्योत्सना के पापा पढ़—लिखकर बैंक में उच्चाधिकारी हो गए थे और उनकी इकलौती बेटी, यानी ज्योत्सना की फुफु अपने जमाने में डिप्टी कलक्टर!

स्वाभाविक था कि ज्योत्सना ने भी शहर में अपने पापा के साथ रहते हुए उच्च शिक्षा प्राप्त कर ली थी। एम०ए० तक की शिक्षा— वह भी विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान पाकर।

वैसे ऐसी बात नहीं कि समरेश सिंह के पिता ने अपनी खिसकती जा रही लंगोट को बचाने के चक्कर में अपने सुपुत्र को अशिक्षित ही रहने दिया था। पर एम०एस०सी० तक की शिक्षा दिलवा देने के बावजूद अपने घराने की मान—मर्यादा को ध्यान में रखकर अपने सुपुत्र को नौकरी की ओर पांव बढ़ाने से रोक दिया था उन्होंने। भला सितारों में टंकने वाले घराने का कुलदीपक भी नौकरी करेगा? —शायद अपनी इसी सोच के तहत।

खैर, तो सितारों में टंके घराने के कुलदीपक बाबू समरेश सिंह भी ‘दूर का ढोल सुहावना' की तर्ज पर सितारे ही नजर आए थे ज्योत्सना के दादा को। जबकि ज्योत्सना के पापा ने आगाह जरूर किया था अपने बाबू जी को, ‘सो तो आप जो भी करेंगे, ज्योत्सना के भले के लिए ही करेंगे, मगर अब वह जमींदारी वाली बात रही कहां? लड़का कुछ करता—धरता तो है नहीं...'

‘पर एम०एस०सी० तो है। पढ़ाई उसने वैसे ही तो नहीं की है। तलाश रहा होगा कोई अच्छी—सी नौकरी। ... वैसे सोच लो। खानदान और लड़का, दोनों ही मुझे बेहद पसंद है...”

अब खानदानी संस्कार तो कूट—कूटकर भरा ही था ज्योत्सना के पापा में, फिर अपने बाबू जी से मुंह भला कैसे लगा सकते थे वे, सो मौन साध जाना पड़ा था उन्हें।

उधर बाबू समरेश सिंह के घर में अलग ही एक ‘गुनधुन' शुरू हो गई थी— उस खानदान से बहू कैसे लाएंगे वे, जिस खानदान में लोग तो लोग, औरतें भी नौकरी करती हों।

लेकिन ‘गुनधुन' के बीच भी समरेश सिंह के बाबूजी को क्रमशः अपनी खिसकती जा रही लंगोट का खयाल आ गया था। फिर तो इस तर्क के साथ कि करती हैं नौकरी वहां की औरतें, तो करती रहें, हमारी बहू तो नौकरी में नहीं है न, उन्होंने इस रिश्ते को स्वीकार लिया था। वैसे इस स्वीकार के पीछे मूल कारण था कि अपनी खिसकती लंगोट को बचाने का उन्हें एकमात्र यही रास्ता नजर आया था— उस घराने की लंबी नाक इतनी दहेज तो दे ही देगी, जिससे सिर पर का कर्ज उतार सकें वे।

और सचमुच, समरेश सिंह के खानदान की चकाचौंध और बातचीत के लिए आए लड़की की ओर से कुटुंबों के राजसी सत्कार ने ज्योत्सना के पापा के मुंह से यह उचरवा ही दिया था, ‘वाह, क्या घराना है। जरूर इस घराने का ताल्लुक राजे—महाराजे से रहा होगा। ऐसी शानो—शौकत कहां देखने को मिलती है अब...'

