Ghonchu Ratan Verma द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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कथा संग्रह

वेतन का दिन

रतन वर्मा

संक्षिप्त परिचय

नाम ः रतन वर्मा

जन्म तिथि ः 06.01.1951

जन्म स्थान ः दरभंगा

प्रकाशन (पत्रिकाओं में) : हंस, धर्मयुग, इंडिया टुडे, सारिका, आजकल, समकालीन भारतीय साहित्य, नया ज्ञानोदय, पांखी, इन्द्रप्रस्थ भारती आदि पत्रिकाओं में लगभग 200 कहानियाँ एवं इनके अतिरिक्त समीक्षायें, साक्षात्कार, कविताएँ, गीत, गजलें, संस्मरण प्रकाशित।

पुस्तकें : ‘पेइंग गेस्ट', ‘दस्तक' एवं ‘नेटुआ' (कहानी संग्रह), ‘यात्रा में' (काव्य संग्रह), ‘रुक्मिणी' एवं ‘सपना' (उपन्यास), ‘श्रवण कुमार गोस्वामी एवं उनके उपन्यास' (आलोचना पुस्तक)

पुरस्कार :

— ‘गुलबिया' कहानी को वर्त्तमान साहित्य द्वारा

आयोजित कृष्ण प्रताप स्मृति पुरस्कार का प्रथम

पुरस्कार (1989)

— नाट्‌यभूमि सम्मान (1991)

— ‘सबसे कमजोर जात' कहानी आनन्द डाइजेस्ट

आंचलिक कथा प्रतियोगिता में सर्वश्रेष्ठ (1991)

— ‘नेटुआ' नाटक : साहित्य कला परिषद्‌, दिल्ली द्वारा दशक के सर्वश्रेष्ठ छहः नाटकों में शामिल (1992)

— ‘अवसर' सम्मान (1994)

— समग्र साहित्य पर ‘राधाकृष्ण पुरस्कार' (2003)

— ‘निखित भारत बंग साहित्य सम्मेलन, नई दिल्ली' द्वारा

विशिष्ट कथाकार पुरस्कार (2004)

सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन

सम्पर्क : क्वार्टर सं0 के—10, सी0टी0एस0 कॉलोनी, पुलिस लाईन के निकट, हजारीबाग—825301 (झारखण्ड)

मोबाईल न0 9430347051, 9430192436

म्उंपसरू तंजंदअमतउींं्रंतपइंह/लींववण्बवउए तंजंदअमतउींं्रंतपइंह/हउंपसण्बवउ

भूमिका

रतन वर्मा की कहानियों में सामाजिक यथार्थ का जो चेहरा उभर कर सामने आता है, वह समाज की तमाम अनुकूल और विद्रूप स्थितियों को पूरी जीवंतता के साथ रूपायित करता है। यदि वे स्त्री विमर्श को अपनी कथा का विषय बनाते हैं, तो स्त्रियों की सामाजिक, पारिवारिक तथा निजी, तमाम हालात को इस तरह प्रस्तुत करते है, जैसे वह लोगों के समक्ष एक चित्र प्रस्तुत कर रहें हैं।

इस संग्रह की ‘वेतन का दिन' कहानी में इन्होंने समाज के निम्न मध्यवर्गीय परिवार के आर्थिक हालात से जूझने तथा माह के प्रथम दिन ही वेतन मिलने के साथ देनदारी का ऐसा दबाब होता है, जिसमें वेतन मिलने की खुशी उस दवाब के आगे अपना दम तोड़ देती है।

‘डाल से बिछुड़ी.......' कहानी एक ऐसी प्रेम कहानी है, जिसमें युवा और युवती सिर्फ संवेदनात्मक स्तर पर एक दूसरे को महसूस करते है, पर सामाजिक और पारिवारिक बंधनों के कारण एक दूसरे से मिल नहीं पाते और उन्हें बिछुड़ना पड़ता है।

‘घोंचू' कहानी एक ऐसे युवक की कहानी है, जो पदाधिकारी होते हुए भी अपने अधीनस्थों को इतनी सहुलियते देता है कि अन्ततः उन अधीनस्थों की नजरों में ही वह घोंचू सिद्ध हो जाता है।

संग्रह की सभी कहानियाँ अपनीे रोचकता एवं मार्मिकता के साथ सहज पठनीय एवं हृदयस्पर्शी बन पड़ी है।

अनामी शरण बबल

वेतन का दिन

बालकनी को फलांगती हुई सूरज की पहली किरण ने जैसे ही श्यामल की देह सहलायी, उसकी नींद उचट गयी थी। नींद उचट जाने के बावजूद अलसाया—सा अपने बिस्तर पर वह पड़ा ही रह गया था। मुँह से सिर्फ दो शब्द निकले थे उसके, ”शीलाऽऽ..... चाय!“ इसके साथ ही नींद की खुमारी ने फिर से उसे अपने सम्मोहन में बांध लिया था। थोेड़ी देर बाद शीला के झकझोरे जाने पर ना—नुकर करते हुए भी उठना ही पड़ा था उसे।

बिस्तर पर पालथी मारकर बैठते हुए उसने शीला के हाथ से चाय का प्याला थाम लिया था।

उसे प्याला थमाने के बाद शीला भी अपने दूसरे हाथ में पकड़े गिलास से चाय की चुस्की लेती हुई उसके पास ही बिस्तर पर बैठ गयी थी।

श्यामल की दृष्टि जैसे ही प्याले की चाय पर पड़ी, उसका मुँह अजीब कसैला—सा हो गया था। शीला को घूरते हुए बोला था, ”यह क्या, सुबह—सुबह लाल चाय?“

अब जो है, पी लो।........ सुबह—सुबह के आहार पर टीका—टिप्पणी नहीं करनी चाहिए। भगवान को बुरा लगता है।.....

शीला का भी मूड उखड़ गया था उसकी बात से। बोली थी, ”तो क्या करूँ ?..... जानते नहीं, आज कौन—सी तारीख है ? .... पहली तारीख, समझे ?...... पिछले दस दिन मैंने कैसे—कैसे, किस—किस से कर्ज—उधार लेकर घर चलाये हैं, यह मैं ही जानती हूँ। .... तुम्हें क्या, तुम तो बस महीने की पहली तारीख को दो हजार रुपये मेरी हथेली पर रखकर निश्चिन्त हो जाते हो। झेलना तो पूरा महीना मुझे ही पड़ता है न!“

”बस, तुम्हें तो सिर्फ भाषण देना आता है।..... मैं पूछता हूँ, दूध तो ग्वाले से भी लिया जाता है या नहीं ? .....मानता हूँ, डब्बे वाला दूध खत्म हो गया होगा, लेकिन थोड़ा—सा उसी में से रख दिया होता, तो क्या फर्क पड़ गया होता! यही न कि बच्चों को थोड़ा कम पड़ जाता।....... मगर तुम्हें कौन समझाये!.... भेजे में अक्ल होती, तब न!“

शीला की आँखें छलछला आयी थीं उसकी बात से। बिना एक शब्द बोले किचन में जाकर दूध वाला भगोना उठा लायी थी। फिर भगोने को बिस्तर पर ही श्यामल के सामने रख दिया था उसने, जिसमें फटे हुए दूध का पानी छलछला रहा था। तत्पश्चात्‌ रूंधे हुए गले से बोली थी वह, ”देख लो अपनी आँखों से ...... दूध फट गया, तो इसमें मेरा क्या कसूर......“

मगर श्यामल भी हार मानने वाला थोड़े ही था। बोला था, ‘लेकिन घर में नींबू तो रहा ही होगा। दो बूँद नींबू ही निचोड़ दी होती.......'

इस बार एकदम से तिलमिला उठी थी शीला। बोली थी, “जैसे नीबू का पेड़ लगा रखा है न तुमने।... यहाँ तो कई दिनों से आलू—प्याज पर आफत है और तुम्हें नींबू सूझ रहा है।”

भड़क उठा था श्यामल भी। आखिर पुरुष जो ठहरा। ऊपर से एक अदद गुलाम—सरीखी बीबी का पति भी। अब कोई गुलाम अपने मालिक से मुँह लगाये, यह भी कोई बरदाश्त करने जैसी बात हुई ? बोला था, ”तो इसी बात को सीधे मुँह से नहीं कह सकती ? .....न्न, तुम जैसी औरत से तो कुँआरा ही भला।...... सुबह—सुबह मूड खराब करके रख दिया तुमने......“

“तो अब भी क्या बिगड़ा है ? ....घोंट दो मेरा गला। सारी कलह की जड़ मैं ही हूँ न!.... न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी!” — इतना बोलकर फफकती हुई उठी थी वह और किचन में जाकर नाश्ते के लिए आटा गूंधने लगी थी। आटे में पानी के साथ उसके आँसू की कुछ बूँदें भी धुल—मिल गयी थीं।

श्यामल के घर में ऐसी कलह आये—दिन की बात होकर रह गयी थी। जब भी घर में किसी चीज का अभाव होता, हड़कम्प की—सी स्थिति व्याप जाती। कभी पति—पत्नी में झगड़े का माहौल, तो कभी झगड़े का सारा गुस्सा बच्चों के कोमल गालों और पीठ पर।

अभी परसों ही तो.......! .... शीला की एक साड़ी कहीं खोंच—वोंच लग जाने से एक जगह फट गयी थी। उसी साड़ी को पहने हुए वह जल्दी—जल्दी घर का काम निपटाने में व्यस्त थी।

साड़ी के फटे हुए हिस्से पर श्यामल की नजर पड़ी थी। शीला को टोकते हुए बोला था वह, ”साड़ी अगर फट गयी है, तो सिल क्यों नहीं लेती। जानती नहीं, आजकल पाँच सौ से नीचे की तो साधारण—सी सूती साड़ी भी नहीं आती.....“

”तो कौन—सा मैं साड़ी खरीदने को कह रही हूं कि कीमत बता रहे हो मुझे!.... जब किस्मत ही फटी हुई है, तो फटी हुई साड़ी पर कितना ध्यान देती रहूं........”

भृकुटियाँ तन गयी थीं श्यामल की भी। बोला था, ”इस औरत का दिमाग तो हमेशा सातवें आसमान पर रहता है। बात को बतंगड़ कैसे बनाया जाय, यह तो कोई तुमसे सीखे। छोटी—छोटी बात पर भी जुबान तलवार बन जाती है तुम्हारी।“

“और तुम्हारी जुबान तो जब देखो, फूल बरसाती रहती है। है न ?”

