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समाज का सच व्यंग्य गणिका -डॉ0 अवधेश चंसौलिया

पुस्तक समीक्षा समाज का सच व्यंग्य गणिका

पुस्तक : व्यंग्य गणिका काव्य-संकलन

लेखक : रामगोपाल भावुक

पृष्ठ : 104

मूल्य :125 /-

प्रकाशक : रजनी प्रकाशन Delhi 110051

पुस्तक समीक्षा : डॉ0 अवधेश चंसौलिया

हिन्दी साहित्य में व्यंग्य की स्थापना करने वाले श्री हरिशंकर परसाई ने व्यंग्य को विधा न मानते हुए, आत्मा माना है। क्योंकि यह साहित्य की सभी विधाओं में विद्यमान रहता है। वे कहते हैं कि जरूरी नहीं कि व्यंग्य में हंसी आये। यदि वह चेतना को झकझोर दे, विद्रूप को सामने खड़ा कर दे, आत्मसाक्षात्कार करा दे, परिवर्तन के लिये प्रेरित करे तो वह सफल व्यंग्य है। व्यंग्य में जितना व्यापक परिवेश होगा, जितनी गहरी विसंगति होगी और जितनी तिलमिला देने वाली अभिव्यक्ति होगी व्यंग्य उतना ही अधिक सार्थक होगा। व्यंग्य के इन स्थापित मानकों पर ही व्यंग्य साहित्य का मूल्यांकन करना श्रेयकर होगा।

श्री रामगोपाल भावुक का काव्य-संकलन व्यंग्य गणिका इस दृष्टि से महत्वपूर्ण कृति है। छोटी-छोटी‘ 68 रचनाओं से भरपूर यह काव्य संकलन हमारे क्रिया कलापों का दैनिक लेखा-जोखा है। ऐसा लेखा-जोखा जिसमें हमारे समाज की सच्ची तस्वीर भी अंकित है। आज पर्यावरण ही प्रदूषित नहीं है वल्कि हमारे विचार, हमारा चिंतन,खान-पान एवं व्यवहार सभी कुछ प्रदूषित एवं संक्रिमित होगये हैं। हम कहते कुछ हैं और करते कुछ है। व्यक्ति जैसा घर में है वैसा बाहर नहीं है। लोग दोहरे चरित्र जीने में संलग्न हैं। कहने को वे भक्त हैं, सन्यासी हैं, साधु हैं-लेकिन दूसरों की पत्नियों पर डोरे डालने में लगे है।(पृ011) श्री राम ने अपने भाई के लिये सारा राज्य पाट त्याग दिया था लेकिन आपके भक्त अपने-अपने भाइयों की संम्पति को हड़पने में लगे हैं।(पृ011) घर परिवार के सभ्ी सदस्य अपने-अपने स्वार्थ साधने में लिप्त है। पुत्रियाँ अपनी प्रगति में पिता को बाधक पा रहीं हैं। पुत्र की निगाहें अपने पिता के अर्थ से जुड़ी हैं। पिताश्री की अर्थी ही उसकी सगी है।(पृ012) अब तो सभी नए रामराज्य की संकल्पना को संजोने में लगे हैं।(पृ012)आज का राम राज्य, मूल्यों के क्षरण की कोख से जन्म ले रहा है। चारो ओर विसंगतियां ही विसंगतियां है। विदू्रपताओं का शासन है। संस्कृति का हृदय फटा है क्योंकि 15वीं सदी की मानसिकता 21वीं सदी में भी ज्यांे की त्यों है। महाभारत कालीन चाटुकार द्रोणाचार्य आज भी वैसी ही शिक्षा पद्धति को अंगीकार करने में लगे है। लक्ष्यहीन शिक्षा शाश्वत मूल्यों को धता बता रही है। आधुनिक जन-संचार माध्यम लोगों को भ्रमित कर रहे हैं। इनके पास आदमी का कोई व्याकरण नहीं है, फिर भी ये नया व्याकरण बना रहे हैं।(पृ022) यह जो नया व्याकरण है वह गरीबी-अमीरी की खाई को और गहरा कर रहा है। काम चोरी सिखा रहा है। अनाचार अत्याचार फैला रहा है। भ्रष्टाचार को पनपा रहा है। साम्दायिक सौहार्द बिगाड़ रहा है। आतंकबाद को जन्म दे रहा है। बेईमानी,झूठ,फरेब, मक्कारी का जाल बुन रहा है। ऐसा नया व्याकरण जो सामाजिक ताने बाने को नष्ट करने पर तुला है। भावुक जी की समाज की हर गतिविधि को पकड़ने की अपनी विधि है। एक अलग तकनीक है। इस तकनीक में समाज की सूक्ष्म से सूक्ष्म गतिविधि कैद हो जाती है। ऐसा इस संकलन से स्पष्ट है। पूंजीवादी व्यवस्था पर उनका प्रहार अत्यंत कठोर है। यह व्यवस्था गरीब को छल रही है। पूंजी से पूंजी बढ़ रही है। श्रम तिजोरियों में कैद होता जा रहा है। न्याय, नीति ,व्यवस्थ सभी अर्थ वालों के गुलाम है।(पृ035)