अपने बाबूजी के सामने ज्योत्सना के पापा ने तारीफ का ऐसा पुल बांधा था कि ज्योत्सना के दादा का चेहरा, मानो तृप्ति के महासमुद्र में डूबने—उतराने—सा हो गया था। फिर तो लेन—देन के मामले में इतने उदार हो उठे थे वे कि सचमुच समरेश सिंह के खानदान की लंगोट खिसकते—खिसकते भी फिर से अपनी जगह पर आकर अवस्थित हो गई थी।

इस प्रकार ज्योत्सना, समरेश सिंह के घराने की इज्जत—आबरू, गहना—जेवर, मान—सम्मान, सब कुछ बनकर उस तथाकथित हवेली में अपने लाखों—करोड़ों अरमानों को संजोए आकर समा गई थी, बिना किसी हील—हुज्जत के।

समय अपनी गति से खिसकता गया था। और उस समय की रफ्तार ने परत—दर—परत लंगोटे के रहस्य को भी धीरे—धीरे बेपर्द करना शुरू कर दिया था ज्योत्सना की आंखों के आगे। जिस घराने ने ज्योत्सना के पापा और दादा जी के सामने अथाह जलराशि से लबालब किसी सोते की शीतलता का परिचय परोसा था, वह तो मरूभूमि की मृगतृष्णा के अलावा कुछ और था ही नहीं— कुछ ही दिनों में समझ गई थी ज्योत्सना।

लेकिन थी तो वह भी खानदानी लड़की ही न। सो अपने पति के आगे मुंह कैसे खोल सकती थी? और चूंकि पति के घर को प्रतिष्ठा बन चुकी थी वह, इसलिए अपने घर की पोल मायके वालों के सामने खोल भी तो नहीं सकती थी। पर हालात के निर्णय को सबों को तो मानना ही पड़ता है। हुआ यों था कि एक दिन अनायास ही बाबू समरेश सिंह के बाबूजी चल बसे थे। हालांकि अपनी साठ की उम्र में भी वे हृष्ठ—पुष्ट ही थे, पर काल को भी दिन—तारीख देखकर न्योता थोड़े ही दिया जाता है? सो एक रात अचानक ही सीने में दर्द क्या उठा उनके, सीधे ‘राम नाम सत्य' पर लाकर ही दम लिया उस दर्द ने।

अब ठहरे तो समरेश सिंह भी महाखानदानी लोग ही, फिर बाबूजी का श्राद्धकर्म पूरी शानो—शौकत के साथ तो करना ही था। लेकिन शान—शौकत के निर्वाह के लिए औकात तो थी नहीं उनकी। फिर क्या था, फिर से जमीन कुर्बान करने को उतारू हो गए।

पर इस बार ज्योत्सना को अपना मुंह खोलना ही पड़ा था, ‘अब बची ही कितनी जमीन है हमारे पास ? सिर्फ पांच बीघे न! उतने में से भी दो बीघा बेच ही देंगे, तो हमारे भविष्य का क्या होगा?'

‘तो क्या चाहती हैं आप? समाज में अपनी नाक कटवा लूं?'

‘पर इसका खयाल है आपको कि कल क्या होगा? कल को भीख मांगने की नौबत आएगी, तब नाक नहीं कटेगी?' कुछ अधिक ही मुखर हो उठी थी ज्योत्सना उस दिन, जिसका नतीजा यह हुआ था कि घर की आवाज घर के बाहर जाने की स्थिति तक पहुंचने को आ गई थी। फिर तो ज्योत्सना को ही दम साध लेना पड़ा था हारकर।

लेकिन भविष्य की आशंकाओं से पहले ही सचेत हो जाने की उसकी सोच ने मन—ही—मन उसे किसी निर्णय तक पहुंचने को उकसाना शुरू कर दिया था और अंत में निर्णय ले ही लिया था उसने—

उन दिनों वह अपने पापा के यहां गई हुई थी। मौका देखकर पापा से कहा था उसने, ‘पापा, मैं नौकरी करना चाहती हूं।'

चौंक पड़े थे उसके पापा उसके प्रस्ताव से। बोले थे, ‘क्यों, सब ठीक—ठाक तो है?'

‘क्यों, ठीक क्यों नहीं होगा? दरअसल दिन—भर घर में बैठे—बैठे बोर हो जाती हूं।'

‘पर जमाई बाबू....?'