और भी भड़क उठा था श्यामल। तेबर भरी आवाज में बोला था, ”देखो शीला, अब तुम हद से बढ़ती जा रही हो।.... पता नहीं किस जाहिल से शादी कर ली मैंने। जीवन नरक होकर रह गया है पूरी तरह।....... पति से किस तरह बात की जाय, पता नहीं, इसके माँ—बाप ने सिखाया है या नहीं।“

बस पड़ गया था आग में घी।.... कोई औरत, चाहे कुछ भी बरदाश्त कर ले, मगर अपने माँ—बाप की आलोचना तो कतई बरदाश्त नहीं कर सकती। बिफरती हुई बोली थी वह, “हद हो गयी श्यामल अब!..... शादी तुमने मुझसे की है। जितनी फजीहत करनी हो, मेरी कर लो।........ कर लो क्या, कर ही रहे हो।...... लेकिन मेरे माँ—बाप तक पहुँचने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं !...... तुमसे ब्याह क्या हुआ मेरा, नरक तो मुझे भुगतना पड़ रहा है।..... पहले तो खुद गाली—फजीहत सुनती थी, अब सात पुरखों की भी आरती उतरवा रही हूं तुमसे।.... इससे बेहतर तो यह होता कि यह दिन देखने से पहले ही भगवान उठा लेते मुझे.....“

अभी दोनों के बीच महाभारत की शुरूआत ही हुई थी कि अपनी शामत को आमंत्रित करता दीपू उपस्थित हो आया था वहाँ, ”मम्मी, ......मैथ्स की कॉपी खत्म हो गयी है। कई दिनों से सर की डॉँट खानी पड़ रही है......“

अभी शायद उस मासूम की बात समाप्त भी नहीं हुई थी कि बिफर पड़ी थी शीला — ”तो मैं क्या करूँ ?..... लगता है, सभी का कर्ज मैंने ही खा रखा है। ....... पापा से कहते मुँह जलता है ?“

बेचारे दीपू की तो सिट्‌टी—पिट्‌टी गुम।.... मन ही मन सोचा होगा उसने कि क्या फर्क पड़ जाता, अगर एक दिन सर की डॉँट और खा लेता।

श्यामल की दृष्टि अब शीला पर से हटकर दीपू पर केन्द्रित हो गयी थी। दीपू पर अपनी पूरी खीझ उतारते हुए बोल पड़ा था वह, ”अभी पिछले महीने ही तो तुम्हारी मैथ्स की कॉपी खरीदी थी मैंने। इतनी जल्दी कैसे खत्म हो गयी ? आँए!“

”पिछले महीने कहाँ पापा।..... उसको तो काफी दिन हो गये। उस कॉपी का तो सारा पन्ना भर गया है।.... उस दिन मैंने आपसे कहा भी तो था.....।“

”अब देखो, यह भी मुझे ही झूठा बना रहा है।“

”सच पापा, उस कॉपी के तो काफी दिन हो गये.....“

“सच के बच्चे!..... तो मैं ही झूठ बोल रहा हूँ।.... है न ?..... हुँः, पढ़ाई—लिखाई साढ़े—बाईस और लाट—साहब को रोज—रोज नयी—नयी कॉपियाँ ही चाहिएं।“

बेचारा दीपू।..... आगे एक शब्द भी नहीं बोल पाया था वह। चुपचाप सिर झुकाये जमीन निहारता खड़ा रह गया था।

अचानक अंदर वाले कमरे से बेबी और निन्नी के आपस में झगड़ने की आवाज टकरायी थी श्यामल के कानों से। एकदम से झल्ला उठा था वह। चिंघाड़ता हुआ—सा बेबी को पुकारा था उसने — ”बेबी ई!....... बेबी ई ई ई। यह अंदर कुहराम क्यों मचा रखा है तुम दोनों ने ?“

अंदर वाले कमरे से तेजी से निकलकर बेबी उसके सामने आ खड़ी होती हुई बोली थी, ”देखिए न पापा, निन्नी ने मेरी कलम ले ली है।...... मुझे होम—वर्क करना है और वह दे ही नहीं रही।“

”निन्नी.....! निन्नी ई!“ — पुनः चिंघाड़ उठा था श्यामल।

सहमती हुई निन्नी उसके सामने आ खड़ी हुई थी।

”क्यों निन्नी, बेबी की कलम तुमने क्यों ले ली ?“

”मुझे भी होम—वर्क करना है पापा.......“

”मगर तुम्हारी कलम ?“

”ज्ज....... जी.....“ — इसके आगे कुछ नहीं बोल पायी थी वह। सिर्फ अपनी भयभीत आँखों से अपने पापा के तमतमाये चेहरे को निहारती रही थी।

”सुना नहीं तुमने ? ..... तुम्हारी कलम कहाँ है ?“

काँप उठी थी निन्नी पापा की आवाज से। घिग्घी—सी बँध गयी थी उसकी। बोली थी — “म..... म मिल नहीं रही पापा।”

”क्या मतलब ?“

निन्नी खामोश !

अचानक एक कराड़ा तमाचा पड़ा था उसके गाल पर। फिर उसे बाँह से पकड़कर श्यामल ने अपने पास खींच लिया था और दनादन कई मुक्के जड़ दिये थे उसकी पीट पर। फिर बोला था, ”न किताब कॉपी का ठिकाना और न कलम का।..... प्रोगे्रस रिपोर्ट देखो तो कई—कई सब्जेक्ट्‌स में रेड मार्कस......“

शीला किचन से ही बाहर वाले कमरे में हो रही महाभारत—गाथा सुन रही थी। बरदाश्त के बाहर हो चुकी थी वह सब उसके। वहीं से सनसनाती हुई बाहर वाले कमरे में आकर बोली थी वह, ”हाँ—हाँ, अब मार ही डालो इसे। .... एक कलम क्या खो गयी इससे, जैसे तुम्हारी सारी सम्पत्ति ही लुट गयी।..... जैसे तुम कभी बच्चा थे ही नहीं।“

”तुम बीच में मत बोला करो शीला!..... इसी से तो बच्चे बिगड़ रहे हैं। कभी कॉपी गुम, तो कभी कोई किताब..... और कभी कलम! मैं तो आजिज आ गया हूँ खरीदते—खरीदते। ऊपर से इनके प्रोग्रेस रिपोर्ट्‌स तो देखो.....”

”तो इसमें इनका क्या दोष है ?.... बोलो!...... कई बार कहा है कि इन्हें ट्‌यूशन दे दो।..... लेकिन तुम्हें तो.....“

“दीपू को ट्‌यूशन नहीं दे रखा है मैंने ?...... वह तो सफिसियेन्ट है इन्हें पढ़ाने के लिए।..... वह थोड़ी देर नहीं देख सकता ?..... अब एक—एक के लिए अलग—अलग ट्‌यूशन्स ?...... संभव है ?“

“तो दीपू भी भला क्या करे!.... सुबह के छः से आठ तक तो ट्‌यूशन पढ़ने जाता है। आकर, जल्दी—जल्दी तैयार होकर स्कूल भागता है। लौटकर थोड़ी देर खेलता है, फिर स्कूल और ट्‌यूशन वाले टीचर का होम—वर्क बनाता है। इसके बाद उसके पास इतना समय ही कहाँ बचता है कि दोनों को पढ़ा सके.......“ — इतना कहते—कहते उसका गला रुँध गया था।

अचानक सबों के नथुनों में किसी चीज के जलने—जैसी कोई गंध समायी थी। आँखों को पोंछती हुई शीला भागी थी किंचन की ओर, जहाँ चूल्हे पर चढ़े ताबे की रोटी धुआँ उगलती हुई कोयला हो चुकी थी।

शीला के उलाहने से श्यामल को अपनी असहायता का एहसास हो आया था। मन ही मन सोचा था उसने — जिस गुनाह की सजा उसे स्वयं को मिलनी चाहिए थी, वह अपने बच्चों को दे रहा है।

पास खड़ी, बिलख रही निन्नी की ओर आँखें उठायी थीं उसने।

उसका बिलखता चेहरा, श्यामल के भीतर एक टीस—सी उभारने लगा था। कलेजा दरक उठा था उसका। निन्नी के बालों में उँगलियाँ फेरता हुआ बोला था वह, ”बेटे, चीजों को सँभाल कर रखना चाहिए न!..... खैर, जाओ, जेब से डेढ़ रुपये निकालकर एक ‘राइट एंड थ्रो' पेन मँगवा लो। ...दीपू से बोलो, ला देगा।“

पापा की प्यार—भरी बात से निन्नी का बिलखना अचानक ही थम गया था। फिर चहकती हुई बोली थी वह, ‘पापा, एक ‘सम' नहीं बन रहा। बता देंगे ?“

श्यामल को निन्नी हद की मासूस और प्यारी लगी थी उस वक्त। ठीक बालकनी में रखे गमले के पौधे की कली की तरह, जो अगर ढंग से खिल जाय, तो पूरी बालकनी को आकर्षक और सुगन्धित बना दे, और अगर नहीं, तो ? जरूरत है उसकी सही देखभाल की!

लेकिन श्यामल आखिर करे भी तो क्या !..... जितना कर सकता है, करता तो है ही।..... चाहकर भी अपनी असमर्थता के भँवरजाल से मुक्त नहीं हो पाता है।

माह का वह पहला दिन।

किसी भी नौकरीपेशा व्यक्ति के लिए खासा उल्लास का दिन तो होता ही है। और फिर हो भी क्यों नहीं!..... इस दिन पूरे महीने के श्रम की कीमत के भुगतान का दिन होता है — नयी—नयी योजनाओं का दिन!..... एक नयी शुरूआत, नये उमंग का दिन!

लेकिन श्यामल का तो माह के उस पहले दिन की सुबह ने ही मूड खराब करके रख दिया था। एक तो लाल चाय का कसैलापन, दूसरे श्रीमती जी के साथ हुई चख—चुख!

बिस्तर पर पड़े—पड़े ही सोचा था श्यामल ने — ”क्या इसे ही जीवन कहते है?..............अगर हाँ, तो क्या इस जीवन का कभी कोई अंत भी संभव है — किसी नयी—सुखद शुरूआत क लिए?“

एक गहरी साँस लेकर बिस्तर से उठ गया था वह।

दीवार—घड़ी पर नजर पड़ी थी उसकी — आठ बज रहे थे।

सोचा था उसने — “कितना सुखद जीवन है इस घड़ी का भी। निर्विरोध टिक—टिक करते आगे बढ़ते रहना । न कोई चिन्ता, न कोई दायित्व! सुबह और शाम तो मेरी ही तरह इसके लिए भी आती है, लेकिन इसकी गति मेरी तरह शिथिल..........बल्कि यों कहें कि अवरूद्ध तो नहीं होती।......लेकिन नहीं, इसकी भी गति अवरूद्ध हो सकती है.........अगर इसे भरपूर चाभी न मिले तो!......और उत्तरदायित्व?.....एक एक अंकों......एक एक सेकेण्ड के प्रति उत्तरदायित्व है यह भी, जैसे में अपने परिवार के एक—एक सदस्य के प्रति.....“

अनमने मन से उठा था वह और बाथरूम में घुस गया था।

बाथरूम की बदहाली ने उसे और भी कोफ्त कर दिया था। मुँह वाश करने के लिए उसने पेस्ट का ट्‌यूब उठाया, तो सिर से पैर तक चिपका हुआ। अपनी पूरी ताकत से ट्‌यूब की गर्दन दबाई, मगर कोई फायदा नहीं। एक कतरा तक नदारद!— बिना पेस्ट के ही ब्रश करना पड़ा था उसे। ......सोप—केश में नहाने का साबुन भी अपनी अंतिम सांस ले रहा था। स्टैण्ड पर टंगा तौलिया, जिसे कब का रिटायर्ड हो जाना चाहिए था, अब तक टंगा रहकर उसका मखौल उड़ा रहा था। चार—पाँच महीने से हर माह नया तौलिया खरीदने का प्रस्ताव, बजट में शामिल होता, फिर रद्‌द होता रहा था।

खैर, नहा—धोकर वह रोज की तरह ध्यान—पूजा के लिए भगवान की प्रतिमा के सामने जा खड़ा हुआ था। गणेश—लक्ष्मी की प्रतिमा टकटकी साधे उसे ही निहारे जा रही थी।

प्रतिमा के पास रखी अगरबत्ती के पैकेट को उठाकर अगरबत्ती निकालने लगा था वह। मगर यहाँ भी धत्ता! पैकेट बिल्कुल खाली था। यहाँ तक कि प्रसाद के लिए मिश्री भी नदारद !

मन खीझ से भर उठा था उसका। इच्छा हुई थी कि अपनी सारी खीझ वह शीला पर उतार दे, मगर तुरंत ही खुद को संयत कर लिया था। शीला बेचारी भी आखिर क्या करे!.......शक्ति भर भक्ति तो वह करती ही है।

उसके चेहरे पर एक व्यंग्य—भरी मस्कुराहट उभर आयी थी। मुँह ही मुँह में बुदबुदाया था वह, “लो भगवान, अब भुगतो तुम भी। ....उतरवा लो आरती मुझसे और चढ़वा लो प्रसाद! न्न, ठीक ही कहता है कामरेड शशि कि भगवान—वगवान कुछ नहीं होता दुनिया में।......कौन—सा गलत कहता है वह? ......जो अपनी खुद की रोटी की जुगाड़ नहीं कर सकता, वह भला दूसरों को क्या दे सकता है?“

फिर भी, बेमन से ही, हाथ जोड़कर कुछ—कुछ बुदबुदाता रहा था वह । संस्कारों के बंधन से मुक्त हो पाना इतना आसान थोड़े ही होता है। सोचा तो उसने यह भी होगा कि अगर कहीं भगवान का कोई अस्तित्व हुआ तो?

