खण्ड काव्य बेटी का यथार्थ
राम गोपाल भावुक
वेदराम राम प्रजापति मनमस्त का खण्ड काव्य बेटी वर्तमान परिवेश में प्रासंगिक विषय पर लिखा खण्ड काव्य है। माँ के आँचल की छाँव में पलता, बढ़ता बचपन जो कल की नई नई लालसायें लिये धरती पर आने को मचल रहा हैं। हमारा समज उसे घरती पर आने से रोकना चाहता है। वह हम सब से क्या कहना चाहता है? इस काव्य संकलन के माध्यम से उसने अपनी पीड़ा हम सब के समक्ष उड़ेली है। उसकी पीड़ा को हम कितना महसूस का पाये हैं, इसके लिए हम इस बेटी संकलन पर दृष्टि डालते हैं।
अपनी राहें में कवि कहता है-
‘आज के इस दौर में, पीछे नहीं है नारियाँ।
आसमाँ तक उड़ने की, उनने करी तैयारियाँ।।
हर गली चौराहें पर हैं, वे खड़ीं संगीन ले
चढ़ गई पर्वत शिखर पर,काट दीं सब झारियाँ।।
चिंतन की ओर एक कदम में कवि स्वीकार करता है-
रोदनों अरु क्रन्दनों का,
वातावरण यह कैसा?
बेटी बचा- बेटी पढ़ा,
कुछ ध्यान तो घरले।
खण्ड काव्य बेटी दो भागों में हमारे सामने हैं। प्रथम भाग में 351 छन्द है तथा दूसरे भाग में 74छन्द ही समाहित किये गये हैं।
कथात्मक शैली में प्रथम छन्द ही देंखें-
माँ उदर में एक प्यारा भू्रण पलता था।
चिन्तनों के ताप तपता ही,सम्भलता था।
उदर से ही देखता था, वह नया जीवन-
इस धरा को देखने, कितना मचलता था।।
जब जब कविता में कथ्य समाहित हो जाता है, वह पाठक को अपनी ओर खीच ही लेता है। वह माँ की बात सुनती है और अपनी बात कहती भी है।
माँ तेरा सारा ही चिन्तन, सुन रही बेटी।
आई उदर के बीच, फिर भी हूँ तेरी बेटी।
वो सभी अवसाद दिल के, भूल जा अब तो-
पाल ले मुझ को निडर हो, कह रही बेटी।।
इस तरह मानव सभ्यता में आ रही दरार को पाटने के लिये प्रष्न- उत्तरों के माध्यम से कथ्य आगे बढ़ता जाता है। पाठक भोगे हुए यथर्थ से रू-ब-रू होते हुए अपने आपको उस कथ्य में खोजने लगता हैं।रचना पढ़ते समय वह अपने आप से प्रष्न करता भी जाता है और रचना के माध्यम से उसके उत्तर भी पाता जाता है।
बेटी जब- जब धरती पर आने के लिये माँ से अनुग्रह करती है तब- तब पाठक अपनी पीड़ा से मन ही मन पष्चाताप भी करने लगता है। यह कहानी किसी एक की न होकर समग्र की होकर जीवन भर के लिये पाठक के मन में बैठ जाती है।
बेटी धरा पर आने के लिये तरह- तरह से माँ को समझाने का प्रयास करती दिखाई देती है।
अमानत मैं तुम्हारी,मुझको प्यार से ले लो-
प्यार में ही पाया मुझको, प्यार नहीं समझी।
वह माँ के तरह तरह से समझाती है-
इस तरह की आज दुनियाँ, सभी तो भयभीत हैं।
समझ में आता नहीं है, कौन किसका मीत है।
है कठिन घर से निकलना,और घर के बीच भी-
न्याय की औकाद ओछी, अन्याय की जीत है।
इस इक्कीसवी सदी में आकर भी उसके साथ समाज न्याय नहीं दे पा रहा है। उसे अपना अस्तित्व कहीं भी सुरक्षित नहीं लग रहा है।
हमारी बहनियाँ भी तो, नहीं देतीं सहारा हैं।
हमार कौम ही ओछी,हमें बदत्तर निहारा है।
अगर ये साथ दें तो,मर्द किस खेत की मूली।