‘उनकी छोड़िए, उन्हें मैं मना लूंगी।'

और इस प्रकार अपने पापा को राजी कर ही लिया था उसने। फिर तो जमकर तैयारी शुरू कर दी थी उसने। और उस दिन खुशी का ठिकाना नहीं था उसका, जब लेक्चरर के पद के ‘वाइबा' के लिए पापा के हाथ से पत्र मिला था उसे। उसके पापा खुद पत्र लेकर पहुंचे थे उसके घर।

अपनी प्रतिभा पर तो भरोसा था ही उसे कि सफल वह होगी ही। लेकिन जब इस बाबत समरेश सिंह ने सुना, पहले तो ज्योत्सना पर ही हत्थे से उखड़ गए थे, फिर उसके पापा को भी नहीं बख्शा था उन्होंने। वह खरी—खोटी सुनाई थी अपने ससुर को कि वे तो फिर घंटे—दो घंटे के लिए भी नहीं टिक पाए थे वहां और सीधे शहर वापस लौट गए थे। गुस्सा उन्हें अपने दामाद पर कम और ज्योत्सना पर ही अधिक आया था कि जब दामाद को मंजूर नहीं था, फिर नौकरी के लिए जिद क्यों की उसने।

दरअसल घर के अंदरूनी हालात का पता तो था नहीं उन्हें।

अपने पापा के जाने के बाद अपने पति परमेश्वर को खूब समझाने की कोशिश की थी उसने, ‘आप समझते क्यों नहीं? आपकी निशानी मेरे पेटे में पल रही है। और घर के जो हालात हैं, वे मुझसे छुपे हुए तो नहीं हैं। कम—से—कम हमारे होने वाले बच्चे के भविष्य का तो ख्याल कीजिए....'

मगर समरेश सिंह टस से मस नहीं हुए थे। उनके होठों पर एक ही रट, ‘हमारे घराने में न तो कभी किसी ने नौकरी की है, और न करेगा। तुम्हें करनी ही है, तो यह समझ लो कि हमारा तुम्हारा कोई वास्ता नहीं। नाता तोड़कर जाना चाहो, तो जा सकती हो...।'

आज जीवन में पहली बार समरेश सिंह ने ज्योत्सना को ‘आप' की जगह ‘तुम' से संबोधित किया था।

उस सारी रात दोनों पति—पत्नी एक—दूसरे से मुंह फेरे रहे थे बिस्तर पर। समरेश सिंह तो थोड़ी देर में सो गए थे, पर ज्योत्सना की आंखों में नींद का कतरा नहीं— सारी रात भूत, वर्तमान और भविष्य उसकी आंखों के आगे चलचित्र के समान दृश्यवत्‌ नाचता रहा था। —भूत, यानी इस घराने का गुजरा हुआ कल; वर्तमान, यानी घराने की जली हुई रस्सी की ऐंठन और भविष्य, बस जली और ऐंठी हुई रस्सी की राख के रूप में भुरभुराकर ढह जाने का एक निश्चित आभास। ...और सुबह तक अपनी होने वाली संतान के भविष्य की विकरालता को महसूस कर दिल कड़ा करके एक ठोस निर्णय ले ही लिया था उसने।

और तब अपनी खानदानी हेठी में आपादमस्तक सने हुए बाबू समरेश सिंह ने भी ज्योत्सना को मना नहीं किया था जाने से।

वैसे उसके जाने के बाद गांव में यही प्रचारित कर दिया था उन्होंने कि ज्योत्सना मां बनने वाली थी और चूंकि परंपरा के अनुसार पहला बच्चा मायके में होना चाहिए, इसलिए ही वह चली गई है। बच्चा होने के बाद वह चली आएगी।

उधर, पापा के पास पहुंचकर अपनी ससुराल के सारे अंदरूनी हालात से परिचित कराते हुए पापा से बोली थी वह, ‘पापा, मुझे अपने बच्चे का खयाल रखना चाहिए या नहीं ? वैसे कुछ दिनों में जाकर मैं उन्हें भी समझा लूंगी। तब तक उनका गुस्सा भी उतर जाएगा।'