पूजा के उपरान्त जल्दी—जल्दी वह दफ्तर की तैयारी में जुट गया था।

वेतन के दिन भी दफ्तरों में कहीं काम—वाम होता है?.........और आज चूँकि वेतन का दिन था, इसलिए दफ्तर के सारे कर्मचारी अपने—अपने काम के प्रति लापरवाह ही थे। सिर्फ बातचीत में मशगूल!

”यार निखिल, क्यों न आज शाम को हो जाय एक—एक पैग! वेतन का दिन है आज! थोड़ी रिलैक्शेशन तो होनी ही चाहिए।...क्यों?” कामरेड शशि ने अपनी कुर्सी पर बैठे—बैठे ही कहा था।शशि को दफ्तर के सारे कर्मचारी कॉमरेड कहा करते थे। वह इसलिए कि वह थोड़ा कम्युनिस्टिक—माइंड का था।

“यार कॉमरेड, श्यामल से भी पूछ लो।.....अगर वह राजी हो जाय तो....“

”क्यों भई श्यामल!......हो जाय?“

”नहीं कॉमरेड। आज घर जरा जल्दी पहुँचना है। कुछ मार्केटिंग—वार्केटिंग।”

बीच में ही बात काटकर शशि बोल पड़ा था, ”यार, कभी तो दुनियादारी से बाहर भी निकला करो।...अरे, घर के काम तो रोज ही होते रहेंगे।“

“इसका तो कॉमरेड, बस वैसे ही है।.....जब देखो, तब घर, बच्चे या मार्केटिंग का बहाना...।“ निखिल बोला था

”नहीं यार, ऐसी बात नहीं ! ...तुम कल रख लो यह प्रोग्राम।....आज तो सचमुच...।“ वैसे श्यामल जान रहा था कि मार्केटिंग—वार्केटिंग वाला काम आज तो होने से रहा! अब जो भी होगा, कल ही। आज की शाम वह पूरी तरह शीला के साथ गुजारना चाह रहा था। शीला के साथ हुई सुबह की नोक—झोंक के बारे में घर से दफ्तर तक के पूरे रास्ते वह विचार करता रहा था। शीला उसे कहीं से भी दोषी नजर नहीं आयी थी। अगर दोषी था, तो वह स्वयं। वह बेचारी तो अग्निकुंड में जबरन डाली गयी धूप—अच्छत थी। अब, जब जल रही थी, तो धुआँ भी न उगले?.....न्न, आज की शाम तो बस वह सिर्फ शीला का होकर रहेगा। और नहीं कुछ, तो सिनेमा—विनेमा ही दिखा लाएगा उसे। आज तो जरूर........।

”क्यों भई श्यामल !.....कहाँ गुम हो गये?...........चलो ठीक है! कल का ही प्रोग्राम सही।....लेकिन हन्डे्रड रूपीज हम तीनों को कन्ट्रीब्यूट करना पड़ेगा।“ — शशि बोला था।

”चलो, वह भी कर दूँगा।बस न।“ वैसे हन्ड्रेड की चपत असहनीय जरूर थी श्यामल के लिए, मगर सोसायटी के तकाजे से मुँह भी तो नहीं फेरा जा सकता। अब तो मध्य वर्ग, मध्य—वर्ग रह ही कहाँ गया था। वह तो निम्न वर्ग की श्रेणी से भी निम्न हो गया था। लेकिन रस्सी भले जल जाय, उसकी ऐंठन से निजात पा सकना संभव थोड़े ही था।

तीन बजे के आस—पास सबों की टेबुल पर वेतन का लिफाफा आ गया था। लिफाफे से नोट निकालकर श्यमाल ने गिने थे—पूरे दस हजार सत्तावन रूपये। फिर रूपयों को लिफाफे के हवाले कर पे—रजिस्टर पर दस्तखत कर दिये थे उसने।

अब दफ्तर में उसका मन भला कहाँ लगने वाला था। शशि को संबोधित कर बोला था वह, ”यार कॉमरेड, मुझे आज कुछ आवश्यक काम है। मैं जा रहा हूँ।.......तुम जरा संभाल लेना।“

“हाँ भई, अब तुम कहाँ रुकने वाले।........ठीक है, जाओ। ....लेकिन कल शाम का प्रोग्राम भूलना मत।“

”याद है यार!........ ओ०के० देन!“ — कहता हुआ वह उठ खड़ा हुआ था।

वहाँ से चलकर वह सीधे रूपाली टाकीज पहुँचा था — छः से नौ के दो टिकट लिये थे उसने बालकनी के। फिर रिक्शे से घर की ओर रवाना हुआ था।

रास्ते में फूलों के गजरे की दुकान पर नजर पड़ी थी उसकी। आँखों के सामने अपनी शादी के बाद की अनेकानेक शामें उभर आयी थीं — हर पल शीला की संगीत बिखेरती, चहकती हुई आवाज, बालों में बेला या जूही का गजरा, चेहरे पर कभी न समाप्त होने वाली मोहक—मुस्कान, हर शाम कभी पार्क, कभी झील के किनारे, तो कभी सिनेमा हॉल के माहौल को मादक बनाता हुआ शीला का साथ — जैसे जीवन के सारे सुखों का वही अंत था। ....मगर अब ? .......अब तो वे सब बातें सिर्फ यदा—कदा के सपनों की बातें होकर रह गयी थीं उन दोनों के लिए।

सोचा था श्यामल ने, क्यों न आज की शाम को भी एक यादगार शाम के नाम कर दी जाय।

गजरे की दुकान के सामने रिक्शा रुकवाकर बेले के फूलों का एक खूबसूरत—सा गजरा खरीदा था उसने — पूरे बीस रुपये में।

आज तक शादी के बाद के कुछ दिनों के उन रोमांचक सुबहों को नहीं भूल पाया था वह — हर सुबह बिस्तर पर मुर्झाये, मसले हुए गजरे के फूलों का इधर—उधर बिखरा हुआ अस्तित्व। उसे रोमांच के सैलाब में डुबोता हुआ — सा दृश्य!

हाथ के गजरे को नाक तक लाकर एक जोरदार सूंघ मारी थी उसने। उस समय उसके चेहरे से लग रहा था, जैसे उसका पूरा जीवन ही सुगन्ध से सराबोर हो गया हो।

रिक्शा उसके दरवाजे पर आकर रूक गया था।

जैसे ही वह घर में घुसा, शीला अस्त—व्यस्त हालत में फर्श पर पोंछा लगाती नजर आयी थी उसे।

श्यामल पर नजर पड़ते ही पोंछा लगाना छोड़कर वह उसके करीब आ खड़ी होते हुए बोली थी, ”वेतन मिल गया ?“

”हाँ मिल गया।“ — श्यामल को शीला का यह व्यवहार बिल्कुल भी नहीं रूचा था। अभी तो आकर ढंग से दो—एक साँसें भी नहीं ली थी उसने कि.........

”तो ऐसा करो, दो हजार रुपये जल्दी से निकालो। .....अभी सक्सेना की मिसेज के मुँह पर मार आती हूँ। दोपहर से तीन बार तगादे पर आ चुकी हैं।..... न्न, अब चाहे घर में किसी की मौत ही क्यों न हो जाय, मगर मिसेज सक्सेना से तो मैं एक अधेली भी कर्ज न लूँ।...... उनसे कर्ज क्या लिया, लगता है, घर छोड़कर ही भागी जा रही हूँ।”

मन खट्टा हो गया था श्यामल का। कर्ज लिया था, तो देना तो था ही, मगर घर में पैर रखने के साथ ही......। अप्रत्याशित ही था न यह उसके लिए! बुझे मन से बोला था, ”हाँ, हाँ, कर्ज लिया है, तो अभी दूँ या कल, बात तो एक ही है न!...... तुम ऐसा करो कि रुपये देकर फौरन वापस आ जाओ, फिर फटाफट तैयार हो जाओ। सिनेमा चलना है। मैं टिकट ले आया हूँ।“

“सिनेमा ? ....यह बेमौसम की शहनाई किसलिए ? आँ? .... फिजूल पन्द्रह बीस रुपये.....“

”बस—बस, रहने दो। ...... जब देखो, तब पैसा—पैसा! .....तुम्हें तो कहीं एकाउण्टेण्ट होना चाहिए था......“

”मगर तुम समझते क्यों.....“

बीच में ही बात काटकर बोल पड़ा था श्यामल — ”कहा न! .....लो, ये दो हजार पकड़ो और जाकर दे आओ। और फटाफट तैयार हो जाओ।“

“मगर खाना—वाना.....“

”अरे मैडम, .....हमलोग उधर ही कुछ खा लेंगे और बच्चों के लिए समोसे—वमोसे ले लेंगे।“

”देखो, इसमें काफी खर्च आ जायेगा। ....अभी तो चार ही बजे हैं। मिसेज सक्सेना के यहाँ से लौटकर मैं घंटे—भर में रोटी और आलू की भांजी बना देती हूँ। फिजूलखर्ची से भला क्या फायदा! अभी तो पूरा महीना सिर पर है.....“

”ठीक है, जैसा उचित समझो, करो! ....मगर जरा जल्दी।“

जब तक मिसेज सक्सेना के यहाँ से शीला लौटी थी, बच्चे भी स्कूल से वापस आ गये थे।

आते ही शीला किचन में घुस गयी थी और रोटी भांजी बनाने में व्यस्त।

बच्चों को भी मम्मी—पापा के सिनेमा जाने वाली बात मालूम हो गयी थी। दीपू और बेबी तो खैर शांत रहे थे, मगर निन्नी ने रो—रोकर पूरा घर सिर पर उठा लिया था। आखिर मिठाई का लालच दिया गया था उसे, तब जाकर शांत हुई थी वह।

जब किचन और बच्चों से निपटकर शीला तैयार हो रही थी, श्यामल ने गजरा उसे थमा दिया था।

श्यामल की ओर देखकर बोली थी शीला, ”अब, यह क्या? यह गजरा लाने की क्या आवश्यकता थी भला! ..... पन्द्रह—बीस रुपये से कम भला क्या लगे होंगे। ... और फिर अब इस उम्र में ......।“

”उफ्फोह ! ......जब देखो, तब झिकझिक। ..... कभी तो मेरी भावनाओं का भी ख्याल रखा करो। ......आखिर हुआ क्या है तुम्हारी उम्र को ? तीस—बत्तीस की उम्र, कोई बुढ़ापे की उम्र तो नहीं होती।“

शीला ने एक नजर श्यामल को देखा था, फिर अपने बालों में गजरा गूँथने लग गयी थी।

श्यामल टकटकी साधे शीला को देखता ही रह गया था। ऐसी दृष्टि से, जैसे इसके पूर्व शीला इतनी आकर्षक उसे कभी नहीं लगी थी।

सिनेमा देखकर दोनों प्रफुल्ल मन से घर वापस आये थे।

चेंज करने के ख्याल से अभी शीला ने अपनी पुरानी वाली साड़ी अलगनी से उतारी ही थी कि उसे रोकता हुआ श्यामल बोल पड़ा था, ”नहीं शीला, आज भर ऐसी ही सँवरी रही। कल चेंज कर लेना।“