वे ऐसी कुव्यवस्था के विनाश हेतु कांति का आह्वान करते हैं। वह उठ खड़ा होता है। शोषकों से जूझने, सहे गये अत्याचारों का हिसाब पूछने। भूख से व्याकुल आदमी तुम्हारे पास आ रहा है। भीख मांगने नहीं अपना हक छीनने।(पृ036) राजा बेटा कविता में आतंकवाद के कारण शहीद हुए बेटे पर गर्व अनुभव करती हुई माँ कहती है-‘ काश! ऐसा ही दूसरा राजा बेटा होता तो उसे भी इसके स्वागत में मातृभूमि पर शहीद होने के लिये अर्पित कर देती।(पृ0101) ऐसी गर्वोक्ति करने वाली माताओं की हमारे देश में कमी नहीं है।

व्यंग्य गणिका ही क्यों? इस शीर्षक के संम्बन्ध में कवि का कहना है कि जिस प्रकार गणिका समाज को संतुलित रखती है, वैसे ही व्यंग्य से समाज को संतुलित रखा जा सकता है।(पृ08) काव्यसंकलन की कुछ ही कविताओं में व्यंग्य का पुट है। जो धार होनी चाहिए वह इस संकलन में यदा कदा ही देखने को मिलती है। यथा-राम के चेहरे पर। रावण का मुखोट चिपका नजर आता है।(पृ09) और रावण राम के अभिनय का अभ्यास करते नजर आते है। आदमी के अपने अन्दर का ऐसा ही आदमी बाहर निकलकर अपना चेहरा इस व्यंग्य गणिका के आइने में निहारता है।(पृ010) यहाँ कवि अपने उद्देश्य को स्पष्ट कर देता है । संग्रह की सभी कविताएं वर्तमान अव्यवस्था एवं अराजकता से त्रस्त दिखाई पड़ती हैं। इस दृष्टि से मोह और आस्थाएं, विद्रोह का शोर, डंगाडोली पालकी, कैसा गांधीवाद, गूंगे लोग, चौसर आतंकवादी, शिकारी, चुनाव, व्यवस्थ की रेल, सास-बहू, भाई और पड़ोसी, भैया तुम लौट चलो, अनुभव की गठरी, अपने तरह की इबारत, कविताएं महत्वपूर्ण हैं। इनमें समाज का बदला हुआ चेहरा ईर्ष्या, द्वेष, पाखण्ड और स्वार्थपरता का सजीव चित्रण पूरी विश्वसनीयता और शिद्दत के साथ रूपायित हुआ है।

कुछ कविताओं की सपाट बयानी यद्यपि ऊपर से कवि की कमजोरी लगती है लेकिन यही कवि की सफलता भी है। संकलन की कविताएं जनवादी सोच पर आधारित हैं। जनवादी कविताओं में जो जुझारूपन और तीखे तेवर होने चाहिए वैसा स्वरूप कविताओं में बहुत कम देखने को मिलता है। फिरभी कुछ कविताएं व्यक्ति को सोचने पर मजबूर अवश्य करती हैं। जैसे- चंद पूंजीवादी लोगों का तंत्र, एक ही मत्र, प्रजातंत्र, सत्ता पाने का एक ही मंत्र, वोट, खरीदा जा रहा है।(पृ037) ये पन्तियां नेता और वोटर दोनों को ही सोचने के लिये विवश करती हैं। इस तरह संग्रह की कविताओं में कवि ने अपने सामाजिक दाइत्वों को बखूबी निभाया है। भावुक जी कवि कृतित्व की अपेक्षा कथाकार रूप में अधिक सफल हैं। वे चीजों को जितनी गहराई से कथाओं में ंविश्लेश्ति कर लेते हैं, उतनी क्षमता कविताओं में नहीं दिखा पाये हैं। प्रतीक, काव्य को शब्द और अर्थ दोनों ही दृष्टि से सशक्त बनाते हैं। संकलन की कविताओं में यदि ऐसा होता तो काव्य सौन्दर्य द्विगुणित हो जाता। भावुक जी जीवन बोध के कवि हैं। इसलिए इनकी कविताओं में सादगी स्वाभाविक है। उनकी यह सादगी सम्प्रषणीयता में विशेष सहायक हुई है। कुल मिलाकर संकलन पठनीय और प्रशंसनीय है। कवि से आगे और भी अपेक्षाएं हैं। समीक्षक-डॉ0 अवधेश चंसौलिया

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