उसके पापा को अपनी बेटी की सूझ—बूझ पर गर्व ही हुआ था।

जैसा कि खुद पर भरोसा था ज्योत्सना को, ‘वाइबा' में सफलता हासिल कर लेक्चरर पद पर नियुक्त हो गई थी वह। फिर कुछ ही महीने बाद एक खूबसूरत से बच्चे की माँ भी बन गई थी।

उधर, बच्चा होने के बाद भी जब ज्योत्सना ससुराल वापस नहीं लौटी थी, समरेश सिंह को बातों—बातों में ही गांव वालों को समझाते रहना पड़ा था कि पापा की बीमारी के कारण नहीं आ पा रही है... या देखिए न, उसके पापा स्वस्थ हुए ही हैं कि उसकी माँ ने बिस्तर पकड़ लिया....

एकमात्र घर के सबसे विश्वस्त नौकर गोकुल को मालिक और मालकीन के बीच की अनबन का पता था, जो ज्योत्सना को उसके पापा के पास पहुंचाने गया था।

तीन वर्षों का लंबा अंतराल! इस बीच ज्योत्सना ने अपने जीवन को पूरी तरह मशीन बना लिया था। सिर्फ कॉलेज और बच्चा। हां, रातें कांटों का बिस्तर जरूर बन जातीं उसके लिए, जो उसके एहसास में समरेश सिंह को उतारकर उसे अंदर—बाहर से लहूलुहान कर जातीं।

वैसे एक बार गर्मी की छुट्टियों में वह गई जरूर थी अपनी ससुराल। मगर अपमानित होकर ही वापस लौटना पड़ा था उसे। लेकिन गर्मी की छुट्टियां बिताने के बाद ही। क्योंकि समरेश सिंह नहीं चाहते थे कि गांव वालों को उनके बीच की अनबन का पता चले।

पूरी गर्मी की छुट्टी दोनों में संवादहीनता के बीच ही बीती थी। लेकिन उस बार के बाद फिर दोबारा नहीं गई थी ज्योत्सना वहां लौटकर।

अचानक घबराया—घबराया सा एक दिन गोकुल पहुंचा था ज्योत्सना के पास। बोला था, ‘गजब हो गया मालकीन। हवेली को साहूकार जप्त करने वाला है। कचहरी में मोकदमा खड़ा करने वाला है।'

सनाका मार गया था ज्योत्सना को यह सुनकर— तो जिस बात का अंदेशा था, वह उभरकर सामने आ ही गया था। यानी लंगोट के उतरने का दिन। वह भी सिर्फ पाँच लाख के एवज में।

फिर तो भागी थी ज्योत्सना गोकुल के साथ बिना एक दिन भी गंवाए। हवेली में कदम रखते ही समरेश सिंह पर नजर पड़ी थी उसकी। चेहरे पर वही हेठी.... आवाज में वही सख्ती, ‘क्यों आई हो यहां?'

पर ज्योत्सना ने कोई उत्तर नहीं दिया था। चुपचाप अंदर जाकर फ्रेश—वे्रश हुई थी, फिर गोकुल को भेजकर साहूकार को बुलवाने के बाद उसका कर्ज अदा करके हवेली का कागज हस्तगत कर लिया था।

दूसरे दिन लौटने से पहले समरेश सिंह के पास पहुंची थी वह। समरेश सिंह के चेहरे की हेठी पूर्ववत्‌ ही। फिर तो पल भर के लिए भी नहीं ठहरी थी वह वहां। हवेली के कागज उनके सामने रखकर गोकुल के साथ बाहर निकल गई थी स्टेशन के लिए।

ट्रेन अभी खुलने को ही थी कि ज्योत्सना को अपनी ओर ही आ रहे समरेश सिंह नजर आए थे। पास आकर कुछ—कुछ सकुचाते हुए बोले थे वे, ‘मैंने भी ट्रेन की टिकट ले ली है। मैं भी चलूं आपके साथ?'

समरेश सिंह आज इस तरह हारे—थके से उसके सामने खड़े हैं, यह देखकर ज्योत्सना की आंखें छलछला आई थीं। उनके दोनों हाथों को खिड़की के रास्ते ही हाथों में लेकर चूमती हुई फफक पड़ी थी वह।