”मगर तुम जानते नहीं श्यामल, यह साड़ी साउथ—सिल्क की है। यही तो एकमात्र साड़ी है मेरे पास बाहर आने—जाने के लिए। एक दूसरी थी भी, उसे तो ननद जी को विदाई में देनी पड़ गयी। अब यह भी क्रपूड हो गयी, तो झूठ—मूठ तीस रुपये ड्राइ—क्लिनर को देने पड़ेंगे। घर में तो यह साफ होने से रही। जरी वाली है न।“

”ओह!..... प्लीज शीला !.... बस आज—भर। इसके बाद मैं कभी नहीं कहूँगा। ....और वादा रहा, मैं ड्राइ—क्लिीनिंग भी करवा दूँगा।“

श्यामल की बात से शीला के गाल हल्के सुर्ख हो उठे थे। मुस्कुराती हुई बोली थी, ”तुम तो श्यामल, बिल्कुल बच्चों जैसी जिद ठान लेते हो कभी—कभी। लो, नहीं चेंज करती!.... बस्स!“

बच्चे अभी तक जाग ही रहे थे। उन्हें खिला—पिला कर शीला ने उनके सोने वाले कमरे में भेज दिया था। फिर श्यामल और स्वयं के लिए भी एक ही थाल में खाना परोसकर अपने सोने वाले कमरे में ही ले आयी थी।

खाने—पीने के बाद श्यामल अभी बिस्तर पर लेटने की सोच ही रहा था कि शीला ने कहा था, ”जरा एक मिनट, मैंने खर्चे का जो हिसाब बनाया है, उसे देख नहीं लोगे ?“

”अच्छा बाबा, लाओ, देख लेता हूँ।“ — बेमन से ही कहा था श्यामल ने।

उठकर एक कॉपी ले आयी थी शीला। उसके एक पन्ने को खोल श्यामल के सामने रख दिया था उसने।

न चाहते हुए भी श्यामल को कॉपी के उस पृष्ठ पर आँखें टिकानी ही पड़ी थीं —

राशन ......................................................................3000.00

मकान किराया ......................................................2000.00

मिसेज सक्सेना (कर्ज) .......................................... 2000.00

दूध वाला .................................................................... 480.00

बिजली बिल ............................................................... 120.00

तीनों बच्चों की स्कूल फी ........................................ 900.00

कुकींग गैस ................................................................. 350.00

कुल 8850.00

शीला के द्वारा प्रस्तुत किये गये महीने—भर के खर्च के हिसाब ने श्यामल के बने—बनाये मूड को चौपट करके रख दिया था। दो हजार रुपये मिसेज सक्सेना को देने और एक सौ दस रुपये सिनेमा वगैरह में खर्च करने के बाद उसके पास अब सिर्फ एक हजार सत्तानवे रुपये बच रहे थे। यानी इतने में ही महीने भर की सब्जी—भांजी और उसका अपना पॉकेट खर्च।

भन्ना कर श्यामल ने कॉपी बंद कर दी थी। फिर बोला था शीला से, ‘यह हिसाब—किताब कल नहीं हो सकता था ? ..... खैर, रखो इसे। आज हिसाब—किताब को मारो गोली और आओ इधर।'

कोई दूसरा दिन होता, तो इतनी—सी बात पर श्यामल ने आकाश उठा लिया होता सिर पर, मगर आज तो वह कुछ दूसरे ही मूड में था। आज शीला उसे बेहद खूबसूरत लग रही थी। बिल्कुल शादी के समय वाली शीला की तरह। उसमें एक अजीब किस्म का सम्मोहन महसूस कर रहा था वह, जिससे मुक्त हो पाना असंभवप्राय—सा लग रहा था उसे।

कॉपी को वहाँ से उठाकर रख आयी थी शीला। फिर उसकी बगल में लेट गयी थी।

श्यामल उसकी ओर करवट फेरकर एकटक उसे निहारता ही जा रहा था — जैसे इस एक रात में ही शीला के चेहरे के सारे सौंदर्य को अपनी आँखों से पी—पीकर उम्र—भर के लिए तृप्त हो लेना चाह रहा हो वह।

शर्म से शीला का चेहरा हल्का गुलाबी हो आया था। अपने आपमें ही लाजवन्ती हुई जा रही थी वह। बोली थी, ”बिजली ऑफ कर दूँ।“

”नहीं शीला, आज पता नहीं क्यों, तुम्हें खूब—खूब निहारते रहने का मन कर रहा है। अपलक! सारी रात!“

“धत्‌! ....... कई बच्चों के पिता हो गये हो, मगर शरारत वैसी की वैसी ही!.... भई, मुझे तो शर्म आ रही है। मैं तो.......“ — इसके साथ ही उसने उठकर चौकी के साथ ही सटी दीवार पर लगे स्विच बोर्ड से बिजली ऑफ कर दी थी। इसके बाद फिर से श्यामल की बगल में लेट गयी थी वह।

कमरे में घुप्प अंधकार व्याप गया था। वातावरण बिल्कुल निस्तब्ध! ....सिर्फ दोनों की साँसों और कपड़ों की सरसराहट के अलावा कोई हल्की—सी ध्वनि भी नहीं।

श्यामल को लग रहा था, जैसे उसकी शिराओं में अपनी पूरी गति से दौड़ता हुआ लहू, आहिस्ते—आहिस्ते खौलते हुए पिघले लावा में परिणत होता जा रहा हो। हाथ बढ़ाकर उसने शीला को अपने करीब खींच लिया था।

साउथ—सिल्क की साड़ी के रेशमी—स्पर्श से उसका रोमांच कई गुणा बढ़ गया था।

अचानक शीला की सहमी—सी आवाज उसके कानों से टकराई थी, ”अरे, हिसाब में एक खर्च तो भूल ही गयी.........“

श्यामल पर तो जैसे शीला की आवाज ने अचानक ही ओले की बारिश शुरू कर दी हो। बिना मौसम के इस बरसात से उसका मन बुरी तरह खीझ उठा था।

लेकिन इस खुशगवार मौसम के लुत्फ को श्यामल यूँ ही हाथ से नहीं जाने देना चाहता था। शीला के मस्तिष्क को मोड़ने की गरज से उसने, उसकी देह को और भी कसकर अपनी देह से भींच लिया था।

मगर शीला तो पत्नी से अधिक एक गृहिणी थी। परिवार के सारे तनावों की एकमात्र भारवाहक ! उसके लिए तो दाम्पत्य—सुख का अर्थ, मात्र घर—गृहस्थी की चिन्ता था और पति से हँस—बोल लेना एक मशीनी—कार्यवाही! सो, भूल ही गयी थी वह कि यह समय हिसाब—किताब का नहीं, बल्कि उनके लिए जीवन के सर्वाधिक रोमांचक क्षणों को बिना किसी जोड़—घटाव के करीने से सजाने का था। जैसे वह वहाँ से पूरी तरह अनुपस्थित हो..... जैसे वसंत का मौसम भी उसके लिए सिर्फ पतझड़ हो, बोली थी वह, ”अभी तीन सौ रुपये तो दीपू के ट्‌यूशन के भी देने हैं।“ — फिर कुछ क्षण मौन रहकर पुनः बोली थी, ”पता नहीं, ये तनाव के दिन कब समाप्त होेंगे। .....होंगे भी या नहीं !.......अभी पूरा महीना सिर पर सवार है और ....“

श्यामल निःशब्द सबकुछ सुनता रहा था। जैसे क्षणांश में ही चेतनाशून्य हो गया हो वह।

शीला की देह के गिर्द उसके हाथ का कसाव ढीला पड़ते—पड़ते एकदम से ढीला पड़ गया था। उसे महसूस हुआ था कि अभी—अभी उसकी शिराओं में जो खौलता हुआ पिघला लावा प्रवाहित हो रहा था, अचानक ही बर्फ के मानिन्द जम गया हो।

शीला को अपनी बाँहों के घेर से पूरी तरह मुक्त करते हुए उसने विपरीत दिशा में करवट फेर ली थी।

कमरे की निस्तब्धता को भंग करती शीला की फुसफुसाहट भरी आवाज पुनः उसके कानों से टकरायी थी, “यह क्या, ....उधर क्यों घूम गये ? ....क्या करूँ, याद आ गयी, तो किससे जाकर कहती। ....अच्छा, अब एक शब्द नहीं बोलूंगी। माफ कर दो मुझे। प्लीज। ...आओ, इधर घूम जाओ।“ — बोलने के साथ ही उसने उसे बाँहों से पकड़ अपनी ओर घुमाने के लिए ताकत लगाना शुरू कर दिया था।

लेकिन श्यामल की शिराओं के जमे हुए बर्फ में एक स्थायी ठहराव—सा आ चुका था। उसका पुनः पिघलकर खौलते हुए लावा में परिणत हो पाना असंभव था अब!

शीला के हाथ को अपने जिस्म पर से जबरन झटककर झुँझलाहट भरे शब्दों में बोला था वह, ”नाउ शट—अप प्लीज एंड लेट मी स्लीप। .....प्लीज शीला, अब और अधिक बोर मत करो।“

कमरे में उतरा हुआ वसंत अपनी उपेक्षा बरदाश्त नहीं कर पाया था शायद। फिर से वातावरण को पतझड़ के सुपुर्द कर अपनी राह वापस चला गया था वह।

डाल से बिछुड़ी सूरजमुखी

सूरज ने उगना नहीं छोड़ा था.... न तो चिड़ियों ने चहचहाना ही, रोज सुबह, अपने ठीक समय पर आ जाती—एक बर्फीले सन्नाटे के साथ.... एक खास किस्म की उदासी लिये। इसके साथ ही वक्त का सफर शुरू हो जाता। फिर शाम उतर आती। उसके बाद मेरे लिए मौत—सी तन्हाई लिए रात... फिर सारी रात को करवटों में किसी—किसी प्रकार झेल लेने के बाद सुबह की रोजवाली उदासी वातावरण पर उतर आती। लगता, किसी खास अपने की मौत का संवाद लेकर आया है सूरज, चहचहायी है चिड़ियां और उतरी है ‘सुबह' मेरे छत पर।

छत पर जाना मैंने बंद तो नहीं किया था, मगर अब वह पहले वाला उत्साह मन में नहीं रह गया था— बस, ‘उसका' मन रख लिया करता था रोज सुबह एक बार छत पर जाकर। जब भी सीढ़ी पर पहला कदम रखता, एक हूक—सी उठने लगती मन में, अजीब बेचैन—सा होने लगता मेरा मन... और छत पर पहुंचने के बाद तो लगता, जैसे छत, अब वह पहले वाली छत रह ही नहीं गयी हो— एक विशालकाय, भयावह, बड़े—बड़े नुकीले दांतोंवाला राक्षस हो गयी हो, जैसे... जैसे अगर मैं तुरंत ही छत से नहीं उतर गया तो चीड़—फाड़ कर रख देगा वह मुझे।

पहले यही छत थी, जहां बिना किसी काम के घंटों अड्डा जमाये रहता करता था। यही छत थी, जो रात की नींद में भी मेरे मन को गुदगुदाये रहती थी। यही छत थी, जिसे मेरे रोज के चौबीस घंटों में से कुछ घंटे निश्चित तौर पर समर्पित रहा करते थे... मगर आज?... आज इसी छत ने मेरे जीवन के तमाम खूबसूरत सपनों, तमाम सुखद अनुभूतियों को लीलकर उन्हें एक बदसूरत— वीरान—सी सच्चाई में बदल दिया था.... एक ऐसी सच्चाई में, जिससे कई—कई गुणा बेहतर, पल भर का ही सही, वह झूठ हो सकता है, जो मन को चैन दे सके।

ऐसी बात नहीं कि शृंखला के प्रति शुरू से ही मेरे मन में कोई ‘सॉफ्ट कॉर्नर था। न...न बिलकुल नहीं। पर अचानक ही, पता नहीं कैसे उसने मेरे मन में एक शीशमहल का निर्माण करना शुरू कर दिया था— एक ऐसे शीशमहल का निर्माण, जो एक कंकड़ के वार से भी चकनाचूर हो सकता था— काश इसका एहसास मुझे शुरू में ही हो गया होता... खैर, यह सब कैसे और क्यों हुआ, मुझे पता नहीं, मगर यह हो गया था— अनजाने, अनचाहे ही।