सारा जग अमानत हो, तो सब कुछ हमारा है।
इसीलिये वह इस धरा पर आकर कुछ ऐसा करना चाहती है जिससे बेटी हमेशा हमेशा सुरक्षित रह सके।
पढ़ाना तुमको ही सबको,चुकाओ दयित्व अपना-
ज्ञान का दीपक जला दो, जो प्रकाषों से हो भरा।।
इसा तरह व्यवस्था पर गहरा प्रहार करते हुऐ, उसकी इस धरा पर आने की तीव्र इच्छा है जिससे वह इस धरा पर आकर परम्परा से चली आ रही इस व्यवस्था में परिवर्तन कर सके।
आज इस दौर में भी, पीछे नहीं हैं नारियाँ।
आसमाँ तक पहुँचने की, उनने करी तैयारियाँ।
हर गली चौराहे पर हैं, वे खड़ीं संगीन लेकर-
चढ़ गईं पर्वत सिखर पै मेंट दीं सब झाड़ियाँ।।
और इस प्रथम खण्ड काव्य के अन्तिम पायदान पर कवि ने स्वीकार किया है-
चल रहीं वेधड़क होकर,विश्व के हर पटलपर।
नहीं रहा भय का तकाजा,अब बनाया विष्व घर।
तोड़कर ही पाखण्ड़ी बंधन,मुक्त हो अब चल पड़ीं-
अब रहा नहीं कोई अंतर, कौन है नारी कौन नर।।
इस खण्ड काव्य के माध्यम से कवि ने नारी को जिस रूप में होना चाहिए, पहुँचा दिया है।
इसी के दूसरे भाग में कवि ने इसके प्रथम छन्द में ही-
तेरा चिंतन,माँ जग जाता,
सुनकर लेखनी का अभयगान।
धड़कनें तीब्र गति हो जाती,
इतना नारी का पतन जान।।
महिला दल का अघरू पतनए लेखिनी को भी दर्द बहुत होता।
दर्दों से दर्द भरी कहतीए बहिनों! यह सहन नहीं होता।।
और तब कवि नारियों में स्वाभिमान जगाता दिखाई देता है।
हुंकार भरी है लेखिनी ने जागा है उसका स्वानभिमान।
वह आज छोड़ने खड़ी हुईए लोहित.नौकीले तरल बाण।।
रचनाकार मानता है जब जब नारियों पर अत्याचार हुआ है जब जब कुरुक्षेत्र में युद्ध के बादल छाये हैं।
नर ने धर्म नीति को तज करए द्रोपदि की साड़ी जब खींची।
तब.तब कुरुक्षेत्र हुआ यहां परए चलकर अलीक रेखा खींची।।
रचनाकार बहनों को शिक्षित कर उन्हें जगाना चाहता है-
जागो.जागो! बहिनो अब भीए कर में लेकर शिक्षा मशाल।
घर.घर में बेटीं पढ़ जाएंए पूर्व वत छाए गौरव विशाल।।
बहनों को कवि इतना सशक्त बनाना चहता है कि वे
सब कुछ ही हो तुम तो,
सोचो, तुम सा और नहीं कोई।
इतनी क्यों अबला बनतीं हो,
जागों! जागों! अब क्यों सोई।।
कवि बालिकाओं को शिक्षित कर उन्हें नया जीवन प्रदान करना चाहता है। उन्हें स्वाभिमान से जीना सिखाना चाहता है।
नारियाँ शिक्षित होकर जब आगे बढ़ेगी, तभी समाज सही दिषा में आगे बढ़ सकेगा।
इस कृति की रचनायें गैय तो हैं लेकिन इसका छन्द विधान कवि का अपना है। कृति भाव पूर्ण है। पठनीय तो है ही साथ ही संग्रहणीय भी है। ऐसी कृति के लिये रचनाकार बधाई का पात्र है।
कृति का नाम- बेटी
रचनाकार- वेदराम राम प्रजापति ‘मनमस्त’
प्रकाषक- लोक मित्र प्रकाशन दिल्ली-110032
मूल्य-200रु मात्र
वर्ष-2024
समीक्षक- रामगोपाल भावुक मो0- 9425715707, 8770554097
000सम्पर्क -कमलेष्वर कालोनी (डबरा)
भवभूति नगर जि0 ग्वालियर, म0 प्र0 475100
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