जनवरी के शुरू के दिन थे। सुबह की धूप कितनी सुखद, कितनी रूमानी हुआ करती है, यह वर्णन से परे है। सो, हर सुबह धूप सेंकने की नीयत से घंटों छत पर कुर्सी लगाकर बैठा मैं कोर्स की किताब, पत्रिका या अखबार में उलझा रहा करता था। उन्हीं दिनों की बात है। अपनी छत के सामाने वाली छत पर अचानक ही मैंने उसे देखा था। अलगनी पर कपड़े पसारते हुए, वह जहाँ कपड़े पसार रही थी, वह उसकी छत पर वाले मकान का पिछला हिस्सा था।

मेरी, उसपर पड़ी वह पहली दृष्टि और उसके बाद की भी लगातार की नजरें, बिलकुल ही सामान्य—सी थीं। सचमुच, मुझे तब कतई पता नहीं था कि देखते ही देखते आगे चलकर मेरी वह सामान्य—सी दृष्टि, कुछ इस कदर विशिष्ट हो जायेगी कि शृंखला की गैरमौजूदगी, मेरे खुद के वजूद पर भी भरोसा नहीं करने देगी। मुझे जैसे उसका न होना, ‘मेरे' न होने के समान ही लगने... बाद के दिनों में तो, जाड़ा हो या गरमी, फुरसत के समय या फुरसत निकालकर मैं अक्सर ही छत पर चला जाया करता लगा था, शृंखला अपनी छत पर होती, तो कनखियों से उसे निहारा करता और अगर न होती, तो उसके इंतजार में समय बिताता।

गरमी की सुबह की धूप में काम से थकी, पसीने से लथपथ उसके श्याम चेहरे को निहारना मुझे बेहद सुकून देता। माथे पर झूल आयी लटों में परेशान—सी, उसे देखना भी मुझे बड़ा अच्छा लगता— इच्छा होती कि काश वह मेरे करीब होती और उसे परेशान कर रही लटों को मैं अपने हाथो से संवार पाता... या फिर जाड़े में सूरज के उगने के साथ ही खुले—भींगे बाल और सलवार—कुर्ती में उसका थरथराते हुए, अलगनी पर अपने गीले कपड़े पसारना, फिर सूरज की आराधना में आंखें बंद किये, हाथ जोड़कर होठ पटपटाना, किसी तपस्विनी का—सा स्वरूप मेरी आंखों के सामने उजागर कर जाता। ऐसे में किसी सम्मोहन—शक्ति के वशीभूत दम साधे उसे देखता ही रह जाता।

शृंखला उस मकान में अपने चाचा—चाची के साथ रहकर अपनी आगे की पढ़ाई करने आयी थी। मकान के निचल—तल्ले में तो मकान मालिक अपने परिवार के साथ रहा करते थे और ऊपरी तल्ले में प्रोफेसर के० सी० प्रसाद... यानी शृंखला के चाचा अपनी पत्नी के साथ।

प्रोफेसर साहब की एक ही लड़की थी, जो दिल्ली के किसी कॉलेज में, हॉस्टल में रहकर पढ़ती थी। पहले शृंखला अपने मां—पापा के साथ अपने कस्बानुमा शहर में रहा करती थी। उसके पिता किसी स्कूल में शिक्षक थे। उस शहर में कोई ढंग का कॉलेज नहीं था शायद, इसीलिए वह चाचा के पास आ गयी थी। उसके पिता की आय भी तो उतनी नहीं थी कि वे प्रोफेसर साहब की हर अपनी बेटी को किसी हॉस्टल में रखकर पढ़ा पाते। वैसे शृंखला के चाचा—चाची उसे पुत्री के समान ही स्नेह दिया करते थे। शृंखला भी उनके स्नेह का भरपूर उत्तर दिया करती थी। चाची के लाख मना करने के बावजूद वह भरसक उन्हें कोई भी काम नहीं करने देती थी। खाना बनाने से लेकर, कपड़ा साफ करने तक, सारा काम वह फुरसत के समय अपने हाथों निपटाती थी। चाची को उससे यह शिकायत भी रहती थी कि वह उनके पास पढ़ने आयी है या घर का काम करने। मगर शृंखला हमेशा उनकी बात को हंसकर टालती हुई कहती, ”वाह चाची, अपने घर में तो मैं चौबीसों घंटें हाथ में मेंहदी लगाये सुखाने में ही व्यस्त रहा करती थी न?”

ये सारी बातें मुझे राकेश से मालूम होती रही थीं। वह प्रोफेसर साहब के मकान मालिक का बेटा था और मेरा दोस्त भी। प्रोफेसर साहब के यहां उसका खूब आना—जाना था।

शृंखला देखने में एक बिलकुल ही सामान्य, सांवली—सी लड़की थी। दूसरी कोेई खास विशेषता भी नहीं थी उसमें। फिर भी कोई न कोई खास बात जरूर थी उसमें, जिसने मेरे मन में कहीं बहुत भीतर तक अपना स्थान सुरक्षित कर लिया था। वह खास बात क्या थी, मैं आज तक नहीं समझ पाया। अगर उस जैसी किसी लड़की से मेरे मां—पापा ने, मेरी शादी की बात चलायी होती, तो एक नजर उस लड़की को देखने के बाद मैं फौरन इनकार कर देता। मगर शृंखला... वह खुद जैसी कोई लड़की, थोड़े ही थी... वह तो ‘खुद' थी— बिना किसी खास रूप—गुण वाली होकर एक विशिष्ट—सी लड़की। तभी तो सुबह से रात तक, कई—कई बार, मात्र उसकी एक झलक के लिए छत पर जाना, उसका इंताजर करना, मेरे जीवन की मूल आवश्यकताओं में से एक बन गयी थी। पहले तो यह सारा—कुछ एकतरफा ही था— सिर्फ मेरी ओर से, मगर इधर कुछ दिनाें से मुझे लगने लगा था कि वह भी छत पर कुछ काम करते हुए मेरी राह देखने लगी थी। इधर कई बार, छत पर जब मैं अचानक ही प्रकट हुआ था, तो टकटकी—साधे उसे अपने छत की ओर निहारते पाया था और जैसे ही उसकी नजर अचानक मुझसे टकरा जाती, शर्म की एक गुलाबी—सी पर्त, अपने चेहरे पर बिखेरती हुई वह कुछ ऐसे सिकुड़— सिमट जाती, मानों लजौनी के पौधे को किसी ने छू दिया हो।

एक दिन की बात तो जब भी याद आती है, मन में टीस उभार जाती है। उस दिन जब मैं छत पर पहुंचा, तो शृंखला अपने छत पर मौजूद नहीं थी। शायद मैं सुबह कुछ जल्दी ही छत पर पहुंच गया था। तत्काल ही मेरे मन में एक शरारत सूझ आयी थी। उस दिन मैं कुर्सी पर न बैठकर छत की चहारदीवारी के पास एक दरी बिछाकर लेट गया था और थोड़ी—थोड़ी देर के अंतराल पर चहारदीवारी में बने छोटे—छोटे छेदों से उसके छत की ओर निहार लेता था।उसके छत पर कोई चहारदीवारी नहीं थी।

वह कुछ गंदे भींगे कपड़ों को लिये छत वाले नल पर आयी थी। आते हुए उसकी आंखें तो मेरी छत पर टिकी थीं, मगर पैर नल की ओर बढ़ते रहे थे। फिर उसके हाथ कपड़े पीटने में व्यस्त हो गये थे और आंखें, अपलक मेरी छत पर टिक गयी थीं।

एक ही कपड़े को वह लगातार पीटे जा रही थी। इस बात से बेफिक्र कि वह कपड़ा साफ हो भी चुका है कि नहीं, क्योंकि उसकी आंखें तो मेरी छत पर किसी को ढूंंढ़ने में व्यस्त थीं। उसके चेहरे से साफ लग रहा था, जैसे मेरी, छत पर अनुपस्थिति उसे परेशान कर रही हो।

मुझे उसका वह परेशान—सा रूप मजा देता रहा था। मगर अचानक ही उसकी हालत पर मुझे तरस हो आयी थी। मन हुआ था कि दोनों छतों के बीच की दूरी को फांद कर समाप्त कर दूं और जाकर करीब खड़ा हो जाऊँ। तब तक उसके करीब खड़ा रहूं, जब तक वह मुझे निहार—निहार कर तृप्त न हो जाये।

झटके से मैं उठ खड़ा हुआ था। अचानक की मेरी उपस्थिति का उसपर अजीब असर हुआ था। कपड़े पीटते उसके हाथ जड़वत हो गये थे और किंकर्तव्यविमूढ़—सी उसकी आंखें मुझपर टिकी रह गयी थीं। मुझे अचानक देखकर शायद वह घबड़ा गयी थी.... या फिर तय नहीं कर पायी थी शायद कि क्या करूँ, क्या न करूंं।

अचानक मैं कांप गया था। उसकी चाची, जाने किधर से निकलकर उसके पीछे आ खड़ी हुई थीं। मैं फिर वहां रुका रहा था। तेजी से चलते हुए सीढ़ियां उतर गया था।

शृंखला से मेरी बातचीत कभी नहीं हुई थी। वैसे आज ही वह उसी रास्ते कॉलेज जाया करती थी, जिस रास्ते मैं। वह इंटर में पढ़ती थी और मैं बी०ए० में।

चाहता, तो रास्ते में रोककर मैं उससे बातचीत कर सकता था... और शायद वह इसका बुरा भी नहीं मानती, मगर मेरे भीतर के छुपे हुए चोर ने मुझे कभी इसकी इजाजत नहीं दी थी। कई बार तो मन में संकल्प लेकर भी वैसा नहीं कर पाया था। हमेशा आस—पास के गुजर रहे लोगों की निगाहों से भय खाकर रह गया था।

उस दिन की घटना के बाद से वह छत पर कम ही दिखाई पड़ने लगी थी। बाद में तो उसका कॉलेज जाना भी बंद हो गया था और वह इंटर की परीक्षा में वयस्त हो गयी थी। लेकिन मेरी दिनचर्या में कोई अंतर नहीं आया था। कई—कई बार छत पर जाना तयशुदा दिनचर्या थी मेरी। छत पर जाना, उसकी प्रतीक्षा करना और निराश लौट आना, फिर बाकी बचे समय को उसकी चिन्ता में घुट—घुट कर बिताना ही मेरे जीवन का एकमात्र उद्देश्य रह गया था।

उसका परीक्षा—फल घोषित हो गया था, राकेश से पता चला कि वह द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हो गयी थी। मन कचोट कर रह गया था मेरा—काश मैं उसे, उसकी इतनी बड़ी खुशी के लिए बधाई के कुछ शब्द.... कुछ तोहफा दे पाता। छत पर कभी कभार वह नजर आयी भी थी, तो क्षण—भर के लिए, किसी काम से... वह भी मेरी ओर से लापरवाह—सी।

अचानक एक दिन राकेश से पता चला था कि शृंखला के मां—पापा आये हैं। पता नहीं क्यों, इस सूचना ने मेरे मन में सूई चुभोनी शुरू कर दी थी। रह—रहकर मुझे लगने लगा था कि कहीं उस दिन वाली घटना ने ही तोउसके मां—पापा को आमंत्रित नहीं कर दिया?... पता नहीं, शृंखला को उस घटना की कौन—सी सजा भुगतनी पड़ रही होगी।

हर—पल अब एक ही बात जेहन में रहती कि काश एक बार भी उससे कहीं एकांत में मुलाकात हो जाती, तो इस बार टोक ही देता उसे, टोककर उसकी परिस्थिति से अवगत हो पाता.... अपने अशांत मन को शांत कर पाता...

लगातार की निराशा ने मन को कुछ इस प्रकार तोड़ कर रख दिया था कि उस दिन चाहकर भी छत पर जाने से कतराता रहा था। कोशिश करता रहा था कि उसके प्रति अपनी सोच को बिसरा ही दूं— जब मंजिल मिलनी है नहीं तो फिर दुर्गम रास्तों के सफर से क्या फायदा?

पर जितना ही यह— सब सोचता, उतनी ही तेजी से शृंखला मेरी चेतना पर अपनी पकड़ मजबूत करती जान पड़ती। आखिरकार मुझे हार स्वीकारनी ही पड़ी। मेरे पैरों ने जबरन मुझे घसीट कर छत पर ला ही खड़ा किया था।

लेकिन छत पर आकर तो मैं हतप्रभ ही रह गया था। अपनी आंखों पर यकीन ही नहीं हुआ था। लगा था, कहीं मृग—मारीचिका का शिकार तो नहीं हो गया।

आशा के विपरीत वह छत पर खड़ी थी। उसके हाव—भाव से लग रहा था, जैसे वह मेरी प्रतीक्षा कर रही हो। वह दोपहर का समय था। चिलचिलाती धूप में, पसीने से लथपथ उसके चेहरे पर परेशानी के लक्षण साफ नजर आ रहे थे। लग रहा था, जैसे देर से खड़ी—खड़ी वह ऊब और निराशा, दोनों ही एक साथ महसूस कर रही हो। मेरी अकस्मात उपस्थिति ने उसे चौंका दिया था। शायद छत पर आने की उसकी उम्मीद धूमिल पड़ती जा रही थी। मेरे वहां प्रकट हो जाने से उसके चेहरे पर राहत का—सा भाव उग आया था।

थोड़ी देर तक वह निःसंकोच—निःशब्द निहारती रही थी मुझे। जैसे बीतं दिनों की पूरी कसर वह कुछ क्षणों में ही पूरी कर लेना चाहती हो... या फिर उम्र—भर के लिए कैद कर लेना चाह रही हो अपनी आंखों में मुझे।

उसकी अपलक उन आंखों का सामना देर तक मैं नहीं कर पाया था। मेरी खुद की ही आंखें झुक गयी थीं। पर मैं भी तो उसे मन—भर नहीं निहार पाया था। पुनः मेरी आंखें ‘ढीठ' की तरह उस पर टिक गयी थीं।

पर वह अधिक देर तक वहां टिकी नहीं रही थी। पत्थर में लिपटे एक पत्र को मेरी ओर फेंक कर वहाँ से भाग खड़ी हुई थी। लिखी थी, ”मेरे माँ—पापा आये हैं। कल मैं उनके साथ जा रही हूँ। अब मैं कभी तुम्हें नहीं देख पाऊँगी। मगर सपन! वादा करो कि रोज तुम अपनी छत पर खड़े होकर इस छत को निहारा करोगे। सच सपन, जब भी इस छत को तुम निहारोगे, मैं जहां भी रहूंगी, मुझे तुम्हारा अंतर्दशन जरूर होगा।

लड़की हूं न!.. समाज की सबसे निरीह जात, जो मुस्कुराना चाहे, तो रोना पड़ता है और रोना चाहे, तो जबरन मुस्कुराना... प्यार करना तो दूर, प्यार करने के संदर्भ में सोचना भी जिसके लिए सामाजिक अपराध माना जाता है..... हमारी नियति यही है सपन!

कल रात, अकेले में मां ने मुझसे पूछा भी था, ”शृंखू! तुम्हारी आंटी जो कह रही है, वह सच है क्या? अगर ऐसा है, तो मुझे बता दे। लड़का मैंने देखा है। अच्छा लगा। मैं लड़के के घर वालों से बातचीत करने की कोशिश करूंगी। उनसे तुम्हारे बी०ए० पास कर जाने तक लड़के को रोक कर रखने की मिन्नत करूंगी।

पर मैंने साफ इनकार कर दिया था। कैसे कहती भला कि यह सब सच है। कभी मेरी तुमसे बात हुई होती तब न? कभी तुमने ही ऐसा कुछ प्रदर्शित किया होता तब न? सिर्फ आंख—मिचौली पर तो भरोसा नहीं किया जा सकता न!... और फिर अगर ऐसा कुछ हुआ भी होता, तो क्या मैं मां के सामने जुबान खोल सकती थी?

खैर, जो हुआ, वह अच्छा हुआ या बुरा, मुझे नहीं मालूम, हां, यह हादसा, मेरे जीवन को कौन सा मोड़ देगा। यह मैं नहीं जानती। यह हादसा ही तो हुआ... मेरे जीवन का सबसे बड़ा हादसा, जिसने मेरी खुशी, सारी अभिलाषाएं मिनटों में मुझसे छीन लीं। अब मेरे जीवन में कुछ भी नहीं है, सिवा इसके कि शृंखला के नाम पर एक जिस्म—भर हूं मैं।

अब बिदा लेती हूं सपन... हमेशा—हमेशा के लिए विदा! जुदाई के इन अंतिम क्षणों में तुम्हारा दर्शन हो गया, मेरा जीवन धन्य हुआ।

आशा है मेरी बातें याद रखोगे और रोज ही अपनी छत से मेरी छत को निहारा करोगे।

तुम्हारी.... बस तुम्हारी ही सूरजमुखी।“

शृंखला के पत्र ने मुझे भीतर तक छीलकर रख दिया था। किसी तीर के सीने में चुभन का—सा असर दिखलाया था पत्र ने। मैं घायल हिरण—सा छटपटा उठा था। मन हुआ था कि स्टेशन पर ही जाकर मिलूं उससे। उसके मां—पापा से उसे मांग लूं। पर ऐसा नहीं कर पाया था। फायदा भी क्या था। जब तक मैं अपने पैरों पर खड़ा नहीं होता, मेरे पापा मेरे रिश्ते के लिए तैयार थोड़े ही होते ? कायर बना मैं, सिर्फ अपने बिस्तर पर तड़पता रह गया था।

वह चली गयी थी। हर सुबह मैं एक बार छत पर जरूर जाता। चिड़ियों की चहचहाहट अपने अंतस में यातना की तरह बर्दास्त करता। साथ ही, मन ही मन रोज उगते सूरज की भर्त्सना करता कि जब सूरजमुखी ने खिलना बंद ही कर दिया था, फिर क्यों उगा करता है सूरज अब भी।

घोंचू

इसमें कतई दो राय नहीं कि अगर मेरे परिवार की आर्थिक हालत ठीक ठाक होती, तो नौकरी—वौकरी के पचड़े में तो बिल्कुल भी नहीं पड़ता मैं। किसी जन—पक्षघर पार्टी का नेता—वेता हो गया होता या फिर समाजसेवी होकर गरीब असहायों की सेवा का संकल्प ले लेता।

मगर क्या करूँ, मेरे पिताश्री ने अपने खून—पसीने की कमायी, मेरी उच्च शिक्षा पर इसलिए तो व्यय नहीं की थी कि मेरी शिक्षा, गरीब—असहायों की खैरात बनकर रह जाय।

फिर भी चाहे जो हो, संकल्प, आखिर संकल्प ही होता है, और जब मैंने सेवा का संकल्प ले ही रखा था, तो वह तो नौकरी में रहकर भी किया जा सकता है। जरूरी नहीं कि इसके लिए समाजसेवी या नेता ही बना जाय।

खैर, शिक्षा प्राप्ति के उपरान्त लगभग तीन—चार वर्षों तक सड़कें नापते रहने तथा इधर—उधर चाय—पान की दुकानों पर मित्रों के बीच जनवादी गप्पें हाँकने, व्यवस्था और सरकार को गलियाते रहने की प्रक्रिया से गुजरते हुए आखिरकार एक बड़े से प्राइवेट—फर्म में मुझे सहायक व्यवस्थापक....... यानी असिस्टेन्ट मैनेजर की नौकरी मिल ही गयी।

मेरी इस सफलता, खास तौर पर बड़े पद की प्राप्ति की सफलता की खुशी, मुझसे कहीं अधिक मेरे पिताश्री को हुई थी। प्रसन्नता के हजारों—हजार फूल अपने चेहरे पर बिखराते हुए बोले थे वे— ”कहा था न, कि बेटा किसका है।..... नौकरी भी मिली तो अफ़सर की.......। वेतन के साथ—साथ ऊपर की आमदनी भी अच्छी खासी कर लेगा, है न प्रकाश।”

आखिर क्या जबाव देता मैं भला? अगर किसी दूसरे ने ऐसी बात कही होती, तो सीधे उसकी बत्तीसी निकाल कर रख देता मैं उसकी हथेली पर कि स्साला, घूसखोर—बेईमान समझता है मुझे। मगर यह मंत्रोच्चार तो मेरे परम—पूज्य पिताश्री के मुंह से हो रहे थे।

मन की खीझ को अपने ही भीतर पीते हुए मैंने किसी—किसी प्रकार मुस्कुरा दिया था।

पिताश्री के मुँह से फिर एक मंत्र उच्चारित हुआ था— ”जा प्रकाश, फिलहाल पाँच रुपये के लड्डू लाकर गृह देवता को तो चढ़ा दे। बाद में जब तेरा वेतन मिलेगा, तब धूम—धाम से सत्यनारायण भगवान की कथा करवायेंगे।”

यह लीजिए , यह दूसरा तमाचा भी झेलिये पिताश्री का। पढ़े—लिखे बुद्धिजीवी के पिता होकर भी ऐसा दकियानूसी विचार ? ........अब गृह देवता पर लड्डू चढ़ाऊँ, सत्यनारायण भगवान की कथा करवाऊँ? .......यानी अपने प्रगतिशील विचारों का जनाजा अपने हाथ से सजाऊं ? .......न्न सचमुच, सठिया गये हैं पिताश्री। खैर, बकते हैं तो बकते रहें वे। मैं नहीं चढ़ाने का प्रसाद—व्रसाद।

नौकरी में अपना कार्यभार संभालने का पहला दिन था मेरा। नया उत्साह, नयी उमंग।

पहले से ही मैंने अफसरशाही के कई किस्से पढ़ और सुन रखे थे, जिसके विरोध में अनेक बार अपने मित्रों को गर्मागर्म भाषाण भी पिला चुका था। स्वाभाविक था कि मैं स्वयं को अपने अधीनस्थों के समक्ष एक ऐसे अफसर के रूप में प्रस्तुत करूं कि अगर किसी आदर्श अफसर की कोई कल्पना हो उनके मन में, तो मेरे रूप में साकार हो जाय।

दफ्तर के कर्मचारियों ने खूब गर्मजोशी से मेरा स्वागत किया था। सभी ने एक साथ दरवाजे पर ही मुझे रिसीव किया था। मेरे स्वागत में, ऑफिस में ही, शाम को एक टी पार्टी की भी व्यवस्था रखी थी उन्होंने।

पहले उन लोगों के साथ मैं मैनेजर के चैम्बर में गया था। पता नहीं क्यों, पहली ही दृष्टि में मैनेजर मुझे कुछ अच्छे से आदमी नहीं लगे थे। वे अफसर हैं, शत—प्रतिशत अफसर। निश्चित ही अफसरशाही की परिभाषा से पूरी तरह लैस।

लेकिन ऐसा लगा क्यों था मुझे, जबकि चैम्बर में मेरे प्रवेश के साथ ही बड़े तपाक से कुर्सी से उठकर, पूरी आत्मीयता के साथ हाथ मिलाया था उन्होंने मुझसे। फिर ठंडा—गरम के लिए भी पूछा था।....... शायद इसलिए कि मेरे साथ आये दफ्तर के अन्य कर्मचारी मुझे चैम्बर के अन्दर भेजकर स्वयं बाहर ही रह गये थे। इसका मतलब तो यही हुआ न कि वे कर्मचारी, मैनेजर के डर से ही बाहर रह गये थे....... यानी कि अफसरशाही के डर से।

मन अजीब कसैला हो गया था मेरा।

'हाँ तो मि० प्रकाश, आपको अगर कोई कठिनाई महसूस हो तो आप मुरली बाबू से मदद ले सकते हैं। वे यहां के हेडक्लर्क हैं और सबसे एक्सपीरियंस्ड भी।' इसके साथ ही उन्होंने बेल का बटन दबाया था।

क्षणांश में ही चपरासी अंदर दाखिल हुआ था — जैसे घंटी उसके दिमाग मेंही फिट हो।

.... ‘जरा मुरली बाबू को बुलाना तो।' —मैनेजर ने आदेश दिया था।

.... ‘जी सर।' इतना बोलकर वह बाहर निकल गया था। मेरे दिमाग में अक्ल की घंटी फिर से टनटना उठी थी—

चमचा!...... इसका मतलब मुरली बाबू निश्चित ही मैनेजर के चमचे होंगे। जहाँ अफसरशाही हो, वहाँ चमचागिरी न हो, यह भी कहीं संभव है। .......न्न, इस मुरली बाबू से मुझे सावधान ही रहना होगा।

मैनेजर की तरह ही मेरा चैम्बर भी वातानुकूलित और सुसज्जित था। चैम्बर के बाहर वर्दीधारी एक चपरासी, हर समय स्टूल पर विराजमान।

शाम को, दफ्तर के बंद होने के पूर्व, बिना मेरे बुलाये ही चपरासी मेरे चैम्बर में दाखिल होकर चुपचाप खड़ा हो गया था।

—‘क्या बात है अमृत .....कोई काम?' —दिन भर में ही मुझे चपरासी का नाम मालूम हो गया था।

—'जी साहब!........ आज तो आपके साथ ही मुझे आपके घर चलना होगा। घर देख लूंगा, तो कल से खुद आ जाऊंगा।' पूरे अदब के साथ सिर झुकाये हुए चपरासी ने कहा था।

—'क्यों ?........ मेरा घर क्यों देखना चाहते हो ? .......और रोज—रोज आने का मतलब ?'

—'जी, सब्जी—सुब्जी, या फिर कुछ सामान—वामान घटा हो घर में, तो लाने के लिए। ......पहले वाले साहब के यहाँ भी तो रोज शाम को दफ्तर से छूटने के बाद मैं ही बाजार का सारा काम किया करता था।“

मस्तिक में अक्ल की घंटी फिर से घनघना उठी थी मेरे, —शोषण।........बेचारा दिन—भर बाल—बच्चों से दूर रहकर दफ्तर में हुक्म—बजाता रहता है। कभी चाय, तो कभी पानी लाने में दिन भर परेशान रहता है। ऊपर से दफ्तर के बाद साहब के घर का काम भी? .........न्न, यह तो सरासर शोषण है। उसकी नियुक्ति दफ्तर के काम के लिए हुई है, साहब—सुबहा की गुलामी खटने के लिए तो नहीं।

पल भर उसके चेहरे को मैं देखता रहा था, जो उस समय जरूरत से ज्यादा मासूम लग रहा था मुझे। उसके प्रति मेरे मन में घोर करुणा का भाव उभर आया था। बोला था मैं, ”नहीं अमृत, तुम घर जाओ। अपने घर के लिए बाजार—वाजार का काम पहले भी मैं किया करता था और अब भी कर लिया करूँगा।“

खुश होने की जगह अमृत का चेहरा अजीब ढंग से उतर गया था। बोला था, ”साहब, आप लोगों की खिदमत करना ही तो मेरा काम है। ......मेरे होते आप बाजार में झोला लेकर दुकान—दुकान घूमते रहें, यह मुझे अच्छा लगेगा?”

”देखो अमृत, मैं तुम्हारे पहले वाले साहबों की तरह नहीं हूँ। तुम्हारी तरह मैं भी हाड़—माँस का इंसान ही हूँ। जब तुम थैला लेकर बाजार में घूम सकते हो, तो मैं क्यों नहीं। ......और फिर तुम्हारी नियुक्ति ऑफिस के लिए हुई है, मेरे घर के लिए नहीं। ........अच्छा अब तुम जाओ।“

मायूस सा चेहरा लिये अमृत चैम्बर से बाहर निकल गया था।

जेठ का महीना अपनी पुरजोर जवानी पर था। बााहर लू और दफ्तर में उमस।

किसी काम से मैं अपने वातानुकूलित चैम्बर से बाहर निकला था। लगा था, जैसे उमस झुलसा कर ही दम लेगी मुझे।

मेरे बाहर निकलने के साथ ही पसीने से लथपथ अमृत अपने स्टूल से उठ खड़ा हुआ था।

अपने चैम्बर के शीतल—वातावरण को लांघकर जैसे ही मैं बाहर निकला, उमस ने पल—भर के लिए ठमका सा दिया था मुझे। खडे़—खडे़ मैंने पूरे ऑफिस का मुआयना किया था।

—सारे कर्मचारियों के सिर के ऊपर पंखे अपनी पूरी गति से नाच रहे थे। सिर्फ मेरा चपरासी अमृत और मैनेजर का चपरासी धनश्याम पसीने से लथपथ था।

—'घनश्याम के बारे में तो खैर मैनेजर को सोचना चाहिए, मगर अमृत के बारे में तो मुझे ही सोचना होगा।' —मेरे जनपक्षधर मस्तिष्क ने मुझसे कहा था।

तत्काल ही मैंने अमृत से कहा था, ”देखो अमृत, बाहर काफी उमस है। कैसे पसीने से लथपथ हो रहे हो तुम। .......आज से ऐसा करो कि तुम मेरे चैम्बर के भीतर ही दरवाजे के पास अपना स्टूल लगा लो। उमस से बचे रहोगे।“

—”मगर साहब.......”

—”अब अगर—मगर कुछ नहीं। कोई मुझसे मिलने आयेगा, तो बाहर से दस्तक देगा। फिर बाहर निकलकर उसे अटेण्ड कर लेना।”

—”जी साब.....” —पुनः कुछ कह पाने की हिम्मत अपने भीतर जुटाता ही रह गया था बेचारा, मगर साहब तो आगे बढ़ गये थे।

चैम्बर के दरवाजे पर दस्तक हुई थी।

चपरासी ने उठकर दरवाजा खोल दिया था।

सामने अखिल खड़े थे। बोले थे, ”मे आइ कम—इन सर।”

—”आइये मि० अखिल! .....भई आप हमारी कम्पनी के रेस्पॉन्सिबल स्टॉफ हैं। आप तो बिना इजाजत लिए भी आ सकते हैं। ......आइए बैठिए।”

अखिल कुर्सी पर बैठ गये थे। वे कम्पनी के कॉरेस्पाेंडेंस क्लर्क हैं। सारे इम्पार्टेन्ट कॉरेस्पोंडेस उन्हें ही करने होते है। इसीलिए अक्सर वे शाम देर तक अपनी कुर्सी से चिपके रहते हैं।

—”अच्छा, कहिये, क्या काम है?“

—”सर मेरे ससुर की बरषी है। उसमें मेरा उपस्थित होना अनिवार्य है, सर।”

—”फिर दिक्कत क्या है?”

—”वो...... मुरली बाबू मेरे एप्लीकेशन को फॉरवर्ड ही नहीं कर रहे।”

—”क्यों भई, आपके ससुर की बरषी है, तो वे भला क्यों फॉरवर्ड नहीं करेंगे। ...... आप ठहरिये, मैं उन्हें बुलाकर पूछता हूँ।...... अमृत, जरा मूरली बाबू को बुलाना तो।”

थोड़ी ही देर में मुरली बाबू मेरे सामने थे। मन में एक शब्द घुमड़ उठा था— 'चमचा।'

”क्यों भई मुरली बाबू! ......आप मि० अखिल के एप्लीकेशन को फॉरवर्ड क्यों नहीं करते।.... भई इनके ससुर की.......“

बीच में ही बात काटकर मुरली बाबू बोले थे, ”सर, आप इन्हें नहीं जानते। साल में चार बार तो इनके ससुर मरते हैं और कम से कम दो बार उनकी बरषी भी होती है। इतना ही नहीं, अब तक इन्होंने अपनी कम से कम दो दर्जन बहनों की शादी भी करवायी है। ......अब ऐसे में.....”

—”बदतमीज़, बीच में ही मेरी बात काटकर बोलने लगा।“ मन में ही भड़ास निकाली थी मैंने।

—मेरे मस्तिष्क ने मुरली बाबू के लिए ‘चमचा‘ के अलावा एक और नाम ‘बदतमीज़‘ भी तत्काल ही मुकर्रर कर लिया था। बोला था मैं, ”मगर मुरली बाबू, इनकी छुट्टी तो बाकी है न?”

—”हाँ, है तो, मगर इधर तीन—चार दिनों में इन्हें कुछ इम्पोर्टन्ट कॉरेस्पोडेंस करने हैं, जो बहुत ही आवश्यक है इसलिए।.....”

—”रहने दीजिए मुरली बाबू, काम तो रोज़ ही रहेगा। इसका अर्थ यह तो नहीं कि आदमी का कोई व्यक्तिगत जीवन ही न हो। भई, बरषी किसी बदकिस्मत को ही आमंत्रित करती है। ऐसे दुखद अवसर पर तो आपको सिम्पैथी से काम लेना चाहिए और आप.......। जाइये, इनके एप्लीकेशन को फॉरवर्ड करके भेज दीजिए मेरे पास और इनके जिम्मे का काम मि० सुधीर को समझा दीजिए।”

मुरली बाबू चले गये थे। थोड़ी देर में एप्लीकेशन फॉरवर्ड कर खुद ही लेकर मेरे पास आये थे। इस बीच अखिल मेरे ही पास बैठे रहकर मुझ पर थैंक्यू, धन्यवाद और आभार जैसे शब्दों की बौछार करते रहे थे।

मि० अखिल तो खुशी—खुशी चले गये थे, मगर थोड़ी ही देर में मि० सुधीर मेरे चैम्बर में आये थे। बदहवास से बोले थे, ”सर........। इसके आगे वे कुछ न बोलकर चुपचाप खड़े रहे थे।

—”मि० सुधीर, एनी प्रॉब्लम?”

—”सर....... वो अखिल को आपने छुट्टी दे दी है, सर और उनका काम मेरे जिम्मे......

—”हाँ, वह तो है। .......असल में उनके ससुर की बरषी है न।‘

—”लेकिन सर, मुझे भी छुट्टी चाहिए कल से। .....मुझे लड़का हुआ है सर.....”

—”वेरी नाइस। .......मेनी—मेनी कांग्रेचुलेशन मि० सुधीर।”

—”थैंक्यू सर...लेकिन मेरी वाइफ अपने मैके में है। मेरा वहाँ जाना जरूरी है, पर मुरली बाबू.....”

—'सचमुच, मि० सुधीर का जाना तो एसेंशियल है। किसी के सेंटीमेंट को तो एक्सप्लाइट नहीं ही किया जाना चाहिए।' —मेरे मन ने कहा था। फिर मैंने मि० सुधीर को संबोधित किया था, ”डोन्ट वोरी मि० सुधीर।......आप मुरली बाबू को मेरे पास भेज दें।”

थोड़ी देर में मुरली बाबू मेरे सामने बैठे थे। खीझ का भाव उनके चेहरे पर था और उनके होठ कुछ बक रहे थे, ”ऐसे में तो सर, यह आफिस कैसे चलेगा? .......और जो वे इम्पोर्टेंट कॉरेस्पोंडेन्स हैं वह कौन करेगा?”

यह तो सचमुच गम्भीर बात थी। दोनों ही चले गये, तो इतना एसेन्शियल काम फिर कैसे होगा! लेकिन छुट्टी की मजबूरी तो दोनों को ही है।

अचानक ही मेरे मस्तिष्क में एक युक्ति सूझी थी— मैं दिन भर बैठा सिर्फ अधीनस्थों पर हुक्म ही तो चलाता रहता हूँ। काम के नाम पर कुछ सिग्नेचर कर दिये, बस्स! ....मैं ही क्यों न यह काम अपने जिम्मे ले लूं।

—”आप निश्चिन्त होकर मि० सुधीर के एप्लीकेशन को फॉरवर्ड कर दें और कॉरेस्पोंडेस वाली फाइल मेरे पास भिजवा दें। मैं कर लूंगा।” .......मैंने पूरा गंभीर होकर कहा था।

—”सर, आप? ”.......मरली बाबू के चेहरे पर हैरत का भाव था।

—”क्यों, मैं नहीं कर सकता? या मुझमें काबलियत नहीं है?”

—”नहीं, नहीं ......ऐसी बात नहीं है सर ......लेकिन आप.....?”

—”अच्छा—अच्छा, अब आप जाइये और फाइल भिजवा दें मेरे पास।”

कुछ ही दिनों में मैं असिस्टण्ट मैनजर की कुर्सी पर बैठा दफ्तर का एक किरानी होकर रह गया था। हर घड़ी कॉरस्पोंडेंस और फाइलों में उलझा हुआ। फिर भी मुझे इस बात का संतोष था कि मेरे अधीनस्थ मुझसे खुश थे और मैं अपने अधीनस्थों के द्वारा अफसरशाही के फतवे से मुक्त। .......सचमुच, आदमी चाहे कहीं भी हो, अगर उसमें आत्मविश्वास हो, तो वह अपने मकसद में सफल होकर ही रहता है।

अक्सर ही मैं अपने अधीनस्थों से पहले ही दफ्तर आ जाया करता हूँ। मुझसे पूर्व सिर्फ मेरा और मैनेजर साहब का चपरासी दफ्तर में मौजूद होता है। दफ्तर की सफाई के लिए।

उस दिन तो अन्य दूसरे दिनों से भी कुछ पहले मैं दफ्तर पहुँच गया था। दरअसल घड़ी बंद हो जाने के कारण समय का सही अंदाजा नहीं मिल पाया था मुझे।

अभी सीढ़ियाँ चढ़कर मैं दफ्तर के हॉल में प्रवेश करने ही वाला था कि हॉल से आते अमृत और घनश्याम के बीच के वार्तालाप को सुनकर मेरे पैर सीढ़ी पर ही ज्यों के त्यों ठिठक गये थे।

—”जानता है घनश्याम, .......यार तेरे तो मजे ही मजे हैं, मगर अपना? ...... अपना तो साला साहब ही ऐसा मिला है कि पूछ मत। साले ने मुझे अंदर ही अपनी आँखों के सामने बिठा रखा है। अब तो तम्बाकू तक खाने पर आफत है। ......और कभी—कभी तो कोई पार्टी वार्टी आ जाती थी, तो बख्शीश भी पाँच—दस मिल जाते थे, लेकिन अब साहब के सामने भला कौन बख्शीश देता है।”.......‘अमृत की आवाज थी वह।

—”हाँ भाई, तेरे साथ तो साहब एकदम से अन्याय कर रहा है। .....खैर ले, बीड़ी पी।”

— ”पहले वाले साहब थे, तो शाम को उनके घर ड्‌यूटी लगती थी। बाजार का काम मैं ही किया करता था। इससे भी दो—चार रुपये की आमदनी हो जाया करती थी रोज। मगर.....”

मुझे लगने लगा था, जैसे मेरे पैरों के नीचे की सीढ़ियाँ डगमगाने लगी हों और अगर थोड़ी देर और वहाँ खड़ा रहा, तो शायद चक्कर खाकर गिर पड़ता वहीं।

उल्टे पैरों से मैं सीढ़ियाँ उतर गया था। मन में यह बात भी थी कि थोड़ी देरे बाद ही आऊंगा, ताकि तत्काल की दफ्तर में मेरी यह उपस्थिति उन्हें सशंकित न कर दे कि मैंने उनकी बात सुन ली है।

पता नहीं क्यों मेरा मन एकान्त तलाशने लगा था। इच्छा हो रही थी कि देर तक कहीं एकान्त मैं बैठकर मैं सोचता रहूँ कि जो कुछ भी मैंने अमृत के साथ किया था, वह उसके प्रति मेरा अन्याय था क्या?

एकान्त के लिए मुझे सबसे उपयुक्त जगह कैन्टिन की केबिन सूझी थी, जहाँ एक कप चाय या कॉफी के साथ घंटों विचारमग्न रहा जा सकता था।

कॉफी का आर्डर देकर मैं कैन्टिन की केबिन में जा बैठा था। मेरा एकान्त भंग न हो, इसलिए एहतियातन मैंने केबिन का पर्दा भी गिरा दिया था।

केबिन में बैठे लगभग आधा घंटा से ऊपर हो गया था मुझे, फिर भी पता नहीं क्यों वहाँ से उठने का मन ही नहीं कर रहा था। अचानक बगल वाली केबिन से कहकहे के बीच उभरती हुई आवाज ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया था, ”यह क्या, ऑफिस का समय हो गया है और तुम यहाँ कैन्टिन में ले आये मुझे।............सुधीर, तुम हमेशा जानबूझ कर दफ्तर में लेट करते हो।”

—”स्नेहा, तुम भी अजीब हो। .....अरे, जब तक अपना वह घोंचू असिस्टेन्ट मैनेजर है यहाँ, हमारा भला कोई क्या बिगाड़ सकता है। चाहे जो हो, है साला माइ डियर.......”

—”हाँ यार, आजकल दफ्तर में बड़ा पोपुलर हो गया है वह। काम—धाम छोड़कर सब उसी की चर्चा करते रहते हैं। यार, चाहे जो हो, है वह बड़ा कॉपरेटिव।”

—”हाँ, सो तो है। ....बेचारा हमें मस्ती करने के लिए छूट दे देता है और खुद रात—रात तक हमारे काम को निपटाता रहता है। रियली, ही इज सो फैन्टास्टिक। .......लेकिन साला इतने बडे़ पोस्ट के लायक तो बिल्कुल नहीं है। .......उस दिन शाम को मैंने देखा, थैला लटकाये बाजार में घूम रहा है।.....”

—”और मजे की बात यह कि अमृत ने खुद कहा था उससे कि बाजार—वाजार के काम के लिए वह शाम को उसके घर चला जाया करेगा, मगर उसने मना कर दिया।” .....सुधीर की बात बीच में ही काट कर स्नेहा बोली थी।

— ”सोचता होगा, खरीददारी करते हुए कुछ पैसे न मार ले अमृत। ........साला कंजूस भी तो शक्ल से ही लगता है।”

—”खैर छोड़ो इस बात को। यह बताओ कि तुमने अपनी माम्मी—पापा से बात चलायी या नहीं?

—”हाँ भई, चलायी भी और वे राजी भी हैं। ......लेकिन एक गड़बड़ है इसमें.....”

—”गड़बड़? .......गड़बड़ क्या ? ......कहीं दहेज—वहेज का चक्कर.......”

—”नहीं यार, ऐसी कोई गड़बड़ नहीं।”

—”फिर ?”

—”अरे गड़बड़ है अपने असिस्टेन्ट मैनेजर की ओर से।......”

—”वह क्या?”

—”अभी कुछ दिनों पहले ही तो मैंने अपने बेटे की छठी के लिये झूठ बोलकर उनसे छुट्टी ली थी। अब शादी के लिए किस मुँह से छुट्टी मांगूँगा भला।”

—”धत। .....तुमने तो मेरी जान ही निकाल दी थी।”

—”फिर भी शादी के लिए छुट्टी लेने का कोई तो बहाना निकालना ही होगा।”

दो मिनट तक चुप्पी छायी रही थी बगल वाली केबिन में। शायद दोनों बहाने के बारे में सोचते रहे थे।

अचानक स्नेहा चहकते हुए बोली थी, ”लो, बहाना मिल गया। देखो, हमारी शादी तुरंत तो होने वाली है नहीं। छः आठ महीने तो लग ही जायेंगे। तुम ऐसा करो कि अपनी काल्पनिक पत्नी को आज कल में मृत घोषित कर दो। भई, जो है ही नहीं, उसे मृत घोषित करने में क्या हर्ज है भला। ......इससे तुम्हें दो फायदे हो जायेंगे। एक तो यह कि पत्नी की अंत्येष्ठि के लिए छुट्टी मिल जायेगी और बाद में शादी के लिए भी।”

—”ओ फैन्टास्टिक स्नेहा। ........रियली, मार्बेलस आइडिया। ......साला घोंचू ......असिस्टैन्ट मैनेजर तो बस इतने से बहाने पर चारों खाने चित हो जायेगा। .....रियली, यू आार ग्रेट। आइ हैव प्राउड ऑफ माइ सेलेक्शन।” इसके साथ ही पूरा वातावरण दोनों के समवेत कहकहे से गुंजायमान हो उठा था।

और मुझे लग रहा था, जैसे वे कहकहे उनके हाथ में लहराते हुए जूते हों, जो दनादन मेरे सिर को गंजा बनाने पर तुले हों।

उसी दिन एक साथ मैंने दो निर्णय लिये थे। पहला तो यह कि मेरा चपरासी अमृत, अब से मेरे चैम्बर के बाहर बैठा करेगा, साथ ही रोज शाम को दफ्तर के बाद वह मेरे घर की सब्जियाँ वगैरह बाजार से लाने के लिए मेरे घर जाया करेगा........ और दूसरा यह कि मैंने मुरली बाबू को बुलाकर साफ—साफ एक फ्रेश हिदायत दी थी कि किसी भी स्टाफ का कोई भी एप्लीकेशन, चाहे वह छुट्टी के लिए हो, अथावा एडवांस वगैरह के लिये, मेरे पास भिजवाने के पूर्व उसपर अपनी उचित टिप्पणी और राय वे अवश्य लिख दिया करें।

दूसरे ही दिन सुधीर का एप्लीकेशन मेरे पास आया था कि उसकी पत्नी का निधन हो गया है और अंत्येष्ठि के लिए उसे छुट्टी चाहिए।

एप्लीकेशन पर मुरली बाबू की टिप्पणी थी— ”श्री सुधीर कुमार सिन्हा ब्याहता हैं, इस बात की जानकारी कार्यालय को नहीं है। अपनी नियुक्ति के समय इन्होंने जो अर्जी भरी थी, उसके कॉलम में 'अनमैरिड' भरा था। बाद में कभी शादी के लिए इन्होंने कोई छुट्टी भी नहीं ली। फिर भी पिछले दिनों इन्होंने अपने पुत्र की छठी के नाम पर छुट्टी ली। अब क्या सच है और क्या झूठ, पहले इस बात का पता लगाया जाना उचित होगा।”

जब एप्लीकेशन मेरे हाथ में आया, तो अनायास ही मेरी इच्छा ठहाका लगाने को हो आयी थी, मगर मैंने सिर्फ मुस्कराहट से काम चला लिया था। फिर कलम उठाकर मैंने उस पर लिखा था.... ”यू आर डायरेक्टेड टू सबमिट द डेथ सर्टिफिकेट ऑफ योर बाइफ, ओनली देन योर लीव विल बी ग्रांटेड। (आपको निर्देश दिया जाता है कि आप अपनी पत्नी का मृत्यु—प्रमाणपत्र जमा करें, सिर्फ तथा आपकी छुट्टी मंजूर हो सकती है।)”

फिर बेल की बटन पर अपनी उंगली टिकाते हुए मैं स्वयं ही बड़बड़ा उठा था....... 'अब पता चलेगा मि० सुधीर कि घोंचू कौन है।'

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